रजनी कोठारी

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
रविन्द्र प्रसाद (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:58, 21 अप्रैल 2014 का अवतरण (''''रजनी कोठारी''' (जन्म- 1928 ई.) भारत के प्रसिद्ध शिक्षा...' के साथ नया पन्ना बनाया)
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ:नेविगेशन, खोजें

रजनी कोठारी (जन्म- 1928 ई.) भारत के प्रसिद्ध शिक्षाविद, लेखक, राजनीतिक सिद्धांतकार तथा राजनीति विज्ञानी हैं। इन्होंने वर्ष 1963 में 'सी.एस.डी.एस.' (विकासशील समाज अध्ययन पीठ) की स्थापना की थी। यह दिल्ली स्थित समाज विज्ञान तथा मानविकी से सम्बंधित अनुसंधान संस्थान है। कोठारी जी 'पीपुल्स यूनियन ऑफ़ सिविल लिबर्टीज' के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी रहे। अपने रचनाकाल के तीसरे दौर में उन्होंने आधुनिकता के वैचारिक ढाँचे को ख़ारिज किये बिना वैकल्पिक राजनीति का संधान करने का प्रयास किया था। 'लोकायन' नामक संस्थान की स्थापना रजनी कोठारी द्वारा वर्ष 1980 में की गई थी। कोठारी जी ने अपनी प्रतिभा का इस्तेमाल दलित-पिछड़ी राजनीति को सूत्रबद्ध करने और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भूमण्डलीकरण की ताकतों के ख़िलाफ़ बौद्धिक नाकेबंदी करने के लिए किया।

जन्म तथा शिक्षा

रजनी कोठारी का जन्म 1928 में एक समृद्ध गुजराती व्यापारिक घराने में हुआ था। उनके पिता बर्मा में हीरों का व्यापार किया करते थे। उनकी शुरुआती शिक्षा-दीक्षा आयंगारों द्वारा चलाए जाने वाले रंगून के एक स्कूल में हुई। परिवार में बौद्धिकता की कोई परम्परा न होने के बावजूद रजनी कोठारी के पिता ने उन्हें सुशिक्षित करने में कोई कसर न छोड़ी। उनका बचपन बर्मा के अपेक्षाकृत खुले समाज में बीता। घर की छतों पर होने वाले सामूहिक नृत्यों, मंगोल और बौद्ध संस्कृति के मिले-जुले लुभावने रूप, दक्षिण भारतीय चेट्टियारों, गुजराती बनियों, वोहराओं, खोजाओं और मुसलमान व्यापारियों के मिश्रित भारतीय समुदाय के बीच गुज़ारे गये शुरुआती वर्षों ने उन्हें एक उदार मानस प्रदान किया।

भारतीय मार्क्सवाद के व्याख्याता

'लंदन स्कूल ऑफ़ इकॉनॉमिक्स' से उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद रजनी कोठारी ने कुछ दिन बड़ोदरा में क्लासिकल अर्थशास्त्र पढ़ाया। इस दौरान वे भारतीय मार्क्सवाद के प्रारम्भिक व्याख्याता और बाद में रैडिकल मानवतावाद के प्रमुख प्रवक्ता मानवेन्द्रनाथ राय से भी प्रभावित हुए। अपने जीवन के अंतिम दौर में पत्नी हंसा कोठारी और बड़े बेटे स्मितु कोठारी के निधन से आहत प्रोफ़ेसर कोठारी दिल्ली स्थित आवास में अपना समय गुज़ारते हैं।

राजनीतिक चिंतन

अपने राजनीतिक चिंतन की शुरुआत में रजनी कोठारी ने भारतीय समाज और राजनीति के तथ्यगत विश्लेषण को प्राथमिकता दी। ख़ास बात यह है कि इस प्रक्रिया में वे प्रत्यक्षवादी रवैये से प्रभावित नहीं हुए। यह दौर वह था, जब साठ के दशक में नेहरू युग अपने पटाक्षेप की तरफ़ देख रहा था। यह एक संक्रमणकालीन समय था, जिसमें लोकतंत्र के क्षय और नाश की भविष्यवाणियाँ हो रही थीं।  इसी माहौल में कोठारी जी ने भारतीय लोकतंत्र के मॉडल की विशिष्टता की शिनाख्त करने में प्रमुख भूमिका निभायी। उस समय अधिकतर समाज-विज्ञानी भारतीय अनुभव को पश्चिमी लोकतंत्रों के अनुभव की रोशनी में देखने की कोशिश कर रहे थे।

