सदस्य:रेणु/अभ्यास

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गरुड़ पुराण[1] के मत से घोर रुदन शवदाह के समय किया जाना चाहिए, किन्तु दाह-कर्म एवं जल-तर्पण के उपरान्त रुदन-कार्य नहीं होना चाहिए।

उदकक्रिया या जलवान

सपिण्डों एवं समानोदकों द्वारा मृत के लिए जो उदकक्रिया या जलवान होता है, उसके विषय में मतैक्य नहीं है। आश्वलायन गृह्यसूत्र ने केवल एक बार जल-तर्पण की बात कही है, किन्तु सत्यषाढ श्रौतसूत्र[2] आदि ने व्यवस्था दी है कि तिलमिश्रित जल अंजलि द्वारा मृत्यु के दिन मृत का नाम एवं गौत्र बोलकर तीन बार दिया जाता है और ऐसा ही प्रतिदिन ग्यारहवें दिन तक किया जाता है।[3] गौतम धर्मसूत्र[4] एवं वसिष्ठ धर्मसूत्र[5] ने व्यवस्था दी है कि जलदान सपिण्डों द्वारा प्रथम, तीसरे, सातवें एवं नवें दिन दक्षिणाभिमुख होकर किया जाता है, किन्तु हरदत्त का कथन है कि सब मिलाकर 75 अंजलियाँ देनी चाहिए (प्रथम दिन 3, तीसरे दिन 9, सातवें दिन 30 एवं नवें दिन 33), किन्तु उनके देश में परम्परा यह थी कि प्रथम दिन अंजलि द्वारा तीन बार और आगे के दिनों में एक-एक अंजलि अधिक जल दिया जाता था। विष्णु धर्मसूत्र[6], प्रचेता एवं पैठिनसि[7] ने व्यवस्था दी है कि मृत को जल एवं पिण्ड दस दिनों तक देते रहना चाहिए।[8]

शुद्धिप्रकाश[9] ने गृह्यपरिशिष्ट के कतिपय वचन उद्धृत कर लिखा है कि कुछ के मत से केवल 10 अंजलियाँ और कुछ के मत से 100 और कुछ के मत से 55 अंजलियाँ दी जाती हैं, अत: इस विषय में लोगों को अपनी वैदिक शाखा के अनुसार परम्परा का पालन करना चाहिए। यही बात आश्वलाय गृह्यसूत्र[10] ने भी कही है। गरुड़ पुराण[11] ने भी 10, 55 या 100 अंजलियों की चर्चा की है। कुछ स्मृतियों ने जाति के आधार पर अंजलियों की संख्या दी है। प्रचेता[12] के मत से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र मृतक के लिए क्रम से 10, 12, 15 एवं 30 अंजलियाँ दी जानी चाहिए। यम (श्लोक 92-94) ने लिखा है कि नाभि तक पानी में खड़े होकर किस प्रकार जल देना चाहिए और कहा है (श्लोक 98) कि देवों एवं पितरों को जल में और जिनका उपनयन संस्कार न हुआ हो, उनके लिए भूमि में खड़े होकर जल तर्पण करना चाहिए। देवयाज्ञिक द्वारा उद्धृत एक स्मृति में आया है कि मृत्यु काल से आगे 6 पिण्ड निम्न रूप में दिये जाने चाहिए; मृत्यु स्थल पर, घर की देहली पर, चौराहे पर, श्मशान के मार्ग पर जहाँ शव यात्री रुकते हैं, चिता पर तथा अस्थियों को एकत्र करते समय। स्मृतियों में ऐसा भी आया है कि लगातार दस दिनों तक तेल का दीपक जलाना चाहिए, जलपूरण मिट्टी का घड़ा भी रखा रहना चाहिए और मृत का नाम-गौत्र कहकर दोपहर के समय एक मुट्ठी भात भूमि पर रखना चाहिए। इसे पाथेय श्राद्ध कहा जाता है, क्योंकि इससे मृत को यमलोक जाने में सहायता मिलती है।[13] कुछ निबन्धों के मत से मृत्यु के दिन सपिण्डों द्वारा वपन, स्नान, ग्राम एवं घर में प्रवेश कर लेने के उपरान्त नग्न-प्रच्छादन नामक श्राद्ध करना चाहिए। नग्न-प्रच्छादन श्राद्ध में एक घड़े में अनाज भरा जाता है, एक पात्र में घृत एवं सामर्थ्य के अनुसार सोने के टुकड़े या सिक्के भरे जाते हैं। अन्नपूर्ण घड़े की गर्दन वस्त्र से बँधी रहती है। विष्णु का नाम लेकर दोनों पात्र किसी कुलीन दरिद्र ब्राह्मण को दे दिये जाते हैं।[14]

पिण्डदान प्रक्रिया

स्मृतियों एवं पुराणों[15] के मत से अंजलि से जल देने के उपरान्त पके हुए चावल या जौ का पिण्ड तिलों के साथ दर्भ पर रख दिया जाता है। इस विषय में दो मत हैं। याज्ञवल्क्यस्मृति[16] के मत से पिण्डपितृयज्ञ की व्यवस्था के अनुसार तीन दिनों तक एक-एक पिण्ड दिया जाता है;[17] विष्णु धर्मसूत्र[18] के मत से अशौच के दिनों में प्रतिदिन एक पिण्ड दिया जाता है। यदि मृत व्यक्ति का उपनयन हुआ है तो पिण्ड दर्भ पर दिया जाता है, किन्तु मन्त्र नहीं पढ़ा जाता, यो पिण्ड पत्थर पर भी दिया जाता है। जल तो प्रत्येक सपिण्ड या अन्य कोई भी दे सकता है, किन्तु पिण्ड पुत्र[19] देता है; पुत्रहीनता पर भाई या भतीजा देता है और उनके अभाव में माता के सपिण्ड, यथा-मामा या ममेरा भाई आदि देते हैं।[20] वैसी स्थिति में जब पिण्ड तीन दिनों तक दिये जाते हैं या जब अशौच केवल तीन दिनों का रहता है, शातातप ने पिण्डों की संख्या10 दी है और पारस्कर ने उन्हें निम्न रूप से बाँटा है; प्रथम दिन 3, दूसरे दिन 4 और तीसरे दिन 3। किन्तु दक्ष ने उन्हें निम्न रूप में बाँटा है; प्रथम दिन में एक, दूसरे दिन 4 और तीसरे दिन 5। पारस्कर ने जाति के अनुसार क्रम से 10, 12, 15 एवं 30 पिण्डों की संख्या दी है। वाराणसी सम्प्रदाय के मत से शवदाह के समय 4, 5 या 6 पिण्ड तथा मिथिला सम्प्रदाय के अनुसार केवल एक पिण्ड दिया जाता है। गृह्यपरिशिष्ट एवं गरुड़ पुराण के मत से उन सभी को, जिन्होंने मृत्यु के दिन कर्म करना आरम्भ किया है, चाहे वे सगोत्र हों या किसी अन्य गोत्र के हों, दिस दिनों तक सभी कर्म करने पड़ते हैं।[21] ऐसी व्यवस्था है कि यदि कोई व्यक्ति कर्म करता आ रहा है और इसी बीच में पुत्र आ उपस्थित हो तो प्रथम व्यक्ति ही 10 दिनों तक कर्म करता रहता है, किन्तु ग्यारहवें दिन का कर्म पुत्र या निकट सम्बन्धी (सपिण्ड) करता है। मत्स्य पुराण का कथन है कि मृत के लिए पिण्डदान 12 दिनों तक होना चाहिए, ये पिण्ड मृत के लिए दूसरे लोक में जाने के लिए पाथेय होते हैं और वे उसे संतुष्ट करते हैं। मृत 12 दिनों के उपरान्त मृतात्माओं के लोक में चला जाता है, अत: इन दिनों के भीतर वह अपने घर, पुत्रों एवं पत्नी को देखता रहता है।

