रसखान की अलंकार योजना

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हिन्दी साहित्य में कृष्ण भक्त तथा रीतिकालीन कवियों में रसखान का महत्त्वपूर्ण स्थान है। 'रसखान' को रस की ख़ान कहा जाता है। रसखान की अलंकार योजना इस प्रकार है-

  • अलंकार शब्द का अर्थ है जो दूसरी वस्तु को अलंकृत करे- अलंकरोति इति अलंकार:
  • आचार्य दण्डी ने कहा है कि काव्य के सभी शोभाकारक धर्म अलंकार हैं।[1] उनकी इस परिभाषा में चमत्कार उत्पन्न करने वाले सभी काव्य तत्त्वों की विशेषताओं को अलंकार मान लिया गया है।
  • अलंकार से भामह का अभिप्राय ऐसी शब्द उक्ति से है जो वक्र अर्थात विचित्र अर्थ का विधान करने वाली हो।[2] अलंकार शब्द और अर्थ में विद्यमान कवि प्रतिभोत्थित ऐसे वैचित्र्य को अलंकार कह सकते हैं, जो वाक्य-सौंदर्य को अतिशयता प्रदान करता है। इसी से सभी भारतीय काव्यशास्त्रियों ने काव्य में अलंकार के महत्त्व को निर्विवाद रूप से स्वीकार किया है।
  • अलंकारों के विधिवत प्रयोग से ही काव्य अलंकृत होता है। नीरस काव्य में अलंकार-योजना उक्ति वैचित्र्य मात्र हैं। अलंकार-प्रयोग में औचित्य का पूर्ण निर्वाह होना चाहिए। रसखान ने इसका ध्यान रखा है। कविवर रसखान की गणना भक्त कवियों में की जाती है। भक्ति काव्यधारा के कवियों ने अलंकारों का सन्निवेश बहुतायत से किया है। परन्तु उन्होंने अलंकारों की अपेक्षा अलंकार्य-भाव-रस को ही अधिक गौरव दिया है। रसखान की प्रवृत्ति भी ऐसी ही है। उन्होंने भाव पर अधिक बल दिया है। बाहरी तड़क-भड़क और अलंकारों के बरबस विधान का प्रयास नहीं किया। उनकी रचना में आये हुए अलंकार स्वाभाविक और अभिव्यक्ति को प्रांजल बनाने में सहायक हैं। अनुप्रास, उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, प्रतीप आदि अलंकारों का सफल प्रयोग हुआ है।

शब्दालंकार

अनुप्रास केवल भारतीय कवियों ने ही नहीं बल्कि पाश्चात्य कवियों ने भी अनुप्रास अलंकार का बहुत अधिक रुचि के साथ प्रयोग किया है। अनुप्रास की परिभाषा एवं स्वरूप के विषय में भी आचार्य मूलत: एकमत हैं। स्थूल रूप से, वर्णसाम्य को 'अनुप्रास' कहा गया है। आचार्य भामह के अनुसार स्वरों की विषमता होने पर भी व्यंजनों की ऐसी आवृत्ति जिसमें बहुत व्यवधान न हो और जो रस एवं भाव के अनुकूल हो, उसे 'अनुप्रास' कहते हैं।[3] अनुप्रास के प्रधानत: दो भेद हैं-

छेकानुप्रास

जहां एक या अनेक वर्णों की क्रमानुसार आवृत्ति केवल एक बार हो अर्थात एक या अनेक वर्णों का प्रयोग केवल दो बार हो, वहां छेकानुप्रास होता है। छेकानुप्रास का एक उदाहरण द्रष्टव्य है—

  • देखौ दुरौ वह कुंज कुटीर में बैठो पलोटत राधिका पायन।[4]
  • मैन मनोहर बैन बजै सुसजै तन सोहत पीत पटा है।[5]

उपर्युक्त पहली पंक्ति में 'द' और 'क' का तथा दूसरी पंक्ति में 'म' और 'ब' का प्रयोग दो बार हुआ है। इन वर्णों की आवृत्ति एक बार होने से यहाँ छेकानुप्रास है।

वृत्यानुप्रास

जहां वृत्तियों (उपनागरिका, परुषा और कोमला) के अनुसार एक या अनेक वर्णों की आवृत्ति क्रमपूर्वक अनेक बार हो। रसखान के काव्य में अनुप्रास की बड़ी चित्ताकर्षक योजना हुई है। अनुप्रास की नियोजना से कविता सुनने में भली लगती है। उससे कविता का प्रभाव परिवर्धित हो जाता है। रसखान के कवित्त और सवैयों की वर्णयोजना भावक के मन को तरंगित करती रहती है। भावानुकूल अनुप्रास का प्रयोग सफल कवि ही कर सकते हैं। रसखान ने अपने को इस कला में पारंगत सिद्ध किया है। रसखान की कविता में वृत्यानुप्रासयुक्त अनेकानेक सुंदर सवैये और कवित्त हैं। ऐसा लगता है कि कवि शब्दों को नचाता हुआ चल रहा है।
सेष गनेस महेस सुरेसहु जाहि निरंतर गावैं।
जाहि अनादि अनंत अखंड अछेद अभेद सु बेद बतावैं।[6]

