अंतरंजी खेड़ा
अतरंजी खेड़ा उत्तर प्रदेश के एटा ज़िलांतर्गत गंगा की सहायक काली नदी के तट पर स्थित एक प्रागैतिहासिक स्थल है। इस स्थल की खोज 1961-1962 ई. में एलेक्जेण्डर कनिंघम ने की थी। कनिंघम ने चीनी यात्री युवानच्वांग द्वारा उल्लिखित पि-लो-शा-न नामक स्थल का अतरंजी खेड़ा से समीकरण किया है।
इतिहास
अबुल फ़जल ने 'आइने अकबरी' में अतरंजी का उल्लेख कन्नौज सरकार के एक महल के रूप में किया है। यहाँ पर 1962 ई. में परिक्षणात्मक खुदाई की गयी। 1964 ई. से सात वर्षों तक लगातार उत्खनन से यहाँ एक प्रागैतिहासिक सांस्कृतिक स्थल खोज निकाला गया। प्रारम्भिक उत्खननों का निर्देशन मुस्लिम विश्वविद्यालय, अलीगढ़ के प्रोफेसर नुरुल हसन और आर. सी. गौड़ ने किया।
- कहा जाता है कि राजा बेन ने मुहम्मद ग़ोरी को उसके कन्नौज-आक्रमण के समय परास्त किया था किंतु अंत में बदला लेकर ग़ोरी ने राजा बेन को हराया और उसके नगर को नष्ट कर दिया। एक ढूह के अन्दर से हजरत हसन का मकबरा निकला था- जो इस लड़ाई में मारा गया था।
- कुछ लोगों का कहना है कि अंतरंजी खेड़ा वही प्राचीन स्थान है जिसका वर्णन चीनी यात्री युवानच्वांग ने पिलोशना या विलासना नाम से किया है किंतु यह धारणा गलत सिद्ध हो चुकी है। यह दूसरा स्थान बिलसड़ नामक प्राचीन नगर था जो एटा से 30 मील दूर है। किन्तु फिर भी अंतरंजी खेड़े के पूर्व-मुसलमान काल का नगर होने में कोई संदेह नहीं है क्योंकि यहां के विशाल खंडहरों के उत्खनन में, जो एक विस्तृत टीले के रूप में हैं (टीला 3960 फुट लम्बा, 1500 फुट चौड़ा और प्राय: 65 फुट ऊंचा है) शुंग, कुषाण और गुप्तकालीन मिट्टी की मूर्तियां, सिक्के, ठप्पे, ईंटों के टुकड़े आदि बड़ी संख्या में प्राप्त हुए हैं।
- खंडहर के एक सिरे पर एक शिवमंदिर के अवशेष हैं जिसमें पांच शिवलिंग हैं। इनमें एक नौ फुट ऊंचा है। टीले की रूपरेखा से जान पड़ता है कि इसके स्थान पर पहले एक विशाल नगर बसा हुआ था।
यहाँ पर दो हज़ार वर्ष ई. पूर्व. से लेकर अकबर के शासनकाल तक के अवशेष प्राप्त हुए हैं। इन अवशेषों के आधार पर यहाँ की संस्कृतियों को चार स्तरों में बाँटा जा सकता है।
संस्कृतियाँ
अवशेषों के आधार पर अतरंजी खेड़ा की संस्कृतियों को चार स्तरों में बाँटा जा सकता है।
- गैरिक मृद्भाण्ड संस्कृति
- कृष्ण-लोहित मृद्भाण्ड संस्कृति
- चित्रितधूसर मृद्भाण्ड संस्कृति
- उत्तरी काली चमकीली पात्र परम्परा संस्कृति।
प्रथम गैरिक मृद्भाण्ड संस्कृति स्तर से प्राप्त गेरुए रंग के मृद्पात्रों के आधार पर इसे गैरिक मृद्भाण्ड परम्परा कहते हैं। गेरुए रंग के ये पात्र अधिकांशतः चाक निर्मित एवं कुछ हस्त निर्मित भी हैं। इनमें घड़े, कलश, पेंदीदार कटोरे, मटके, तसले, नाँद आदि मोटी गढ़न के हैं। तश्तरियाँ, चिलमची, घुण्डीदार कटोरेनुमा ढक्कन, दीपक और छोटे कलश पतली गढ़न के हैं। कुछ पात्र चित्रित हैं और कुछ पर अनियमित रेखाएँ हैं। इस काल के लोग अधिकांश खेतिहर थे। वे धान, जौ एवं दालों की खेती से परिचित थे। इस स्तर से अनाज पीसने के सिलबट्टे भी प्राप्त हुए हैं। प्रथम संस्कृति का समय आमतौर से 2000 ई.पूर्व. से 1500 ई.पूर्व. माना जाता है।
द्वितीय कृष्ण-लोहित मृद्भाण्ड संस्कृति में जिस संस्कृति के अवशेष मिलते हैं, उनके निवासी काले-लाल मृद्भाण्डों का उपयोग करते थे। इस परम्परा के पात्रों का अन्दर एवं गर्दन का भाग काला और शेष भाग लाल रंग का होता है। पात्रों के अतिरिक्त इस स्तर से वर्गाकार एवं आयताकार चूल्हे मिले हैं। ताँबे और हड्डियों के अवशेष भी प्राप्त हुए हैं। कृष्ण-लोहित मृद्भाण्ड संस्कृति में माणिक्य के फलक काफ़ी संख्या में मिले हैं। इस स्तर का काल 1450 ई. पूर्व. से 1200 ई. पूर्व. माना जाता है।