जल-तर्पण के समय प्रार्थना

जिस प्रकार एक ही गोत्र के सपिण्डों एवं समानोदकों को जल-तर्पण करना अनिवार्य है, उसी प्रकार किसी व्यक्ति को अपने नाना तथा अपने दो अन्य पूर्वपुरुषों एवं आचार्य को उनकी मृत्यु के उपरान्त जल देना अनिवार्य है। व्यक्ति यदि चाहे तो अपने मित्र, अपनी विवाहिता बहिन या पुत्री, अपने भानजे, श्वशुर, पुरोहित को उनकी मृत्यु पर जल दे सकता है।[22] पारस्करगृह्यसूत्र[23] ने एक विचित्र रीति की ओर संकेत किया है। जब सपिण्ड लोग स्नान करने के लिए जल में प्रवेश करने को उद्यत होते हैं और जब वे मृत को जल देना चाहते हैं तो अपने सम्बन्धियों या साले से जल के लिए इस प्रकार प्रार्थना करते हैं-'हम लोग उदकक्रिया करना चाहते हैं', इस पर दूसरा कहता है-'ऐसा करो किन्तु पुन: न आना।' ऐसा तभी किया जाता था, जब कि मृत 100 वर्ष से कम आयु का होता था, किन्तु जब वह 100 वर्ष का या इससे ऊपर का होता था, तो केवल 'ऐसा करो' कहा जाता था। गौतमपितृमेधसूत्र[24] में भी ऐसा ही प्रतीकात्मक वार्तालाप आया है। कोई राजकर्मचारी, सगोत्र या साला (या बहनोई) एक कँटीली टहनी लेकर उन्हें जल में प्रवेश करने से रोकता है और कहता है, 'जल में प्रवेश न करो'; इसके उपरान्त सपिण्ड उत्तर देता है-'हम लोग पुन: जल में प्रवेश नहीं करेंगे।' इसका सम्भवत: यह तात्पर्य है कि वे कुटुम्ब में किसी अन्य की मृत्यु से छुटकारा पायेंगे, अर्थात् शीघ्र ही उन्हें पुन: नहीं आना पड़ेगा या कुटुम्ब में कोई मृत्यु शीघ्र न होगी।

जल-तर्पण के अयोग्य

मृत को जल देने के लिए कुछ लोग अयोग्य माने गये हैं और कुछ मृत व्यक्ति भी जल पाने के लिए अयोग्य ठहराये गये हैं। नपुंसक लोगों, सोने के चोरों, व्रात्यों, विधर्मी लोगों, भ्रूणहत्या (गर्भपात) करने वाली तथा पति की हत्या करने वाली स्त्रियों, निषिद्ध मद्य पीने वालों (सुरापियों) को जल देना मना था। याज्ञवल्क्यस्मृति[25] ने व्यवस्था की है कि नास्तिकों, चार प्रकार के आश्रमों में न रहने वालों, चोरों, पति की हत्या करने वाली नारियों, व्यभिचारिणियों, सुरापियों, आत्महत्या करने वालों को न तो मरने पर जल देना चाहिए और न अशौच मनाना चाहिए। यही बात मनुस्मृति[26] ने भी कही है। गौतम धर्मसूत्र[27] ने व्यवस्था दी है कि उन लोगों की न तो अन्त्येष्टि क्रिया होती है, न अशौच होता है, और न जल-तर्पण होता है और न पिण्डदान होता है, जो क्रोध में आकर महाप्रयाण करते हैं, जो उपवास से या अग्नि से या विष से या जल-प्रवेश से या फाँसी लगाकर लटक जाने से या पर्वत से कूदकर या पेड़ से गिरकर आत्महत्या कर लेते हैं।[28] हरदत्त[29] ने ब्रह्म पुराण से तीन पद्य उद्धृत कर कहा है कि जो ब्राह्मण-शाप या अभिचार से मरते हैं या जो पतित हैं, वे इसी प्रकार की गति पाते हैं। किन्तु अंगिरा[30] का कथन है कि जो लोग असावधानी से जल या अग्नि द्वारा मर जाते हैं, उनके लिए अशौच होता है और उदकक्रिया की जाती है।[31], जहाँ ऐसे लोगों की सूची है, जिनका दाह-कर्म नहीं होता।

महाभारत में अन्त्येष्टि कर्म का बहुधा वर्णन हुआ है, यथा आदिपर्व[32] में पाण्डु का दाह-कर्म[33]; स्त्रीपर्व[34] में द्रोण का दाह-कर्म[35]; अनुशासनपर्व[36] में भीष्म का दाह-कर्म[37]; मौसलपर्व[38] में वासुदेव का, स्त्रीपर्व[39] में अन्य योद्धाओं का तथा आश्रमवासिकपर्व[40] में कुन्ती, धृतराष्ट्र एवं गान्धारी का दाह-कर्म वर्णित है। रामायण[41] में आया है कि दशरथ की चिता चन्दन की लकड़ियों से बनी थी और उसमें अगुरु एवं अन्य सुगन्धित पदार्थ थे; सरल, पद्मक, देवदारु आदि की सुगन्धित लकड़ियाँ भी थीं; कौसल्या तथा अन्य स्त्रियाँ शिबिकाओं एवं अपनी स्थिति के अनुसार अन्य गाड़ियों में शवयात्रा में सम्मिलित हुई थीं। यदि आहिताग्नि (जो श्रौत अग्निहोत्र करता हो) विदेश में मर जाए तो उसकी अस्थियाँ मँगाकर काले मृगचर्म पर फैला दी जानी चाहिए[42] और उन्हें मानव-आकार में सजा देना चाहिए तथा रूई एवं घृत तथा श्रौत अग्नियों एवं यात्राओं के साथ जला डालना चाहिए।[43]

अस्थियाँ प्राप्त न होने पर

यदि अस्थियाँ न प्राप्त हो सकें तो सूत्रों ने ऐतरेय ब्राह्मण[44] एवं अन्य प्राचीन ग्रन्थों के आधार पर यह व्यवस्था दी है कि पलाश की 360 पत्तियों से काले मृगचर्म पर मानव-पुत्तल बनाना चाहिए और उसे ऊन के सूत्रों से बाँध देना चाहिए। उस पर जल से मिश्रित जौ का आटा डाल देना चाहिए और घृत डालकर मृत की अग्नियों एवं यज्ञपात्रों के साथ जला डालना चाहिए। ब्रह्म पुराण[45] ने भी ऐसे ही नियम दिये हैं और तीन दिनों का अशौच घोषित किया है। अपरार्क[46] द्वारा उद्धृत एक स्मृति में पलाश की पत्तियों की संख्या 362 लिखी हुई है। बौधायन पितृमेधसूत्र एवं गौतम पितृमेधसूत्रों के मत से ये पत्तियाँ निम्न रूप से सजायी जानी चाहिए; सिर के लिए40, गर्दन के लिए 10, छाती के लिए 20, उदर (पेट) के लिए 10, पैरों के लिए 70, पैरों के अँगूठों के लिए 10, दोनों बाँहों के लिए 50, हाथों की अँगुलियों के लिए 10, लिंग के लिए 8 एवं अण्डकोशों के लिए 12। यही वर्णन सत्याषाढ श्रौतसूत्र[47] में भी है।[48] सूत्रों एवं स्मृतियों में पलाश-पत्रों की उन संख्याओं में मतैक्य नहीं है, जो विभिन्न अंगों के लिए व्यवस्थित हैं। अपरार्क[49] द्वारा उद्धृत एक स्मृति में संख्या यों है-सिर के लिए 32, गरदन के लिए 60, नितम्ब के लिए 20, दोनों हाथों के लिए 20-20, अँगुलियों के लिए 10, अंडकोशों के लिए 6, लिंग के लिए 4, जाँघों के लिए 60, घुटनों के लिए 20, पैरों के निम्न भागों के लिए 20, पैर के अँगूठों के लिए 10। जातूकर्ण्य[50] के मत से यदि पुत्र 15 वर्षों तक विदेश गये हुए अपने पिता के विषय में कुछ न जान सके तो उसे पुत्तल जलाना चाहिए। पुत्तल जलाने को आकृति दहन कहा जाता है। बृहस्पति ने इस विषय में 12 वर्षों तक जोहने की बात कही है। वैखानसस्मार्तसूत्र[51] ने आकृतिदहन को फलदायक कर्म माना है और इसे केवल शव या अस्थियों की अप्राप्ति तक ही सीमित नहीं माना है। शुद्धिप्रकाश[52] ने ब्रह्म पुराण को उद्धृत कर कहा है कि आकृतिदहन केवल आहिताग्नि तक ही सीमित नहीं मानना चाहिए, यह कर्म उनके लिए भी है, जिन्होंने श्रौत अग्निहोत्र नहीं किया है। इस विषय में आहिताग्नियों के लिए अशौच 10 दिनों तक तथा अन्य लोगों के लिए केवल 3 दिनों तक होता है।

