मान सिंह

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मान सिंह
Man Singh

मान सिंह राजा भगवान दास के पुत्र थे।[1] अपनी बुद्धिमानी, साहस, सम्बन्ध और उच्च वंश के कारण अकबर के राज्य के स्तम्भों और सरदारों के अग्रणी थे। इनके कार्यों और व्यवहार से इन्हें बादशाह कभी फर्जद (पुत्र) और कभी मिरज़ा राजा के नाम से पुकारते थे[2]

राणा और मानसिंह का युद्ध

सन 1576 ई. के अन्त में मानसिंह राणा कोका (महाराणा प्रतापसिंह) को दण्ड देने पर नियत हुए। सन 1577 ई. के आरम्भ में गुलकन्द के पास (जिसे चित्तौड़ के अनन्तर बनवाया था) घोर युद्ध हुआ। इसमें राजा रामसाह ग्वालियरी पुत्रों के साथ मारा गया। इसी मार–काट में राणा और मानसिंह का सामना होने पर युद्ध हुआ और घायल होने पर राणा भाग गए। राजा मानसिंह ने उनके महलों में उतर कर हाथी रामशाह को (जो उसके प्रसिद्ध हाथियों में से था) दूसरी लूट के साथ दरबार भेजा। परन्तु जब मानसिंह ने उस प्रान्त को लूटने की आज्ञा नहीं दी, तब बादशाह ने इन्हें राजधानी में बुलाकर दरबार आने की मनाही कर दी।

काबुल का शासक नियुक्त

जब राजा भगवंतदास पंजाब के सूबेदार नियत हुए, तब सिंध के पार सीमांत प्रान्त का शासन कुँवर मानसिंह को दिया गया। जब 30वें वर्ष में अकबर के सौतेले भाई मिरज़ा मुहम्मद हक़ीम की (जो कि काबुल का शासनकर्ता था) मृत्यु हो गई, तब इन्होंने आज्ञानुसार फुर्ती से काबुल पहुँचकर वहाँ के निवासियों को शान्ति दी और उसके पुत्र मिरज़ा अफ़रासियाब और मिरज़ा कँकुवाद को राज्य के बुरे–भले अन्य सरदारों के साथ लेकर वे दरबार आए। अकबर ने सिंध नदी तक ठहर कर कुँवर मानसिंह को काबुल का शासनकर्ता नियत किया। इन्होंने बड़ी बहादुरी के साथ रूशानी जातिवालों को लुटेरेपन और विद्रोह से खैवर के रास्ते रोके हुए थे, पूरा दण्ड दिया। जब राजा बीरबल स्वाद प्रान्त में यूसुफ़जई के युद्ध में मारे गए और जैनख़ाँ कोका और हक़ीम अबुल फ़तह दरबार बुला लिए गए, तब यह कार्य मानसिंह को सौंपा गया। जब जाबुलिस्तान के शासन पर भगवंतदास नियुक्त हुए और सिंध पार होने पर पागल हो गए, तब उस पद पर कुँअर मानसिंह नियत हुए।

कछवाहों की जाग़ीर

32वें वर्ष में जब यह ज्ञात हुआ (कुँअर ठण्डे देश के कारण घबरा गया है और राजपूत जाति जाबुलिस्तान की प्रजा पर अत्याचार करती है, किन्तु कुँअर दुःखियों का पक्ष नहीं लेता, तब) उसे वहाँ से बुला कर पूर्व की ओर उसके लिए जाग़ीर नियुक्त की गई। स्वयं रूशानियों का दमन करना निश्चित किया। उसी वर्ष (जब बिहार प्रान्त में कछवाहों की जाग़ीर नियुक्त हुई तब) कुँअर मानसिंह वहाँ का शासनकर्ता नियत हुआ।

पाँच हज़ारी मनसब

34वें वर्ष में इनके पिता की मृत्यु पर इन्हें राजा की पदवी और पाँच हज़ारी मनसब मिला। जब यह बिहार गए तब पूर्णमल कंधोरिया पर (जो बड़ा घमण्ड करता था) चढ़ाई करके उसके बहुत से स्थानों पर अधिकार कर लिया। वह नयारस्त दुर्ग में जा बैठा और वहाँ पर से उसने संधि का प्रस्ताव किया। वहाँ से लौट कर इन्होंने राजा संग्राम सिंह पर चढ़ाई की जिसने संधि करके हाथी और उस ओर की अन्य वस्तुएँ भेंट में दीं। राजा मानसिंह पटना लौट आया और रणपति चरवा पर चढ़ाई कर वहाँ से बहुत लूट पाई।