लेखन कार्य

इसी समय रजनी कोठारी समाजशास्त्री श्यामा चरण दुबे के प्रोत्साहन पर 'राष्ट्रीय सामुदायिक विकास संस्थान' से जुड़ गये। उन्होंने अपने फ़ील्ड वर्क के दौरान पूरे देश का सघन दौरा किया। वे ऐसे इलाकों में भी गये, जहाँ जाना आमतौर से काफ़ी मुश्किल माना जाता था। इस अनुभव ने उन्हें बदलते हुए या बदलने के लिए तैयार भारत के दर्शन कराये। तभी एक सुखद संयोग के तहत उन्हें 'भावनगर' (गुजरात) में कांग्रेस के एक अधिवेशन को देखने का मौका मिला। उन्हीं दिनों तत्कालीन 'इकॉनॉमिक वीकली' (आज का ईपीडब्ल्यू) के छह अंकों में उनकी एक लेखमाला छपी, जिसका शीर्षक था- ‘भारतीय राजनीति का रूप और सार’। इन लेखों ने उनके क़दम राजनीतिशास्त्र की दुनिया में जमा दिये। इनमें क्रमशः केंद्र-राज्य संबंध, पंचायती राज, सरकार के संसदीय रूप, अफ़सरशाही, दलीय प्रणाली और अंत में लोकतंत्र के भविष्य पर गहन चर्चा की गयी थी। इस लेखमाला में जिस सैद्धांतिक ढाँचे का इस्तेमाल किया गया था, उसी ने आगे चल कर कोठारी के विशद वाङ्मय की आधारशिला रखी। इन लेखों की प्रकृति विवादात्मक थी। उन्होंने एक त्रिकोणात्मक कसौटी पेश की, जिसका एक कोण था लोकतंत्र के मान्य सिद्धांतों का, दूसरा कोण था पश्चिमी दुनिया के लोकतांत्रिक अनुभवों का और तीसरा कोण था भारतीय अनुभव की विशिष्टता का। इससे पहले राजनीतिशास्त्र में संस्थागत और संविधानगत अध्ययन ही हुआ करते थे। राजनीति के विकासक्रम को देखने की यह एक अनूठी निगाह थी।

सृजनशीलता

इंदिरा गाँधी ने जब सत्ता में वापसी की तो रजनी कोठारी ने अपनी रचनाओं में दुनिया के पैमाने पर 'उत्तर' बनाम 'दक्षिण', यानी 'विकसित' बनाम 'अविकसित' का द्वंद्व रेखांकित करते हुए राज्य और चुनावी राजनीति के परे जाने की तजवीज़ें विकसित करने की कोशिश शुरू की। इसी मुकाम पर उन्होंने ग़ैर-पार्टी राजनीति के सिद्धांतीकरण में अपना योगदान किया। कोठारी की सृजनशीलता का यह दूसरा दौर ख़ासा लम्बा साबित हुआ। उन्होंने पश्चिम के सभ्यतामूलक प्रतिमानों को चुनौती देने वाले गाँधी के विचारों का सहारा लिया और एक नया यूटोपिया पेश करने की कोशिश की। अपने इसी दौर में रजनी कोठारी ने महज़ बुद्धिजीवी रहने के बजाय सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता की भूमिका भी ग्रहण की। उन्होंने अपने सहयोगी विद्वान धीरूभाई शेठ द्वारा स्थापित 'लोकायन' नामक अध्ययन कार्यक्रम में भागीदारी की, जिसका मकसद ग़ैर-पार्टी राजनीतिक संरचनाओं को समाज-विज्ञान की दुनिया से जोड़ना था।

वैकल्पिक राजनीति का संधान

अपने रचनाकाल के तीसरे दौर में रजनी कोठारी ने आधुनिकता के वैचारिक ढाँचे को ख़ारिज किये बिना वैकल्पिक राजनीति का संधान करने का प्रयास किया। दरअसल, उनका यह चरण आलोचनात्मक होने के साथ-साथ आत्मालोचनात्मक भी था। उन्होंने अतीत के अपने कई प्रयासों को कड़ी निगाह से देखा और पाया कि ग़ैर-पार्टी राजनीति वास्तव में वैकल्पिक राजनीति के रूप में विकसित नहीं हो पा रही है। उदारतावाद, मार्क्सवाद, गाँधीवाद और नये सामाजिक आंदोलनों की परिघटना भारतीय लोकतंत्र के बदलते हुए चेहरे की व्याख्या करने में असमर्थ है। इस मुकाम पर कोठारी नी ने अपनी शास्त्रीय प्रतिभा का इस्तेमाल दलित-पिछड़ी राजनीति को सूत्रबद्ध करने और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भूमण्डलीकरण की ताकतों के ख़िलाफ़ बौद्धिक नाकेबंदी करने के लिए किया।


पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख