काँप उठा था देश ये सारा
काँप गई थी दिल्ली सारी
वह द्रश्य भयानक था कितना
वह रात थी कितनी काली
उसकी करुण चीख निकलकर
हर मानव के ह्रदय समायी
सॊये शासको के कानो में
आवाज दे रही थी जनता सारी
जन मानस का का क्रोध उमड़कर
दिल्ली के पथ पर आया
अपने मन की असहनीय व्यथा को
दीप जलाकर बतलाया
प्रश्न चिन्ह ये ज्वलनशील है
जागे तो हम कितना जागे
कहीं कहीं अति रोष जताया
कहीं कहीं क्यों मौन रहे
सोच रहा है मन मेरा
क्या सोच रहा था मन तेरा
क्या व्यथा रही होगी हिय में
इस जग को जब तुम ने था छोड़ा