वार्ता:रंग कहाँ जाएंगे -सुभाष रस्तोग़ी

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मन की व्यथा-----दिनेश सिंह

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कितना सुंदर होता की हम एक सिर्फ इन्सां होते - न जाती पाती के लिए जगह - न धर्मो के बंधन होते -

शोर मचा है धर्म धर्म का - कौम कौम का लगता नारा- इस चलती कौमी बयारी में - उन्मय उन्मय जन मानस सारा -

जो घूम रहा था शहर शहर - पहुँच रहा अब गाँव गाँव में - वो कौम बयारी जहर घोलते - महकती स्वच्छ हवाओं में -

क्या सुलझेंगी ये मानस की गांठे घनेरी - क्या रोशन होंगी ये गलियाँ अंधेरी - क्यों बुझ जाती है गूंज आखिरी - इस उन्मन उन्मन पथ के ऊपर