क़ुरआन

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क़ुरान शरीफ़

क़ुरान या क़ुरआन (अरबी: القرآن, अल-क़ुर्'आन) इस्लाम धर्म की पवित्रतम पुस्तक है और इस्लाम की नींव है। मुसलमान मानते हैं कि इसे परमेश्वर (अल्लाह) ने देवदूत (फ़रिश्ते) जिब्राएल द्वारा हज़रत मुहम्मद को सुनाया था। मुसलमानों का मानना है कि क़ुरान ही अल्लाह की भेजी अन्तिम और सर्वोच्च पुस्तक है। क़ुरान शब्द का प्रथम उल्लेख स्वयं क़ुरान में ही मिलता है, जहाँ इसका अर्थ है - उसने पढ़ा, या उसने उच्चारा। यह शब्द इसके सीरियाई समानांतर कुरियना का अर्थ लेता है जिसका अर्थ होता है ग्रंथों को पढ़ना। हालाँकि पाश्चात्य जानकार इसको सीरियाई शब्द से जोड़ते हैं, अधिकांश मुसलमानों का मानना है कि इसका मूल क़ुरा शब्द ही है। पर चाहे जो हो मुहम्मद साहब के जन्मदिन के समय ही यह एक अरबी शब्द बन गया था।[1] मुस्लिम समाज के लिये आवश्यक बिदअत में क़ुरान की सही समझ-बूझ, हदीस (पैगम्बर मुहम्म्द की दीक्षाओं या परंपराओं) के मूल्यांकन और उनकी वैधता तय करने, विधर्मता का खंडन करने और क़ानून के संहिताकरण के लिये अरबी व्याकरण और भाषाशास्त्र (फ़र्द किफ़ाया) का अध्ययन ज़रूरी है।

अध्याय

  • इस्लाम धर्म की पवित्र पुस्तक का नाम क़ुरान है जिसका हिन्दी में अर्थ 'सस्वर पाठ' है। क़ुरान शरीफ़ 22 साल 5 माह और 14 दिन के अर्से में ज़रूरत के मुताबिक़ किस्तों में नाज़िल हुआ। क़ुरान शरीफ़ में 30 पारे, 114 सूरतें और 540 रुकूअ हैं। क़ुरान शरीफ़ की कुल आयत की तादाद 6666 (छः हज़ार छः सौ छियासठ) है।[2]
  • क़ुरान में कुल 114 अध्याय हैं जिन्हें सूरा कहते हैं। बहुचन में इन्हें सूरत कहते हैं। यानि 15वें अध्याय को सूरत 15 कहेंगे। हर अध्याय में कुछ श्लोक हैं जिन्हें आयत कहते हैं। ‎क़ुरआन की 6,666 आयतों में से (कुछ के अनुसार 6,238) अभी तक 1,000 आयतें वैज्ञानिक तथ्यों पर बहस करती हैं।[1]
  • क़ुरआन में कुल 6,233 आयतें (वाक्य) हैं। अरबी वर्णमाला के कुल 30 अक्षर 3,81,278 बार आए हैं। ज़ेर (इ की मात्राएँ) 39,582 बार, ज़बर (अ की मात्राएँ) 53,242 बार, पेश (उ की मात्राएँ) 8,804 बार, मद (दोहरे, तिहरे 'अ' की मात्राएँ) 1771 बार, तशदीद (दोहरे अक्षर के प्रतीक) 1252 बार और नुक़्ते (बिन्दु) 1,05,684 हैं। इसके 114 में से 113 अध्यायों का आरंभ बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम से हुआ है, अर्थात् "शुरू अति कृपाशील, अति दयावान अल्लाह के नाम से।" पठन-पाठन और कंठस्थ में आसानी के लिए पूरे ग्रंथ को 30 भागों में बाँट कर हर भाग का नामांकरण कर दिया गया है। हर भाग 'पारा' (Part) कहलाता है।[3]

लौह महफूज में क़ुरान

क़ुरआन हकीम 22 साल 5 माह और 14 दिन के अर्से में ज़रूरत के मुताबिक़ किस्तों में नाज़िल हुआ। कुरआन मजीद में 30 पारे, 114 सूरतें और 540 रुकूअ हैं। क़ुरआन मजीद की कुल आयत की तादाद 6666 (छः हज़ार छः सौ छियासठ) है।

क़ुरान के विषय में उसके अनुयायियों का विश्वास है और स्वयं क़ुरान में भी लिखा है- सचमुच पूज्य क़ुरान अदृष्ट पुस्तक में (वर्तमान) है। जब तक शुद्ध न हो, उसे मत छुओ। वह लोक-परलोक के स्वामी के पास उतरा है[4] अदृष्ट पुस्तक से यहाँ अभिप्राय उस स्वर्गीय लेख-पटिट्का से है जिसे इस्लामी परिभाषा में 'लौह-महफूज' कहते हैं। सृष्टिकर्ता ने आदि से उसमें त्रिकालवृत्ति लिख रक्खा है, जैसा कि स्थानान्तर में कहा है-

हमने अरबी क़ुरान रचा कि तुमको ज्ञान हो। निस्सन्देह वह उत्तम ज्ञान-भण्डार हमारे पास पुस्तकों की माता (लौह महफूज) में लिखा है[5]

जगदीश्वर ने क़ुरान में वर्णित ज्ञान को जगत के हित के लिए अपने प्रेरित के हृदय में प्रकाशित किया, यही इस सबका भावार्थ है। अपने धर्म की शिक्षा देने वाले ग्रन्थ पर असाधारण श्रद्धा होना मनुष्य का स्वभाव है। यही कारण है कि क़ुरान के माहात्म्य के विषय में अनेक कथाएँ जनसमुदाय में प्रचलित हैं, यद्यपि उन सबका आधार श्रद्धा छोड़ कर क़ुरान में ढूँढ़ना युक्त नहीं है, किन्तु ऐसे वाक्यों का उसमें सर्वथा अभाव है, यह भी नहीं कहा जा सकता। एक स्थल पर कहा है-

यदि हम इस क़ुरान को किसी पर्वत (वा पर्वत-सदृश कठोर हृदय) पर उतारते, तो अवश्य तू उसे परमेश्वर के भय से दबा और फटा देखता। इन दृष्टान्तों को मनुष्यों के लिए हम वर्णित करते है जिससे कि वह सोचें।[6]

लेखन

हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) स्वयं पढ़े-लिखे न थे। क़ुरआन का जो भी अंश अवतरित होता वह विशेष ईश्वरीय प्रावधान से मुहम्मद को कंठस्थ (याद) हो जाता[7] मुहम्मद तुरंत या शीघ्रताशीघ्र अपने साथियों को बोल कर उसे लिखवा देते। इतिहास में प्रमाणित तौर पर ऐसे लिखने वालों (वह्य-लिपिकों) की संख्या 41 उल्लिखित है। उन सब के नाम, पिता के नाम, क़बीले (वंश, कुल) के नाम भी इतिहास के रिकार्ड पर हैं।

क़ुरान का प्रयोजन, वर्णन-शैली

'कदाचित तुमको ज्ञान हो। इसलिए उस (मुहम्मद) पर हमने अरबी क़ुरान उतारा!'[8]

'मंगल संदेशप्रद, भयदायक, वह ग्रंथ-अरबी क़ुरान-परम कृपालु दयामय की ओर से उतरा है। इसमें उस (प्रभु) का लक्षण वर्णित है जिसमें कि जातियाँ उसे जानें'[9]

'हे मुहम्मद ! इस प्रकार हमने अरबी क़ुरान तेरे हृदयस्थ किया, तू उससे ग्रामों की जननी (मक्का) और उसके आसपास को इकट्ठा होने के दिन (प्रलय) से डरावै।'[10]

'हे मुहम्मद ! इस प्रकार हमने उस अरबी हुक्म (क़ुरान) को उतारा। जो कुछ तेरे पास (उस) ज्ञान में से आया, यदि उसे छोड़ तूने उन (लोगों) की इच्छा का अनुसरण किया, तो महाप्रभु की ओर से तेरे लिए सहायक और रक्षक (कोई) नहीं।'[11]

उपर्युक्त क़ुरान से उद्धृत इन वाक्यों में 'क़ुरान' यह नाम, उसकी भाषा और प्रतिपाद्य विषय बतलाया गया है। क़ुरान क्या है? ईश्वर-प्रदत्त एक अरबी ग्रन्थ्। उसके प्रदान का प्रयोजन क्या? यही कि सन्मार्ग-भ्रष्ट जनों को भय दिखा और श्रद्धालुओं को उनके पुण्य कार्यों के मंगलमय परिणाम का संदेश दे सत्पथ पर आरूढ़ किया जाय। महानुभाव मुहम्मद के समय का 'अरब' कहाँ तक सन्मार्ग-व्युत हो गया था? उस समय का व्यवहार कहाँ तक दुराचारपूर्ण हो गया था? अज्ञान कहाँ तक अपनी पराकाष्ठा को पहुँच चुका था? इत्यादि बातों का परिचय कुछ तो प्रथम विन्दु से मिल चुका है और कुछ का वर्ण्न आगे भी यथास्थान होगा। उन अज्ञानतमोनिमग्न, सदाचार-संज्ञाहीन, क्रुरकर्मा अरब-निवासियों को सच्चे रास्ते पर ले चलने के दो ही उपाय थे। एक तो यह था कि उनको पापों का दुष्परिणाम समझाकर उन्हें अच्छे कामों की ओर प्रेरित किया जाय।

