जवाहरलाल नेहरू

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जवाहरलाल नेहरू
पूरा नाम पंडित जवाहरलाल नेहरू
अन्य नाम चाचा नेहरू, पंडित जी
जन्म 14 नवम्बर 1889
जन्म भूमि इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश
मृत्यु 27 मई 1964
मृत्यु स्थान दिल्ली
मृत्यु कारण दिल का दौरा
पति/पत्नी कमला नेहरू
संतान इंदिरा गाँधी
स्मारक शांतिवन, दिल्ली
पार्टी काँग्रेस
पद भारत के प्रधानमंत्री
कार्य काल 15 अगस्त 1947-27 मई 1964
शिक्षा बैरिस्टर
विद्यालय इंग्लैण्ड के हैरो स्कूल, केंब्रिज के ट्रिनिटी कॉलेज
भाषा हिन्दी, अंग्रेज़ी
जेल यात्रा नौ बार जेल यात्रा की
पुरस्कार-उपाधि भारत रत्न सम्मान
विशेष योगदान लेखन, स्वाधीनता सग्राम, भारत के प्रथम प्रधानमंत्री
संबंधित लेख जलियाँवाला बाग़, इंदिरा गाँधी
रचनाएँ विश्व इतिहास की झलक, भारत एक खोज़ आदि
अन्य जानकारी इनका जन्म दिवस 14 नवंबर पूरे देश में बाल दिवस के रूप में मनाया जाता है।

भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू

पंडित जवाहरलाल नेहरू (14 नवम्बर, 1889 - 27 मई, 1964) भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के महान सेनानी एवं स्वतन्त्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री (1947-1964) थे। जवाहर लाल नेहरू, संसदीय सरकार की स्थापना और विदेशी मामलों में 'गुटनिरपेक्ष' नीतियों के लिए विख्यात हुए। 1930 और 1940 के दशक में भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के प्रमुख नेताओं में से वह एक थे।

जन्म

नेहरू कश्मीरी ब्राह्मण परिवार के थे, जो अपनी प्रशासनिक क्षमताओं तथा विद्वत्ता के लिए विख्यात थे और जो 18वीं शताब्दी के आरंभ में इलाहाबाद आ गये थे। इनका जन्म इलाहाबाद में 14 नवम्बर 1889 ई. को हुआ। वे पं. मोतीलाल नेहरू और श्रीमती स्वरूप रानी के एकमात्र पुत्र थे। अपने सभी भाई-बहनों में, जिनमें दो बहनें थीं, जवाहरलाल सबसे बड़े थे। उनकी बहन विजयलक्ष्मी पंडित बाद में संयुक्त राष्ट्र महासभा की पहली महिला अध्यक्ष बनीं।

शिक्षा

उनकी प्रारम्भिक शिक्षा घर पर ही हुई 14 वर्ष की आयु में नेहरू ने घर पर ही कई अंग्रेज़ अध्यापिकाओं और शिक्षकों से शिक्षा प्राप्त की। इनमें से सिर्फ़ एक, फ़र्डिनैंड ब्रुक्स का, जो आधे आयरिश और आधे बेल्जियन अध्यात्मज्ञानी थे, उन पर कुछ प्रभाव पड़ा। जवाहरलाल के एक समादृत भारतीय शिक्षक भी थे, जो उन्हें हिंदी और संस्कृत पढ़ाते थे। 15 वर्ष की उम्र में 1905 में नेहरू एक अग्रणी अंग्रेज़ी विद्यालय इंग्लैण्ड के हैरो स्कूल में भेजे गये। हैरो में दाख़िल हुए, जहाँ वह दो वर्ष तक रहे। नेहरू का शिक्षा काल किसी तरह से असाधारण नहीं था। और हैरो से वह केंब्रिज के ट्रिनिटी कॉलेज गए, जहाँ उन्होंने तीन वर्ष तक अध्ययन करके प्रकृति विज्ञान में स्नातक उपाधि प्राप्त की। उनके विषय रसायनशास्त्र, भूगर्भ विद्या और वनस्पति शास्त्र थे। केंब्रिज छोड़ने के बाद लंदन के इनर टेंपल में दो वर्ष बिताकर उन्होंने वकालत की पढ़ाई की और उनके अपने ही शब्दों में परीक्षा उत्तीर्ण करने में उन्हें 'न कीर्ति, न अपकीर्ति' मिली।

परिवार

इन्हें भी देखें: नेहरू-गाँधी परिवार वृक्ष भारत लौटने के चार वर्ष बाद मार्च 1916 में नेहरू का विवाह कमला कौल के साथ हुआ, जो दिल्ली में बसे कश्मीरी परिवार की थीं। उनकी अकेली संतान इंदिरा प्रियदर्शिनी का जन्म 1917 में हुआ; बाद में वह, विवाहोपरांत नाम 'इंदिरा गांधी', भारत की प्रधानमंत्री बनीं। तथा एक पुत्र प्राप्त हुआ, जिसकी शीघ्र ही मृत्यु हो गयी थी।

बैरिस्टर के रूप में

1912 ई. में वे बैरिस्टर बने और उसी वर्ष भारत लौटकर उन्होंने इलाहाबाद में वकालत प्रारम्भ की। वकालत में उनकी विशेष रूचि न थी और शीघ्र ही वे भारतीय राजनीति में भाग लेने लगे। 1912 ई. में उन्होंने बाँकीपुर (बिहार) में होने वाले भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में प्रतिनिधि के रूप में भाग लिया।

राजनीतिक प्रशिक्षण

जवाहरलाल नेहरू और महात्मा गाँधी
Jawaharlal Nehru and Mahatma Gandhi

भारत लौटने के बाद नेहरू ने पहले वकील के रूप में स्थापित होने का प्रयास किया लेकिन अपने पिता के विपरीत उनकी इस पेशे में कोई ख़ास रुची नहीं थी और उन्हें वकालत और वकीलों का साथ, दोनों ही नापसंद थे। उस समय वह अपनी पीढ़ी के कई अन्य लोगों की भांति भीतर से एक ऐसे राष्ट्रवादी थे, जो अपने देश की आज़ादी के लिए बेताब हो, लेकिन अपने अधिकांश समकालीनों की तरह उसे हासिल करने की ठोस योजनाएं न बना पाया हो।