अथवा

छकि छैल छबीली छटा छहराइ के कौतुक कोटि दिखाइ रही।[7]

यमक

जहां भिन्नार्थक वर्णों (निरर्थक या सार्थक) की क्रमश: पुनरावृत्ति हो, वहां 'यमक' अलंकार होता है।[8] 'यमक' का शाब्दिक अर्थ है जोड़ा। इस अलंकार का नाम 'यमक' इसलिए रखा गया है क्योंकि इसमें एक जैसे दो शब्द प्रयुक्त होते हैं। सार्थक वर्ण समूह की अपेक्षा निरर्थक वर्णसमूह की आवृत्ति यमक के चमत्कार में विशेष वृद्धि करती है। यमक में कहीं दोनों वर्ण समूह सार्थक होते हैं, कहीं दोनों निरर्थक एवं कहीं एक सार्थक होता है और एक निरर्थक।

श्लेष

  • जहां श्लिष्ट पदों द्वारा अनेक अर्थों का कथन किया जाय वहां श्लेष अलंकार होता है।[9] श्लेष प्राय: अन्य अलंकारों का सहयोगी होकर ही काव्य में योजित होता है। भावुक कवियों के काव्य में इस अलंकार का प्रयोग बहुत सीमित रूप में हुआ है। इसका कारण यह है कि श्लेष में ऐसे शब्दों का विधान होता है जो अनेक अर्थों को प्रकट करते हैं। अनेकार्थक शब्दों की योजना में प्रयास करना पड़ता है। श्लेष के द्वारा काव्य का बाह्य आवरण ही अधिक अलंकृत होता है।
  • रसखान के काव्य में इस अलंकार का प्रयोग बहुत ही कम हुआ है। रसखान निश्छल भावनाओं को व्यक्त करने वाले कवि हैं। और श्लेष भावोत्कर्ष में बहुत अधिक सहयोगी नहीं होता। फिर भी कहीं-कहीं उसकी योजना सुंदर रूप में हुई है—

मन लीनो प्यारे पै छटांक नहिं देत।
यहै कहा पाटी पढ़ी दल को पीछो लेत॥[10]

  • इस दोहे में 'मन' और 'छटांक' शब्द में स्पष्ट रूप से श्लेष है। 'मन' का अर्थ है चित्त और दूसरा अर्थ है 'चालीस सेर'। इसी तरह 'छटांक' का एक अर्थ है झलक या कटांछ (कटाक्ष) और दूसरा अर्थ है सेर का सोलहवां भाग।

वक्रोक्ति

किसी एक अभिप्राय वाले कहे हुए वाक्य का, किसी अन्य द्वारा श्लेष अथवा काकु से, अन्य अर्थ लिए जाने को 'वक्रोक्ति' अलंकार कहते हैं।[11] वक्रोक्ति अलंकार दो प्रकार का होता है- श्लेष वक्रोक्ति और काकु बक्रोक्ति। श्लेष वक्रोक्ति में किसी शब्द के अनेक अर्थ होने के कारण वक्ता के अभिप्रेत अर्थ से अन्य अर्थ ग्रहण किया जाता है और काकु वक्रोक्ति में कंठ ध्वनि अर्थात् बोलने वाले के लहजे में भेद होने के कारण दूसरा अर्थ कल्पित किया जाता है। वक्रोक्ति अलंकार का नियोजन एक कष्टसाध्य कर्म है, जिसके लिए प्रयास करना अनिवार्य है। भावुक कवियों ने इसका प्रयोग कम ही किया है। रसखान की रचनाओं में वक्रोक्ति की योजना नाममात्र को है, परंतु जो है, वह सहृदय के चित्त को प्रसन्न करने वाली है। दानलीला के प्रसंग में कवि की कला का चमत्कार द्रष्टव्य है—
छीर जौ चाहत चीर गहैं अजू लेउ न केतिक छीर अचैहौ।
चाखन के मिस माखन माँगत खाउ न माखन केतिक खैड़ौ।
जानति हौं जिय की रसखानि सु काहेकौं एतिक बात बढ़ैहौ।
गौरस के मिस जो रस चाहत सौ रस कान्हजू नेकु न पैहौ॥[12]

  • 'कान्हजू' ने गोपी के प्रति जो चेष्टा की उसका उत्तर वह बड़े वक्रतापूर्ण ढंग से देती है। यदि 'चीर' गहने से 'छीर' चाहते हो, तो लो कितना पीओगे, चखने के बहाने मक्खन मांगते हो तो लो खाओं, कितना खाओगे। परंतु गोपी कृष्ण की इन चेष्टाओं का दूसरा अर्थ लेती हुई कहती है कि मैं तुम्हारे मन की बात जानती हूं, तुम गौरस (दूध, दही, घी) के बहाने 'गौरस' (इन्द्रियों का रस) चाहते हो, तो लो सुन लो कि वह रस तुम जरा-सा भी नहीं पाओगे। सवैया की अंतिम पंक्ति में वक्रोक्ति की सरस एवं नाट्यमय व्यंजना हुई है।

रूपक

रसखान की समाधि, महावन, मथुरा

उपमेय पर उपमान के निषेध-रहित अभेद आरोप को रूपक कहते हैं।[13] 'आरोप' का अर्थ है- रूप देना अर्थात् दूसरे के रूप में रंग देना। यह 'आरोप' कल्पित होता है। रूपक में उपमेय को उपमान समझ लिया जाता है। उपमा में उपमेय और उपमान में सादृश्य होते हुए भी भिन्नता होती है जबकि रूपक में दोनों एक से जान पड़ते हैं। उनमें एकरूपता होती है। रूपक के तीन मुख्य भेद हैं-

  1. सांगरूपक- जहां उपमेय में उपमान का अंगों के सहित आरोप हो वहां सांगरूपक होता है।
  2. निरंगरूपक- अंगों से रहित उपमान का जहां उपमेय में आरोप होता है वहां निरंगरूपक होता है।
  3. परंपरितरूपक- जहां एक आरोप दूसरे आरोप का कारण हो वहां परंपरितरूपक होता है।

रूपक अलंकार की निबंधना में भारतीय महाकवियों की विशेष प्रवृत्ति रही है। यह रसखान का भी प्रिय अलंकार है। उनके काव्य में स्थल-स्थल पर रूपकों की सुन्दर नियोजना की गई है। वे स्वाभाविक रूप से आए हैं तथा उनके द्वारा भावों की मार्मिक व्यंजना हुई है। रूपक चित्तविधायक अलंकार है। रसखान ने इसका सफल प्रयोग किया है। प्रेम किया नहीं जाता, हो जाता है। नायिका ने नायक को देखा और उसका मन उसके हाथ से निकल गया। वह प्रियतम के प्रति बेबस हो गई—
नैन दलालनि चौहटैं, मन-मानिक पिय हाथ।
रसखाँ ढोल बजाइ कै, बैच्यौ हिय जिय साथ॥[14]

  • उपरिलिखित दोहे में सांगरूपक की योजना दर्शनीय है। नैन रूपी दलालों ने मन रूपी मानिक को ढोल बजाकर बीच बाज़ार में हृदय और प्राण के सहित प्रियतम के हाथ बेच दिया। इसी से मिलती-जुलती बात बिहारी ने भी कही है-

लोभ लगे हरि-रूप के, करी साँटि जुरि जाइ।
हौं इन बेची बीच ही, लौइन बड़ी बलाइ॥[15]

  • शरीर का रूपक बाग़ के रूप में बांधती हुई नायिका के कथन में शुद्ध शृंगारपरक सांगरूपक की योजना चित्ताकर्षक है-

बागन काहे को जाओ पिया घर बैठे ही बाग़ लगाय दिखाऊँ।
एड़ी अनार सी मौरि रही, बहियाँ दोउ चंपे की डार नवाऊँ।
छातिन में रस के निबुआ अरु घूंघट खोलि कै दाख चखाऊँ।
ढांगन के रस के चसकै रति फूलन की रसखानि लुटाऊँ॥[16]

  • इस सवैये में बाहों पर चंपा की झुकी हुई डाल का, स्तनों पर सरस नीबू का और ओठों पर अंगूर का आरोप अंग-रूप से करके बाग-रूपी शरीर के मुख्य रूपक को पूर्ण किया है। इस प्रकार यहाँ पर सांगरूपक की नियोजना की गई है। निरंगरूपक के अंकन में भी रसखान ख़ूब सफल रहे हैं। नायक पर मोहित हुई नायिका कहती है—

खंजन नैन फंदे पिंजरा छबि, नाहि रहै थिर कैसे हूँ माई।[17]

  • यहाँ पर नायिका के खंजन रूपी नेत्रों का नायक के छवि रूपी पिंजड़े में फंस जाने का वर्णन है। 'नैन' उपमेय पर 'खंजन' उपमान का आरोप हुआ है। इसमें 'नैन' उपमेय के अंगों में खंजन उपमान के अंगों का आरोप नहीं हुआ है। यही स्थिति 'पिंजरा' और 'छवि' की भी है। निरंग रूपक का एक उदाहरण और लीजिए। नन्दकुमार को देखने के लिए नन्द के घर गई हुई गोपी लौटकर अपनी सखी से अपने अनुभव का वर्णन करती है—

जोहन नन्दकुमार कौं गई नन्द के गेह।
मौहिं देखि मुसकाइ कै बरस्यौ मेह सनेह॥[18]

  • यहाँ 'मेह सनेह' में रूपक हे, अर्थात मेह-रूपी स्नेह की वर्षा हो गई। स्नेह की अतिशयता सूचित करने के लिए उसे मेह के रूप में चित्रित किया गया है। उपर्युक्त उद्धरणों के संदर्भ में कहा जा सकता है कि रूपक अलंकार की योजना में रसखान को अतीव सफलता मिली है।

उत्प्रेक्षा

जहां प्रस्तुत में अप्रस्तुत की संभावना की जाय, वहां उत्प्रेक्षा अलंकार होता है।[19] 'उत्प्रेक्षा' (उत्+प्र+ईक्षा) का शाब्दिक अर्थ है, ऊंचा देखना अर्थात् उड़ान लेना। उपमेय और उपमान को परस्पर भिन्न जानते हुए भी इस अलंकार में कल्पना की ऊंची उड़ान के सहारे उपमेय को उपमान समझने का प्रयत्न किया जाता है। 'संभावना' का तात्पर्य 'एक कोटि का प्रबल' ज्ञान है। इसमें ज्ञान पूरा निश्चायात्मक नहीं होता, बल्कि थोड़ा कम होता है। उत्प्रेक्षा रसखान के सबसे प्रिय अलंकारों में से एक है। इसके अनेक प्रयोग उनके काव्य की श्रीवृद्धि करते हैं। इसका कारण यह हे कि उत्प्रेक्षा का प्रयोग करते हुए कवि-कल्पना को उड़ान भरने की अधिक गुंजाइश रहती है। रसखान ने अपनी कवि-कल्पना का सदुपयोग करते हुए उत्प्रेक्षा अलंकार का विविध प्रसंगों में रमणीय विधान किया है।

  • गोपी गोकुल में दहीं बेचने के लिए निकली। रास्ते में कृष्ण से उसकी भेंट हो गई। आंखें चार हुईं। वह कामाभिभूत हो गई। दान मांगते हुए कृष्ण अपनी अड़ पर डट गए। सात्विक भाव 'कंप' और संचारी भाव भय से युक्त गोपी के उस रूप की कितनी हृदयस्पर्शी उत्प्रेक्षा रसखान ने निम्नलिखित सवैये में की है—

पहले दधि लै गइ गोकुल में चख चारि भए नटनागर पै।
रसखानि करी उनि मैनमई कहें दान दै दान खरै अर पै।
नख तैं सिख नील निचोल लपेटे सखी सम भांति कँपै डरपै।
मनौ दामिनि सावन के घन मैं निकसैं नहीं भीतर ही तरपै।[20]

  • नख से शिख तक नीला वस्त्र लपेटे हुए भय से कांपती हुई गोपी इस प्रकार शोभित हो रही है मानो सावन के बादल के बीच में बिजली घिर गई हो और बाहर न निकल पाने के कारण वह भीतर ही भीतर चमक रही हो। नील वस्त्र से आच्छादित गौर वर्ण युवती के बिजली के समान अंगों की ऐसी ही सुन्दर कल्पना 'कामायनी' में जयशंकर प्रसाद ने भी की है—

नील परिधान बीच सुकुमार
खुल रहा मृदुल अधखुला अंग,
खिला हो ज्यौं बिजली का फूल
मेघ-वन-बीच गुलाबी रंग।[21]