आहिताग्नि

सत्याषाढ श्रौतसूत्र[53], बौधायन पितृमेधसूत्र[54] एवं गरुड़ पुराण[55] में ऐसी व्यवस्था दी हुई है कि यदि विदेश गया हुआ व्यक्ति आकृतिदहन (पुत्तल-दाह) के उपरान्त लौट आये, अर्थात् मृत समझा गया व्यक्ति जीवित अवस्था में लौटे तो वह घृत से भरे कुण्ड में डुबोकर बाहर निकाला जाता है; पुन: उसको स्नान कराया जाता है और जातकर्म से लेकर सभी संस्कार किये जाते हैं। इसके उपरान्त उसको अपनी पत्नी के साथ पुन: विवाह करना होता है, किन्तु यदि उसकी पत्नी मर गयी है तो वह दूसरी कन्या से विवाह कर सकता है और तब वह पुन: अग्निहोत्र आरम्भ कर सकता है। कुछ सूत्रों ने ऐसी व्यवस्था दी है कि यदि आहिताग्नि की पत्नी उससे पूर्व ही मर जाए, तो वह चाहे तो उसे श्रौताग्नियों द्वारा जला सकता है या गोबर से ज्वलित अग्नि या तीन थालियों में रखे, शीघ्र ही जलने वाले घास-फस से उत्पन्न अग्नि द्वारा जला सकता है। मनुस्मृति[56] का कथन है कि यदि आहिताग्नि द्विज की सवर्ण एवं सदाचारिणी पत्नी मर जाये तो आहिताग्नि पति अपनी श्रौत एवं स्मार्त अग्नियों से उसे यज्ञपात्रों के साथ जला सकता है। इसके उपरान्त वह पुन: विवाह कर अग्निहोत्र आरम्भ कर सकता है।[57]

विश्वरूप[58] आहिताग्नि के विषय में काठक-श्रुति को उद्धृत कर कहा है कि यदि कोई व्यक्ति अपनी पत्नी की मृत्यु के उपरान्त भी वे ही पुरानी श्रौताग्नियाँ रखता है तो वे अग्नियाँ उस अग्नि के समान अपवित्र मानी जाती हैं, जो शव के लिए प्रयुक्त होती हैं, और उसने इतना जोड़ दिया है कि यदि आहिताग्नि की क्षत्रिय पत्नी उसके पूर्व मर जाये तो उसका दाह भी श्रौताग्नियों से ही होता है। यह सिद्धान्त अन्य टीकाकारों के मत का विरोधी है, किन्तु उसने मनुस्मृति[59] में प्रयुक्त 'सवर्ण' को केवल उदाहरण स्वरूप लिया है, क्योंकि ऐसा न करने से वाक्यभेद दोष उत्पन्न हो जायेगा। अत: ब्राह्मण पत्नि के अतिरिक्त क्षत्रिय पत्नी को भी मान्यता दी गई है। कुछ स्मृतियों ने ऐसा लिखा है कि आहिताग्नि विधुर रूप में रहकर भी अपना अग्निहोत्र सम्पादित कर सकता है, और पत्नी की सोने या कुश की प्रतिमा बनाकर यज्ञादि कर सकता है, जैसा कि राम ने किया था।[60] जब गृहस्थ अपनी मूल पत्नी को श्रौताग्नियों के साथ जलाने के उपरान्त पुन: विवाह नहीं करता है और न पुन: नवीन वैदिक (श्रौत) अग्नियाँ रखता है तो वह मरने के उपरान्त साधारण अग्नियों से ही जलाया जाता है। यदि गृहस्थ पुन: विवाह नहीं करता है तो वह अपनी मृत पत्नी के शव को अरणियों से उत्पन्न अग्नि में जला सकता है। यदि आहिताग्नि पहले मर जाये तो उसकी विधवा अरणियों से उत्पन्न अग्नि (निर्मन्थ्य) से जलायी जाती है।[61] जब पत्नी का दाह-कर्म होता है तो 'अस्मात्त्वमभिजातोसि' नामक मन्त्र का पाठ नहीं होता।[62] केवल सदाचारिणी एवं पतिव्रता स्त्री का दाह-कर्म श्रौत या स्मार्त अग्नि से होता है।[63] ऋतु[64] एवं बौधायन पितृमेधसूत्र[65] के अनुसार विधुर एवं विधवा का दाहकर्म कपाल नामक अग्नि (कपाल को तपाकर कण्डों से उत्पादित अग्नि) से, ब्रह्मचारी एवं यति (साधु) का उत्तपन (या कपालज) नामक अग्नि से, कुमारी कन्या तथा उपनयनरहित लड़के का भूसा से उत्पन्न अग्नि से होता है। यदि आहिताग्नि पतित हो जाए या किसी प्रकार से आत्महत्या कर ले या पशुओं या सर्पों से भिड़कर मर जाए तो उसकी श्रौताग्नियाँ जल में फेंक देनी चाहिए, स्मार्त अग्नियाँ चौराहे या जल में फेंक देनी चाहिए, यज्ञपात्रों को जला डालना चाहिए[66] और उसे साधारण (लौकिक) अग्नि से जलाना चाहिए।