गाँधी जी से मुलाकात

1916 ई. के लखनऊ अधिवेशन में वे सर्वप्रथम महात्मा गाँधी के सम्पर्क में आये। गांधी उनसे 20 साल बड़े थे। दोनों में से किसी ने भी आरंभ में एक-दूसरे को बहुत प्रभावित नहीं किया। बहरहाल, 1929 में कांग्रेस के ऐतिहासिक लाहौर अधिवेशन का अध्यक्ष चुने जाने तक नेहरू भारतीय राजनीति में अग्रणी भूमिका में नहीं आ पाए थे। इस अधिवेशन में भारत के राजनीतिक लक्ष्य के रूप में संपूर्ण स्वराज्य की घोषणा की गई। उससे पहले मुख्य लक्ष्य औपनिवेशिक स्थिति की माँग था। नेहरू जी के शब्दों में:-

कुटिलता की नीति अन्त में चलकर फ़ायदेमन्द नहीं होती। हो सकता है कि अस्थायी तौर पर इससे कुछ फ़ायदा हो जाए। अगर हम इस देश की ग़रीबी को दूर करेंगे, तो क़ानूनों से नहीं, शोरगुल मचाके नहीं, शिकायत करके नहीं, बल्कि मेहनत करके। एक-एक आदमी बूढ़ा और छोटा, मर्द , औरत और बच्चा मेहनत करेगा। हमारे सामने आराम नहीं है।

समय के साथ-साथ पं. नेहरू की रुचि भारतीय राजनीति में बढ़ती गयी। जलियाँवाला बाग़ हत्याकाण्ड की जाँच में देशबन्धु चितरंजनदास एवं महात्मा गाँधी के सहयोगी रहे और 1921 के असहयोग आन्दोलन में तो महात्मा गाँधी के अत्यधिक निकट सम्पर्क में आ गये। यह सम्बन्ध समय की गति के साथ-साथ दृढ़तर होता गया और उसकी समाप्ति केवल महात्मा गाँधी जी की मृत्यु से ही हुई।

गाँधी जी के अनुयायी के रूप में

नेहरू की आत्मकथा से भारतीय राजनीति में उनकी गहरी रुचि का पता चलता है। उन्हीं दिनों अपने पिता को लिखे गए पत्रों से भारत की स्वतंत्रता में उन दोनों की समान रुचि दिखाई देती है। लेकिन गांधी से मुलाक़ात होने तक पिता और पुत्र में स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए निश्चित योजनाओं का विकास नहीं हुआ था। गांधी ने उन्हें राजनीति में अपना अनुयायी बना लिया। गांधी द्वारा कर्म पर बल दिए जाने के गुण से वह दोनों प्रभावित हुए। महात्मा गांधी का तर्क था कि ग़लती की सिर्फ़ निंदा ही नहीं, बल्कि प्रतिरोध भी किया जाना चाहिए। इससे पहले नेहरू और उनके पिता समकालीन भारतीय राजनीतिज्ञों का तिरस्कार करते थे, जिनका राष्ट्रवाद, कुछ अपवादों को छोड़कर लंबे भाषणों और प्रस्तावों तक सीमित था। गांधी द्वारा ग्रेट ब्रिटेन के ख़िलाफ़ बिना भय या घृणा के लड़ने पर ज़ोर देने से भी जवाहरलाल बहुत प्रभावित हुए।

जेल यात्रा

महात्मा गाँधी, सरदार वल्लभ भाई पटेल और जवाहरलाल नेहरू

कांग्रेस पार्टी के साथ नेहरू का जुड़ाव 1919 में प्रथम विश्व युद्ध के तुरंत बाद आरंभ हुआ। इस काल में राष्ट्रवादी गतिविधियों की लहर ज़ोरों पर थी और अप्रैल 1919 को अमृतसर के नरसंहार के रूप में सरकारी दमन खुलकर सामने आया; स्थानीय ब्रिटिश सेना कमांडर ने अपनी टुकड़ियों को निहत्थे भारतीयों की एक सभा पर गोली चलाने का हुक्म दिया, जिसमें 379 लोग मारे गये और कम से कम 1,200 घायल हुए। नेहरू जी के शब्दों में:-

भारत की सेवा का अर्थ, करोड़ों पीड़ितों की सेवा है। इसका अर्थ दरिद्रता और अज्ञान, और अवसर की विषमता का अन्त करना है। हमारी पीढ़ी के सबसे बड़े आदमी की यह आकांक्षा रही है-कि प्रत्येक आँख के प्रत्येक आँसू को पोंछ दिया जाए। ऐसा करना हमारी शक्ति से बाहर हो सकता है, लेकिन जब तक आँसू हैं और पीड़ा है, तब तक हमारा काम पूरा नहीं होगा।

तीन मूर्ति भवन, जवाहरलाल नेहरू का निवास, दिल्ली
Teen Murti Bhavan, Nehru's Residence

1921 के आख़िर में जब कांग्रेस पार्टी के प्रमुख नेताओं और कार्यकर्ताओं को कुछ प्रांतों में ग़ैर क़ानूनी घोषित कर दिया गया, तब पहली बार नेहरू जेल गये। अगले 24 वर्ष में उन्हें आठ बार बंदी बनाया गया, जिनमें से अंतिम और सबसे लंबा बंदीकाल, लगभग तीन वर्ष का कारावास जून 1945 में समाप्त हुआ। नेहरू ने कुल मिलाकर नौ वर्ष से ज़्यादा समय जेलों में बिताया। अपने स्वभाव के अनुरूप ही उन्होंने अपनी जेल-यात्राओं को असामान्य राजनीतिक गतिविधि वाले जीवन के अंतरालों के रूप में वर्णित किया है।

