गर्म हवा
गर्म हवा
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निर्देशक | एम. एस. सथ्यु |
निर्माता | इशान आर्य, एम. एस. सथ्यु एवं अबू सिवनी |
लेखक | कैफ़ी आज़मी और शमा ज़ैदी |
कहानी | इस्मत चुग़ताई |
कलाकार | बलराज साहनी, गीता सिद्धार्थ, फ़ारूक़ शेख, ए. के. हंगल, जलाल आग़ा, जलाल हाशिम |
प्रसिद्ध चरित्र | सलीम मिर्ज़ा |
संगीत | अज़ीज़ अहमद, बहादुर खान, खान वारसी |
संपादन | एस. चक्रवर्ती |
प्रदर्शन तिथि | 1973 |
अवधि | 146 मिनट |
भाषा | हिंदी, उर्दू |
पुरस्कार | राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार (1) और फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार (3) |
बजट | लगभग 8 लाख रुपये |
सिनेमैटोग़्राफ़ी | इशान आर्य |
अन्य जानकारी | हिंदी सिनेमा के इतिहास में सर्वश्रेष्ठ फ़िल्मों की कतार में शामिल सबसे कम लागत में बनी फ़िल्मों में से एक है। |
गर्म हवा (अंग्रेज़ी: Garm Hava) हिंदी सिनेमा के इतिहास में सर्वश्रेष्ठ फ़िल्मों की कतार में शामिल सबसे कम लागत में बनी फ़िल्मों में से एक है। 1973 में प्रदर्शित इस फ़िल्म की लागत 8 लाख रुपए के आस पास थी। यह पहली फ़िल्म थी जिसने विभाजन के विनाश के बाद फैली हुई एक अजीब सी शांति के भीतर जाकर जांच पड़ताल की।
पात्र परिचय
- बलराज साहनी- सलीम मिर्ज़ा
- गीता सिद्धार्थ- अमीना मिर्ज़ा
- फ़ारूक़ शेख- सिकंदर मिर्ज़ा
- दीनानाथ ज़ुत्शी- हालीम
- बदर बेगम- सलीम की माँ
- शौकत आज़मी- कैफ़ी
- ए. के. हंगल- अजमनी साहब
- अबू सिवनी- बेगर
- जलाल आग़ा- शमशाद
- जलाल हाशिम- कासिम
कहानी
फ़िल्म प्रसिद्ध लेखिका इस्मत चुगताई की एक अप्रकाशित कहानी पर आधारित है। आगरा में रह रहा है एक जूते का व्यापारी सलीम मिर्ज़ा (बलराज साहनी) जो विभाजन के बाद पाकिस्तान नहीं जाना चाहता और भारत में ही रहना चाहता है। सलीम मिर्ज़ा की लड़की अमीना अपने ही चचेरे भाई कासिम (जमाल हाशिम) के साथ प्यार करती है और दोनों शादी भी करना चाहते हैं। अन्य भारतीय मुसलमानों की तरह सलीम मिर्ज़ा के रिश्तेदार भी एक एक करके पाकिस्तान रवाना हो रहे है और कासिम भी अपने पिता के साथ पाकिस्तान जाता है, इस वादे के साथ कि वो वापस आकर अमीना से निकाह करेगा। इसी बीच अपने वादे के अनुसार कासिम निकाह के लिए वापस आता है लेकिन राजनैतिक कारणों से उसे निकाह के पहले ही गिरफ्तार करके वापस पाकिस्तान भेज दिया जाता है और ये कासिम की अमीना से आखिरी मुलाक़ात साबित होती है। दुखी अमीना को एक बार फिर अपना प्यार शमशाद (जलाल आगा) में दिखता है, जो अमीना को हमेशा ही अपनाना चाहता था। व्यवसाय में हो रहा नुकसान और सब जगह से मिल रही मायूसियों की वजह से सलीम मिर्ज़ा का बड़ा बेटा भी पाकिस्तान जाने का फैसला करता है और अब सलीम मिर्ज़ा अपनी बेटी, पत्नी (शौकत आज़मी) और छोटे बेटे सिकंदर (फ़ारूक़ शेख, जो हमेशा से ही भारत में रहने का पक्षधर है) के साथ भारत में रह जाता है। अमीना एक बार फिर मायूस है क्योंकि शमशाद का परिवार भी पकिस्तान जा रहा है। एक बार फिर शमशाद भी अमीना से वादा करके जाता है कि वो अपनी माँ को भेजकर उसे पाकिस्तान बुलवा लेगा। पाकिस्तान में अच्छा भविष्य मिल सकने की उम्मीद, भारत में उसके साथ हो रहा भेदभाव, घर से बेघर हो जाने और दूसरी तरफ बेटी का गम, सलीम मिर्ज़ा की हिम्मत तोड़ देती है और इन परिस्थितियों में वो अपना आखिरी फैसला लेता है।[1]
फ़िल्म की लागत