कम अवस्था के बच्चों की अन्त्येष्टि के विषय में विकल्प

मनुस्मृति[67], याज्ञवल्क्यस्मृति[68], पराशरमाधवीय[69], विष्णु धर्मसूत्र[70], ब्रह्मपुराण[71] के मत से गर्भ से पतित बच्चे, भ्रूण, मृतोत्पन्न शिशु तथा दन्तहीन शिशु को वस्त्र से ढँककर गाड़ देना चाहिए। छोटी अवस्था के बच्चों को नहीं जलाना चाहिए, किन्तु इस विषय में प्राचीन स्मृतियों में अवस्था सम्बन्धी विभेद पाया जाता है। पारस्करगृह्यसूत्र[72], याज्ञवल्क्यस्मृति[73], मनुस्मृति[74], यम आदि ने व्यवस्था दी है कि वर्ष के भीतर के बच्चों को ग्राम के बाहर श्मशान से दूर किसी स्वच्छ स्थान पर गाड़ देना चाहिए। ऐसे बच्चों के शवों पर घृत का लेप करना चाहिए, उन पर चन्दनलेप, पुष्प आदि रखने चाहिए, न तो उन्हें जलाना चाहिए और न जल-तर्पण करना चाहिए और न उनका अस्थि-चयन करना चाहिए। सम्बन्धी साथ में नहीं भी जा सकते हैं। यम ने यमसूक्त[75] के पाठ एवं यम के सम्मान में स्तुतिपाठ करने की व्यवस्था दी है। मनुस्मृति[76] ने कुछ वैकल्पिक व्यवस्थाएँ दी हैं, यथा-दाँत वाले बच्चों या नामकरण-संस्कृत बच्चों के लिए जल-तर्पण किया जा सकता है, अर्थात् ऐसे बच्चों का शवदाह भी हो सकता है। अत: दो वर्ष से कम अवस्था के बच्चों की अन्त्येष्टि के विषय में विकल्प है, अर्थात् नामकरण एवं दाँत निकलने के उपरान्त ऐसे बच्चे जलाये या गाड़े जा सकते हैं। किन्तु ऐसा करने में सभी सपिण्डों का शव के साथ जाना आवश्यक नहीं है। यदि बच्चा दो वर्ष का हो या यदि अधिक अवस्था का हो, किन्तु अभी उपनयन संस्कार नहीं हुआ हो तो उसका दाहकर्म लौकिक अग्नि से अवश्य होना चाहिए और मौन रूप से जला देना चाहिए। लौगाक्षि के मत से चूड़ाकरण-संस्कृत बच्चों की अनत्येष्टि भी इसी प्रकार होनी चाहिए। वैखानसस्मार्तसूत्र[77] ने कहा है कि 5 वर्ष के लड़के तथा 7 वर्ष की लड़की का दाहकर्म नहीं होता। उपनयन के उपरान्त आहिताग्नि की भाँति दाहकर्म होता है, किन्तु यज्ञपात्रों का दाह एवं मन्त्रोच्चारण नहीं होता। बौधायनपितृमेधसूत्र[78] ने व्यवस्था दी है कि चूड़ाकरण के पूर्व मृत बच्चों का शवदाह नहीं होता, कुमारी कन्याओं एवं उपनयन रहित लड़कों का पितृमेध नहीं होता। उसने यह भी व्यवस्था दी है कि बिना दाँत के बच्चों को 'ओम' के साथ तथा दाँत वाले बच्चों को व्याहृतियों के साथ गाड़ा जाता है। मिताक्षरा[79] ने नियमों को निम्न रूप से दिया है-'नामकरण के पूर्व केवल गाड़ा जाता है, जल-तर्पण नहीं होता; नामकरण के उपरान्त तीन वर्ष तक गाड़ना या जलाना (जल-तर्पण के साथ) विकल्प से होता है; तीन वर्ष से उपनयन के पूर्व तक शवदाह एवं तर्पण मौन रूप से (बिना मन्त्रों के) होता है; यदि तीन वर्ष के पूर्व चूड़ाकरण हो गया हो तो मरने पर यही नियम लागू होता है। उपनयन के उपरान्त मृत का दाहकर्म लौकिक अग्नि से होता है, किन्तु ढंग वही होता है जो आहिताग्नि के लिए निर्धारित है।'

यति (संन्यासी) को प्राचीन काल में भी गाड़ा जाता था। ऊपर ऋतु का मत प्रकाशित किया गया है कि ब्रह्मचारी एवं यति का शव उत्तपन अग्नि से जलाया जाता है। इस विषय में शुद्धिप्रकाश (पृष्ठ 166) ने व्याख्या उपस्थित की है कि यहाँ पर यति कुटीचक श्रेणी का संन्यासी है और उसने यह भी बताया है कि चार प्रकार के संन्यासी लोगों (कुटीचक, बहूदक, हंस एवं परमहंस) की अन्त्येष्टि किस प्रकार से की जाती है। बौधायनपितृमेधसूत्र (3।11) ने संक्षेप में लिखा है, जिसे स्मृत्यर्थसार (पृष्ठ 98) ने कुछ अन्तरों के साथ ग्रहण कर लिया है और परिव्राजक की अन्त्येष्टि क्रिया का वर्णन उपस्थित किया है-किसी को ग्राम के पूर्व या दक्षिण में जाकर पलाश वृक्ष के नीचे या नदी तट पर या किसी अन्य स्वच्छ स्थल पर व्याहृतियों के साथ यति के दण्ड के बराबर गहरा गड्ढा खोदना चाहिए; इसके उपरान्त प्रत्येक बार सात व्याहृतियों के साथ उस पर तीन बार जल छिड़कना चाहिए, गड्ढे में दर्भ बिछा देना चाहिए, माला, चन्दनलेप आदि से शव को सजा देना चाहिए और मन्त्रों (तैत्तिरीय संहिता 1।1।3।1) के साथ शव को गड्ढे में रख देना चाहिए। परिव्राजक के दाहिने हाथ में दण्ड तीन खण्डों में करके थमा देना चाहिए, और ऐसा करते समय (ऋग्वेद 1।22।17; वाजसनेयी संहिता 5।15 एवं तैत्तिरीय संहिता 1।2।13।1) का मन्त्रपाठ करना चाहिए। शिक्य को बायें हाथ में मन्त्रों (तैत्तिरीय संहिता 4।2।5।2) के साथ रखा जाता है और फिर क्रम से पानी छानने वाला वस्त्र मुख पर (तैत्तिरीय ब्राह्मण 1।4।8।6 के मन्त्र के साथ), गायत्री मन्त्र (ऋग्वेद 3।62।10; वाजसनेयी संहिता 3।35; तैत्तिरीय संहिता 1।5।6।4) के साथ पात्र को पेट पर और जलपात्र को गुप्तांगों के पास रखा जाता है। इसके उपरान्त 'चतुर्होतार:' मन्त्रों का पाठ किया जाता है। अन्य कृत्य नहीं किये जाते, न तो शवदाह होता है, न अशौच मनाया जाता है और न जल-तर्पण ही किया जाता है, क्योंकि यति संसार की विषयवासना से मुक्त होता है। स्मृत्यर्थसार ने इतना जोड़ दिया है कि न तो एकोद्दिष्ट श्राद्ध और न सपिण्डीकरण ही किया जाता है, केवल ग्यारहवें दिन पार्वण श्राद्ध होता है। किन्तु कुटिचक जलाया जाता है, बहूदक गाड़ा जाता है, हंस को जल में प्रवाहित कर दिया जाता है और परमहंस को भली-भाँति गाड़ा जाता है। और देखिए निर्णयसिन्धु (पृष्ठ 634-635)। गाड़ने के उपरान्त गड्ढे को भली-भाँति बालू से ढँक दिया जाता है, जिससे कुत्ते, श्रृगाल आदि शव को (पंजों से गड्ढा खोदकर) निकाल न डालें। धर्मसिंधु (पृष्ठ 497) ने लिखा है कि मस्तक को शंख या कुल्हाड़ी से छेद देना चाहिए, यदि ऐसा करने में असमर्थता प्रदर्शित हो तो मस्तक पर गुड़ की भेली रखकर उसे ही तोड़ देना चाहिए। इसने भी यही कहा है कि कुटीचक को छोड़कर कोई यति नहीं जलाया जाता। आजकल सभी यति गाड़े जाते हैं, क्योंकि बहूदक एवं कुटीचक आजकल पाये नहीं जाते, केवल परमहंस ही देखने में आते हैं। यतियों को क्यों गाड़ा जाता है? सम्भवत: उत्तर यही हो सकता है कि वे गृहस्थों की भाँति श्रौताग्नियाँ या स्मार्ताग्नियाँ नहीं रखते और वे लोग भोजन के लिए साधारण अग्नि भी नहीं जलाते। गृहस्थ लोग अपनी श्रौत या स्मार्त अग्नियों के साथ जलाये जाते हैं, किन्तु यति लोग बिना अग्नि के होते हैं, अत: गाड़े जाते हैं। गाड़ने की विधि के लिए देखिए वैखानसस्मार्तसूत्र (10।8)।

जो स्त्रियाँ बच्चा जनते समय या जनने के तुरन्त उपरान्त ही या मासिक धर्म की अवधि में मर जाती हैं, उनके शवदाह के विषय में विशिष्ट नियम हैं। मिताक्षरा द्वारा उद्धृत एक स्मृति एवं स्मृतिचंद्रिका (1, पृष्ठ 121) ने सूतिका के विषय में लिखा है कि एक पात्र में जल एवं पंचगव्य लेकर मन्त्रोचारण (ऋग्वेद 10।9।1-9, 'आपो हि ष्ठा') करना चाहिए और उससे सूतिका को स्नान कराकर जलाना चाहिए। मासिक धर्म वाली मृत नारी को भी इसी प्रकार जलाना चाहिए, किन्तु उसे दूसरा वस्त्र पहनाकर जलाना चाहिए। देखिए गरुड़पुराण (2।4।171) एवं निर्णयसिंधु (पृष्ठ 621)। इसी प्रकार गर्भिणी नारी के शव के विषय में भी नियम हैं (बौधायनपितृमेधसूत्र 3।9; निर्णयसिंधु, पृष्ठ 622) जिन्हें हम यहाँ नहीं दे रहे हैं।