व्यापक क्षेत्रों की यात्रा

कांग्रेस के साथ उनका राजनीतिक प्रशिक्षण 1919 से 1929 तक चला। 1923 में और फ़िर 1927 में वह दो-दो वर्ष के लिए पार्टी के महासचिव बने। उनकी रुचियों और ज़िम्मेदारियों ने उन्हें भारत के व्यापक क्षेत्रों की यात्रा का अवसर प्रदान किया, विशेषकर उनके गृह प्रदेश संयुक्त प्रांत का, जहाँ उन्हें घोर ग़रीबी और किसानों की बदहाली की पहली झलक मिली और जिसने इन महत्त्वपूर्ण समस्याओं को दूर करने की उनकी मूल योजनाओं को प्रभावित किया। यद्यपि उनका कुछ-कुछ झुकाव समाजवाद की ओर था, लेकिन उनका सुधारवाद किसी निश्चित ढांचे में ढला हुआ नहीं था। 1926-27 में उनकी यूरोप तथा सोवियत संघ की यात्रा ने उनके आर्थिक और राजनीतिक चिंतन को पूरी तरह प्रभावित कर दिया। नेहरू जी ने कहा था:-

अन्तर्राष्ट्रीय दृष्टि से, आज का बड़ा सवाल विश्वशान्ति का है। आज हमारे लिए यही विकल्प है कि हम दुनिया को उसके अपने रूप में ही स्वीकार करें। हम देश को इस बात की स्वतन्त्रता देते रहे कि वह अपने ढंग से अपना विकास करे और दूसरों से सीखे, लेकिन दूसरे उस पर अपनी कोई चीज नहीं थोपें। निश्चय ही इसके लिए एक नई मानसिक विधा चाहिए। पंचशील या पाँच सिद्धान्त यही विधा बताते हैं।

मार्क्सवाद और समाजवादी विचारधारा में नेहरू की वास्तविक रुचि इसी यात्रा से पैदा हुई, यद्यपि इससे उनके साम्यवादी सिद्धांतों और व्यवहार के ज्ञान में कोई ख़ास वृद्धि नहीं हुई। बाद में जेल यात्राओं के दौरान उन्हें अधिक गहराई से मार्क्सवाद के अध्ययन का मौक़ा मिला। इसके सिद्धांतों में उनकी रुचि थी, लेकिन इसके कुछ तरीक़ों से विकर्षित होने के कारण वह कार्ल मार्क्स की कृतियों को सारे प्रश्नों का उत्तर देने वाले शास्त्रों के रूप में स्वीकार नहीं कर पाए। फ़िर भी मार्क्सवाद ही उनकी आर्थिक विचारधारा का मानदंड रहा, जिसमें आवश्यकता पड़ने पर भारतीय परिस्थितियों के अनुसार फेरबदल किया गया।

चाचा नेहरू बच्चों के साथ
Jawaharlal Nehru with Childrens

चाचा नेहरू

देशभर में जवाहरलाल नेहरू का जन्मदिन 14 नवंबर बाल दिवस के रूप में मनाया जाता है। नेहरू बच्चों से बेहद प्यार करते थे और यही कारण था कि उन्हें प्यार से चाचा नेहरू बुलाया जाता था। एक बार चाचा नेहरू से मिलने एक सज्जन आए। बातचीत के दौरान उन्होंने नेहरू जी से पूछा, "पंडित जी, आप सत्तर साल के हो गये हैं, लेकिन फिर भी हमेशा बच्चों की तरह तरोताज़ा दिखते हैं, जबकि आपसे छोटा होते हुए भी मैं बूढ़ा दिखता हूँ।" नेहरू जी ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया, "इसके तीन कारण हैं।

  1. मैं बच्चों को बहुत प्यार करता हूँ। उनके साथ खेलने की कोशिश करता हूँ, इससे मैं अपने आपको उनको जैसा ही महसूस करता हूँ।
  2. मैं प्रकृति प्रेमी हूँ, और पेड़-पौधों, पक्षी, पहाड़, नदी, झरनों, चाँद, सितारों से बहुत प्यार करता हूँ। मैं इनके साथ में जीता हूँ, जिससे यह मुझे तरोताज़ा रखते हैं।
  3. अधिकांश लोग सदैव छोटी-छोटी बातों में उलझे रहते हैं और उसके बारे में सोच-सोचकर दिमाग़ ख़राब करते हैं। मेरा नज़रिया अलग है और मुझ पर छोटी-छोटी बातों का कोई असर नहीं होता।" यह कहकर नेहरू जी बच्चों की तरह खिलखिलाकर हंस पड़े।

राधाकृष्णन के शब्दों में

'जवाहर लाल नेहरू हमारी पीढ़ी के एक महानतम व्यक्ति थे। वह एक ऐसे अद्वितीय राजनीतिज्ञ थे, जिनकी मानव-मुक्ति के प्रति सेवाएं चिरस्मरणीय रहेंगी। स्वाधीनता-संग्राम के योद्धा के रूप में वह यशस्वी थे और आधुनिक भारत के निर्माण के लिए उनका अंशदान अभूतपूर्व था।'

अखिल भारतीय कांग्रेस समिति

वह महात्मा गांधी के कंधे से कंधा मिलाकर अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ लड़े। चाहे असहयोग आंदोलन की बात हो या फिर नमक सत्याग्रह या फिर 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन की बात हो उन्होंने गांधी जी के हर आंदोलन में बढ़-चढ़ कर भाग लिया। मलिक ने बताया कि नेहरू की विश्व के बारे में जानकारी से गांधी जी काफ़ी प्रभावित थे और इसीलिए आजादी के बाद वह उन्हें प्रधानमंत्री पद पर देखना चाहते थे। सन् 1920 में उन्होंने उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ ज़िले में पहले किसान मार्च का आयोजन किया। 1923 में वह अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के महासचिव चुने गए।

पहला चुनाव प्रचार

देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का पहला चुनाव प्रचार भी यादगार है। एक कमेंटेटर के मुताबिक कांग्रेस का चुनाव प्रचार केवल नेहरू पर केन्द्रित था। चुनाव में नेहरू ने सड़क, रेल, पानी और हवाई जहाज सभी का सहारा लिया। उन्होंने 25,000 मील की दूरी तय की। 18,000 मील हवाई जहाज से, 5200 मील कार से, 1600 मील ट्रेन से और 90 मील नाव से। चुनाव आयोग के लिए राहत की बात ये थी कि निरक्षरता के बावजूद पूरे देश में 60 प्रतिशत वोटिंग हुई। जबकि पहले लोकसभा चुनावों में कांग्रेस को सबसे ज़्यादा 364 सीटें मिली थी।