उड़ीसा पर चढ़ाई

जब उस प्रान्त के बलवाइयों ने फिर से सिर उठाया, तब 35 वर्ष में इन्होंने झारखंड के रास्ते से उड़ीसा पर चढ़ाई की। उस प्रान्त के शासनकर्ता सर्वदा अलग शासन करते थे। इससे कुछ पहले प्रतापदेव नामक राजा था, जिसके पुत्र वीरसिंह देव ने अपने बुरे स्वभाव के कारण पिता का पद लेना चाहा और अवसर मिलने पर उसे विष दे दिया, जिससे वह मर गया। तेलंगाना से आकर मुकुंददेव नामक एक पुरुष इनके यहाँ पर नौकर हो चुका था। वह इस बुरे काम से घबरा कर पुत्र से बदला देने की फ़िक्र में पड़ा। उसने यह प्रकट किया कि मेरी स्त्री मुझे देखने आती है। इस प्रकार बहाना कर शस्त्रों से भरी हुई डोलियाँ दुर्ग में जाने लगीं और बहुत सा युद्ध का सामान दो सौ अनुभवी मनुष्यों के साथ दुर्ग में पहुँच गया। वहाँ उसका काम जल्दी समाप्त हो गया और उसे सरदारी मिल गई। यह कोई अच्छी चाल नहीं है कि पूर्वजों के संचित कोष पर राजा अधिकार कर ले; पर इसने कोष के सत्तर तालों को तोड़कर उनमें का संचित धन ले लिया। यद्यपि इसने दान बहुत किया, पर यह आज्ञापालन के रास्ते से हट गया।

सुलेमान किर्रानी ने, जिसका बंगाल पर अधिकार हो गया था, अपने पुत्र वायजीद को झारखण्ड के रास्ते से इस प्रान्त पर भेजा और इसकंदर ख़ाँ उजबेग़ को, जो अकबर के पास विद्रोह करके सुलेमान किर्रानी के पास चला आया, था साथ कर दिया। राजा ने अपने सुख के कारण दो सेनाएँ झपटराय और दुर्गा तेज़ के अधीन भेजी। ये दोनों स्वामीद्रोही शत्रु के सेनाध्यक्षों से मिल कर युद्ध से लौट आए। बड़ी अतिष्ठा हुई। निरुपाय होकर राजा ने शरीर का त्यागना विचार कर बायजीद का सामना किया। उसकी अधीनता में घोर युद्ध हुआ। जिसमें राजा और झपटराय मारे गए तथा दुर्गा तेज़ सरदार हुआ। सुलेमान ने उसको कपट से अपने पास बुलवा कर मरवा डाला और प्रान्त पर अपना अधिकार कर लिया[3]

मुनइम ख़ाँ ख़ानख़ानाँ और ख़ानेजहाँ तुर्कमान की सूबेदारी में उस प्रान्त से बहुतेरे सरदार साम्राज्य में चल आए। बंगाल के सरदारों की गड़बड़ी में कतलू ख़ाँ लोहानी वहाँ प्रबल हो उठा। जब राजा उसी वर्ष प्रान्त में गया[4] तब कतलू ने उन पर चढ़ाई की। जब बादशाही सेना परास्त हो गई, तब राजा दृढ़ नहीं रह सकते थे। पर कतलू (जो की बीमार था) एकाएक मर गया और उसके प्रधान ईसा ने उसके छोटे पुत्र नसीर ख़ाँ को सरदार बनाकर राजा से संधि कर ली[5]। राजा जगन्नाथ जी का मन्दिर उसकी भूसम्पत्ति सहित लेकर बिहार लौट गए। यह मन्दिर हिन्दुओं के प्रसिद्ध तीर्थों में से एक है और परसोतम नगर में समुद्र के पास है। उसमें श्रीकृष्ण जी, उनके भाई और बहिन की चंदन की मूर्तियाँ हैं।

