हिन्दी साहित्य में सामासिक संस्कृति -डॉ. मुंशीराम शर्मा
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- लेखक- डॉ. मुंशीराम शर्मा
ओम ही तत् है, ओम ही सत् है। ओम अक्षर है। अतः तत् और सत् भी अक्षर है इसके विपरीत एतत् और अतस् हैं। संस्कृति तत् की ओर ले जाती है। यह जो कुछ आपके सामने है, पंचभूतों का बना हुआ है। पंचभूतों पंचतन्मात्राओं के विकार हैं। विकार कार्य है, अतः असत् है। उसे देश काल की अपेक्षा है। जो देश विशेष तथा काल विशेष में उत्पन्न हुआ, वह विनश्वर है। देश और काल स्वयं विकार हैं। सृष्टि के साथ उनका नाम लिया जाता है। उसके पूर्व नही। समुद्रादर्णवादधि संवत्सरोजायत आकाश के साथ देश और काल दोनों से ऊपर है। देश पर विचार करो तो अंत में काल रह जाएगा। देश की समाप्ति पर यही तो कहोगे कि इतना समय विचार में निकल गया। इसी प्रकार काल पर चिंतन करो तो ज्ञान हाथ रहेगा काल नहीं,। अतः देश और काल की अपेक्षा ज्ञान का महत्व अधिक है। किंतु ज्ञान से भी ऊपर भाव है। ज्ञान के साथ सत् और असत् दोनों विशेषण जुड़ सकते हैं। भाव के साथ ऐसा नहीं होता। वह सत् है, असत् नहीं। भाव का अर्थ सत है। भाव भू धातु से बनता है जिसका अर्थ है होना। जो है, वहीं सत् है। सत् का अर्थ भी सत्ता, अस्त्तिव या होना है। जो भाव है, जिसकी सत्ता है, वह असत् हो ही नही सकता।
इस प्रकार भाव ज्ञान के भी ऊपर है। ज्ञान में जानना है तो भाव में होना है। ज्ञान किसी सत्ता का होगा या उसके गुणों का। भाव स्वयं सत्ता है। ओम भी सत् है। इसी हेतु उसे तत् कहा जाता है। एतत् क्षर है तो तत् अक्षर है, ओम है। यह (एतत्) सामने है, इंद्रियों का विषय है, तो तत् दूर है, परोक्ष है। तत् देश और काल दोनों के ऊपर है। सत् भी ऐसा ही है। ओम इसी कारण अक्षर है, सत् है और तत् है। फिर भी विचित्रता यह है कि तत् एतत् में समाया हुआ है। इसका कारण है तत् का दूर से दूर और समीप से समीप होना। ईशोपनिषद् ने इसी तथ्य को ‘तद्वरे तद्वन्तिके’ शब्दों द्वारा कहा है।
‘एतत’ में भी देश की दूरी और समीपता है। एतत् का क्षेत्र विशाल हे। इसमें शरीर समीप हे, तो तारों से भरा आकाश दूर है। देश के साथ काल भी समीप और दूर होता है। इन पंक्तियों के लिखने का समीप हे, तो भूत और भविष्य दोनों दूर हें। वैसे क्षण क्षण में भूत और वर्तमान प्दिले हुए हैं। फिर भी देश और काल दोनों की इयत्ता है। जिसे हम ‘ओम तत् सत्’ कहते हैं, वह देश और काल दोनों की समाओं से परे हें। वह देशकालातीत है। ऊपर देश से काल और काल से ज्ञान मे प्रवेश पाने का उल्लेख हो चुका है। ज्ञान देश और काल दोनों का होता है। किंतु यह ज्ञान तंत में जाकर चुप हो जाता है। तत् को इसी अनिर्वचनीय और तत् में जाकर चुप हो जाता हे। तत् को इसी हेतु अनिर्वचनीय और अज्ञेय कहा गया हे। तत् भाव है और ज्ञान से ऊपर है। भाव ज्ञान का नहीं, अनुभूति का विषय है। भगवान भाववश्य हैं यास्वयं भावरूप हे। जब तक हम भाव में प्रविष्ट नहीं होते, तब तक उसकी अनुभूति नहीं कर सकते।
