हैदराबाद का इतिहास

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1724 ई. में 'चिनकिलिच ख़ाँ ने हैदराबाद में स्वतंत्र राज्य की स्थापना की थी। उसे प्रायः 'निज़ामुलमुल्क' के नाम से जाना जाता है। सर्वप्रथम 'जुल्फ़िकार ख़ाँ' ने दक्कन में स्वतंत्र राज्य स्थापित करने का सपना तब देखा, जब बहादुरशाह प्रथम के समय 1708 ई. में वह दक्कन का वायसराय बना था। परन्तु 1713 ई. में उसकी मृत्यु के बाद यह योजना समाप्त हो गयी। निज़ामुलमुल्क तुरानी गुट का था। उसने सैय्यद बंधुओं के पतन मे महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी थी। 1722 ई. में निज़ामुलमुल्क को दिल्ली में वज़ीर का पद दिया गया। वज़ीर के पद पर कार्य करते हुए चिनिकिलिच ख़ाँ दिल्ली दरबार के दूषित माहौल को देखते हुए 1723 ई. के अन्त में शिकार खेलने के बहाने दक्कन चला गया।

हिन्दू-मुस्लिम एकता

19वीं शताब्दी के दौरान, आसफ़जाहियों ने पुराने शहर के उत्तर में मूसा नदी के पार विस्तार कर पुनः शक्ति एकत्रित करना आरंभ किया। उत्तर की ओर सिकंदराबाद एक ब्रिटिश छावनी के रूप में विकसित हुआ, जो हुसैन सागर झील पर बने एक मील लंबे बंद (तटबंध) द्वारा हैदराबाद से जुड़ा था। यह बंद एक विहार स्थल का कार्य करता है और नगर का गौरव है। हिन्दूमुस्लिम शैलियों का सुंदर अम्मिश्रण प्रदर्शित करने वाली कई नई संरचनाएँ बाद में बनाई गईं। निज़ामों के शासन में हिन्दू और मुसलमान भाईचारे से रहते थे, यद्यपि भारत की आज़ादी के तुरंत बाद एक कट्टर मुस्लिम गुट रज़ाकारों ने राज्य और नगर में तनाव पैदा कर दिया था।

रियासत

दक्षिण-मध्य भारत का पूर्व सामंती राज्य, निज़ाम-उल-मुल्क (मीर क़मरूद्दिन) द्वारा स्थापित, जो 1713 से 1721 तक दक्कन में लगातार मुग़ल बादशाहों के सूबेदार रहे। उन्हें 1724 यह पद फिर से मिला और उन्होंने आसफ़जाह की उपाधि ग्रहण की। वस्तुतः इस समय तक वह स्वतंत्र हो गए थे। उन्होंने हैदराबाद में निज़ामशाही की स्थापना की। 1748 में उनकी मृत्यु के बाद अंग्रेज़ों उर फ़्रांसीसियों ने उत्तराधिकार के लिए हुए युद्धों में भाग लिया।

ब्रिटिश आधिपत्य

अस्थायी रूप से मैसूर के शासक हैदरअली के साथ रहने के बाद 1767 में निज़ाम अली ने मसुलीपट्टनम की संधि (1768) द्वारा ब्रिटिश आधिपत्य स्वीकार कर लिया। 1778 में उनके राज्य में एक ब्रिटिश रेज़िडेंट और सहायक सेना तैनात की गई। 1795 में निज़ाम अली ख़ाँ अपने कुछ क्षेत्र, जिनमें बरार के कुछ हिस्से भी शामिल थे, मराठों के हाथ हार गए। जब उन्होंने सहायता के लिए फ़्रांसीसियों की ओर देखा, तो अंग्रेज़ों ने उनके राज्य में तैनात अपनी सहायक सेना को बढ़ा दिया। टीपू सुल्तान के विरुद्ध 1792 और 1799 में अंग्रेज़ों के सहयोगी के रूप में जीत में निज़ाम को मिले क्षेत्र इस सेना का ख़र्च चलाने के लिए अंग्रेज़ों को दे दिए गए।

निज़ाम अली का समझौता

चारमीनार, हैदराबाद
Charminar, Hyderabad

तीन ओर (उत्तर, दक्षिण और पूर्व) से ब्रिटिश आधिपत्य वाले अथवा उन पर निर्भर क्षेत्रों से घिरे होने से निज़ाम अली ख़ां 1798 में ब्रिटिश शासन के साथ एक समझौता करने पर मज़बूर हो गए। इस समझौते के अनुसार उन्होंने अपना राज्य अंग्रेज़ों के संरक्षण में दे दिया। इस प्रकार वह ऐसा करने वाले पहले शासक बने, लेकिन अंदरूनी मामलों में उनकी स्वतंत्रता की पुष्टि की गई। निज़ाम अली ख़ाँ दूसरे और तीसरे मराठा युद्धों (1803-1805, 1815-1819) में अंग्रेज़ों के सहयोगी थे और निज़ाम नसीरूद्दौला व हैदराबाद का सैनिक दस्ता भारतीय क्रांति (1857-58) के दौरान ब्रिटिश शासन के वफ़ादार रहे। 1918 में निज़ाम मीर उस्मान अली को ‘हिज एक्ज़ॉल्टेड हाइनेस’ की उपाधि दी गई, यद्यपि भारत की ब्रिटिश सरकार ने कुशासन की स्थिति में उनके राज्य में हस्तक्षेप करने का अधिकार सुरक्षित रखा। हैदराबाद एक शांत, लेकिन कुछ पिछड़ा हुआ सामंती राज्य बना रहा, जबकि भारत में स्वतंत्रता आंदोलन ज़ोर पकड़ता गया।

भारतीय उपमहाद्वीप का विभाजन

1947 में भारतीय उपमहाद्वीप का विभाजन होने पर निज़ाम ने भारत में शामिल होने की अपेक्षा स्वतंत्र रहना चाहा। 29 नवंबर, 1947 में उन्होंने भारत के साथ एक साल की अवधि का यथास्थिति क़ायम रखने का समझौता किया और भारतीय सेनाएँ हटा ली गईं। समस्याएँ बनी रहीं, लेकिन निज़ाम ने अपनी स्वायत्ता मनवाने के प्रयास जारी रखे। भारत ने ज़ोर दिया कि हैदराबाद भारत में शामिल हो जाए। निज़ाम ने ब्रिटेन के राजा जॉर्ज VI के समक्ष गुहार की। 13 सितंबर, 1948 को भारत ने हैदराबाद पर आक्रमण कर दिया और चार दिन के अंदर इस राज्य ने स्वतंत्र भारत में सम्मिलित होना स्वीकार कर लिया। कुछ समय के लिए सैनिक व अस्थाई नागरिक सरकारों के बाद राज्य में मार्च, 1952 में एक लोकप्रिय सरकार व विधानसभा का गठन किया गया।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