जगन्नाथ मंदिर

कहते हैं कि इससे चार हज़ार और कुछ वर्ष पहले नीलगिरि पर्वत के शासनकर्ता राजा इन्द्रमणी ने किसी महात्मा के कहने पर बड़ा नगर बसाया। राजा को एक रात्रि स्वप्न हुआ कि 'उसे एक दिन एक लकड़ी बावन अंगुल लम्बी और डेढ़ हाथ चौड़ी मिली है। वह ईश्वर का शरीर है और उसे लेकर उसने गृह में सात दिन तक बन्द रखा है। इसके अनन्तर इसी मन्दिर में रखकर उसने उसके पूजन का प्रबन्ध किया है।' जब उसकी निद्रा खुली, तब जगन्नाथ जी नाम रखा। कहते हैं कि सुलेमान किर्रानी के नौकर काला पहाड़ ने जब वहाँ पर अधिकार किया, तब उसने इस लकड़ी को आग में डाल दिया था, पर वह जली ही नहीं। तब उसने उसे नदी में फिंकवा दिया। पर वह फिर से लौट आई। कहते हैं कि इस मूर्ति को छः बार स्नान कराते और नए वस्त्र धारण कराते हैं। पचास–साठ ब्राह्मण सेवा में रहते हैं। प्रति वर्ष (जब बड़ा रथ खींचकर उस मूर्ति के सामने लाते हैं तब) बीस सहस्र मनुष्य साथ में रहते हैं। उस रथ में सोलह पहिए लगे हुए हैं। उस पर मूर्तियों को सवार कराते हैं और उपदेश देते हैं कि जो उसे खींचेगा, पाप से शुद्ध हो जाएगा। संसार की कठिनाई न देखकर उससे बहुत सी सिद्धाई देखना चाहते हैं।

जब तक कतलू का वक़ील ईसा जीवित रहा, तब तक उसने राजा के साथ की हुई प्रतिज्ञा की रक्षा की। उसके अनन्तर कतलू के पुत्रों ख्वाजा सुलेमान और ख्वाजा उसमान ने संधि भंग कर विद्रोह आरम्भ कर दिया। 37वें वर्ष राजा ने उनका दमन करने के लिए और उस प्रान्त पर अधिकार करने के लिए दृढ़ संकल्प किया। बंगाल का सूबेदार सईद ख़ाँ भी पहुँचा। कड़े युद्धों के अनन्तर वे परास्त होकर भागे और राजा रामचन्द्र की शरण में (जो कि उस प्रान्त का भारी भूम्याधिकारी था) गए। यद्यपि सईद ख़ाँ बंगाल लौट गया, पर राजा ने पीछा करने से हाथ न उठाकर सारंगगढ़ को (जहाँ पर उन्होंने शरण ली थी) घेर लिया। निरुपाय होकर उसने राजा से भेंट की। सरकार ख़लीफ़ाबाद में उनके लिए जाग़ीर नियत करके सन 1000 हि0 में उड़ीसा प्रान्त को साम्राज्य में मिला लिया[6]

ख़ुसरो का अभिभावक नियुक्त

39वें वर्ष सन 1002 हि0 में (सुल्तान ख़ुसरो को पाँच हज़ारी मनसब और उड़ीसा जाग़ीर में मिला था) राजा मानसिंह उसका अभिभावक नियुक्त होकर बंगाल और उस प्रान्त का शासनकर्ता हुआ। राजा मानसिंह ने अपने उपायों और तलवार के बल से भाटी प्रान्त और दूसरे भूम्याधिकारियों की बहुत सी भूमि पर अधिकार कर साम्राज्य में मिला लिया। 40वें वर्ष सन 1004 हि0 में आक महल के पास का स्थान पसन्द किया गया, क्योंकि वहाँ पर लड़ाई का डर कम था। शेरशाह भी इस स्थान से प्रसन्न रहता था। इस उस प्रान्त की राजधानी नियत कर अकबर नगर नाम रखा गया। इसका नाम राजमहल भी है। 41वें वर्ष में कूच[7] घोड़ाघाट के उत्तर प्रजा सम्पन्न प्रान्त है, 200 कोस लम्बा और 40 से 100 कोस तक चौड़ा है) के राजा लक्ष्मीनारायण ने अधीनता स्वीकृत कर राजा मानसिंह से भेंट की और अपनी बहिन राजा को ब्याह दी।

