ब्रज का मुग़ल काल

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बाबर

मुग़ल साम्राज्य के संस्थापक ज़हीरूद्दीन बाबर का जन्म मध्य एशिया के फ़रगाना राज्य में हुआ था। उसका पिता वहाँ का शासक था, जिसकी मृत्यु के बाद बाबर राज्याधिकारी बना। इब्राहीम लोदी और राणा सांगा की हार के बाद बाबर ने भारत में मुग़ल राज्य की स्थापना की और आगरा को अपनी राजधानी बनाया। उससे पहले सुल्तानों की राजधानी दिल्ली थी ; किंतु बाबर ने उसे राजधानी नहीं बनाया क्योंकि वहाँ पठान थे, जो तुर्कों की शासन−सत्ता पंसद नहीं करते थे । प्रशासन और रक्षा दोनों नज़रियों से बाबर को दिल्ली के मुक़ाबले आगरा सही लगा । मुग़लराज्य की राजधानी आगरा होने से शुरू से ही ब्रज से घनिष्ट संबंध रहा । मध्य एशिया में शासकों का सबसे बड़ा पद 'ख़ान' था, जो मंगोलवंशियों को ही दिया जाता था । दूसरे बड़े शासक 'अमीर' कहलाते थे । बाबर का पूर्वज तैमूर भी 'अमीर' ही कहलाता था । भारत में दिल्ली के मुस्लिम शासक 'सुल्तान' कहलाते थे । बाबर ने अपना पद 'बादशाह' घोषित किया था । बाबर के बाद सभी मुग़ल सम्राट 'बादशाह' कहलाये गये । बाबर केवल 4 वर्ष तक भारत पर राज्य कर सका । उसकी मृत्यु 26 दिसम्बर सन् 1530 को आगरा में हुई । उस समय उसकी आयु केवल 48 वर्ष की थी । बाबर की अंतिम इच्छानुसार उसका शव क़ाबुल ले जाकर दफ़नाया गया, जहाँ उसका मक़बरा बना हुआ है । उसके बाद उसका ज्येष्ठ पुत्र हुमायूँ मुग़ल बादशाह बना।

हुमायूँ

बाबर में बेटों में हुमायूँ सबसे बड़ा था । वह वीर, उदार और भला था ; लेकिन बाबर की तरह कुशल सेनानी और निपुण शासक नहीं था । वह सन् 1530 में अपने पिता की मृत्यु होने के बाद बादशाह बना और 10 वर्ष तक राज्य को दृढ़ करने के लिए शत्रुओं और अपने भाइयों से लड़ता रहा । उसे शेरखाँ नाम के पठान सरदार ने शाहबाद ज़िले के चौसा नामक जगह पर सन् 1539 में हरा दिया था । पराजित हो कर हुमायूँ ने दोबारा अपनी शक्ति को बढ़ा कन्नौज नाम की जगह पर शेरखाँ की सेना से 17 मई, सन् 1540 में युद्ध किया लेकिन उसकी फिर हार हुई और वह इस देश से भाग गया । इस समय शेर खाँ सूर (शेरशाह सूरी ) और उसके वंशजों ने भारत पर शासन किया ।

अकबर (शासन काल सन् 1556 से 1605 )

जब हुमायूँ शेरशाह से हारकर भागने की तैयारी में था उस समय अकबर का जन्म सिंध के रेगिस्तान में अमरकोट के पास 23 नवंबर सन् 1542 में हुआ था, । हुमायूँ की दयनीय दशा के कारण अकबर की बाल्यावस्था संकट में बीती और कई बार उसकी जान पर भी जोखिम रहा । सं. 1612 में हुमायूँ ने भारत पर आक्रमण कर अपना खोया हुआ राज्य पुन: प्राप्त कर लिया ; किंतु वह केवल 7 माह तक ही जीवित रहा था । उसकी मृत्यु सं.1612 के अंत में दिल्ली में हो गयी थी । उस समय अकबर पंजाब में था । हुमायूँ की मृत्यु के 21 दिन बाद (14 फरवरी, सन् 1556 ) पंजाब के ज़िला गुरदासपुर के कलानूर में बड़ी सादगी के साथ उसको गद्दी पर बैठा दिया था ।