कितनी ही बार अनेक प्रलोभन सत्पुरुषों को भी सन्मार्ग-भ्रष्ट करने में सफल होते हैं। सर्वप्रिय बनने की इच्छा बहुधा अमधुर सत्य प्रकाशित करने की आज्ञा नहीं देती। इसीलिए ऊपर संकेत किया गया है कि लोगों की इच्छा का अनुसरण करने वाला कभी ईश्वर की रक्षा और सहायता का भाजन नहीं हो सकता। सचमुच संसार में समालोचन और संशोधन का काम बहुत कठिन है। नाना छल-पाखण्डयुक्त संसार के दुष्कृत्यों की यदि निर्भीकतापूर्वक समालोचना की जाती है तो एक बार जनसमुद्र अपने निस्सीमाधिकार तथा चिरस्थापित नीति के तरंगों का गत्यवरोध देख, अपनी सम्पूर्ण शक्ति को उसके प्रतिकार में लिए प्रस्तुत हो जाता है। बड़ी-बड़ी तरंगो की तो बात ही अलग है, क्षुद्र बुद्बुद-समुदाय भी अभिमत्त हो अपने स्वरूप का विचार न कर उस समय उसके सिर पर पादप्रहार करने का उद्योग भी आरम्भ कर देता है। किन्तु निश्चल-नीति, सत्यमनस्क, सुधारक-

निन्दन्तु नीतिनिपुणा यदि वा स्तृवन्तु।
लक्ष्मी समाविशतु गच्छतु वा यथेष्टम्॥
अद्यैव मरणमस्तु युगान्तरे वा।
न्यायात्पथः प्रविचलन्ति पदं न धीराः॥1॥

भर्तृहरि के इस वाक्यानुसार अपना सर्वस्व स्वाह करने के लिए उस प्रलय-कोलाहलपूर्ण, संक्रुद्ध जन-सिन्धु की कुछ भी परवाह न कर, सुमेरुवत् अपने स्थान पर स्थित रहता है। उसका सदुपदेश अरण्य-रोदन-सा प्रतीत होता है अथवा गम्भीर भेरीनाद के सामने क्षीण वीणास्वर। सहायकों और संरक्षकों के बिना अकेला, अपने भीषण विरोधियों का सामुख्य, वह उस निराशपूर्ण अन्धनिशा में करता है जब उसे क्षणमात्र के लिए भी आशारूपी तारों की टिमटिमाहट भी नहीं दीख पड़ती। सुधारक मुहम्मद का जीवन भी ऐसी ही घटनाओं से पूर्ण है।

ऊपर के वाक्यों में क़ुरान का अरबी में उतरना भी आया है। मक्का और उसके आसपास के लिए तभी क़ुरान की उपयोगिता है जब कि वह वहाँ की भाषा में हो। दूसरी जगह कहा भी है-

"यदि हम अरबी से भिन्न भाषा में क़ुरान बनाते, तो अवश्य (लोग) कहने लगते- 'उसके तांत्पर्य क्यों नहीं स्पष्ट किये गये। क्या ! अरब का आदमी और अरब की भाषा से भिन्न भाषा?' यह विश्वादियों के लिए मार्गदर्शक और स्वास्थप्रद है।"[12]

अनुप्रासबद्ध-वर्णन

युद्धप्रिय अरब के लोगों में उस समय कविता के लिए बड़ा प्रेम था। वहाँ कितने ही ऐसे कवि हुए है जिनकी कविताएँ युद्धाग्नि भड़काने में घी का काम देती थीं। इसके लिए इस विषय के विशेष जिज्ञासुओं को श्रद्धेय नहेशप्रसाद साध विरचित प्रसिद्ध हिन्दी-ग्रन्थ 'अरब काव्य' पढ़ना चाहिए। सुन्दर भाषा और स्वास्थ्य-लाभ के लिए मक्का नगर के प्रतिष्ठित घरानों से दो-दो, तीन-तीन वर्ष के बच्चे अस्थिर-वास बद्दू अरबों के डेरों में पलते थे। स्वयं माननीय मुहम्मद का शैशव भी इसी प्रका व्यतीत हुआ था।

इससे भी उनकी भाषा अत्यन्त परिमार्जित और सुन्दर थी। क़ुरान 'अथ' से 'इति' तक अनुप्रासबद्ध लिखा गया है; जैसे-

कुल् हुबल्लाहु अहद्। अल्लाहुस्समद्।
लम् यलिद् व लम् यूलद्। व लम् यकुन् कुफुवन् अहद्॥

कह, वह परमेश्वर एक, सर्वाधार (है)। (वह) न उत्पन्न करता, न उत्पन्न हुआ है और न कोई उसके समान (है)।[13]

क्रमशः उतरना

मुसलमानी विचार के अनुसार भी सम्पूर्ण क़ुरान महानुभाव मुहम्मद को एक ही बार हृदयस्थ नहीं हुआ। क़ुरान में भी आया है-

'जब तक कि उस (क़ुरान) का उतरना पूरा न हो जाय, उसकी प्राप्ति में शिघ्रता न कर।'[14]