भारत की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष

वर्ष घटना क्रम
1889 14 नवंबर जन्म इलाहाबाद उत्तर प्रदेश
1912 इलाहाबाद उच्च न्यायालय की बार की सदस्यता
1916 8 फ़रवरी श्रीमती कमला नेहरू से विवाह
1917 19 नवंबर इंदिरा गांधी का जन्म
1921 पहली बार जेल गये
1923 पिता मोतीलाल नेहरू ने कांग्रेस छोड़ दी।
1924 इलाहाबाद महानगर पालिका के अध्यक्ष बने
1926 यूरोप की यात्रा की
1929 कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गये
1929 कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गये
1931 मोतीलाल नेहरू की मृत्यु
1944 भारत एक खोज पुस्तक लिखी।
1947 भारत के प्रथम प्रधान मंत्री बन।
1948 गांधी जी की हत्या।
1951 पहली पंचवर्षीय योजना लागू की।
1964 27 मई निधन

साइमन कमीशन के विरुद्ध लखनऊ के प्रदर्शन में उन्होंने भाग लिया। एक अहिंसात्मक सत्याग्रही होने पर भी उन्हें पुलिस की लाठियों की गहरी मार सहनी पड़ी। 1928 ई. में वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के महामंत्री बने 1929 के लाहौर अधिवेशन के बाद नेहरू देश के बुद्धिजीवियों और युवाओं के नेता के रूप में उभरे। नेहरू जी ने कहा था:-

मेरे विचार में, हम भारतवासियों के लिए- एक विदेशी भाषा को अपनी सरकारी भाषा के रूप में स्वीकारना सरासर अशोभनीय होगा। मैं आपको कह सकता हूँ कि बहुत बार जब हम लोग विदेशों में जाते हैं, और हमें अपने ही देशवासियों से अंग्रेज़ी में बातचीत करनी पड़ती है, तो मुझे कितना बुरा लगता है। लोगों को बहुत ताज्जुब होता है, और वे हमसे पूछते हैं कि हमारी कोई भाषा नहीं है? हमें विदेशी भाषा में क्यों बोलना पड़ता हैं?

यह सोचकर कि उस समय अतिवादी वामपंथी धारा की ओर आकर्षित हो रहे युवाओं को नेहरू कांग्रेस आंदोलन की मुख्यधारा में शामिल कर सकेंगे, गांधी ने बुद्धिमानीपूर्वक कुछ वरिष्ठ नेताओं को अनदेखा करते हुए उन्हें कांग्रेस पार्टी का अध्यक्ष बना दिया। महात्मा का यह आकलन भी सही था कि इस अतिरिक्त ज़िम्मेदारी के साथ नेहरू भी मध्यम मार्ग पर क़ायम रहेंगे।

राजनीतिक उत्तराधिकारी के रूप में

1931 में पिता की मृत्यु के बाद जवाहरलाल कांग्रेस की केंद्रीय परिषद में शामिल हो गए और महात्मा के अंतरंग बन गए। यद्यपि 1942 तक गांधी ने आधिकारिक रूप से उन्हें अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी घोषित नहीं किया था, पर 1930 के दशक के मध्य में ही देश को गांधी जी के स्वाभाविक उत्तराधिकारी के रूप में नेहरू दिखाई देने लगे थे। मार्च 1931 में महात्मा और ब्रिटिश वाइसरॉय लॉर्ड इरविन (बाद में लॉर्ड हैलिफ़ैक्स) के बीच हुए गांधी-इरविन समझौते से भारत के दो प्रमुख नेताओं के बीच समझौते का आभास मिलने लगा। इसने एक साल पहले शुरू किए गए गांधी के प्रभावशाली सविनय अवज्ञा आंदोलन को तेज़ी प्रदान की, जिसके दौरान नेहरू को गिरफ़्तार किया गया।

गोलमेज़ सम्मेलन

यह आशा कि गांधी-इरविन समझौता भारत और ब्रिटेन के संबंधों में शांति का पूर्वाभास साबित होगा, साकार नहीं हुई; लॉर्ड वैलिंगडन (जिन्होंने वाइसरॉय के रूप में 1931 में लॉर्ड इरविन का स्थान लिया) ने दूसरे गोलमेज़ सम्मेलन के बाद लंदन से स्वदेश लौटने के कुछ ही समय बाद जनवरी 1932 में गांधी को जेल भेज दिया। उन पर फिर से सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू करने के प्रयास का आरोप लगाया गया। नेहरू को भी गितफ़्तार करके दो साल के कारावास की सज़ा दी गई।

प्रांतीय स्वशासन

भारत में स्वशासन की स्थापना की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने के लिए लंदन में हुए गोलमेज़ सम्मेलनों की परिणति अंततः 1935 के गवर्नमेंट ऑफ इंडिया ऐक्ट के रूप में हुई, जिसके तहत भारतीय प्रांतों के लोकप्रिय स्वशासी सरकार की प्रणाली प्रदान की गई। आख़िरकार इससे एक संघीय प्रणाली का जन्म हुआ, जिसमें स्वायत्तशासी प्रांत और रजवाड़े शामिल थे। संघ कभी अस्तित्व में नहीं आया, लेकिन प्रांतीय स्वशासन लागू हो गया। नेहरू जी ने कहा था:-

आप में जितना अधिक अनुशासन होगा, आप में उतनी ही आगे बढ़ने की शक्ति होगी। कोई भी देश-जिसमें न तो थोपा गया अनुशासन है, और न आत्मा-अनुशासन-बहुत समय तक नहीं टिक सकता।


जवाहर लाल नेहरू हमारी पीढ़ी के एक महानतम व्यक्ति थे। वह एक ऐसे अद्वितीय राजनीतिज्ञ थे, जिनकी मानव-मुक्ति के प्रति सेवाएं चिरस्मरणीय रहेंगी। स्वाधीनता-संग्राम के योद्धा के रूप में वह यशस्वी थे और आधुनिक भारत के निर्माण के लिए उनका अंशदान अभूतपूर्व था।:- पूर्व राष्ट्रपति डॉ. राधाकृष्णन |} 1930 के दशक के मध्य में नेहरू यूरोप के घटनाक्रम के प्रति ज़्यादा चिंतित थे, जो एक अन्य विश्व युद्ध की ओर बढ़ता प्रतीत हो रहा था। 1936 के आरंभ में वह अपनी बीमार पत्नी के इलाज के लिए यूरोप में थे। इसके कुछ ही समय बाद स्विट्ज़रलैंड के एक सेनीटोरियम में उनकी पत्नी की मृत्यु हो गई। उस समय भी उन्होंने इस बात पर बल दिया कि युद्ध की स्थिति में भारत का स्थान लोकतांत्रिक देशों के साथ होगा, हालांकि वह इस बात पर भी ज़ोर देते थे कि भारत एक स्वतंत्र देशों के रूप में ही ग्रेट ब्रिटेन और फ़्रांस के समर्थन में युद्ध कर सकता है।

कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच विवाद

प्रांतीय स्वायत्तता लागू होने के बाद हुए चुनाव में अधिकांश प्रांतों में कांग्रेस पार्टी सत्तारूढ़ हुई, तो नेहरू दुविधा में पड़ गए। चुनावों में मुहम्मद अली जिन्ना (जो पाकिस्तान के जनक बने) के नेतृत्व में मुस्लिम लीग का प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा। इसलिए कांग्रेस ने अदूरदर्शिता दिखाते हुए कुछ प्रांतों में मुस्लिम लीग और कांग्रेस की गठबंधन सरकार बनाने के जिन्ना के अनुरोध को ठुकरा दिया। इस निर्णय में नेहरू की कोई भूमिका नहीं थी। इसके फलस्वरूप कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच के विवाद ने अंततः हिंदूओं और मुसलमानों के बीच संघर्ष का रूप ले लिया, जिसकी परिणति भारत के विभाजन और पाकिस्तान के गठन के रूप में हुई।

द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान कारावास

जवाहरलाल नेहरू अपनी पत्नी कमला नेहरू और बेटी इंदिरा गाँधी के साथ
Jawahar Lal Nehru with his wife Kamla Nehru And Daughter Indira Gandhi

सितंबर 1939 में द्वितीय विश्व युद्ध छिड़ने के बाद जब वाइसरॉय लॉर्ड लिनलिथगो ने स्वायत्तशासी प्रांतीय मंत्रिमंडलों से परामर्श किए बिना भारत को युद्ध में झोंक दिया, तो इसके विरोध में कांग्रेस पार्टी के आलाकमान ने अपने प्रांतीय मंत्रिमंडल वापस ले लिए। कांग्रेस की इस कार्रवाई से राजनीति का अखाड़ा जिन्ना और मुस्लिम लीग के लिए साफ़ हो गया।

विचारों में मतभेद

युद्ध के बारे में नेहरू के विचार गांधी से भिन्न थे।

  • आरंभ में महात्मा का विचार था कि अंग्रेज़ों को बिना शर्त समर्थन दिया जाए और यह समर्थन अहिंसक होना चाहिए।
  • नेहरू का विचार था कि आक्रमण से प्रतिरक्षा में अहिंसा का कोई स्थान नहीं है और सिर्फ़ एक स्वतंत्र देश के रूप में ही भारत को नाज़ियों के ख़िलाफ़ युद्ध में ग्रेट ब्रिटेन का साथ देना चाहिए। अगर भारत मदद नहीं कर सकता, तो अड़चन भी न डाले।

    'हिन्दी' का मज़हब से कोई सम्बन्ध नहीं, और हिन्दूस्तानी मुसलमान और ईसाई उसी तरह से जिन्दा हैं-जिस तरह कि एक हिन्दू मत का मानने वाला। अमरीका के लोग, जो सभी हिन्दुस्तानियों को 'हिन्दू' कहते हैं, बहुत ग़लती नहीं करते अगर वे 'हिन्दी' शब्द का प्रयोग करें, तो उनका प्रयोग बिल्कुल ठीक होगा। जवाहर लाल नेहरू

अक्तूबर 1940 में महात्मा गाँधी ने अपने मूल विचार से हटकर एक सीमित नागरिक अवज्ञा आंदोलन शुरू करने का फ़ैसला किया, जिसमें भारत की आज़ादी के अग्रणी पक्षधरों को क्रमानुसार हिस्सा लेने के लिए चुना गया था। नेहरू को गिरफ़्तार करके चार वर्ष के कारावास की सज़ा दी गई। एक वर्ष से कुछ अधिक समय तक ज़ेल में रहने के बाद उन्हें अन्य कांग्रेसी क़ैदियों के साथ रिहा कर दिया गया। इसके तीन दिन बाद हवाई में पर्ल हारबर पर बमबारी हुई। 1942 की बसंत ॠतु में, जब जापान ने बर्मा (वर्तमान म्यांमार) के रास्ते भारत की सीमाओं पर हमला किया, तो इस नए सैनिक ख़तरे के मद्देनज़र ब्रिटिश सरकार ने भारत की तरफ़ थोड़ा हाथ बढ़ाने का फ़ैसला किया। प्रधानमंत्री विन्स्टन चर्चिल ने सर स्टेफ़ोर्ड क्रिप्स, जो युद्ध मंत्रिमंडल के सदस्य और राजनीतिक रूप से नेहरू के नज़दीकी तथा जिन्ना के परिचित थे, को संवैधानिक समस्याओं को सुलझाने के प्रस्तावों के साथ भेजा। क्रिप्स का यह अभिमान असफल रहा, क्योंकि गाँधी स्वतंत्रता से कम कुछ भी स्वीकार करने के पक्ष में नहीं थे।

भारत छोड़ो प्रस्ताव

कांग्रेस पार्टी में अब नेतृव्य गाँधी के हाथों में था, जिन्होंने अंग्रेज़ों को भारत छोड़ देने का आह्वान किया, नेहरू हालांकि युद्ध- प्रयत्नों पर प्रश्न उठाने में संकोच कर रहे थे, लेकिन गाँधी का साथ देने के अलावा उनके पास कोई चारा नहीं था। 8 अगस्त 1942 को मुंबई में कांग्रेस पार्टी द्वारा 'भारत छोड़ो' प्रस्ताव पारित करने के बाद गाँधी जी और नेहरू समेत समूची कांग्रेस कार्यकारिणी समिति को गिरफ़्तार करके जेल भेज दिया गया। अपने नौवें और अंतिम कारावास से नेहरू 15 जून 1945 को रिहा हुए।