हुमायूँ ने भारत से निष्कासित होने के बाद क़ाबुल पर अधिकार किया, और 10 वर्ष के बालक अकबर को सं. 1609 (जनवरी सन् 1552) में ग़ज़नी का राज्य-पाल बनाया था । जब हुमायूँ पुन: भारत में आया, तब 13 वर्ष का अकबर पंजाब का राज्यपाल था । जिस समय कलानूर में उसे हुमायूँ का उत्तराधिकारी घोषित किया गया, उस समय उसकी आयु केवल 13−14 वर्ष की थीं । छोटी उम्र में ही वह वयस्क व्यक्तियों से अधिक उतार−चढ़ाव के अनुभव प्राप्त कर चुका था । आरंभ में बैरमखाँ उसका संरक्षक था, जो उसकी तरफ से राज्य का संचालन करता था ।

आगरा में राजधानी की व्यवस्था

मुग़लों के शासन के प्रारम्भ से सुल्तानों के शासन के अंतिम समय तक दिल्ली ही भारत की राजधानी रही थी । सुल्तान सिंकदर लोदी के शासन के उत्तर काल में उसकी राजनैतिक गतिविधियों का केन्द्र दिल्ली के बजाय आगरा हो गया था । यहाँ उसकी सैनिक छावनी थी । मुग़ल राज्य के संस्थापक बाबर ने शुरू से ही आगरा को अपनी राजधानी बनाया। बाबर के बाद हुमायूँ और शेरशाह सूरी और उसके उत्तराधिकारियों ने भी आगरा को ही राजधानी बनाया । मुग़ल सम्राट अकबर ने पूर्व व्यवस्था को कायम रखते हुए आगरा को राजधानी का गौरव प्रदान किया । इस कारण आगरा की बड़ी उन्नति हुई और वह मुग़ल साम्राज्य का सबसे बड़ा नगर बन गया था । कुछ समय बाद अकबर ने फ़तेहपुर सीकरी को राजधानी बनाया ।


मुग़ल सम्राट अकबर की उदार धार्मिक नीति के फलस्वरूप ब्रजमंडल में वैष्णव धर्म के नये मंदिर−देवालय बनने लगे और पुराने का जीर्णोंद्धार होने लगा, तब जैन धर्माबलंबियों में भी उत्साह का संचार हुआ था । गुजरात के विख्यात श्वेतांबराचार्य हीर विजय सूरि से सम्राट अकबर बड़े प्रभावित हुए थे । सम्राट ने उन्हें बड़े आदरपूवर्क फ़तेहपुर सीकरी बुलाया, वे उनसे धर्मोपदेश सुना करते थे । इस कारण मथुरा−आगरा आदि ब्रज प्रदेश में बसे हुए जैनियों में आत्म गौरव का भाव जागृत हो गया था। वे लोग अपने मंदिरों के निर्माण अथवा जीर्णोद्धार के लिए प्रयत्नशील हो गये थे ।

जहाँगीर (शासन काल सन् 1605 से सन्1627)

जहाँगीर का जन्म सन् 1569 के 30 अगस्त को फ़तेहपुर सीकरी में हुआ था। अपने आरंभिक जीवन में वह शराबी और आवारा शाहज़ादे के रूप में बदनाम था । उसके पिता सम्राट अकबर ने उसकी बुरी आदतें छुड़ाने की बड़ी चेष्टा की; किंतु उसे सफलता नहीं मिली। इसीलिए समस्त सुखों के होते हुए भी वह अपने बिगड़े हुए बेटे के कारण जीवनपर्यंत दुखी रहा । अंतत: अकबर की मृत्यु के पश्चात जहाँगीर ही मुग़ल सम्राट बना। उस समय उसकी आयु 36 वर्ष की थी। ऐसे बदनाम व्यक्ति के गद्दीनशीं होने से जनता में असंतोष एवं घबराहट थी। लोगों की आंशका होने लगी कि अब सुख−शांति के दिन विदा हो गये, और अशांति−अव्यवस्था एवं लूट−खसोट का जमाना फिर आ गया ।