भाव में प्रवेश कराता है काव्य। काव्य को साहित्य भी कहा गया है क्योंकि वह सहित के साथ सह का भाव भी रखता है। काव्य हितकर है, कल्याणकारक है, तो भाव के साथ ज्ञान को भी मिलाता है। वह मंगलमय होने के साथ ज्ञानवर्धक तथा विचारोत्तेजक भी हे। उसमें एतत् और तत् दोनों मिले रहते हैं। हाँ, जब कवि स्वयं भावमग्न होकर रसदशा में पहुँच जाता है ओर अपने पाठकों, काव्यरसिकों को भी पहुँच जाता है और अपने पाठकों, काव्यरसिकों को भी पहुँचा देता है, तब वह ज्ञान, विचार पद आदि सभी से दूर है। शरीर के भाव से भी संपृक्त। बस यही स्थिति अनिर्वचनीय कही गई हे। इस स्थिति में काव्यानंद ब्रह्नमानंद का सहोदर बन जाता है।
जब हम हिन्दी साहित्य या काव्य में ‘सामासिक संस्कृति’ की बात कहते हैं तब भारतीय ही नहीं, ईरानी, अरबी, यूरोपीय आदि वे सभी सांस्कृतिक विशेषताएँ आ जाती हैं जिनके साथ हमारा संपर्क हुआ है। मेरे विचार में सभ्यता का बहुरूपा है, संस्कृतिक नहीं। सभ्यता सभ्यों के व्यवहार का नाम है जो अनेक रूपों में अभिव्यक्ति होती है। संस्कृति आंतरिक है और वह सभी के लिए समरूपा है। सभ्यता एतत् से जुड़ी है तो संस्कृति तत् से। एक में ऐहिकता तो दूसरी में आमुष्मिकता है। एक में बाहय वैभव है तो दूसरी में आंतरिक संपदा। बाहर से जितना भी हम अंदर चलेंगें, उतने ही एकता के निकट पहुँचेंगे। संस्कृति इसी दिशा में एकता की संवाहिका बन जाती है।
काव्यों के भी कई स्तर है। भावधारा भी उच्चावच तरंगों में अनेक रूप धरण कर लेती है। तत् को हमने एतत् समाविष्ट कहा है। इसी एतत् के रूपों के साथ खेलती हुई भावराशि कभी वीरता का, तो कभी हर्ष, शोक, प्रेम, भय, घृणा आदि का कवच पहन लेती है और बाहर से भीतर तक के प्रदेशों के उन्मुक्त कर देती है। विशुद्ध तत् में प्रवेश करा देने वाले कवि विरल हैं। कोई आपको हँसा देगा तो कोई रुला देगा। किसी किसी के काव्य को पढ़कर आपकी भुजाएँ फड़कने लगेगी, तो कोई काव्य आपको रागोन्मत्त कर देगा। इसे हम काव्य की विशुद्ध भागवत स्थिति नहीं कहेंगे। इसमें ऐहिकता के स्वर है, मूकास्वादन वाली, भावविभार कर देने वाली, तत्संबंधिनी, परानुभूतिपरक ध्वनि नहीं है।
महाकवि चन्दवरदाई के पृथ्वीराज रासो में ऐहिकता है, किंतु बहुत ऊँचे स्तर की और उसी के अनुरूप वीरता तथा प्रेम की उच्छलित भावराशि। उसमें आर्य अस्मिता है, देशानुराक है, श्रृंगार और उत्साह के प्रसंग है, बलिदान है, वाद विवाद पटुता एवं पांडित्य है, मनोनयन है, कर्मठता है, परंतु वह स्वर नहीं हो सकता जो आपको भीतर अवस्थित कर दें। अंतस्थ होकर तत् की अनुभूति में डूब जाना कर्म की उच्छलकूद से एकदम पृथक है।
कबीर में तर्क है, बुद्धिपाटव हे, खंडन मंडन है, आक्रोश है, पर कहीं कहीं अंत अनुभूति के भी हद्यग्राहय चित्र हैं। रैना दूरि विछोहिया’ होने में भगवान से वियुक्त भक्त का रोदन है, कहीं मिलन की छवि भी ध्वनित हुई है, परंतु ज्ञान कांड की विशेषता है। जायसी मेें ऐहिकता और आमुष्मिकता मिली हैं। प्रेम की पीड़ा में जो हार्दिक उद्गार निकले हैं जायसी को उच्चकोटि का भाव संपन्न कवि सिद्ध करते हैं। ‘धरती सरंग मिले हुत दोऊ। कैइ निनार है कीन्ह विछोऊ’ में हृदयमंथकारी जो चीत्कार है, वह भक्ति विरहित काव्य में मिल ही नहीं सकता। कबीर ज्ञानाश्रयी हैं परंतु जायसी प्रेमाश्रयी हैं। एक ने ज्ञान के थपेड़े लगाए तो दूसरे ने प्रेम की लोरियाँ गाई और सुनाई।