भारत और पाकिस्तान का विभाजन

दो वर्ष के भीतर भारत को स्वतन्त्र और विभाजित होना था। वाइसरॉय लॉर्ड वेवेल द्वारा कांग्रेस पार्टी और मुस्लिम लीग को साथ लाने की अंतिम कोशिश भी नाक़ाम रही। इस बीच लंदन में युद्ध के दौरान सत्तारूढ़ चर्चिल प्रशासन का स्थान लेबर पार्टी की सरकार ने ले लिया था। उसने अपने पहले कार्य के रूप में भारत में एक कैबिनेट मिशन भेजा और बाद में लॉर्ड वेवेल की जगह लॉर्ड माउंटबेटन को नियुक्त कर दिया। अब प्रश्न भारत की स्वतन्त्रता का नहीं, बल्कि यह था कि इसमें एक ही स्वतंत्र राज्य होगा या एक से अधिक होंगे। जहाँ गाँधी ने विभाजन को स्वीकार करने से इन्कार कर दिया। वहीं नेहरू ने अनिच्छा, लेकिन यथार्थवादिता से मौन सहमति दे दी। 15 अगस्त 1947 को भारत और पाकिस्तान दो अलग-अलग स्वतंत्र देश बने। नेहरू स्वाधीन भारत के पहले प्रधानमंत्री हो गए।

आज़ाद भारत के मुख्य पड़ाव

जवाहरलाल नेहरू, वल्ल्भभाई पटेल और सी.आर.राजगोपालाचारी

ब्रिटिश संसदीय प्रणाली को आधार मान कर बनाए गए भारतीय संविधान के तहत हुआ यह पहला चुनाव था जिसमें जनता ने मतदान के अधिकार का प्रयोग किया। इस चुनाव के समय मतदाताओं की कुल संख्या 17 करोड़ 60 लाख थी जिनमें से 15 फ़ीसदी साक्षर थे। 1952 में पहले आमचुनाव हुए जिसमें कांग्रेस पार्टी भारी बहुमत से सत्ता में आई और पंडित जवाहरलाल नेहरू भारत के पहले प्रधानमंत्री बने। इससे पहले वह 1947 में आज़ादी मिलने के बाद से अंतरिम प्रधानमंत्री थे। संसद की 497 सीटों के साथ-साथ राज्यों कि विधानसभाओं के लिए भी चुनाव हुए। लेकिन जहाँ संसद में कांग्रेस पार्टी को पूर्ण बहुमत हासिल हुआ वहीं कुछ राज्यों में इसे दूसरे दलों से ज़बर्दस्त टक्कर मिली।

कांग्रेस पार्टी बहुमत हासिल करने में इस शहरों चेन्नई, हैदराबाद और त्रावणकोर में विफल रही जहाँ उसे कम्युनिस्ट पार्टी ने कड़ी टक्कर दी। हालाँकि इन चुनावों में हिंदू महासभा और अलगाववादी सिक्ख अकाली पार्टी को मुँह की खानी पड़ी। पहले चुनाव के बाद से ही कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (सीपीआई) ने दक्षिणी राज्यों में जनसमर्थन बढ़ाना शुरू कर दिया जिसके नतीजे 1957 में हुए चुनाव में उसे मिले। त्रावणकोर-कोचिन और मालाबार को मिला कर बने केरल में कम्युनिस्ट पार्टी सत्ता में आई।

राज्यों का पुनर्गठन

नेहरू के समय में एक और अहम फ़ैसला भाषाई आधार पर राज्यों के पुनर्गठन का था। इसके लिए राज्य पुनर्गठन क़ानून (1956) पास किया गया। आज़ादी के बाद भारत में राज्यों की सीमाओं में हुआ यह सबसे बड़ा बदलाव था। इसके तहत 14 राज्यों और छह केंद्र शासित प्रदेशों की स्थापना हुई। इसी क़ानून के तहत केरल और बॉम्बे को राज्य का दर्जा मिला। संविधान में एक नया अनुच्छेद जोड़ा गया जिसके तहत भाषाई अल्पसंख्यकों को उनकी मातृभाषा में शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार मिला।

प्रधानमंत्री के रूप में उपलब्धियाँ

1929 में जब लाहौर अधिवेशन में गांधी ने नेहरू को अध्यक्ष पद के लिए चुना था, तब से 35 वर्षों तक- 1964 में प्रधानमंत्री के पद पर रहते हुए मृत्यु तक, 1962 में चीन से हारने के बावजूद, नेहरू अपने देशवासियों के आदर्श बने रहे। राजनीति के प्रति उनका धर्मनिरपेक्ष रवैया गांधी के धार्मिक और पारंपरिक दृष्टिकोण से भिन्न था। गांधी के विचारों ने उनके जीवनकाल में भारतीय राजनीति को भ्रामक रूप से एक धार्मिक स्वरूप दे दिया था। गांधी धार्मिक रुढ़िवादी प्रतीत होते थे, किन्तु वस्तुतः वह सामाजिक उदारवादी थे, जो हिन्दू धर्म को धर्मनिरपेक्ष बनाने की चेष्ठा कर रहे थे। गांधी और नेहरू के बीच असली विरोध धर्म के प्रति उनके रवैये के कारण नहीं, बल्कि सभ्यता के प्रति रवैये के कारण था। जहाँ नेहरु लगातार आधुनिक संदर्भ में बात करते थे। वहीं गांधी प्राचीन भारत के गौरव पर बल देते थे।

देश के इतिहास में एक ऐसा मौका भी आया था, जब महात्मा गांधी को स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पद के लिए सरदार वल्लभभाई पटेल और जवाहरलाल नेहरू में से किसी एक का चयन करना था। लौह पुरुष के सख्त और बागी तेवर के सामने नेहरू का विनम्र राष्ट्रीय दृष्टिकोण भारी पड़ा और वह न सिर्फ इस पद पर चुने गए, बल्कि उन्हें सबसे लंबे समय तक विश्व के सबसे विशाल लोकतंत्र की बागडोर संभालने का गौरव हासिल भी हुआ।