बंगाल का विद्रोह

मान सिंह पर हमला करते हुए महाराणा प्रताप और चेतक

44वें वर्ष सन 1008 हि0 में (जब अकबर दक्षिण की ओर चला, तब सुल्तान सलीम राणा को दण्ड देने के लिए अजमेर प्रान्त पर नियत किया गया था तब) राजा को बंगाल की सूबेदारी के सहित शहजादे के साथ नियत किया। उस समय ईसा के मरने से (जो वहाँ का सरदार था) राजा ने उस प्रान्त का शासन सहज समझकर अपने बड़े पुत्र जगतसिंह को अपना प्रतिनिधि बनाकर भेजा। जगतसिंह की मृत्यु रास्ते में ही हो गई। उसके पुत्र महासिंह को (जो कि अल्पवयस्क था) बंगाल भेजा। 45वें वर्ष में कतल के पुत्र ख्वाजा उसमान ने विद्रोह मचाया। राजा के सैनिकों ने सहज समझ कर युद्ध किया, पर वे परास्त हुए। यद्यपि बंगाल हाथ से नहीं निकल गया, पर उसके बहुत से स्थानों से वे अधिकृत हो गए। शहजादा सुल्तान सलीम (जो शारीरिक सुख, मद्यपान और बुरे संग–साथ के कारण बहुत दिन तक अजमेर में ठहर कर उदयपुर चला गया) कार्य पूर्ण होने के पहले ही स्वयं अपने मन से पंजाब चला गया। वहीं एकाएक बंगाल के विद्रोह का समाचार मिला। राजा मानसिंह को उस ओर विदा किया और कुछ बहकावे से शाहजादा आगरा लेने चला। जब मरियम मकानी उसे समझाने के लिए जाने को दुर्ग में सवार हुई तब शाहजादा लज्जा के मारे राजधानी के चार कोस इधर ही लौट कर नाव पर सवार होकर प्रयाग चला गया[8] राजा शाहजादे से अलग होकर बंगाल के विद्रोहियों को दण्ड देने चला और उसने शेरपुर के पास युद्ध कर शत्रु को पूर्णतयः परास्त किया। मीर अब्दुर्रज़्ज़ाक़ मामूरी, जो कि बंगाल प्रान्त का हब्शी था, युद्ध में हथकड़ी–बेड़ी सहित पकड़ा गया। इसके अनन्तर (जब उस प्रान्त का प्रबन्ध ठीक हो गया तब) दरबार पहुँचकर राजा मानसिंह सात हज़ारी 7000 सवार का मनसब (कि उस समय तक कोई भारी सरदार पाँच हज़ारी मनसब से बढ़कर नहीं था, पर इसके अनन्तर मिरज़ा शाहरुख और मिरज़ा अज्जीज को भी यह पद मिला था) पाकर सम्मानित हुए[9] ==राजा मानसिंह की मृत्यु==  अकबर की मृत्यु के समय राजा मानसिंह ने सुल्तान ख़ुसरो (जो कि प्रजा में युवराज माना जाता था) गद्दी पर बैठने के विचार से मिरज़ा अजीज कोका का साथ दिया था; पर जहाँगीर ने बंगाल की नियुक्ति निश्चित रख और स्वदेश जाने की छुट्टी देकर अपनी ओर मिला लिया[10] जहाँगीर की राजगद्दी होने पर यह अपने शासन पर चले गए; परन्तु उसी वर्ष बंगाल से बदल कर औरों के साथ रोहतास के विद्रोहियों का दमने करने पर नियत हुए। वहाँ से दरबार पहुँचकर तीसरे वर्ष (सं0 1686 वि0 सन् 1630 ई.) में इन्हें इसीलिए छुट्टी मिली कि दक्षिण की चढ़ाई का सामान ठीक कर ख़ानख़ानाँ के सहायतार्थ वहाँ जाएँ। ये बहुत वर्षों तक दक्षिण में रहे। वहीं 9वें वर्ष में इनकी मृत्यु हो गई और साठ[11] मनुष्य उनके साथ में जले।