विभिन्न कालों एवं विभिन्न देशों में शव-क्रिया (अन्त्येष्टि क्रिया) विभिन्न ढंगों से की जाती रही है। अन्त्येष्टि क्रिया के विभिन्न प्रकार ये हैं-जलाना (शवदाह), भूमि में गाड़ना, जल में बहा देना, शव को खुला छोड़ देना, जिससे चील, गिद्ध, कोए या पशु आदि उसे खा लें (यथा पारसियों में), [80] गुफ़ाओं में सुरक्षित रख छोड़ना या ममी रूप में (यथा मिस्र में) सुरक्षित रख छोड़ना।[81] जहाँ तक हमें साहित्यिक प्रमाण मिलता है, भारत में सामान्य नियम शव को जला देना ही था, किन्तु अपवाद भी थे, यथा-शिशुओं, संन्यासियों आदि के विषय में। प्राचीन भारतीयों ने शवदाह की वैज्ञानिक किन्तु कठोर हृदय वाली विधि किस प्रकार निकाली, यह बतलाना कठिन है। प्राचीन भारत में शव को गाड़ देने की बात अज्ञात नहीं थी (अथर्ववेद 5।30।14 'मा नु भूमिगृहो भुवत' एवं 18।2।34)। अन्तिम मन्त्र का रूप यों है-"हे अग्नि, उन सभी पितरों को यहाँ ले आओ, जिससे कि वे हवि ग्रहण करें, उन्हें भी बुलाओ, जिनके शरीर गाड़े गये थे या खुले रूप में छोड़ दिये गये थे या ऊपर (पेड़ों पर या गुहाओं में?) रख दिये गये थे।[82] किन्तु सम्भव है कि शव के गाड़ने की ओर संकेत न भी हो। कुछ पूर्वज बहुत दूर लड़ाई में मारे गये हों, या शत्रुओं द्वारा पकड़ लिये गये हों, मार डाले गये हों और उनके शव यों ही छोड़ दिये गये हों, अर्थात् न तो उन्हें जलाया गया, न गाड़ दिया गया। छान्दोग्योपनिषद (8।8।5) में आये हुए एक कथन से कुछ विद्वान गाड़ने की बात निकालते हैं-'अत: वे उन भी मनुष्यों को असुर नाम देते हैं, जो दान नहीं देते, जो विश्वास नहीं रखते (धर्म नहीं मानते) और न ही यज्ञ करते हैं; क्योंकि यह असुरों का गूढ़ सिद्धान्त है। वे मृत के शरीर को भिक्षा (धूप-गंध या पुष्प?) एवं वस्त्र से सँवारते हैं और सोचते हैं कि वे इस प्रकार दूसरे लोक को जीत लेंगे।' यद्यपि यह वचन स्पष्ट नहीं है किन्तु असुरों, उनके शव श्रृंगार और परलोक प्राप्ति की ओर जो संकेत हैं, उससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि असुरों में शव को गाड़ने की प्रथा सम्भवत: थी। ऋग्वेद (7।89।1) में ऋषि ने प्रार्थना की है कि 'हे वरुण, मैं मिट्टी के घर में न जाऊँ।' सम्भवत: यह गाड़ने की प्रथा की ओर संकेत है। इसके अतिरिक्त अस्थियों को इकट्ठा करके पात्र में रखकर भूमि में गाड़ने और बहुत दिनों उपरान्त उस पर श्मशान बना देने आदि की प्रथा भी प्रचलित थी, जैसा कि हम शतपथ ब्राह्मण आदि की उक्तियों में अभी जानेंगे। अथर्ववेद (18।2।25) में ऐसा आया है-'उन्हें वृक्ष कष्ट न दे और पृथिवी माता ही (ऐसा करे)।' इससे शवाधार (ताबूत) एवं शव को गाड़ने की ओर सम्भवत: संकेत मिलता है।

यह कुछ विचित्र सा है कि प्रगतिशील राष्ट्र बाइबिल के कथन की शाब्दिक व्याख्या में विश्वास करते हुए कि 'मृत का भौतिक शरीरोत्थान होता है', केवल शव को गाड़ने की प्रथा से ही चिपके रहे और उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त तक ईसाई लोक शवदाह के लिए कभी तत्पर नहीं हुए। सन 1906 में क्रेमेशन एक्ट (इंग्लैण्ड में) पारित हुआ जिसके अनुसार स्वास्थ्यमंत्री-समर्थित समतल भूमि पर शवदाह करने की अनुमति अन्त्येष्टि क्रिया के अध्यक्ष को प्राप्त होने लगी। कैथोलिक चर्च वाले अब भी शवदाह नहीं करते। आदिकालीन रोम के लोग शवदाह को सम्मान्य समझते थे और शव गाड़ने की रीति केवल उन लोगों के लिए बरती जाती थी, जो आत्महन्ता या हत्यारे होते थे।

कुछ समय तक शव को विकृत होने से बचाने के लिए तेल आदि में रख छोड़ना भारत में अज्ञात नहीं था। शतपथ ब्राह्मण (29।4।29) एवं वैखानसश्रौतसूत्र (31।32) ने व्यवस्था दी है कि आहिताग्नि अपने लोगों से सुदूर मृत्यु को प्राप्त हो जाये तो उसके शव को तिल-तेल से पूर्ण द्रोण (नाद) में रखकर गाड़ी द्वारा घर लाना चाहिए। रामायण में कई बार यही कहा गया है कि भरत के आने के बहुत दिन पूर्व ही राजा दशरथ का शव तेलपूर्ण लम्बे द्रोण या नाद में रख दिया गया था (अयोध्याकाण्ड, 66।14-16, 76।4)। विष्णुपुराण में आया है कि निमि का शव तेल तथा अन्य सुगंधित पदार्थों से इस प्रकार सुरक्षित रखा हुआ था कि वह सड़ा नहीं और लगता था कि मृत्यु मानो अभी हुई हो।

ऋग्वेद के प्रणयन के पूर्व की स्थिति के विषय में निश्चयपूर्वक कुछ नहीं कहा जा सकता। ऋग्वेद तथा सिंधु घाटी के मोहनजोदड़ो एवं हड़प्पा अवशेषों के काल के निर्णय के विषय में अभी कोई सामान्य निश्चय नहीं हो सका है। सर जॉन मार्शल (मोहनजोदड़ो, जिल्द 1, पृष्ठ 86) ने पूर्ण रूप से गाड़ने, आंशिक रूप से गाड़ने एवं शवदाह के उपरान्त गाड़ने के रीतियों की ओर संकेत किया है। लौरिया नन्दनगढ़ की खुदाई से कुछ ऐसी श्मशान भूमियों का पता चला है, जो वैदिक काल की कही जाती हैं और उनमें एक छोटी स्वर्णिम वस्तु पायी गयी है, जो नंगी स्त्री, सम्भवत: पृथिवी माता की हैं। ये सब बातें पुरातत्ववेत्ताओं से सम्बन्ध रखती हैं। अत: हम इन पर यहाँ विचार नहीं करेंगे।

हारलता (पृष्ठ 126) ने आदिपुराण का एक वचन उद्धृत करते हुए लिखा है कि मग के लोग गाड़े जाते थे और दरद लोग एवं लुप्त्रक लोग अपने सम्बन्धियों के शवों को पेड़ पर लटकाकर चल देते थे।