सर्वप्रथम 'हिरा' की गुफ़ा 'इक़ा बि इस्मि रब्बिक्' (अपने ईश्वर के नाम से पढ़) यह वाक्य महात्मा मुहम्मद के हृदय में प्रकाशित हुआ। यह समय प्रायः विक्रम संवत् 667 का होगा। उस समय वह चालीस वर्ष के हो चुके थे। प्रायः प्रति वर्ष एकान्त चिन्तनार्थ उपर्युक्त सथान पर उनका जाना होता था। इसी ईश्वरीय ज्ञान के हृदयस्थ होने को 'वही' का उतरना कहते हैं। 'वही' के उतरने के विषय में भी भिन्न-भिन्न विचार हैं। इसके विषय में सर्वमान्य होने से क़ुरान के ही कुछ अंश यहाँ उद्धृत किये जाते हैं।

"अवश्य यह (क़ुरान) जगदीश ने उतारा है और उसके साथ एक आप्त (देवदूत) उतरा।"[15]

यह आप्त दूत और कोई स्वयं देवेन्द्र जिब्राईल थे जो हज़रत के पास 'वही' लाते थे। देवदूतों या फ़रिश्तों के बारे में अनेक कथाएँ इस्लामी साहित्य में पायी जाती है। जैसे वृहदाकार अनेक श्रृंगादि संयुक्त होना इत्यादि, किन्तु क़ुरान में ऐसा वर्णन कहीं आया है। क़ुरान के उतरने ही के कारण 'रमज़ान' का महीना बहुत पवित्र माना गया है।

रमज़ान में उतरता विभाग

"पवित्र रमज़ान का महीना जिसमें मार्ग-प्रदर्शक, मान्व-शिक्षक (सत्यासत्य), विभाजक, स्पष्ट क़ुरान उतारा गया। अतः तुममें से जो कोई 'रमज़ान' महीने को पावे, उपवास रखे और यदि रोगी यात्रा में हो, तो दूसरे दिनों में।"[16]

'रमज़ान' अरब का नवाँ महीना है। शब्दार्थ 'जिसमें गर्मी की अधिकता हो' अथवा 'गर्मी की अधिकता से युक्त' है। जिस रात्रि में 'वही' प्रथम-प्रथम उतरी, वह 'रमज़ान' के अन्तिम दस दिनों में अन्यतम 'लैलतुल्क़द्र' अथवा महारात्रि के नाम से विख्यात है।[17] वह रात्री और मास दोनों ही- जिनमें पवित्र क़ुरान उतरा इस्लाम धर्म में बहुत पवित्र माने जाते है। 'क़द' के नाम से क़ुरान में एक अध्याय (सूरत) भी है।

क़ुरान –संग्रह

यह पहले कहा जा चुका है कि सम्पूर्ण क़ुरान एक साथ नहीं उतरा। हज़रत की अवस्था के चालीसवें वर्ष से लेकार 63वें वर्ष (मृत्यु के समय) तक-अर्थात् 23 वर्षों में थोड़ा-थोड़ा करके उतरा है; अतः आरम्भ ही में क़ुरान का पुस्तकरूपेण संगठित होना सम्भव नहीं। वाक्य और अध्याय भी अपने उतरने के समय के क्रम से वर्तमान पुस्तक क़ुरान में स्थापित नहीं किये गये है। 'क़ुरान' के कितने ही वाक्य मक्का में और कितने ही मदीना में उतरे हैं, जिससे क़ुरान के 114 अध्याय 'मक्की'-'मदनी' दो भेदों में विभक्त है। क़ुरान के देखने से मालूम होता है कि उसमें इस भेद पर भी ध्यान नहीं दिया गया है। हाँ, पहले अध्यायों की अपेक्षा पिछले अध्याय प्रायः छोटे है्। प्रथम अध्याय 'फ़ातिहा' के अनन्तर दूसरा अध्याय 'अल्बक्रा' या बक्रा (बक्र, बक्रत) है जो 'मदीना' में उतरा। उसके बाद का 'आल इम्रान' भी मदनी है। अस्तु, यह निश्चित है कि महात्मा के जीवन में क़ुरान वर्तमान पुस्तक-क्रम में सम्पादित नहीं हुआ था। क़ुरान में आया 'किताब' शब्द भी उसके वर्तमान पुस्तक की ओर संकेत नहीं करता, बल्कि उसके उस रूप की ओर संकेत करता है जो कि स्वर्गीय पुस्तक 'लौह महफूज' में सुरक्षित है। महात्मा के जीवन-काल से ही उसके एक-एक वाक्य को बड़ी सावधानता से रेशम, चर्म और अस्थियों पर लिखकर रक्खा जाता था। कितने ही भक्तजन उन्हें कण्ठस्थ भी कर लिया करते थे। इस प्रकार क़ुरान के सम्पूर्ण अंश भली प्रकार सुरक्षित रक्खे गये थे। पीछे जब पाठों और वाक्यों में भेद होने लगा, तो चतुर्थ खलीफ़ा 'उस्मान' को एक पुस्तक के रूप में सबको संग्रह करने की आवश्यकता पड़ी। इस संग्रह की प्रामाणिकता के विषय में बहुत मतभेद है। उस समय 'खलीफ़ा' या उत्तराधिकारी होने के लिए महात्मा के अनुयायियों में विवाद उठ खड़ा हुआ जो बढ़ते-बढ़ते गृहयुद्ध की अग्नि को प्रज्ज्वलित करने में समर्थ हुआ और महात्मा की प्रिय पुत्री 'फ़ातिमा' तथा जामाता वीरवर 'अली' के पुत्र, 'हसन' और 'हुसेन' जिसकी आहुति हुए। यह विवाद देह-सम्बन्धियों और धर्म-सम्बन्धियों में उत्तराधिकारी (खलीफ़ा) होने के विषय मे था। देह-सम्बन्धियों के उत्तराधिकार को युक्त मानने वाले ही 'शिया' लोग है और दूसरे (बहुसंख्यक) 'सुन्नी' के नाम से पुकारे जाते है। महात्मा के कोई जीवित पुत्र न था। पुत्रियों में श्रीमती फ़ातिमा के यही दो पुत्र 'हसन' और 'हुसेन' थे। वे कुछ मुसलमानों की स्वार्थसिद्धि में बाधक जान पड़ते थे और उन्होंने उन्हें बारी-बारी से तलवार के घाट उतार छुट्टी पायी। वर्तमान पुस्तक के रूप में क़ुरान का संग्रह खलीफ़ा 'उस्मान' ने कराया था। यही 'सुन्नियों' के मुखिया थे। 'शिया' लोगों का कहना है कि इस पुस्तक में क़ुरान के कितने ही वाक्य और कितने ही अध्याय भी छोड़ दिये गये हैं। उदाहरणार्थ वह 'सिज्दा' अध्याय के कितने ही वाक्य उपस्थित करते है। प्राचीन भाष्यकारों ने भी उनमें से कितने ही को जहाँ-तहाँ उद्धृत किया है। पटना की 'खुदाबक्स लाइब्रेरी' में हस्तलिखित क़ुरान की एक प्राचीन प्रति है, जिसके अन्त में भी ऐसे अनेक वाक्यों का संग्रह है। वर्तमान 'क़ुरान' 30 'सिपारों या खण्डों में विभक्त है, कितनों ही का कहना है कि पहले इनकी संख्या चालीस थी।