तीसरी चित्रितधूसर मृद्भाण्ड संस्कृति से चित्रित धूसर-मृद्भाण्ड प्राप्त हुए हैं। इनमें अधिकतर चाक निर्मित हैं, परंतु कुछ हाथ के बने हुए भी हैं। इन पात्रों में कटोरे एवं थालियाँ महत्त्वपूर्ण हैं। इस परम्परा में पात्रों पर चित्रण भी मिलते हैं। ये चित्रण प्रायः रेखीय, बिन्दु, वृत्त, अर्द्धवृत्त आदि के रूप में हैं। चित्रितधूसर मृद्भाण्ड संस्कृति में स्वस्तिक चिह्न का भी चित्रण मिलता है। ये प्रायः धूसर रंग के हैं। इस परम्परा के साथ काले-लाल एवं बिना अलंकरण वाले धूसर भाण्ड परम्परा के पात्र भी प्राप्त हुए हैं। इस स्तर से लौह उपकरण भी प्राप्त हुए हैं, जो निचले स्तर से ऊपर की ओर संख्या में अधिक होते गए हैं। मुख्यतः बाण के अग्र भाग, भाला-फलक, चिमटे, कीलें, कुल्हाड़ी, मछली पकड़ने के काँटे, छल्ले, छेनी, बरमा आदि मिले हैं। अतरंजी खेड़ा से लौह गलाने की भट्टियों के संकेत भी मिले हैं। इस काल में कृषि गेहूँ के अवशेष भी प्राप्त होते हैं। कृषि के साथ मवेशी भी पाले जाते थे। गाय, बैल, भेड़, बकरी और घोड़े के चिह्न भी प्राप्त हुए हैं। इस स्तर से आवासीय चिह्न मिलते हैं। आवास बाँस-लकड़ी से निर्मित होते थे। मिट्टी की पशु मूर्तियाँ, पहिये एवं मनके प्राप्त हुए हैं। ताँबा और हड्डी से निर्मित वस्तुएँ भी मिली हैं। घरों में चूल्हों के साथ-साथ आग के गड्ढे भी मिले हैं। इस संस्कृति की काल गणना 1200 ई.पूर्व. से 600 ई.पूर्व. तक की जाती है।
चतुर्थ उत्तरी काली चमकीली पात्र परम्परा संस्कृति से उत्तरी काली ओपदार भाण्ड परम्परा के पात्र प्राप्त होते हैं। ये पात्र खूब गुँथी हुई काली मिट्टी से बने हुए, काले रंग की विशेष चमक लिए हुए हैं। ये पात्र पतली गढ़न के हल्के, अच्छी फिनिश एवं धातु पात्रों-सी खनक वाले हैं। पात्रों में थाली-कटोरे, छोटे कलश, हांडियाँ आदि प्रमुख हैं। यह स्तर अधिक व्यापक एवं मोटे जमाव में पाया गया है। इस स्तर के आवासों में क्रमशः ईंटों का प्रयोग देखने को मिलता है। घास-फूस एवं बाँस-लकड़ी के मकानों के साथ-साथ ऊपरी परतों में पकायी हुई ईंटों के मकानों के अवशेष मिलते हैं। इस स्तर से मिट्टी के मनुष्य, पशु एवं पक्षियों की मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं। लोहे, ताँबे एवं हाथी के दाँत तथा हड्डियों से निर्मित वस्तुएँ प्राप्त हुई हैं। इस स्तर का समय 600 ई.पूर्व. से लेकर 50 ई.पूर्व. का माना जाता है।
प्राचीन अस्थियाँ
अतरंजी खेड़ा पर किये गये उत्खनन में जिन पशुओं की अस्थियाँ मिली हैं उनमें अधिकांश गाय-बैलों की हैं। उन पर काटने के स्पष्ट चिह्न हैं तथा अधिकतर की तिथि 500 ई.पूर्व. से पहले की है। इससे यह प्रमाणित होता है कि यज्ञों में इन पशुओं की बलि दी गई थी। इस प्रकार के तथ्यों के आधार पर प्रोफेसर रामशरण शर्मा ने 'प्राचीन भारत में भौतिक प्रगति एवं सामाजिक संरचनाएँ में यह मत प्रकट किया है कि वैदिक धार्मिक स्वरूप लोहे के फाल वाले हल से होने वाली कृषि के अनुकूल नहीं था। मोटे तौर पर अतरंजी खेड़ा से इसके आर्य संस्कृति के केन्द्र होने के व्यापक प्रमाण मिलते हैं। पशुपालन, खेतिहर समुदाय, चावल की खेती, लोहे की उपस्थिति, चित्रित धूसर भाण्ड संस्कृति आदि तथ्य अतरंजी खेड़ा की विशेषताएँ है।
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