ऐसा प्रतीत होता है कि आरम्भिक बौद्धों में अन्त्येष्टि क्रिया की कोई अलग विधि प्रचलित नहीं थी, चाहे मरने वाला भिक्षु हो या उपासक। महापरिनिब्बान सुत्तगें बौद्धधर्म के महान प्रस्थापक की अन्त्येष्टि क्रियाओं का वर्णन पाया जाता है (4।14)। इस ग्रन्थ से इस विषय में जो कुछ एकत्र किया जा सकता है, वह यह है-'बुद्ध के अत्यन्त प्रिय शिष्य आनन्द ने कोई पद्य नहीं कहा, कुछ ऐसे शिष्य जो विषयभोग से रहित नहीं थे, रो पड़े और पृथिवी पर धड़ाम से गिर पड़े, और अन्य लोग (अर्हत्) किसी प्रकार दु:ख को सम्भाल सके। दूसरे दिन आनन्द कुशीनारा के मल्लों के पास गये, मल्लों ने धूप, मालाएँ, वाद्ययंत्र तथा पाँच सौ प्रकार के वस्त्र आदि एकत्र किये; मल्लों ने शाल वृक्षों की कुंज में पड़े बुद्ध के शव की प्रार्थना सात दिनों तक की और नाच, स्तुतियों, गायन, मालाओं एवं गंधों से पूजा-अर्चनाएँ कीं और वस्त्रों से शव को ढँकते रहे। सातवें दिन वे भगवान के शव को दक्षिण की ओर ले चले, किन्तु एक चमत्कार (6।29-32 में वर्णित) के कारण वे उत्तरी द्वार से नगर के बीच से होकर शव को लेकर चले और पूर्व दिशा में उसे रख दिया (सामान्य नियम यह था कि शव को गाँव के मध्य से लेकर नहीं जाया जाता और उसे दक्षिण की और ले जाया जाता था, किन्तु बुद्ध इतने असाधारण एवं पवित्र थे कि उपर्युक्त प्रथाविरुद्ध ढंग उनके लिए मान्य हो गया)। बुद्ध का शव नये वस्त्रों से ढँका गया और ऊपर से रूई एवं ऊन के चोगे बाँधे गये और फिर उनके ऊपर एक नया वस्त्र बाँधा गया। इस प्रकार वस्त्रों एवं सूत्रों के पाँच सौ स्तरों से शरीर ढँक दिया गया। इसके उपरान्त एक ऐसे लोहे के तैलपात्र में रखा गया, जो स्वयं एक तैलपात्र में रखा हुआ था। इसके पश्चात् सभी प्रकार के गंधों से युक्त चिता बनायी गई और उस पर शव रख दिया गया। तब महाकस्सप एवं पाँच सौ अन्य बौद्धों ने, जो साथ में आये थे, अपने परिधानों को कंधों पर सजाया (उसी प्रकार जिस प्रकार ब्राह्मण लोग अपने यज्ञोपवीत को धारण करते हैं), उन्होंने बद्धबाहु होकर सिर झुकाया और श्रद्धापूर्वक शव की तीन बार प्रदक्षिणा की। इसके उपरान्त शव का दाह किया गया। केवल अस्थियाँ बच गयीं। इसके उपरान्त मगधराज, अजातशत्रु, वैशाली के लिच्छवियों आदि ने बुद्ध के अवशेषों पर अपना-अपना अधिकार जताना आरम्भ कर दिया। बुद्ध के अवशेष आठ भागों में बाँटे गये। जिन्हें ये भाग प्राप्त हुए, उन्होंने उन पर स्तूप (धूप) बनवाये, मोरिय लोगों ने जिन्हें केवल राख मात्र प्राप्त हुई थी, उस पर स्तूप बनवाया और एक ब्राह्मण द्रोण (दोन) ने उसे घड़े पर, जिसमें अस्थियाँ एकत्र कर रखी गयी थीं, एक स्तूप बनवाया।' श्री राइस डेविड्स ने कहा है कि यद्यपि ऐतिहासिक ग्रन्थों एवं जन्म गाथाओं में अन्त्येष्टियों का वर्णन मिलता है, किन्तु कहीं भी प्रचलित धार्मिक क्रिया आदि की ओर संकेत नहीं मिलता। ऐसा कहा जा सकता है कि बौद्ध अन्त्येष्टि क्रिया, यद्यपि सरल है, तथापि वह आश्वलायनगृह्यसूत्र के कुछ नियमों से बहुत कुछ मिलती है।[83]

जब मृत के सम्बन्धीगण (पुत्र आदि) जल-तर्पण एवं स्नान करके जल (नदी, जलाशय आदि) से बाहर निकल कर हरी घास के किसी स्थल पर बैठ गये हों, तो गुरुजनों (वृद्ध आदि) को उनके दु:ख कम करने के लिए प्राचीन गाथाएँ कहनी चाहिए (याज्ञवल्क्यस्मृति 3।7 एवं गौतमपितृमेधसूत्र 1।4।2)।[84] विष्णुधर्मसूत्र (20।22-53) में इसका विस्तृत वर्णन किया गया है कि किस प्रकार काल (समय, मृत्यु) सभी को, यहाँ तक इन्द्र, देवों, दैत्यों, महान राजाओं एवं ऋषियों को धर दबोचता है, कि प्रत्येक व्यक्ति जन्म लेकर एक दिन मरण को प्राप्त होता ही है (मृत्यु अवश्यंभावी है), कि (पत्नी को छोड़कर) कोई भी मृत व्यक्ति के साथ यमलोक को नहीं जाता है, कि किस प्रकार सदसत् कर्म मृतात्मा के पास आते हैं, कि किस प्रकार श्राद्ध मृतात्मा के लिए कल्याणकर है। इसने निष्कर्ष निकाला है कि इसीलिए जीवित सम्बन्धियों को श्राद्ध करना चाहिए और रुदन छोड़ देना चाहिए, क्योंकि उससे लाभ नहीं और केवल धर्म ही ऐसा है, जो मृतात्मा के साथ जाता है।[85] ऐसी ही बातें याज्ञवल्क्यस्मृति (3।8-11=गरुड़पुराण 2।4।8184) में भी पायी जाती है; जो व्यक्ति मानव जीवन में, जो केले के पौधे के समान सारहीन है, और जो पानी के बुलबुले के समान अस्थिर है, अमरता खोजता है, वह भ्रम में पड़ा हुआ है। रुदन से क्या लाभ है जब कि शरीर पूर्व जन्म के कर्मों के कारण पंचतत्त्वों से निर्मित हो पुन: उन्हीं तत्त्वों में समा जाता है। पृथिवी, सागर और देवता नाश को प्राप्त होने वाले हैं (भविष्य में जब कि प्रलय होता है)। यह कैसे सम्भव है कि वह मृत्युलोक, जो फेन के समान क्षणभंगुर है, नाश को प्राप्त नहीं होगा? मृतात्मा को असहाय होकर अपने सम्बन्धियों के आँसू एवं नासिकारंध्रों से निकले द्रव पदार्थ को पीना पड़ता है, अत: उन सम्बन्धियों को रोना नहीं चाहिए, बल्कि अपनी सामर्थ्य के अनुसार श्राद्धकर्म आदि करना चाहिए। गोभिलस्मृति (3।39) ने बलपूर्वक कहा है कि 'जो नाशवान है और जो सभी प्राणियो की विशेषता (नियति) है, उसके लिए रोना-कलपना क्या? केवल शुभ कर्मों के सम्पादन में, जो तुम्हारे साथ जाने वाले हैं, लगे रहो।' गोभिल ने याज्ञवल्क्यस्मृति (3।8-10) एवं महाभारत को उद्धृत किया है-'सभी संग्रह क्षय को प्राप्त होते हैं, सभी उदय पतन को, सभी संयोग वियोग और जीवन मरण को।'[86] अपरार्क ने रामायण एवं महाभारत से उदाहरण दिये हैं, यथा दुर्योधन की मृत्यु पर वासुदेव द्वारा धृतराष्ट्र के प्रति कहे गये वचन। पराशरमाधवीय (1।2, पृष्ठ 292-293), शुद्धिप्रकाश (पृष्ठ 205-206) एवं अन्य ग्रन्थों ने विष्णुधर्मसूत्र, याज्ञवल्क्यस्मृति एवं गोभिलस्मृति के वचन उद्धृत किये हैं।