अपह्नुति

जहां प्रकृत का निषेध कर अप्रकृत का स्थापन किया जाय वहां 'अपह्नुति' अलंकार होता है। अपह्नुति केवल सादृश्य-सम्बन्ध में ही होती है। 'अपह्नुति' का शाब्दिक अर्थ है- छिपाना या निषेध करना। इसमें किसी सत्य बात को छिपाकर या निषेध करके उसके स्थान पर कोई झूठी बात स्थापित की जाती है। अपह्नुति की योजना में प्राय: कृत्रिमता आने की आशंका रहती हैं रसखान के काव्य में यह अलंकार बहुत ही विरल रूप में आया है। एकाध स्थलों पर इसकी चित्ताकर्षक व्यंजना हुई है। बांसुरी बजाते हुए, गौचरण का गीत गाते हुए, ग्वालों के साथ श्रीकृष्ण गोपिका की गली में आ गए। गोपिका उनकी बांसुरी की टेर को सुनकर कहती है—
बांसुरी में उनि मेरोई नांव सुग्वालिनि के मिस टेरि सुनायौ।
उपर्युक्त पंक्ति में अपह्नुति अलंकार की सुन्दर छटा है। यहाँ पर कृष्ण वंशी से गोपी-नाम-ध्वनि नहीं करते। वे 'सुग्वालिनि' की ध्वनि टेरते हैं। यहाँ गोपी के नाम का निषेध किया गया है और अप्रकृत 'सुग्वालिनि' नाम की स्थापना की गई है। लेकिन गोपी इस सत्य को समझती है कि उन्होंने बांसुरी में 'सुग्वालिनि' के मिस से मेरे नाम को ही सुनाया है।

अतिशयोक्ति

जहां उपमान द्वारा उपमेय का निगरण, असम्बन्ध में मैं सम्बन्ध की कल्पना, उपमेय का अन्यत्व अथवा कारण और कार्य का पौवपिर्य- विपर्यय वर्णित हो, वहां 'अतिशयोक्ति' अलंकार होता है।[22] अतिशयोक्ति का अर्थ है अतिकान्त अथवा उल्लंघन अर्थात किसी वस्तु के विषय में लोकसीमा से बढ़ा-चढ़ाकर कथन करना। काव्य में अतिशयोक्ति के आधार पर ही कवि कल्पना की मधुर उड़ानें भरते हैं। सामान्य जीवन के व्यवहार में भी अतिशयोक्ति का प्रयोग बहुलता से किया जाता है। अत: उसे मानव की स्वभाव-जन्य विशेषता कहा जा सकता है।

अतिशयोक्ति कवियों की परंपरा से प्राप्त अलंकार है। रसखान ने भी काव्य परंपरागत रूप में ही उसको ग्रहण किया है, जिससे उसमें नवीनता और कथन में सुंदर चमत्कार आ गया है। उनकी अतिशयोक्ति-योजना केवल वैचित्र्य-प्रदर्शन बनकर ही नहीं रह गई है, बल्कि अभिप्रेत वर्ण्य विषय में उत्कर्ष लाने को पूर्णत: समर्थ है। कवि सौन्दर्य-निकेतन राधा की अनिंद्य रूप-छटा का चित्रण करता हुआ अतिशयोक्ति करता है—

बासर तूँ जु कहूँ निकरै रबि को रथ माँझ अकास अरैरी।
रैन यहै गति है रसखानि छपाकर आँगन तें न टरे री।
द्यौस निस्वास चल्यौई करै निसि द्यौंस की आसन पाय धरै री।
तेरो न जात कछू दिन राति बिचारे बटोही की बाट परै री॥[23]

  • नायिका गोरे रंग की है। उसके सौन्दर्य में अप्रतिम आभा ही दर्शनीय है। सखी उसे बरजती हुई कहती है कि तू दिन में घर से बाहर न निकल अन्यथा तेरे रूप को देखने के लिए सूर्य का रथ आकाश में ही रुक जाएगा। यही स्थिति रात में भी होगी- चन्द्रमा आंगन में आकर तुझे टकटकी बांधकर देखता रहेगा, वहां से 'टरेगा' नहीं (शायद यह सोचकर कि मेरा प्रतिद्वन्द्वी कहां से आ गया)। (तू पद्मगंधा है अत:) दिन में वायु तेरी सुगन्ध लेने आती है। रात में भी वह दिन की सी आशा से पीछे लगा है। (तुम्हारे बाहर निकलने से) तुम्हारा तो कुछ नहीं जाएगा, हां पथिक बेचारे का रास्ता रुक जाएगा। (क्योंकि समय सूचक ये ग्रह रुक जाएंगे, अपना कार्य करना बन्द कर देंगे

इस प्रकार हम देखते हैं कि इस सवैये में कवि ने राधा की सौन्दर्य गरिमा का लोकसीमा से बढ़ा चढ़ाकर कथन किया है। अत: यहाँ अतिशयोक्ति अलंकार है। रसखान ने अतिशयोक्ति का परंपरागत रूपों में प्रयोग किया है।

व्यतिरेक

जहां उपमान की अपेक्षा अधिक गुण होने के कारण उपमेय का उत्कर्ष हो वहां 'व्यतिरेक अलंकार' होता है। व्यतिरेक का शाब्दिक अर्थ है आधिक्य। व्यतिरेक में कारण का होना अनिवार्य है। रसखान के काव्य में व्यतिरेक की योजना कहीं कहीं ही हुई है। किन्तु जो है, वह आकर्षक है। नायिका अपनी सखी से कह रही है कि ऐसी कोई स्त्री नहीं है जो कृष्ण के सुन्दर रूप को देखकर अपने को संभाल सके। हे सखी, मैंने 'ब्रजचन्द्र' के सलौने रूप को देखते ही लोकलाज को 'तज' दिया है क्योंकि—