वाक्य-परिवर्तन

अध्याय 'अल्बक्र' में आया है-

"जिन 'आयतों (वाक्यों) को हम स्थानान्तरिक या परिवर्तित करते है, उसके समान या उससे अच्छी लाते हैं। क्या तू नहीं जानता कि परमेश्वर सब चीजों पर शक्तिमान् है।"[18]
"जब हम 'आयत' के स्थान पर दूसरी आयत बदलते हैं और परमेश्वर जो कुछ बदलता है, उसे भली प्रकार जानता है।"[19]

क़ुरान ने कितने ही वाक्य जो पहले माननीय ठहराये गये थे, पीछे उन्हें छोड़ कर दूसरी आज्ञाएँ आयीं। इसी बात का उपर्युक्त वाक्यों में वर्णन है। इसका तात्पर्य ईश्वर की आज्ञा के देश-काल के अनुसार होने से है। समयान्तर में 'मूसा' , 'ईसा' को दिये गये ईश्वरीय ज्ञान के भी कुछ अंश अनुपयुक्त हो गये, जिस पर अनके पीछे दूसरे ईश्वरदूतों को ईश्वर का संदेश लाने की आवश्यकता पड़ी। उसी प्रकार महात्मा मुहम्मद के पास भेजे गये कितने ही अंश पीछे उपयोगी न रहे, इसलिए ईश्वर ने उन्हें बदल दिया।

मनुष्य की पहले एक जाति थी
'उस (ईश्वर) ने आदम को सम्पूर्ण ज्ञान सिखाया'।[20]
'सब जातियों के लिए ईश्वर-प्रेरित (भेजे गये)।'[21]
'कानन्नासु उम्मतिन् वाहिदतिन्' (सारे मनुष्य एक जाति थे)।

इनमें एक तत्व पर प्रकाश डाला गाया है कि पहले मनुष्य की एक ही जाति थी और उनकी शिक्षा के लिए सबके पितामह 'आदम' (आदिम-पूर्वज) को ईश्वर ने ज्ञानोपदेश दिया। पीछे जब जातियों में विभक्त हो गये, तो उनके उपदेश के लिए ईश्वर ने प्रत्येक जाति में एक-एक ईश्वरक शिक्षक नियुकत किये। यह भी इसलिए कि उन्होंने उस प्राचीन ज्ञान को भुला या अदल-बदल दिया था।

प्राचीन शास्त्रों का समर्थक

हे मुहम्मद, तुझ पर सत्य-संयुक्त ग्रन्थ उतारा जो पूर्वतनों का समर्त्नक है।'[22]
'कह, जो कुछ हम पर इब्राहीम, इस्माईल, इशाक़, याक़ूब, जाति (इस्राइल-सन्तति), मूसा, ईषा और दूसरे ॠषियों पर परमेश्वर की ओर से उतरा। हम उनमें से किसी को अलग नहीं करते। हम सब पर और परमेश्वर पर विश्वास रखते है।'[23]

ये वाक्य प्रत्येक मुसलमान को इस बात की शिक्षा देते है कि वह भूमंडल के सारे ॠषियों की शिक्षा पर विश्वास और आदर-बुद्धि रक्खे। प्रायः सारे ही महापुरुषों और धर्माचायों को यह कहते हुए सुना जाता है कि वह किसी नूतन सिद्धान्त का प्रचार नहीं कर रहे हैं, बल्कि वह उसी सनातन तत्व का प्रचार कर रहे है जो कालान्तर में विस्मृत हो गया था।

यहाँ क़ुरन की वर्णन-शैली के विषय में कुछ लिखना अप्रासंगिक न होगा। गद्य होने पर भी उसकी रचना बड़ी चित्ताकर्षक है, यह पहले लिख आये हैं। प्राचीन महात्माओं और राजाओं के उपदेशप्रद इतिहास क़ुरान का एक विशेष भाग ग्रहण करते हैं। इसके अतिरिक्त छोटे-छोटे दृष्टान्तों और सुन्दर कहावतों का भी प्रयोग जहाँ-तहाँ किया गया है।

'हम तुझ्से बहुत अच्छी कथा बयान करते हैं। तू (मुहम्मद) अज्ञानियों में से था, इसलिये तेरे पास यह क़ुरान भेजा।'[24]

कहीं-कहीं नास्तिकों (=काफ़िरों) और दूसरों के आक्षेपों का उत्तर भी दिया गया है-

काफ़िर कहते है कि, यदि वह (मुसलमान) हमारी बात मानते तो न मारे जाते। कह, यदि तुम सच्चे हो तो मौत को अपने ऊपर से हटा देना।[25]

इस्लाम-विरोधियों के विद्वेष के विषय में कहा है।

ईश्वर-सत्ता-वर्णन

"चाहते हैं कि ईश्वर की ज्योति को मुँह से (फ़ूँककर) बुझा दें, किन्तु प्रभु प्रकाश को पूर्ण किये बिना नहीं रह सकता, चाहे नास्तिक (काफ़िर) बुरा माने।"[26]

ईश्वर के अचिन्त्य निर्माण-कौशल को इन शब्दों में वर्णन किया गया है-

"उनके लिए तू एक सांसारिक दृष्टान्त वर्णन कर। हमने आकाश से जल उतारा, फिर उससे भूमि पर वनस्पति उगी। पुनः वह कणशः हो गई (और) उसे वायु उड़ाता (फिरता) है। परमेश्वर सब चीजों पर शक्तिमान् है।"[27]

ईश्वर की सत्ता के बारे में आया है-

"परमेश्वर आकाश और पृथ्वी का प्रकाश है। उसका प्रकाश है मानो ताक में दीपक और दीपक काँच में। काँच तारा के समान है। उसमें अपौर्वत्य अपाश्चात्य 'जैतून' वृक्ष का तेल पड़ा है। यद्यपि उसे आग ने छुआ नहीं है, किन्तु समीप है कि उसका तेल प्रज्ज्वलित हो जाया। प्रकाश के ऊपर प्रकाश!! परमेश्वर अपने प्रकाश से चाहे जिसको शिक्षा दे। ईश्वर मनुष्यों के लिए दृष्टान्त वर्णन करता है। वह सब वस्तुओं का ज्ञाता है।"[28]

कहावतें

विस्तार-भय से आधिक न लिखकर यहाँ दो-चार कहावतें उद्धृत की जाती हैं-

'कचना हत्या से बढ़कर है।'[29]
'सारे प्राणी मृत्यु के आस्वाद (या ग्रास) हैं…..'
'संसार का जीवन व्यर्थ अभिमान के अतिरिक्त कुछ नहीं।'[30]
'मनुष्य निर्बल उत्पन्न किया गया है।'[31]
'ला अलर्रसूलि इल्लल् बलाग {पहुँचा देने के सिवा दूत पर (और कुछ कर्तव्य) नहीं।'}
"मनुष्य सचमुच हृदय का कच्चा बनाया गया है।"[32]

क़ुरान की मनोहर रचना, सुन्दर शब्द-व्यवहार के कारण एक कहावत प्रसिद्ध है जिसे स्वयं क़ुरान ने इस प्रकार वर्णन किया है-

'क्या कहते हैं? बना लाया। कह, उसके सदृश कोई सूरत (अध्याय तुम भी बना) लाओ। (इसके लिए) परमेश्वर के सिवाय जिसको (सहायतार्थ) बुला सको, बुलाओ, यदि तुम सच्चे हो।'[33]

महात्मा मुहम्मद के यह कहने पर, कि मैं जो कुछ क़ुरान के वाक्य सुनाता हूँ, सब भगवान् ने मेरे पास भेजे हैं। लोग कहते थे कि यह झूठा है। मुहम्मद स्वयं इन बातों को बना लेता है और पीछे ईश्वर को उनका बनाने वाला कहता है। इसी बात की ओर यहाँ संकेत किया है। यह वाक्य क़ुरान में अनेक बार आया है। इसी विषय पर और भी कहा है। पुराने वाक्यों की प्रामाणिकता