इस फ़िल्म की लागत लगभग 8 लाख रुपए थी। किसी भी फ़िल्म को समेटना अपने आप में ही एक चुनौती होती है। सथ्यू ने निहायत ही नाजुक मामलों को बड़ी संजीदगी से सम्भाला है। सलीम मिर्ज़ा बैंक मैनेजर और मकान मालिक से बात करते वक्त तथा सिकंदर नौकरी के साक्षात्कार के दौरान, सीधे कैमरे पर बात करता है और सामने वाले व्यक्ति को नहीं दिखाया जाता। ये बहुत ही प्रभावशाली दृश्य है जो न सिर्फ सीधे आप से सवाल करते हैं बल्कि ये भी दिखाते हैं कि कैसे कुछ रीढ़विहीन लोग परदे के पीछे रहकर और अपनी कमज़ोरी को मजबूरी का नाम देकर अन्याय हो जाने देते हैं।
तकनीकी पक्ष
फ़िल्म की पटकथा कैफ़ी आज़मी और शमा जैदी ने लिखा है। फ़िल्म के संवाद बहुत ही आम भाषा में हैं और सभी परिस्थितियों का पूरी तरह खुलासा करने में सक्षम हैं। फ़िल्म मुस्लिम समाज के भीतर और उनके प्रति हो रहे हर तरीके के बदलाव और सोच के सभी पहलुओं को बखूबी छूती है।
- जहाँ एक ओर कुछ लोग सिर्फ मुस्लिम होने की वजह से पकिस्तान जा रहे थे वही हिंदुओं के प्रति विश्वास आज भी कायम है जैसा कि एक मुस्लिम टाँगे वाला कहता है कि “यहाँ के हिंदू भाई बहुत अच्छे है वो चमड़े के धंधे को हाथ भी न लगायेंगे।”
- वहीं दूसरी ओर एक हिंदू टाँगे वाला सलीम से ज्यादा पैसे की मांग करता है और बदले में कहता है कि “कम पैसे में जाना हो तो पकिस्तान चले जाओ।“
- बात सिर्फ कुछ हिन्दुओ की ही नहीं बल्कि कुछ मौका परस्त मुसलमानों की भी है, कासिम मिर्ज़ा का पिता जो मुसलमानों का नेता है और अंत तक भारत में रुकने का वादा कर चुपचाप ही पकिस्तान चला जाता है।
- वही दूसरी ओर देश के पढ़े लिखे नौजवानों के लिए समस्याएँ धर्म देख कर नहीं आ रही हैं बल्कि बेरोजगारी सबके हिस्से में है और एक शिक्षित मुस्लिम नौजवान (फ़ारूक़ शेख) अपनी असफलता को सिर्फ धार्मिक भेदभाव बताकर मैदान छोड़ देने में यकीन नहीं रखता।
- साथ साथ अमीना की कहानी विभाजन का आम जिंदगी में पड़ने वाला असर भी दिखाती है।
- सिनेमेटोग्राफर ईशान आर्या जो इस फ़िल्म के निर्माताओं में से एक थे, ने आगरा और फतेहपुर सीकरी के दृश्यों को अच्छे से फ़िल्माया है। ईशान आर्य ने संपादक के काम को आसान किया इसमें बहुत सारे दृश्य ऐसे हैं जिसमें कोई कट नहीं है। फ़िल्म में एक कव्वाली है जिसका संगीत और फ़िल्मांकन दोनों ही बेहतर हैं।[1]
अभिनय
फ़िल्म में अदाकारी सबसे ज्यादा काबिल-ए-तारीफ़ है। सभी कलाकारों ने बेहद उम्दा अभिनय किया है। गीता काक ने एक आम मुस्लिम लड़की का किरदार अच्छे से निभाया है। फ़ारूक़ शेख जिनकी ये पहली फ़िल्म थी शौकत आज़मी, जलाल आगा, दीनानाथ जुत्सी, जमाल हासिम सभी अपनी जगह अच्छे हैं। दादी की भूमिका में एक स्थानीय महिला बदर बेगम को लिया गया जिसने एक मंझे हुए कलाकार की तरह ही काम किया और उसकी ज़बान में एक स्थानीय महक और हास्य दोनों है। बलराज साहनी हमेशा ही प्रतिकियातमक दृश्यों में बिना संवाद के ही अपनी हाव भाव से सब कुछ कह देने वाले कलाकार है। फिर वो बैंक मेनेजर के सामने हो किराए का मकान ढूँढ रहे हों या अपने बड़े बेटे की बातों को सुनकर जवाब ना दे पा रहे हों। अफ़सोस की ये महान कलाकार अपने इस महान अभिनय को देखने के लिए जिंदा न रहा।[1]
सम्मान और पुरस्कार
- 1974 में सदभावना के लिए सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार
- फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार (1975)
- सर्वश्रेष्ठ संवाद के लिए कैफ़ी आज़मी
- सर्वश्रेष्ठ पटकथा के लिए शमा ज़ैदी और कैफ़ी आज़मी
- सर्वश्रेष्ठ कहानी के लिए इस्मत चुग़ताई और कैफ़ी आज़मी
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
बाहरी कड़ियाँ
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