खंजन मील सरोजनि की छबि गंजन नैन लला दिन होनो।
भौंह कमान सो जोहन को सर बेधन प्राननि नंद को छोनो।[24]

  • यहाँ नन्दलाल के दिन दिन होनहार नयन खंजन, मीन और सरोज (कमल) से भी अधिक छवि वाले बतलाए गए हैं। किन्तु उनमें एक विशिष्टता और भी हे। वह यह कि कृष्ण 'भौंह कमान' से कटाक्ष का बाण छोड़कर प्राणों को बेधते हैं। यहाँ उपमेय में उपमान की अपेक्षा अधिक गुण होने के कारण व्यतिरेक अलंकार है। एक अन्य उदाहरण लीजिए- नायिका में यौवनागम हो गया है। उसकी भौंहो में बांकापन तथा चितवन में तिरछापन आ गया है। साथ ही 'टाँक सी लाँक भई रसखानि सुदामिनि ते दुति दूनी हिया की।'[25]
  • यहाँ 'सुदामिनि तें दुति दूनी हिया की' में व्यतिरेक अलंकार है। क्योंकि, उपनेय नायिका के उभरे हुए वक्षस्थल की दुति बिजली से भी दूनी है- ऐसा कहा गया है।

पर्याय

जहां एक वस्तु की अनेक वस्तुओं में अथवा अनेक वस्तुओं की एक वस्तु में क्रम से (काल-भेद से) स्थिति का वर्णन हो वहां पर्याय अलंकार होता है।[26]

  • निम्नांकित पंक्तियों में कृष्ण की अनेक चेष्टाओं का वर्णन है—

काहू को माखन चाखि गयौ अरु काहू को दूध दही ढरकायौ।
काहूँ को चीर ले रूख चढ़यौ अरु काहू को गुंजछरा छहरायौ।[27]

  • 'जसोमति' के 'छोहरा' (कृष्ण) किसी का मक्खन खा गए तो किसी का दही ढरका दिया, किसी का 'चीर' लेकर वृक्ष पर चढ़ गए तो किसी की गुंजाफल की माला को बिखेर दिया। यहाँ कृष्ण के द्वारा की जाने वाली अनेक क्रियाओं का वर्णन है। अत यहाँ पर्याय अलंकार है।

विरोधमूलक अलंकार, विरोधाभास

वस्तुत: विरोध न होने पर जहां विरोध का आभास हो वहां 'विरोधाभास' अलंकार होता है।[28] विरोध के कारण सामान्य उक्ति में भी अनोखा चमत्कार आ जाता है। इस अलंकार में विरोध केवल आभासित होता है। लेकिन विचार करने पर उसका परिहार हो जाता है। ऐसी उक्तियों के कारण काव्य-सौन्दर्य में उत्कर्ष आता है। रसखान के काव्य में विरोधाभास अलंकार की योजना नाममात्र को हुई है। इसका कारण यह है कि वे भक्त थे, काव्य उनकी तीव्र भावाभिव्यक्ति का साधन था। वह बात को बेलाग कहते थे- बहुत अधिक घुमा फिरा कर नहीं। वचन-विदग्धता के प्रदर्शन की चेष्टा उन्होंने कहीं नहीं की है। प्रेम-पन्थ बड़ा विचित्र है- कमल नाल से भी क्षीण और खड्ग की धार से भी तीक्ष्ण। अनिवार प्रेम के मार्ग के विषय में कवि का 'विरोधाभास' चमत्कार देखिए—

कमलतंतु से हीन अरु, कठिन खड़ग की धार।
अतिसूधौ टेढ़ौ बहुरि, प्रेम पंथ अनिवार॥[29]

जो सीधा है वह टेढ़ा कैसे हो सकता है? यहीं तो विरोधाभास है। प्रत्यक्षत: दोनों (सूधौ, टेढ़ौ) में विरोध दृष्टिगत होता है, परन्तु तत्त्वत विरोध है नहीं। प्रेम हो जाता है, उसमें छल-छंद रंचमात्र भी नहीं हे। वह निश्छल हृदय का प्रवाह है- इस दृष्टि से 'सूधौ' (सीधा) है। लेकिन प्रेम मार्ग पर चलना टेढ़ी खीर है, दुनिया का व्यंग्य और उपहास साथ रहता है, कठिनाइयाँ जीवन को अस्थिर कर देती हैं। इस दृष्टि से 'टेढ़ौ' (टेढ़ा) है। एक अन्य उदाहरण भी अवलोकनीय है। गोपी कृष्ण के अप्रतिम सौन्दर्य पर मुग्ध है। उनके नेत्र कटाक्ष को देखते ही उसकी लाज की गांठ खुल जाती है—