शासन व्यवस्था

राजा ने बंगाल के शासन के समय बहुत ऐश्वर्य और सामान संचित किया था। यहाँ तक की उनके पास में सौ हाथी थे और उनके सभी सैनिक सुसज्जित थे। इनके यहाँ पर बहुत से विश्वासी सेवक थे, जो सभी सरदार थे। कहते हैं उस समय (जब दक्षिण का कार्य ख़ानेजहाँ लोदी के हाथ में आया था) तब पन्द्रह डंके निशान वाले पाँच हज़ारी (जैसे नवाब अब्दुर्रहीम ख़ाँ ख़ानख़ानाँ, राजा मानसिंह, मिरज़ा रुस्तम सफवी, आसफ़ ख़ाँ जाफ़र और शरीफ़ ख़ाँ अमीरुलउमरा) और चार हज़ारी से सौ तक वाले सत्रह सौ मनसबदार वहाँ सहायतार्थ सेना में उपस्थित थे। जब बालाघाट में अन्न का यहाँ तक अकाल पड़ा की (एक रुपया सेर का भी अन्न नहीं मिलता था) तब एक दिन राजा ने मजलिस में कहा कि यदि मैं मुसलमान होता तो प्रतिदिन एक समय तुम लोगों के साथ में भोजन करता। पर मैं वृद्ध हुआ, इसलिए मेरा ही पान लीजिए। सबसे पहले ख़ानेजहाँ ने सलाम कर कहा कि मुझे स्वीकार है। दूसरों ने भी इस बात को मान लिया। उसी दिन से राजा ने ऐसा प्रबन्ध किया कि प्रत्येक पाँच हज़ारी को एक सौ रुपया और इसी हिसाब से सदी मनसबवालों तक को दैनिक निश्चित कर प्रति रात्रि को वह रुपया खलीते में रखकर और उस पर अपना नाम लिख कर हर एक के पास भेज देते थे। तीन–चार महीने तक (कि यह यात्रा होती रही) एक भी नागा नहीं हुआ। कंप–वालों को रसद पहुँचाने तक आमेर के भाव में बराबर अन्न देते रहे। कहते हैं कि राजा कि विवाहिता स्त्री रानी कुँअर (जो बड़ी बुद्धिमता थी) देश से सब प्रबन्ध करके भेजती थी। राजा ने यात्रा में मुलसमानों के लिए कपड़े के स्नानागार और मसज़िदें खड़ी कराई थीं और उनमें नियुक्त मनुष्यों को एक समय भोजन देते थे।

हिन्दू धर्म और इस्लाम

कहते हैं कि एक दिन एक सैयद एक ब्राह्मण से तर्क करने लगा कि हिन्दू धर्म से इस्लाम बढ़कर है। इन दोनों ने राजा को पंच माना। राजा ने कहा कि 'यदि इस्लाम को बड़ा कहता हूँ तो कहोगे कि बादशाह की चापलूसी है; और यदि इसके ऐसा कहता हूँ तो पक्षपात कहलाएगा।' जब उन लोगों ने हठ किया तब राजा ने कहा कि मुझे ज्ञान नहीं है, पर हिन्दू धर्म (जो बहुत दिनों से चला जाता है) के महात्मा के मरने पर जला देते हैं और हवा में उड़ा देते हैं; और रात्रि में यदि कोई वहाँ जाता है तो भूत का डर होता है, परन्तु हर एक गाँव और नगर के पास मुसलमान पीरों की कबें हैं, जहाँ पर मनौती होती हैं और जमघट लगता है।

कहते हैं कि बंगाल जाते समय मुंगेर में शाह दौलत (नामक एक फ़कीर जो वहाँ पर रहता था) से भेंट की। शाह ने कहा कि इतनी बुद्धि और समझ रहने पर भी मुसलमान क्यों नहीं हुआ? राजा ने कहा कि क़ुरान में लिखा है कि ईश्वर की मुहर प्रत्येक हृदय पर है। यदि आपकी कृपा से अभाग्य का ताला मेरे हृदय से खुल जाए तो झट से मुसलमान हो जाऊँ। एक महीने तक इसी आशा में वहाँ पर ठहरा रहा; पर भाग्य में इस्लाम ही नहीं लिखा था, इससे कोई लाभ नहीं हुआ।