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टीका टिप्पणी

  1. गरुड़ पुराण 2.4.67-69
  2. सत्यषाढ श्रौतसूत्र 28.2.72
  3. केशान् प्रकीर्य पांसूनोप्यैकवाससो दक्षिणामुख: सकृदुन्मज्ज्योत्तीर्य सव्यं जान्वाच्य वास: पीडयित्वोपविशन्त्येवं त्रिस्तत्प्रत्ययं तिलमिश्रमुदकं त्रिरुत्सिच्याहरहरञ्जलिनैकोत्तरवृद्धिरैकादशाहात्। सत्याषाढश्रौतसूत्र (28.2.72)। गौतमपितृमेधसूत्र (1.4.7) ने भी कही है। जल-तर्पण इस प्रकार होता है-'काश्यपगोत्र देववत्त शर्मन्, एतत्ते उदकम्' या 'काश्यपगोत्राय देवदत्तशर्मणे प्रेतायैतत्तिलोदकं ददामि' (हरदत्त) या 'देवदत्तनामा काश्यपगोत्र: प्रेतस्तृप्यतु' (मिताक्षरा, याज्ञवल्क्यस्मृति 3.5)। और देखिए गोभिलस्मृति (3.36-37, अपरार्क पृष्ठ 874 एवं पराशरमाधवीय 1.2, पृष्ठ 287)।
  4. गौतम धर्मसूत्र 14.38
  5. वसिष्ठ धर्मसूत्र 4.12
  6. विष्णु धर्मसूत्र 19.7 एवं 13
  7. अपरार्क पृष्ठ 874
  8. दिने दिनेऽञ्जलीन् पूर्णान् प्रदद्यात्प्रेतकारणात्। तावद् वृद्धिश्च कर्तव्या यावत्पिड: समाप्यते।। प्रचेता (मिताक्षरा, याज्ञवल्क्यस्मृति 3।3); 'यावदाशौचं तावत्प्रेतस्योदकं पिण्डं च दद्यु:।' विष्णुधर्मसूत्र (19।13)। यदि एक दिन केवल एक ही अंजलि जल दिया जाए तो दस दिनों में केवल दस अंजलियाँ होंगी, यदि प्रतिदिन 10 अंजलियाँ दी जायें तो 100, किन्तु यदि प्रथम दिन एक अजंलि और उसके उपरान्त प्रतिदिन एक अंजलि बढ़ाते जायें तो कुल मिलाकर 55 अंजलियाँ होंगी।
  9. शुद्धिप्रकाश, पृष्ठ 202
  10. परिशिष्ट 3.4
  11. गरुड़ पुराण (प्रेतखण्ड, 5.22-23)
  12. प्रचेता (मिताक्षरा, याज्ञवल्क्यस्मृति 3.4)
  13. धर्मसिंधु, पृष्ठ 463
  14. स्मृतिमुक्ताफल, पृष्ठ 595-596 एवं स्मृतिचन्द्रिका, पृष्ठ 176
  15. यथा-कूर्म पुराण, उत्तरार्ध 23.70
  16. याज्ञवल्क्यस्मृति 3.16
  17. इसमें जनेऊ दाहिने कंधे पर या अपसव्य रखा जाता है
  18. विष्णु धर्मसूत्र 19.13
  19. यदि कई पुत्र हों तो ज्येष्ठ पुत्र, यदि वह दोषरहित हो
  20. पुत्राभावे सपिण्डा मातृसपिण्डा: शिष्याश्च वा दद्यु:। तदभावे ऋत्विगाचार्यों। गौतमधर्मसूत्र (15.13-14)।
  21. असगोत्र: सगोत्रो वा यदि स्त्री यदि वा पुमान्। प्रथमेऽहनि यो दद्यात्स दशाहं समापयेत्।। गृह्यपरिशिष्ट (मिताक्षरा, याज्ञवल्क्यस्मृति 1.255 एवं 3.16; अपरार्क, पृष्ठ 887; मदनपारिजात, पृष्ठ 400; हारलता, पृष्ठ 172)। देखिए लम्बाश्वलायन (20.6) एवं गरुड़ पुराण (प्रेतखण्ड, 5।19-20)।
  22. पारस्करगृह्यसूत्र 3.10; शंख-लिखित, याज्ञवल्क्यस्कृति 3.4
  23. पारस्करगृह्यसूत्र 3.10
  24. गौतमपितृमेधसूत्र 1.4.4-6
  25. याज्ञवल्क्यस्मृति 3.6
  26. मनुस्मृति 5.89-90
  27. गौतम धर्मसूत्र 14.11
  28. प्रायानाशकशस्त्राग्निविषोदकोद्बन्धनप्रपतनैश्चेच्छताम्। गौतम धर्मसूत्र (14.11); क्रोधात् प्रायं विषं वह्नि: शस्त्रमुद्बन्धनं जलम्। गिरिवृक्षप्रपातं च ये कुर्वन्ति नराधमा:।। ब्रह्मदण्डहया ये च ये चैव ब्राह्मणैर्हता:। महापातकिनो ये च पतितास्ते प्रकीर्तिता:।। पतितानां न दाह: स्यान्न च स्यादस्थिसंचय:। न चाश्रुपात: पिण्डो वा कार्या श्राद्धक्रिया न च।। ब्रह्म पुराण (हरदत्त, गौतमधर्मसूत्र 14.11; अपरार्क पृष्ठ 902-903), देखिए औशनशसस्मृति (7.1, पृष्ठ 539), संवर्त (178-179), अत्रि (216-217), कूर्म पुराण (उत्तरार्ध 23.60-63), हारलता (पृष्ठ 204), शुद्धिप्रकाश (पृष्ठ 59)।
  29. हरदत्त गौतम धर्मसूत्र 14.11
  30. मिताक्षरा, याज्ञवल्क्यस्मृति 3.6
  31. वैखानस श्रौतसूत्र 5.11
  32. आदिपर्व अध्याय 127
  33. चारों ओर से ढँकी शिबिका में शव ले जाया गया था, वाद्य यंत्र थे, जुलूस में राजछत्र एवं चामर थे, साधुओं को धन बाँटा जा रहा था, गंगातट के एक सुरम्य स्थल पर शव ले जाया गया था, शव को स्नान कराया गया था, उस पर चन्दनलेप लगाया गया था
  34. स्त्रीपर्व अध्याय 23.39-42
  35. तीन मास पढ़े गये थे, उनके शिष्यों ने पत्नी के साथ चिता की परिक्रमा की, गंगा के तट पर लोग गये थे
  36. अनुशासनपर्व 169.10-19
  37. चिता पर सुगन्धित पदार्थ डाले गये थे, शव सुन्दर वस्त्रों एवं पुष्पों से ढँका था, शव के ऊपर छत्र एवं चामर थे, कौरवों की नारियाँ शव पर पंखे झल रही थीं और सामवेद का गायन हो रहा था
  38. मौसलपर्व 7.19-25
  39. स्त्रीपर्व 26.28-43
  40. आश्रमवासिकपर्व, अध्याय 39
  41. रामायण- अयोध्याकाण्ड, 76.16-20)
  42. शतपथ ब्राह्मण 2.5.1.13-14
  43. कात्यायनश्रौतसूत्र (25.8.9), बौधायनपितृमेधसूत्र (3.8), गोभिलस्मृति (3.47) एवं वसिष्ठधर्मसूत्र (4.37)
  44. ऐतरेय ब्राह्मण 32.1
  45. ब्रह्म पुराण- शुद्धिप्रकाश, पृष्ठ 187
  46. अपरार्क पृष्ठ 545
  47. सत्याषाढ श्रौतसूत्र 19439
  48. शांखायनश्रौतसूत्र (4.15.19-31), कात्यायन श्रौतसूत्र (25.8.15), बौधायन पितृमेधसूत्र (3.8), गौतम पितृमेधसूत्र (2.1.6-14), गोभिल. (3.48), हारीत (शुद्धिप्रकाश, पृष्ठ 186) एवं गरुड़ पुराण (2.4.134-154 एवं 2.40.44)