सुनि री सजनी अलबेलो लला वह कुंजनि कुंजनि डोलत है।
रसखानि लखें मन बूड़ि गयौ मधि रूप के सिंधु कलोलत है।[30]

विसंगति

जहां आपातत: विरोध दृष्टिगत होते हुए, कार्य और कारण का वैयाधिकरण्य वर्णित हो, वहां असंगति अलंकार होता है।[31] इसमें दो वस्तुओं का वर्णन होता है- जिनमें कारण कार्यसम्बन्ध होता है। इन वस्तुओं की एकदेशीय स्थिति आवश्यक है, लेकिन वर्णन भिन्नदेशत्व का किया जाता है। रसखान के साहित्य में असंगति की योजना अत्यन्त सीमित रूप में हुई है। एक प्रभाव-व्यंजक उदाहरण अवलोकनीय है। गोकुल के ग्वाल (कृष्ण) की मनोहर चेष्टाओं पर मुग्ध हुई गोपी कहती है—

पिचका चलाइ और जुवती भिजाइ नेह,
लोचन नचाइ मेरे अंगहि नचाइ गौ।[32]

यहाँ क्रिया कृष्ण के नेत्रों में होती है परन्तु प्रभाव गोपी के अंग पर होता है। उसका अंग अंग उसके लोल लोचनों के कटाक्ष में नाच उठता है।

एकावली

जहां शृंखलारूप में वर्णित पदार्थों में विशेष्य विशेषण भाव सम्बन्ध हो वहां एकावली अलंकार होता है।[33] इस अलंकार की योजना कवि लोग केवल चमत्कार उत्पन्न करने के लिए करते हैं। इसमें कल्पना की उड़ान का विनोदात्मक रूप होता है। निम्नांकित पंक्ति में कवि ने एकावली अलंकार का नियोजन किया है—

वा रस में रसखान पगी रति रैन जगी अंखियां अनुमानै।
चंद पै बिम्ब औ बिंब पै कैरव कैरव पै मुकतान प्रमानै।[34]

यहाँ पर नायिका के मुख, अधर और नेत्रों के अंगों का एक के बाद एक करके शृंखला रूप में वर्णन हुआ है। रात भर जागरण के कारण नायिका की आँख लाल हो गई हैं। उसके मुख पर चन्द्र पर बिंब (कुन्दरू- लाल आंखों की ललाई) है, बिंब पर कैरव (आंखों में सफ़ेद कौए) हैं और 'कैरव' पर मुक्ताएं (रात भर जागने से जंभाई लेने पर स्वत: निकल पड़ने वाली आंसू की बूँदें) हैं। रसखान ने 'एकावली' का प्रयोग एकाध स्थलों पर ही किया है।

अन्य संसर्ग मूलक अलंकार, उदाहरण

सामान्य रूप से ही हुई बात को स्पष्ट करने के लिए जहां उसी सामान्य में एक अंश को उदाहरण के रूप में रखा जाता है, वहां उदाहरण अलंकार होता है।[35] उदाहरण अलंकार की योजना रसखान ने अल्प मात्रा में की है। उनके उदाहरण सामान्य जीवन से ग्रहण किए गए हैं और सुन्दर बन पड़े हैं 'उदाहरण' के कुछ उदाहरण निम्नांकित हैं— रसखानि गुबिंदहि यौं भजियै जिमि नागरि को चित गागरि मैं।[36] कवि कहता है कि गोविन्द का भजन एकाग्र चित्त से करना चाहिए। अपनी बात को स्पष्ट करने के लिए वह एक उदाहरण देता है कि मन को भगवान में उसी प्रकार केन्द्रित रखना चाहिए जिस प्रकार सिर पर कई घड़े रखकर चलने वाली नागरी संतुलन बनाये रखने के लिए अपने मन को घड़े पर केन्द्रित रखती है। यहाँ कवि ने सामान्य जीवन से रमणीय उदाहरण प्रस्तुत किया है।

प्रेम हरी कौ रूप है, त्यों हरि प्रेम सरूप।
एक होय द्वै यौं लसैं, ज्यों सूरज औ' धूप।[37]

इस दोहे में कवि को इष्ट है 'प्रेम' और 'हरि' (ईश्वर) की एकरूपता प्रतिपादित करना। एक होते हुए ये दोनों कैसे शोभित होते हैं- इसको स्पष्ट करने के लिए उसने सूरज और धूप का उदाहरण प्रस्तुत किया है।