परिवार

कहते हैं कि राजा मानसिंह की पन्द्रह सौ रानियाँ थीं, और प्रत्येक से दो–तीन पुत्र हुए थे। परन्तु सब पिता के सामने ही मर गए। केवल एक झाऊसिंह[12] वह भी पिता के कुछ दिन अनन्तर मद्यपान के कारण मर गया। उसका वृत्तान्त अलग दिया गया है।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. राजा भगवान दास के भाई जगतसिंह के पुत्र थे, जिन्होंने स्वयं नि:सन्तान होने के कारण इन्हें दत्तक ले लिया था। मानसिंह पहले पहल संवत 1619 में अकबर के दरबार में गए थे
  2. यह सन 1562 ई. में बादशाह के साथ आगरे आए थे, सन 1572 ई. में यह बादशाह के साथ गुजरात की चढ़ाई पर भी गए थे। जब बादशाह पाटन से बीस कोस इधर सिरोही से आगे डीसा दुर्ग पहुँचे, तब समाचार मिला कि शेर ख़ाँ फौलादी सपरिवार तथा ससैन्य इधर जा रहा है। कुँवर मानसिंह उस पर भेजे गए और उन्होंने उसे परास्त कर भगा दिया। (इलि0 डाउ0, जि0 5श पृ0 342)। इसके अनन्तर सरनाल युद्ध में तथा गुजरात विजय में योग दिया। इसके दो वर्ष अनन्तर सन 1575 ई. में डूँगरपुर तथा आस–पास के राजाओं का दमन करने के लिए भेजे गए, जिनके अधीनता स्वीकार कर लेने पर ये उदयपुर के मार्ग से लौटे। यही महाराणा प्रतापसिंह से इन्होंने अपने को अपमानित किया गया समझा था (अकबरनामा, इलि0 डाउ0, जि0 6, पृ0 42)। इसी के अनन्तर अकबर बादशाह ने महाराणा पर इसका बदला लेने के लिए चढ़ाई की थी
  3. यह अंश अकबरनामें (जि0 3, पृ0 640) से लिया हुआ है। भिन्नता इतनी है कि प्रतापदेव के स्थान पर प्रताप राव और वीरसिंह के बदले में नरसिंह है। (इलि0 डाउ0, जि0 6, पृ0 88-9)
  4. बिहार तथा बंगाल की राजा मानसिंह की सूबेदारी का पूरा वर्णन स्टअर्ट की 'हिस्ट्री ऑफ़ बंगाल' (पृ0 114-121) में दिया है।
  5. अकबरनामा, इलि0 डाउ0, जि0 6, पृ0 85-7
  6. अकबरनामा, इलि0 डाउ0, जि0 6, पृ0 86-7।
  7. कूचबिहार से तात्पर्य है। इसी वर्ष ये घोड़ाघाट के पास अधिक बीमार हो गए थे। अफ़ग़ानों ने बलवा किया, पर इनके पुत्र हिम्मतसिंह ने इन्हें परास्त कर दिया।
  8. अकबरनामा में लिखा है कि जब जहाँगीर आगरा होता हुआ इलाहाबाद जा रहा था, तब वह अपनी दादी मरिअम मकानी से नियमानुसार मिलने नहीं गया। इससे दुःखित होकर वह मिलने के लिए आ रही थी, कि वह झट से प्रयाग चला गया। (इलि0 डा., जि0 6, पृ0 99)
  9. 47वें वर्ष में उसमान का विद्रोह शान्त किया और 48वें वर्ष में मघ राजा और कैदराय को परास्त किया। (तकमीले अकबरनामा, इलि0 डा., जि0 6, पृ0 106,9,11)
  10. बिकायः असदबेग, इलि0 डा., जि0 राजा6, पृ 170-3।
  11. राजा मानसिंह की पन्द्रह सौ रानियों में से साठ साथ में सती हो हुई थीं।
  12. इनके वृत्तान्त के लिए 38वाँ निबन्ध देखिए, जिसका शीर्षक 'मिरज़ा राजा बहादुरसिंह कछवाहा' है। तुजुके जहाँगीरी, पृ0 130 में भी इनका उल्लेख है।


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