किताब चाहिए, किताब का नारा नहीं (यात्रा साहित्य)

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लेखक- सचिन कुमार जैन
          ये है जरारवाड़ी; कच्छ का नाम सुनते ही हमारे मन में जरूर रण यानी रेगिस्तान का चित्र उभर आता है। आखिर यह इलाका है ही बड़े और छोटे रण का, पर तथ्य यह है कि कच्छ के नक्शे को यदि उल्टा करके रखा जाए तो उसकी आकृति कछुए की तरह दिखाई देती है। इसी कारण इसे कच्छ की संज्ञा दे दी गयी। इसी इलाके का एक गांव है जरारवाडी। छोटा सा गांव है कुछ 25 परिवारों का। होड़का पंचायत के इस गांव में पठान समुदाय के परिवार रहते हैं। मूलतः कच्छ के मुसलमान भैंस पालने का काम करने वाला खानाबदोश समुदाय है और 4 शताब्दियों पहले ये अरबस्तान और सिंध से घांस और पानी की तलाश करते करते यहाँ आ पंहुचे। एक समय पर कच्छ के इस इलाके में एशिया का सबसे उपयोगी और शानदार चारागाह होता था, जो बन्नी चारागाह के नाम से जाना जाता था। लंबा कद, लंबी और नुकीली नाक और पूरे शरीर को ढंकने वाले पठानी सूट को देख कर इन लोगों को पहचाना जा सकता है। गले में सैनिकों वाला मफलर भी अकसर दिखाई दे जाता है।

          यहाँ के अय्यूब कारा कहते हैं कि आज हमारी सबसे बड़ी जरूरत एक स्कूल की है। गांव के 21 बच्चों के लिए यहाँ 4 किलोमीटर तक कोई स्कूल नहीं है। शिक्षा का अधिकार क़ानून बना हुआ है पर क़ानून ने सामाजिक टकरावों को खत्म करने का माद्दा नहीं दिखाया है। दरअसल कच्छ में मुस्लिम समुदाय में 16 प्रमुख उपसमूह हैं। मुस्लिम, केवल मुसलमान नहीं हैं। जरारवाड़ी में मुस्लिमों के भीतर का पठान समुदाय रहता है, जबकि होड़का पंचायत पर कुछ कारणों से हालेपौत्रा समुदाय का प्रभाव रहा है। वहां तो स्कूल है और व्यवस्था के मुताबिक जरारवाड़ी के बच्चे वहां पढ़ने जा सकते हैं, पर जाते नहीं हैं; शायद यह कहना बेहतर है कि जा नहीं पाते हैं। आपसी दूरियों के कारण जरारवाड़ी के बच्चों को आंगनवाड़ी या स्कूल या मध्यान्ह भोजन योजना के हक नहीं मिल पाते हैं। एक आंगनवाड़ी और स्कूल का महत्त्व आपको गांव की एक बुज़ुर्ग महिला बताती हैं – “अब छोटे-छोटे बच्चे विमल पान मसाला खाते हैं, उन्हे सलीके सिखाने की परंपरा गांव में तो रही नहीं। यदि आंगनवाड़ी और स्कूल होता तो इनका बचपन सुधरता”।

          आजीविका का संकट भी अब बढ़ रहा है। बदलती जलवायु के कारण पशुपालन करने वाले इस समुदाय के पास जानवरों को खिलाने के लिए घांस के कम ही स्रोत बचे हैं। यहाँ के मामदीन कारा कहते हैं कि “1972 में भी हम अपने जानवरों को लेकर राजकोट और उससे आगे तक जाते थे। एक तरह से हमारी जिंदगी खानाबदोश जिंदगी रही है। हमें याद है कि तब हम जहाँ भी जाते थे, वहां हर जानवर के लिए 2 किलो चारा और पीने के लिए पानी की व्यवस्था गुजरात राज्य की तरफ से रहती थी। सरकार ने पशुओं को एक संसाधन, एक संपत्ति और एक जीव माना था। हम मुसलमान भी मानते हैं कि जानवरों के बिना हमारा जीवन संभव ही नहीं है। वास्तव में हम इन्हें नहीं, बल्कि ये हमें पालते हैं। जैसे-जैसे विकास होता गया सरकारी तंत्र में जानवरों (भैंस और भेड़ों) को तुलनात्मक रूप से महत्वहीन माना जाने लगा। आजकल सूखे के दौरान राहत शिविर लगते हैं, जहाँ से चारा मिल सकता है। अब वह व्यापक व्यवस्था (चारे और पानी) की व्यवस्था भी खत्म हो गयी। ये जानवर घास की जगह खरपतवार और रेगिस्तानी वनस्पतियां खाने लगे हैं, जो ये पहले नहीं खाते थे। अब हमें आजीविका के विकल्प चाहिए”। अय्यूब कारा कहते हैं कि हम न तो रण छोड़ना चाहते हैं न पशुपालन। इन दोनों के साथ रहते हुए समाज में जरूरी बदलाव आते हुए देखना चाहते हैं। जरारवाड़ी गांव की पठान महिलायें भी बुनकरी का काम करती हैं। आज शिक्षा के लिए इस गांव में कोई जागरूकता अभियान चलाने की जरूरत नहीं है। वे बार-बार कहते हैं कुछ मत कीजिये, बस स्कूल दे दीजिए। हमसे आप पूछते हैं कि जब पढ़े-लिखे नहीं है तो रूपए का हिसाब-किताब कैसे रखते हैं! हमारे पास इतने पैसे ही नहीं होते हैं, जिनके हिसाब के लिए शिक्षा की जरूरत पड़े। हम तो जानवर चराते हैं और खानाबदोश जिंदगी जीते रहे। अब हमारे गांव के साधन टूट गए हैं। अब हमें बाहर निकालना होगा और बाहर निकलने के लिए अपने तौर–तरीके बदलने होंगे। हमारी जिंदगी तो गुजर गयी; अपने बच्चों के लिए हमें शिक्षा का तंत्र चाहिए। अपने सामने हम उन्हें पढते-लिखते देखना चाहते हैं।


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