'यदि मनुष्य और जिन्न एकत्र हों, एक-दूसरे के सहायक होकर भी इस क़ुरान ऐसा (ग्रन्थ) बनाना चाहें, तो (भी) नहीं (बना) ला सकते।'[34]
यह भी एक से अधिक बार आया है-

उपर्युक्त वाक्यों से पाठकों को आगे बड़ी सहायता मिलेगी। क़ुरान के सारे मध्यम पुरुष के एकवचन में प्रयुक्त होने वाले वाक्य अधिकतर स्वयं महात्मा मुहम्मद और बहुवचन में मुसलमानों या नास्तिकों को सम्बोधित करके कहे गये है। एक बात और स्मरण रखनी चाहिय कि क़ुरान की पठन-पाठन-प्रणाली अविच्छिन्न रुप से आज तक चली आयी है। समय के परिवर्तन, राज्य-क्रान्ति और विजेताओं की धर्मान्धता जिस प्रकार हिन्दुओं और यहूदियों के धार्मिक साहित्य के अधिकांश को विनाश करने में सफल हुई, वैसा मुसलमानों के सहित्य के साथ नहीं हुआ। इसीलिए क़ुरान के यथार्थ अर्थ को समझाने के लिए परम्परागत भाष्य, कथानक और शब्द-रहस्य की अनिवार्य आवश्यकता है। क़ुरान का प्रत्येक वाक्य किसी-न-किसी विशेष देश, काल और व्यक्ति से संबन्ध रखता है ; जैसे कि आगे देखने से ज्ञात होगा। उस सम्बन्ध को जानने के लिए यही परम्परा एक मात्र साधन है; इसलिए परम्परा को छोड़कर मनगढ़न्त अर्थ करने वाली अनेक कल की टीकाएँ माननीय नहीं कही जा सकतीं।

क़ुरान और उसके सम-सामयिक

मक्का-निवासियों में अपने धर्म की शिक्षा का प्रचान करते समय 'काबा' के पुजारी 'कुरैश' महात्मा मुहम्मद को भाँति-भाँति के कष्ट देने लगे। जब चचा के मरने पर उनकी शत्रुता बहुत बढ़ गई और अन्त में वह लोग प्राण लेने पर उतारू हो गये, तो महात्मा ने भाग कर 'मदीना' को अपना निवास-स्थान बनाया। इसी प्रवास की तिथि से मुसलमानों का 'हिज़ी' सम्वत् प्रारम्भ होता है। क़ुरान में इन्हीं मूर्ति-पूजकों को 'काफ़िर' या नास्तिक के नाम से पुकारा गया है। उस समय 'मदीना' में यहुदी लोग भी पर्याप्त संख्या में निवास करते थे और व्यवहार में चतुर होने से वह बड़े प्रभावशाली तथा धनाढ्य हो गये थे। कहीं-कहीं ईसाई लोगों की भी बस्ती थी। इस प्रकार महात्मा को इन धर्मानुयायियों के संसर्ग का भी वहाँ विशेष अवसर मिला। इन धर्मानुयायियों का वर्णन क़ुरान में भी आता है। इनके अतिरिक्त उन्हें कुछ ऐसे लोगों की संगति भी पहले ही से प्राप्त थी जो मूर्ति-पूजकों के घर उत्पन्न होकर भी मूर्तिपूजा में श्रद्धा रखने वाले न थे और न यह यहूदी या खीष्ट धर्म ही के अनुयायी थे। इन लोगों में 'साअदा'-पुत्र क़ैस, 'हज़श'-पुत्र 'अब्दुल्लाह', 'हवारिस'-पुत्र 'उस्मान' और 'अम्रू'-पुत्र 'जैद' प्रसिद्ध हैं। यह लोग यद्यपि क़ुरान की शिक्षा को अच्छा मानते, परन्तु स्वयं इस्लाम धर्म के अनुयायी न हुए। महात्मा मुहम्म्द के साले श्री 'खदीज़ा' के भाई 'नौफ़ल'-पुत्र 'बर्क' की भी इस्लाम के प्रति सहानुभूति थी।

संरक्षण

क़ुरआन को चूँकि रहती दुनिया तक के लिए, समस्त संसार में मानव-जाति का मार्गदर्शन करना था और इस बात को भी निश्चित बनाना था कि ईश-वाणी पूरी की पूरी सुरक्षित हो जाए, एक शब्द भी न कम हो न ज़्यादा, इसमें किसी मानव-वाणी की मिलावट, कोई बाह्य हस्तक्षेप, संशोधन-परिवर्तन होना संभव न रह जाए इसलिए ईश्वरीय स्तर पर तथा मानवीय स्तर पर इसके कई विशेष प्रयोजन किए गए:-