ब्रज की धार्मिक स्थिति

ब्रज अपनी सुदृढ़ धार्मिक स्थिति के लिए परंपरा से प्रसिद्ध रहा है । उसकी यह स्थिति कुछ सीमा तक मुग़लकाल में थी । सम्राट अकबर के शासनकाल में ब्रज की धार्मिक स्थिति में नये युग का सूत्रपात हुआ था । मुग़ल साम्राज्य की राजधानी आगरा ब्रजमंडल के अंतर्गत थी; अत: ब्रज के धार्मिक स्थलों से सीधा संबंध था । आगरा की शाही रीति-नीति, शासन−व्यवस्था और उसकी उन्नति−अवनति का ब्रज का प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ा था । सम्राट अकबर के काल में ब्रज की जैसी धार्मिक स्थिति थी, वैसी जहाँगीर के शासन काल में नही रही थी ; फिर भी वह प्राय: संतोषजनक थी । उसने अपने पिता अकबर की उदार धार्मिक नीति का अनुसरण किया , जिससे उसके शासन−काल में ब्रजमंडल में प्राय: शांति और सुव्यवस्था कायम रही । उसके 22 वर्षीय शासन काल में दो−तीन बार ही ब्रज में शांति−भंग हुई थी । उस समय धार्मिक स्थिति गड़बड़ा गई थी ; और भक्तजनों का कुछ उत्पीड़न भी हुआ था किंतु शीघ्र ही उस पर काबू पा लिया गया था।

शाहजहाँ ( सन् 1627 से सन् 1658 )

शाहजहाँ का जन्म 5 जनवरी 1591 ई॰ को लाहौर में हुआ था। उसका नाम ख़ुर्रम था । ख़ुर्रम जहाँगीर का छोटा पुत्र था, जो छल−बल से अपने पिता का उत्तराधिकारी हुआ था । वह बड़ा कुशाग्र बुद्धि, साहसी और शौक़ीन बादशाह था । वह बड़ा कला प्रेमी, विशेषकर स्थापत्य कला का प्रेमी था । उसका विवाह 20 वर्ष की आयु में नूरजहाँ के भाई आसक खाँ की पुत्री अरजुमनबानो से सन् 1611 में हुआ था । वही बाद में मुमताज़ महल के नाम से उसकी प्रियतमा बेगम हुई । 20 वर्ष की आयु में ही शाहजहाँ जहाँगीर शासन का एक शक्तिशाली स्तंभ समझा जाता था । शाहजहाँ ने सन् 1648 में आगरा की बजाय दिल्ली को राजधानी बनाया ; किंतु उसने आगरा की कभी उपेक्षा नहीं की । उसके प्रसिद्ध निर्माण कार्य आगरा में भी थे । शाहजहाँ का दरबार सरदार सामंतों, प्रतिष्ठित व्यक्तियों तथा देश−विदेश के राजदूतों से भरा रहता था । उसमें सब के बैठने के स्थान निश्चित थे । जिन व्यक्तियों को दरबार में बैठने का सौभाग्य प्राप्त था, वे अपने को धन्य मानते थे ; और लोगों की दृष्टि में उन्हें गौरवान्वित समझा जाता था । जिन विदेशी सज्जनों को दरबार में जाने का सुयोग प्राप्त हुआ था, वे वहाँ के रंग−ढंग, शान−शौकत और ठाट−बाट को देख कर आश्चर्य किया करते थे। तख़्त-ए-ताऊस शाहजहाँ के बैठने का राजसिंहासन था ।