हिन्दुस्तान एक ख़ूबसूरत औरत नहीं है। नंगे किसान हिन्दुस्तान हैं। वे न तो ख़ूबसूरत हैं, न देखने में अच्छे हैं- क्योंकि ग़रीबी अच्छी चीज नहीं है, वह बुरी चीज है। इसलिए जब आप 'भारतमाता' की जय कहते हैं- तो याद रखिए कि भारत क्या है, और भारत के लोग निहायत बुरी हालत में हैं- चाहे वे किसान हों, मजदूर हों, खुदरा माल बेचने वाले दूकानदार हों, और चाहे हमारे कुछ नौजवान हों। जवाहर लाल नेहरू

भारतीय इतिहास के परिप्रेक्ष्य में नेहरु का महत्व उनके द्वारा आधुनिक जीवन मूल्यों और भारतीय परिस्थतियों के लिए अनुकूलित विचारधाराओं के आयात और प्रसार के कारण है। धर्मनिरपेक्षता और भारत की जातीय तथा धार्मिक विभिन्नताओं के बावजूद देश की मौलिक एकता पर ज़ोर देने के अलावा नेहरु भारत को वैज्ञानिक खोजों और तकनीकी विकास के आधुनिक युग में ले जाने के प्रति भी सचेत थे। साथ ही उन्होंने अपने देशवासियों में निर्धनों तथा अछूतों के प्रति सामाजिक चेतना की ज़रूरत के प्रति जागरुकता पैदा करने और लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति सम्मान पैदा करने का भी कार्य किया। उन्हें अपनी एक उपलब्धि पर विशेष गर्व था कि उन्होंने प्राचीन हिन्दू सिविल कोड में सुधार करके अंततः उत्तराधिकार तथा संपत्ति के मामले में विधवाओं को पुरुषों के बराबर अधिकार प्रदान करवाया।

गुटनिरपेक्ष आंदोलन

मोतीलाल नेहरू (दाएं खड़े) अपने बेटे जवाहरलाल नेहरू, बहू कमला (बीच में) और परिवार के अन्य सदस्यों के साथ

अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर नेहरू का सितारा अक्टूबर 1956 तक बुलंदी पर था। 1956 में सोवियत संघ के ख़िलाफ़़ हंगरी के विद्रोह के दौरान भारत के रवैये के कारण उनके गुटनिरपेक्ष नीति की जमकर आलोचना हुई। संयुक्त राष्ट्र में भारत अकेला ऐसा गुटनिरपेक्ष देश था, जिसने हंगरी पर आक्रमण के मामले में सोवियत संघ के पक्ष में मत दिया। इसके बाद नेहरू को गुटनिरपेक्ष आंदोलन के आह्वान की विश्वनियता साबित करने में काफ़ी मुश्किल हुई। स्वतंत्रता के आरंभिक वर्षों में उपनिवेशवाद का विरोध उनकी विदेश- नीति का मूल आधार था, लेकिन 1961 के गुटनिरपेक्ष देशों के बेलग्रेड सम्मेलन तक नेहरू ने प्रतिउपनिवेशवाद की जगह गुटनिरपेक्षता को सर्वोच्च प्राथमिकता देना शुरू कर दिया था। 1962 में लंबे समय से चले आ रहे सीमा-विवाद के फलस्वरूप चीन ने ब्रह्मपुत्र नदी घाटी पर हमले की चेतावनी दी। नेहरू ने अपनी गुटनिरपेक्ष नीति को ताक पर रखते हुए पश्चिमी देशों से सहायता की मांग की और चीन को पीछे हटाना पड़ा। नेहरू जी ने कहा था:-

संस्कृति का मतलब है- मन और आत्मा की विशालता और व्यापकता। इसका मतलब दिमाग को तंग रखना, या आदमी या मुल्क की भावना को सीमित करना कभी नहीं होता।

कश्मीर, जिस पर भारत और पाकिस्तान, दोनों दावा कर रहे थे, नेहरू के प्रधानमंत्रित्व काल में लगातार एक समस्या बना रहा। संघर्ष विराम रेखा को समायोजित करके इस विवाद को निपटाने की उनकी प्रारंभिक कोशिशें नाकाम रहीं और 1948 में पाकिस्तान ने बलपूर्वक कश्मीर पर क़ब्ज़ा का असफल प्रयास किया। भारत में बचे अंतिम उपनिवेश, पुर्तग़ाली गोवा की समस्या को सुलझाने में नेहरू अधिक भाग्यशाली रहे। यद्यपि दिसंबर 1961 में भारतीय सेनाओं द्वारा इस पर क़ब्ज़ा किए जाने से कई पश्चिमी देशों में नराज़गी पैदा हुई। लेकिन नेहरू की कार्रवाई न्यायसंगत थी। नेहरू जी ने कहा था:-

शिक्षा का उद्देश्य मनुष्य के मन को मुक्त करना है, न कि उसे बाँधे हुए चौखटों में बंद करना है।

अंग्रेज़ों और फ़्रांसीसियों के वापस चले जाने के बाद भारत में पुर्तग़ाली उपनिवेश की उपस्थिती एक कालदोष बनकर रह गई थी। अंग्रेज़ और फ़ांसीसी दोनों शांतिपूर्वक वापस चले गए थे। मगर पुर्तग़ाली जाने के लिए तैयार नहीं थे, तो नेहरू को उन्हें वहाँ से हटाने का तरीक़ा ढूंढ़ना ही था। पहले समझाने-बुझाने की कोशिशें की गईं, फिर अगस्त 1955 में उन्होंने निहत्थे भारतीयों के एक समूह को पुर्तग़ाली क्षेत्र में जाकर अहिंसक प्रदर्शन की अनुमति दी। पुर्तग़ालियों ने प्रदर्शनकारियों पर गोली चलाकर 30 लोगों को मार डाला, लेकिन नेहरू ने छह वर्षों तक कोई क़दम नहीं उठाया और इस बीच पुर्तग़ाल के पश्चिमी मित्रों से यह अपील करते रहे कि वे पुर्तग़ाली सरकार से यह उपनिवेश वापस दिला दें। अंतत: जब भारत ने हमला किया, तो नेहरू का दावा था कि उन्होंने और भारत सरकार ने कभी भी नीति के रूप में अहिंसा के प्रति प्रतिबद्धता नहीं जताई थी।