  1. चूँकि इससे पहले के ईशग्रंथों में मानवीय हस्तक्षेप से बहुत कुछ कमी-बेशी हो चुकी थी इसलिए क़ुरआन के संरक्षण की ज़िम्मेदारी स्वयं ईश्वर ने अपने ऊपर ले ली। ख़ुद क़ुरआन में उल्लिखित है- हमने इसे अवतरित किया और हम ही इसकी हिफ़ाज़त करेंग[35] ईश्वर ने इसके लिए निम्नलिखित प्रावधान किए—
  2. प्राथमिक स्तर पर ईश्वर ने पैग़म्बर को पूरा ग्रंथ कंठस्थ करा दिया, क़ुरआन में इसकी पुष्टि भी कर दी[36]
  3. पैग़म्बर (सल्ल.) के कई साथियों ने क़ुरआन को पूर्ण शुद्धता के साथ कंठस्थ (हिफ़्ज़) कर लिया।
  4. पैग़म्बर (सल्ल.) के जीवन-काल में ही क़ुरआन का संकलन-कार्य पूरा कर लिया गया।
  5. पैग़म्बर (सल्ल.) के देहावसान (632 ई.) के बाद दो उत्तराधिकारियों (ख़लीफ़ाओं हज़रत अबूबक्र (रज़ि.) और हज़रत उमर (रज़ि.) के शासन-काल (632-644 ई.) में उनकी व्यक्तिगत निगरानी में सारे लिपिकों की लिखित सामग्री को एक-दूसरे से जाँच कर तथा ग्रंथ के कंठस्थकारों से पुनः-पुनः जाँच कर, पैग़म्बर (सल्ल.) के निर्देशित क्रम में पुस्तक-रूप में ले आया गया। फिर तीसरे ख़लीफ़ा हज़रत उस्मान (रज़ि.) के शासनकाल (644-656 ई.) में इस ग्रंथ की सात प्रतियाँ तैयार की गईं। एक-एक प्रति इस्लामी राज्य के विभिन्न भागों (यमन, सीरिया, फ़िलिस्तीन, आरमेनिया, मिस्र, इराक़ और ईरान) में सरकारी प्रति के तौर भी भेज दी गई। उनमें से कुछ मूल-प्रतियाँ आज भी ताशकन्द, इस्तंबूल आदि के संग्रहालयों में मौजूद हैं।
  6. ईश्वर ने ईशदूत हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) को आदेश देकर चैबीस घंटों में प्रतिदिन पाँच बार की अनिवार्य नमाज़ों में क़ुरआन के कुछ अंश पढ़ना अनिवार्य कर दिया। इसके अलावा स्वैच्छिक नमाज़ों में भी इसे अनिवार्य किया गया। रमज़ान के महीने में रात की नमाज़ (तरावीह) में पूरा क़ुरआन पढ़े जाने और सुने जाने को 'महापुण्य' कहकर पूरे विश्व में प्रचलित किया गया। पूरे क़ुरआन को (या कुछ अध्यायों को) कंठस्थ करना 'महान पुण्य कार्य' कहा गया, और लाखों-करोड़ों लोगों ने पूर्ण ग्रंथ को, तथा संसार के सभी मुसलमानों ने ग्रंथ के कुछ अध्यायों को कंठस्थ कर लिया। (यह क्रम 1400 वर्ष से जारी है, भविष्य में भी जारी रहेगा)। इस प्रकार क़ुरआन अपने मूलरूप में (पूरी शुद्धता, पूर्णता व विश्वसनीयता के साथ) सुरक्षित हो गया।[3]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 क़ुरान (हिन्दी) इस्लाम सब के लिए। अभिगमन तिथि: 9 मार्च, 2011
  2. कुरआन नूर की हिदायत (हिन्दी) (एच टी एम) वेब दुनिया। अभिगमन तिथि: 23 सितंबर, 2010
  3. 3.0 3.1 क़ुरआन (हिन्दी) इस्लाम धर्म। अभिगमन तिथि: 9 मार्च, 2011
  4. 56 : 3 : 3-5
  5. 53 : 1 : 3-5
  6. 59 : 3 : 4
  7. सूरः क़ियामः (75) आयत 17-19
  8. 12 : 1 : 2
  9. 41 : 1 : 2-4
  10. 42 : 1 : 7
  11. 13 : 15 :6
  12. 41 : 5 : 12
  13. 112
  14. 20 : 6 : 10
  15. 26 : 11 : 2-3
  16. 2 : 23 : 3
  17. 97 : 1 : 1
  18. 2 : 13 : 3
  19. 16 : 14 : 1
  20. 2 : 4 : 2
  21. 10 : 5 : 6
  22. 3 : 1 : 3
  23. 3 : 6 : 4 ; अथवा कुछ भेद से 2 : 16 : 7
  24. 12 : 1 : 3
  25. 3 : 17 : 13
  26. 9 : 5 : 3
  27. 18 : 6 : 1
  28. 28 : 5: 1
  29. 2 : 27 :1
  30. 3 : 19 :4
  31. 4 : 5 :3
  32. 70 : 1 : 19
  33. 10 : 4 : 8
  34. 17 : 10 :4
  35. सूरः हिज्र 15, आयत 9
  36. सूर: 75, आयत 17-19

बाहरी कड़ियाँ

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