  49. अपरार्क, पृष्ठ 545
  50. अपरार्क, पृष्ठ 545
  51. वैखानसस्मार्तसूत्र 5.12
  52. शुद्धिप्रकाश, पृष्ठ 187
  53. सत्याषाढ श्रौतसूत्र 29.4.41
  54. बौधायन पितृमेधसूत्र 3.7.4
  55. गरुड़ पुराण 2.4.169-70
  56. मनुस्मृति 5.167-168
  57. याज्ञवल्क्यस्मृति (1.89), बौधायन पितृमेधसूत्र (2.4 एवं 6), गोभिलस्मृति (3.5), वैखानसस्मार्तसूत्र (7.2), वृद्ध हारीत (11.213), लघु आश्वलायनगृह्यसूत्र (20.59)
  58. विश्वरूप (याज्ञवल्क्यस्मृति 1.87)
  59. मनुस्मृति 5.167
  60. गोभिलस्मृति (3.9-10) एवं वृद्ध-रहित (11.214)
  61. बौधायनपितृमेधसूत्र (4.6-8), कात्यायन श्रौतसूत्र (29.4.34-35) एवं त्रिकाण्डमंडन (2.121)
  62. गोभिलस्मृति 3.52
  63. गोभिलस्मृति 3.53
  64. शुद्धिप्रकाश, पृष्ठ 166
  65. बौधायन पितृमेधसूत्र 3.1.9-13
  66. पराशरमाधवीय 1.2, पृष्ठ 226; पराशर 5.10-11; वैखानसस्मार्तसूत्र 5.11
  67. मनुस्मृति 5.68
  68. याज्ञवल्क्यस्मृति 3.1
  69. पराशरमाधवीय 3.14
  70. विष्णु धर्मसूत्र 22.27-28
  71. ब्रह्मपुराण- पराशरमाधवीय 1.2, पृष्ठ 238
  72. पारस्करगृह्यसूत्र 3.10
  73. याज्ञवल्क्यस्मृति 3.1
  74. मनुस्मृति 5.68-6
  75. ऋग्वेद 10.14
  76. मनुस्मृति 5.70
  77. वैखानसस्मार्तसूत्र 5.11
  78. बौधायनपितृमेधसूत्र 2.3.10-11
  79. याज्ञवल्क्यस्मृति 3.2
  80. पारसियों के शास्त्रों के अनुसार शव को गाड़ देना महान अपराध माना जाता है। यदि शव कब्र से बाहर नहीं निकाला गया तो मज्द के क़ानून के प्राध्यापक (शिक्षक) के विषय में कोई प्रायश्चित नहीं है, या उसके लिए भी कोई प्रायश्चित नहीं है, जिसने मज्द के क़ानून को पढ़ा है, और जब वे छ: मास या एक वर्ष के भीतर शव को कब्र से बाहर नहीं निकालते तो उन्हें क्रम से 500 या 1000 कोड़े खाने पड़ते हैं। देखिए वेंडिडाड, फ़र्गार्ड 3 (सैक्रेड बुक आफ़ दि ईस्ट, जिल्द 4, पृष्ठ 31-32)। पर्वतों के शिखरों पर शव रख दिये जाते हैं और उन्हें पक्षीगण एवं कुत्ते खा डालते हैं। शव को खुला छोड़ देना मज्द रीति की अत्यन्त विचित्र बात है।
  81. पियाज्ज़ा बर्बेरिनी के पास रोम के कपूचिन चर्च के भूगर्भ कब्रगाहों की दीवारों में 4000 पादरियों की हड्डियाँ सुरक्षित हैं। देखिए पक्ल की पुस्तक 'फ़्यूनरल कस्टम्स (पृष्ठ 136)'।
  82. ये निखाता ये परोप्ता ये दग्धा ये चोद्धिता:। सर्वास्तानग्न आ वह पितृन् हविषे अत्तवे।। अथर्ववेद (18।2।14)।
  83. देखिए जे.आर.ए.एस. (1906, पृष्ठ 655-671 एवं 881-913) में प्रकाशित फ़्लीट के लेख, जो महापरिनिब्बान-सुत्त, दिव्यावदान, फाहियान के ग्रन्थ, सुमंगलविलासिनी एवं अन्य ग्रन्थों के आधार पर लिखे गये ऐसे लेख हैं, जो बुद्ध की अस्थियों एवं भस्म के बँटवारे अथवा उन पर बने स्तूपों पर प्रकाश डालते हैं। फ़्लीट का कहना है कि पिप्रहवा अवशेष-कुंभ में, जिस पर एक अभिलेख अंकित है, जो अब तक पाये गये अभिलेखों में सबसे पुराना है (लगभग ईसापूर्व सन 375) और जिसमें सात सौ वस्तुएँ पायी गई हैं, भगवान बुद्ध के अवशेष चिह्न नहीं हैं, प्रत्युत उनके सम्बन्धियों के हैं। फ़्लीट ने एक परम्परा की ओर संकेत किया है जो बतलाती है कि सम्राट अशोक ने बुद्ध के अवशेष चिह्नों पर बने 8 स्तूपों में 7 को खोदकर उनमें पाये गये अवशेषों को 84000 सोने और चाँदी के पात्रों में परिवर्तित कर दिया और उन्हें सम्पूरण भारत में वितरित कर दिया। इस प्रकार 84000 स्तूपों का निर्माण उन पर किया गया। राइस डेविड्स ने अपने ग्रन्थ 'बुद्धिस्ट इंडिया' (पृष्ठ 78-80) में यह कहते हुए कि जन या धन से विशिष्ट मृत लोगों का राजकर्मचारियों या शिक्षकों के शव जलाये जाते और अवशिष्ट भस्मांश स्तूपों (पालि में थूप या टोप) के अन्दर गाड़ दिये जाते थे। निर्देश किया है कि साधारण लोगों के शव अजीव ढंग से रखे जाते थे। वे खुले स्थल में रख दिये जाते थे। नियमानुकूल वे शव या चितावशेष गाड़े नहीं जाते थे, प्रत्युत पक्षियों या पशुओं द्वारा नष्ट किये जाने के लिए छोड़ दिये जाते थे अथवा वे स्वयं प्राकृतिक रूप से नष्ट हो जाया करते थे।
  84. शोकमुत्सृज्य कल्याणीभिर्वाग्भि: सात्त्विकाभि: कथाभि: पुराणै: सुकृतिभि: श्रुत्वाधोमुखा व्रजन्ति। गौतमपितृमेधसूत्र (1।4।2)।
  85. यह अवलोकनीय है कि विष्णुधर्मसूत्र के कुछ पद्य (20।29, 48-49 एवं 51-53) भगवदगीता के पद्यों (2।22-28, 13।23-25) के समान ही हैं। विष्णुधर्मसूत्र (20।47 यथा धेनुसहस्रेषु आदि) शान्तिपर्व (181।16, 187।27 एवं 323।16) एवं विष्णुधर्मोत्तर (2।78।27) के समान ही है। इसी प्रकार देखिए विष्णुधर्मसूत्र (20।41) एवं शान्तिपर्व (175।15 एवं 322।73)। देखिए लक्ष्मीधर का कृत्यकल्पतरु (शुद्धिप्रकाश, पृष्ठ 91-97), याज्ञवल्क्यस्मृति (3।7, 11), विष्णुधर्मसूत्र (20।22-53) एवं भगवदगीता (2।13, 18)।
  86. सर्वे क्षयान्ता निचया: पतनान्ता: समुच्छया:। संयोग विप्रयोगान्ता मरणान्तं च जीवितम्।। और देखिए शान्तिपर्व (331।20)।