मंत्रिमंडल का पुनर्गठन

पंडित नेहरू पहले राष्ट्राध्यक्ष थे, जिन्होंने 1963 ई. में रूस, इंग्लैण्ड तथा अमेरिका के बीच आंशिक परमाणविक परीक्षण-निषेध संधि पर हस्ताक्षर किये जाने का स्वागत किया। उपरान्त लोकसभा के कुछ उपचुनावों में कांग्रेसी उम्मीदवारों की विफलता के कारण कांग्रेस दल ने उन्हें सुझाव दिया कि वे अपने मंत्रिमंडल का पुनर्गठन करें, ताकि कांग्रेस के कुछ गण्यमान्य नेता दल को पुनर्गठित करने में अपना पूर्ण समय दे सकें। पंडित नेहरू ने अपने मंत्रिमंडल के सदस्यों की संख्या कम कर दी और श्री मोरार जी देसाई तथा श्री पाटिल सरीखे अपने पुराने सहयोगियों का त्यागपतत्र स्वीकार कर लिया। साथ ही उन्होंने एक छोटे तथा ठोस मंत्रीमंडल का गठन किया। जनवरी 1964 ई. में जब वे भुवनेश्वर कांग्रेस अधिवेशन में भाग ले रहे थे, तभी वे गंभीर रूप से अस्वस्थ हो गये। यद्यपि कुछ दिनों के लिए उनके स्वास्थ्य में थोड़ा सुधार अवश्य हुआ।

भारत-चीन युद्ध

हिंदी-चीनी भाई-भाई का नारा उस समय बेमानी साबित हो गया जब सीमा विवाद को लेकर 10 अक्तूबर 1962 को चीनी सेना ने लद्दाख़ और नेफ़ा में भारतीय चौकियों पर क़ब्ज़ा कर लिया। नेहरू ने इसे जानबूझ कर की गई कारवाई बताया। नवंबर में एक बार फिर चीन की ओर से हमले शुरू हुए। हालाँकि चीन ने एकतरफ़ा युद्धविराम की घोषणा कर दी। तब तक 1300 से ज़्यादा भारतीय सैनिक मारे जा चुके थे। पंडित नेहरू के करियर का यह सबसे बुरा दौर साबित हुआ। उनकी सरकार के ख़िलाफ़ संसद में पहली बार अविश्वास प्रस्ताव पेश किया गया।

मृत्यु

चीन के साथ संघर्ष के कुछ ही समय बाद नेहरू के स्वास्थ्य में गिरावट के लक्षण दिखाई देने लगे। उन्हें 1963 में दिल का हल्का दौरा पड़ा, जनवरी 1964 में उन्हें और दुर्बल बना देने वाला दौरा पड़ा। कुछ ही महीनों के बाद तीसरे दौरे में 27 मई 1964 में उनकी मृत्यु हो गई।

ख्यातिलब्ध लेखक

पंडित नेहरू एक महान राजनीतिज्ञ और प्रभावशाली वक्ता ही नहीं, ख्यातिलब्ध लेखक भी थे। उनकी आत्मकथा 1936 ई. में प्रकाशित हुई और संसार के सभी देशों में उसका आदर हुआ। उनकी अन्य रचनाओं में भारत और विश्व, सोवियत रूस, विश्व इतिहास की एक झलक, भारत की एकता और स्वतंत्रता और उसके बाद विशेष उल्लेखनीय हैं। इनमें से अन्तिम दो पुस्तकें उनके फुटकर लेखों और भाषणों के संग्रह हैं।

नेहरूजी के प्रेरक प्रसंग

बात उस समय की है जब जवाहर लाल नेहरू किशोर अवस्था के थे। पिता मोतीलाल नेहरू उन दिनों अंग्रेजों से भारत को आजाद कराने की मुहिम में शामिल थे। इसका असर बालक जवाहर पर भी पड़ा। मोतीलाल ने पिंजरे में तोता पाल रखा था। एक दिन जवाहर ने तोते को पिंजरे से आजाद कर दिया। मोतीलाल को तोता बहुत प्रिय था। उसकी देखभाल एक नौकर करता था। नौकर ने यह बात मोतीलाल को बता दी। मोतीलाल ने जवाहर से पूछा, 'तुमने तोता क्यों उड़ा दिया। जवाहर ने कहा, 'पिताजी पूरे देश की जनता आजादी चाह रहीं है। तोता भी आजादी चाह रहा था, सो मैंने उसे आजाद कर दिया।' मोतीलाल जवाहर का मुंह देखते रह गये। .... और पढ़ें

मूल्यांकन

अपनी भारतीयता पर ज़ोर देने वाले नेहरू में वह हिन्दू प्रभामंडल और छवि कभी नहीं उभरी, जो गाँधी के व्यक्तित्व का अंग थी। अपने आधुनिक राजनीतिक और आर्थिक विचारों के कारण वह भारत के युवा बुद्धिजीवियों को अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ गाँधी के अहिंसक आन्दोलन कि ओर आकर्षित करने में और स्वतन्त्रता के बाद उन्हें अपने आसपास बनाए रखने में सफल रहे। पश्चिम में पले-बढ़े होने और स्वतन्त्रता के पहले यूरोपीय यात्राओं के कारण उनके सोचने का ढंग पश्चिमी साँचे में ढल चुका था। 17 वर्षों तक सत्ता में रहने के दौरान उन्होंने लोकतांत्रिक समाजवाद को दिशा-निर्देशक माना। उनके कार्यकाल में संसद में कांग्रेस पार्टी के ज़बरदस्त बहुमत के कारण वह अपने लक्ष्यों की ओर अग्रसर होते रहे। लोकतन्त्र, समाजवाद, एकता और धर्मनिरपेक्षता उनकी घरेलू नीति के चार स्तंभ थे। वह जीवन भर इन चार स्तंभों से सुदृढ़ अपनी इमारत को काफ़ी हद तक बचाए रखने में क़ामयाब रहे। नेहरू की इकलौती संतान इंदिरा गाँधी 1966 से 1977 तक और फिर 1980 से 1984 तक भारत की प्रधानमंत्री रहीं। इंदिरा गाँधी के बेटे राजीव गाँधी 1984 से 1989 तक प्रधानमंत्री रहे।


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