सूर हदयसंवादी कवि है। सूर को वात्सल्य भाव का सर्वोपरि चितेरा भी कहा जाता है। कबीर ने भक्त को बहुरिया बनाया तो जायसी ने ईश्वर को। सूर ने भगवान को बाल रूप में देखा तो तुलसी ने उसे पिता या गुरु के रूप में। सुर ने अंतस्तल को जितना कुरेदा उतना कदचित अन्य किसी भी कवि ने नहीं। वात्सल्य भाव की जो झाँकी उन्होंने दिखाई, वह अद्भुत है, चमत्कारीमयी है और हृदय का निकट से स्पर्श करने वाली है। गोपियों की प्रमानुभूति भी सूरसागर की अपनी विशेषता है। अनुरोग के ये दो स्वरूप वत्सल एवं उज्ज्वल रस की अनुपम साम्रग्री प्रस्तुत करते हैं। सूर का भक्त हृदय संस्कृति के उन्नायक इन द्विविधि चित्रों से समलंकृत हो रहा है।
तुलसी में जितनी ऐहिकता है उतनी ही आमुष्किता भी। उनकी दृष्टि जितनी समाज पर है, उतनी ही आत्मा पर। सामाजिकता के संस्कार का स्वर ‘रामचरितमानस’ के कंठ से उन्मुक्त होकर गुंजरित हुआ है, तो ‘विनयपत्रिका’ आत्मध्वनि से अनुप्राणित है। ‘रामचरितमानस’ सभ्यता के श्रेष्ठ स्वरूप का उद्घोषक है, तो पत्रिका संस्कृति की अन्तः सलिला सरस्वती है। तुलसी राममय है। उनके राम सभ्यता और संस्कृति दोनों के प्रतिमान हैं। उनमें तत् और एतत् एक दूसरे के पूरक, अभ्युदय और निःश्रेयस एक दूसरे में अनुस्यूत, फिर दोनों की ऊर्ध्वशिखा, यही नहीं अचिंत्य, गिरागोतीत अवस्था सब कुछ एक साथ विद्यमान है। तुलसी ने अपने राम को हृदय हदय का, घर-घर का राम बना दिया। सामासिक संस्कृतिक का यह रूप आपको अन्यत्र कहाँ मिलता है।
हिन्दी के रीतिकाल में अधिकांशत: कवि राज्याश्रित थे। राजघरानों में आर्य संस्कृति ही चलती थी। मुसलमानी बादशाहत के कारण कुछ या ईरानी रंग भी आ गया था, परंतु वह प्रभावी नहीं था। फिर छत्रपति शिवाजी के उदय से 'हिंदुआनी' ने 'सुमति' के प्रचार पर भी पर्याप्त मात्रा में रोक लगा दी। भूषण का ओजस्वी काव्य चंद्रवरदाई की याद दिलाने लगा। भारतेंदु के साथ हिन्दी के जिस नवीय युग का प्रारंभ हुआ, वह आर्य अस्मिता के वर्चस्व की पुन: प्रतिष्ठा करने लगा। महर्षि दयानंद का योगदान इस संदर्भ में अविस्मरणीय है। आज संविधान की मान्यता के अनुसार हिन्दी स्वसंत्र भारत की राजभाषा है। उसमें सामाजिक संस्कृति उभर कर अभिव्यक्त हो रही है। हिन्दी के वीरगाथाकाल से चलकर भक्तिकाल के काव्य में जिस संस्कृति का उत्कृष्ट उनमेष हुआ, वह उत्तर प्रदेश ही नहीं, भारतवर्ष भर की अमूल्य धरोहर है। ब्रजधरा तो इस काव्य से धन्य हुई ही, अवध, बुंदेलखंड, बिहार, राजस्थान और फिर दक्षिण के तेलंग, तमील, गर्जर आदि प्रदेश भी संस्कृति-उपासना के कमनीय केंद्र सिद्ध हुए। बंग और कलिंग तक यह संस्कृति संप्रतिष्ठित हुई। सभी प्रदेशों एवं अंचलों में इस सामासिक संस्कृति की धूम मच गई। कृष्ण और राम दोनों ही इस संस्कृति के अमूल्य अधिष्ठान बन गाए। महात्मा गाँधी की प्ररेणा से वर्धा में जो हिन्दी की राष्ट्रभाषा प्रचार संबधी समिति संगठित हुई, उसने दक्षिण में विशेषत: और समग्र भारतवर्ष ही नहीं, भारत से बाहर के देशों में हिन्दी ध्वज को फहरा दिया। तृतीय विश्व हिन्दी सम्मेलन इसका जीता जागता उदाहरण है। जिन महानुभावों ने हिन्दी प्रचार कार्य में अपना सहयोग प्रदान किया है, वे सभी हमारे लिए वंदनीय एवं अभिनंदनीय हैं। जयतु हिन्दी, जयतु भारत।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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