शाहजहाँ की मृत्यु

शाहजहाँ 8 वर्ष तक आगरा के क़िले के शाहबुर्ज में कैद रहा । उसका अंतिम समय बड़े दु:ख मानसिक क्लेश में बीता था । उस समय उसकी प्रिय पुत्री जहाँआरा उसकी सेवा के लिए साथ रही थी । शाहजहाँ ने उन वर्षों को अपने वैभवपूर्ण जीवन का स्मरण करते और ताजमहल को अश्रुपूरित नेत्रों से देखते हुए बिताये थे । अंत में जनवरी, सन् 1666 में उसका देहांत हो गया । उस समय उसकी आयु 74 वर्ष की थी । उसे उसकी प्रिय बेगम के पार्श्व में ताजमहल में ही दफनाया गया था ।

औरंगज़ेब (शासन काल सन् 1658 सन् 1707 )

औरंगज़ेब अपने सगे भाई−भतीजों की निर्ममता पूर्वक हत्या और अपने वृद्ध पिता को गद्दी से हटा कर सम्राट बना था । उसने शासन सँभालते ही अकबर के समय से प्रचलित नीति में परिवर्तन किया । जिस समय वह सम्राट बना था, उस समय शासन और सेना में कितने ही बड़े−बड़े पदों पर राजपूत राजा नियुक्त थे । वह उनसे घृणा करता था और उनका अहित करने का कुचक्र रचता रहता था । अपनी हिन्दू विरोधी नीति की सफलता में उसे जिन राजाओं की ओर से बाधा जान पड़ती थी, उनमें आमेर नरेश मिर्जा राजा जयसिंह और जोधपुर के राजा यशवंतसिंह प्रमुख थे । उन दोनों का मुग़ल सम्राटों से पारिवारिक संबंध होने के कारण राज्य में बड़ा प्रभाव था । इसलिए औरंगज़ेब को प्रत्यक्ष रूप से उनके विरुद्ध कोई कार्यवाही करने का साहस नहीं होता था ; किंतु वह उनका अहित करने का नित्य नई चालें चलता रहता था। औरंगजेब की ओर से मथुरा का फौजदार अब्दुलनवी नामक एक कट्टर मुसलमान था । सन् 1669 में गोकुल सिंह जाट के नेतृत्व में विद्रोह कर दिया । महावन परगना के सिहोरा गाँव में उसकी विद्रोहियों से मुठभेड़ हुई जिसमें अब्दुलनवी मारा गया और मु्ग़ल सेना बुरी तरह हार गई ।


औरंगज़ेब ने ब्रज संस्कृति को आघात पहुँचाने के लिये ब्रज के नामों को परिवर्तित किया । मथुरा, वृन्दावन, पारसौली (गोवर्धन) को क्रमश: इस्लामाबाद, मोमिनाबाद और मुहम्मदपुर कहा गया था । वे सभी नाम अभी तक सरकारी काग़ज़ों में रहे आये हैं, जनता में कभी प्रचलित नहीं हुए । ब्रज में आने वाले तीर्थ−यात्रियों पर भारी कर लगाया गया, मंदिर नष्ट किये लगे, जज़िया कर फिर से लगाया गया और हिन्दुओं को मुसलमान बनाया ।


आज़मशाह

आज़मशाह औरंगज़ेब का छोटा बेटा था। वह आरंभ से ही ब्रजभाषा एवं ब्रज साहित्य का प्रेमी और पोषक था । उसे औरंगज़ेब की हिन्दू विरोधी नीति में कोई रूचि नहीं थी । उसने ब्रजभाषा का ज्ञान प्राप्त करने के लिए मीरजा खाँ नामक एक विद्वान से फारसी भाषा में ग्रंथ लिखवाया था, जिसका नाम "तोहफतुल हिन्द" (भारत का उपहार ) रखा गया था । वस्तुत: वह ब्रजभाषा का विश्वकोश है जिसमें पिंगल, रस अलंकार, श्रृंगार, रस, नायिकाभेद, संगीत, सामुद्रिक शास्त्र, कोष, व्याकरण आदि विषयों का विवरण किया गया है । आज़मशाह इस ग्रंथ के द्वारा ब्रजभाषा साहित्य में पारंगत हुआ था । आज़म ने 'निवाज कवि' को आश्रय प्रदान कर उससे कालिदास के प्रसिद्ध नाटक 'अभिज्ञान शाकुंतल' का ब्रजभाषा में अनुवाद कराया था । उसी की आज्ञा से 'बिहारी सतसई' का क्रमबद्ध संपादन कराया गया था । औरंगजेब की मृत्यु के पश्चात उसके पुत्रों में राज्याधिकार के लिए जो भीषण युद्ध हुआ था, उसमें आज़मशाह पराजित होकर मारा गया और उसका बड़ा भाई मुअज़्ज़शाह बहादुरशाह के नाम से मुग़ल सम्राट हुआ ।

बहादुरशाह (शासन काल सन् 1707 से 1712 तक)

बहादुरशाह मुग़ल सम्राट औरंगज़ेब का बड़ा पुत्र था। उसका नाम मुअज़्ज़म था, और अपने छोटे भाई आज़म को पराजित कर बहादुरशाह के नाम से मु्गल सम्राट हुआ था । उस समय उसकी आयु 64 वर्ष थी। वह शरीर से अशक्त और स्वभाव से दुर्बल था । अत: शासन व्यवस्था पर नियंत्रण करने में असमर्थ रहा । सन् 1712 में उसकी मृत्यु हो गई। उसे दिल्ली में दफ़नाया गया था। बहादुरशाह के पश्चात उसका पुत्र जहाँदारशाह बादशाह हुआ। वह बड़ा विलासी और अयोग्य शासक था; अपने भतीजे फरूख़सियर द्वारा सन् 1713 में मार डाला गया । उसके बाद फरूख़सियर मुग़ल सम्राट हुआ।

फरूख़सियर (सन् 1713−1718 )

उसके शासन काल में 2 सैयद बंधु अब्दुल्ला और हुसैनअली मुग़ल शासन के प्रधान सूत्रधार थे । वे इतने प्रभावशाली और शक्तिसम्पन्न थे कि जिसे चाहते, उसे बादशाह बना देते; और जब चाहते, उसे तख़्त से उतार देते थे। उन्होंने अपनी कूटनीतिज्ञता से अनेक मुग़ल सरदारों के साथ ही साथ कुछ हिन्दु सामंतों का भी सहयोग प्राप्त कर लिया था । अकबर की नीति के अनुकरण का ढोंग करते हुए वे हिन्दू रीति−रिवाजों का पालन करते थे और उनके व्रत−उत्सवों को मनाते थे। बसंत और होली पर वे हिन्दुओं के साथ मिल कर रंग−गुलाल खेलते थे । अंत में मुहम्मदशाह मुग़ल सम्राट हुआ।

नादिरशाह का आक्रमण

मुहम्मदशाह के शासन काल की दु:खद घटना नादिरशाह का भारत पर आक्रमण था । मुग़ल शासन से अब तक किसी बाहरी शत्रु का देश पर आक्रमण नहीं हुआ था; किंतु उस समय दिल्ली की शासन−सत्ता दुर्बल हो गई थी । ईरान के महत्वाकांक्षी लुटेरे शासक नादिरशाह ने भारत पर आक्रमण करने का साहस किया था । उसने मुग़ल सम्राट द्वारा शासित क़ाबुल−कंधार प्रदेश पर अधिकार कर पेशावर स्थित मुग़ल सेना को नष्ट कर दिया था । मुहम्मदशाह ने नादिरशाह के आक्रमण को हँसी में उड़ा दिया । उसकी आँखे तब खुली जब नादिरशाह की सेना पंजाब के करनाल तक आ पहुँची । मुहम्मदशाह ने अपनी सेना उसके विरुद्ध भेजी ; किंतु 24 फरवरी, 1739 में उसकी पराजय हो गई । नादिरशाह ने पहिले 2 करोड़ रुपया हर्जाना माँगा, उसके स्वीकार होने पर वह 20 करोड़ माँगने लगा । नादिरशाह ने दिल्ली को लूटने और नर संहार करने की आज्ञा दे दी। उसके बर्बर सैनिक राजधानी में घुसे और लूटमार करने लगे । दिल्ली के हज़ारों नागरिक मारे गये, वहाँ भारी लूट की गई । इस लूट में नादिरशाह को अपार दौलत मिली । उसे 20 करोड़ की बजाय 30 करोड़ रुपया नक़द मिला । इसके अतिरिक्त जवाहरात, बेगमों के बहुमूल्य आभूषण, सोने चाँदी के अगणित बर्तन तथा अन्य क़ीमती वस्तुएँ उसे मिली थी । इनके साथ ही साथ दिल्ली की लूट में उसे कोहनूर हीरा और शाहजहाँ का 'तख़्त-ए- ताऊस' भी मिला था । वह बहुमूल्य मयूर सिंहासन अब भी ईरान में है, या नहीं इसका ज्ञान किसी को नहीं है ।


नादिरशाह प्राय: दो महीने तक दिल्ली में लूटमार करता रहा । मुग़लों की राजधानी उजाड़ और बर्बाद हो गई थी । जब वह यहाँ से गया, तब करोड़ों की संपदा के साथ ही साथ वह 1,000 हाथी, 7,000 घोड़े, 10,000 ऊँट, 100 खोजे, 130 लेखक, 200 संगतराश, 100 राज और 200 बढ़ई भी अपने साथ ले गया था । ईरान पहुँच कर उसे तख्त-ए-ताऊस पर बैठ कर बड़ा शानदार दरबार किया । वह अधिक समय तक जीवित नहीं रहा । उसके कुकृत्यों का प्रायश्चित्त उसके सैनिकों के विद्रोह के रूप में हुआ था, जिसमें वह मारा गया । नादिरशाह की मृत्यु सन् 1747 में हुई थी । मुहम्मदशाह नादिरशाह के आक्रमण के बाद भी कई वर्ष तक जीवित रहा था, किंतु उसका शासन दिल्ली के आस−पास के भाग तक ही सीमित रह गया था । मुग़ल साम्राज्य के अधिकांश सूबे स्वतंत्र हो गये और विभिन्न स्थानों में साम्राज्य विरोधी शक्तियों का उदय हो गया था । मुहम्मदशाह उन्हें दबाने में असमर्थ था । वह स्वयं अपने मन्त्रियों और सेनापतियों पर निर्भर था । उसकी मृत्यु 26 अप्रैल, सन् 1748 में हुई थी । इस प्रकार उसने 20 वर्ष तक शासन किया था ।


मुहम्मदशाह के बाद भी दिल्ली में कई मुग़ल सम्राट हुए, किंतु वे नाम मात्र के बादशाह थे । उनके नाम क्रमश: अहमदशाह (सन् 1748−1754 ), आलमग़ीर द्वितीय (सन् 1754−1759 ), शाहआलम (सन् 1759−1806 ), मुहम्मद अकबर (सन् 1806−1837 ) और बहादुरशाह (सन् 1837−1858 ) मिलते हैं । इस प्रकार मुग़ल साम्राज्य का अस्तित्व बहादुरशाह तक बना रहा था ; किंतु ब्रज की राजनैतिक हलचलों से मुहम्मदशाह को ही अंतिम मुग़ल सम्राट कहा जा सकता है। मुहम्मदशाह के परवर्ती तथाकथित मुग़ल शासकों के समय में जाट−मराठा अत्यंत शक्तिशाली हो गये थे । फलत: सन् 1748 से 1826 तक की कालावधि को ब्रज के इतिहास में 'जाट मराठा काल' कहा जाता है ।