अन्य अलंकार, अनुमान

साधन के द्वारा साध्य के चमत्कारपूर्ण ज्ञान के वर्णन को अनुमान अलंकार कहते हैं।[38] अनुमान अलंकार में हेतु के द्वारा साध्य का अनुमान कराया जाता है और यह ज्ञान कवि के द्वारा कल्पित चमत्कार से पूर्ण होता है। रसखान के काव्य में इस अलंकार का प्रयोग बहुत कम हुआ है। एक उदाहरण द्रष्टव्य है-

मोहनलाल कौ हाल बिलौकियै नैकु कछू किनि छवै कर सौं कर।
ना करिबे पर बारें हैं प्रान कहा करि हैं अब हाँ करिबे पर।[39]

नायिका मान कर रही है और नायक उसे प्रसन्न करने की चेष्टा कर रहा है। सखी नायिका को समझाती है कि मान करने की अवधि तो घड़ी भर की होती है और तुम इतनी देर से तीक्ष्ण नेत्रों से देख देखकर नायक के हृदय को बेध रही हो। मोहन लाला तुमसे प्रेम करने के लिए बेहाल हो रहे हैं। जरा अनुमान तो करो कि तुम्हारे 'ना' करने पर जब उनकी यह हालत है तो 'हां' करने पर क्या स्थिति होगी।

लोकोक्ति

जहां वर्णित प्रसंग में लोक-प्रसिद्ध प्रवाद (कहावत लोकोक्ति मुहावरे आदि) का कथन किया जाय, वहां 'लोकोक्ति' अलंकार होता है। रसखान के काव्य में लोकोक्तियों का प्रयोग सुन्दर रूप में हुआ है। कवि ने उन्हें भावों के भूषण में चमकते हुए नगीनों की तरह स्थान स्थान पर जड़ दिया है। इसके अनेक सरस उदाहरण द्रष्टव्य हैं। नायक और नायिका दोनों कालिन्दी के तीर पर मिलते हैं, मुड़-मुड़कर मुस्कराते हैं, एक दूसरे की बलैयां लेते हैं। इसे लक्ष्य करके कोई सखी कहती हे कि दोनों ने आजकल लोक-लाज को त्याग दिया है, केवल स्नेह को 'सरसा' रहे हैं, उन्हें नहीं मालूम कि आगे क्या होगा-

यह रसखानि दिना द्वै में बात फैलि जैहै,
कहाँ लौं सयानी चंदा हाथन छिपाइबौ।[40]

दो दिन में बात फैल जाती है। चन्द्रमा को हाथ से नहीं छिपाया जा सकता। यह लोक-प्रसिद्धि है। लोकोक्ति अलंकार की सहायता से लक्षणा द्वारा सखी यह कहना चाहती है कि गोपी और कृष्ण की इस प्रेम-लीला को गुप्त रखना असम्भव है। ब्रज में इसकी चर्चा फैलते देर नहीं लगेगी। इसी तरह निम्नांकित उद्धरण में भी कवि ने 'न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी' लोकोक्ति का बड़ा ही रमणीय प्रयोग किया है—

करियै उपाय बाँस डारियै कटाय,
नहिं उपजैगौ बाँस नाहिं बाजै फेरि बांसुरी।[41]

कृष्ण की वंशी की ध्वनि सुनकर गोपियां तन्मय होकर व्याकुल हो जाती हैं। उन्हें न तो पानी का घड़ा भरने की सुधि रहती है और न पग धरने की। वे घर का ध्यान की भूलकर लम्बी-लम्बी उसांसें भरने लगती हैं। कोइर बेहाल होकर भूमि पर गिर जाती है तो कोई-कोई आंसुओं से पूरित आंखों वाली हो जाती है। कवि कहता है कि ब्रज-बनिताओं के मन का वध करने वाली बंशी कुलीनता का ध्वंस करने वाली है। इसका तो एक ही उपाय है कि बांस की कटा दिए जाएँ, इससे यह होगा कि न तो बांस उपजेंगे और न ही फिर बंशी बजेगी। कवि ने अलंकार का कितना प्रभावशाली प्रयोग किया है।

मानवीकरण

पाश्चात्य काव्यशास्त्र के प्रभाव से हिन्दी में कुछ आधुनिक अलंकारों की चर्चा भी होने लगी है। उन्हीं में से एक अलंकार 'मानवीकरण' है। यह शब्द अंग्रेज़ी के 'परसोनिफिकेशन' का हिन्दी अनुवाद है। 'अमानव' में 'मानव' गुणों के आरोप करने की साधारण प्रवृत्ति या प्रक्रिया को 'मानवीकरण' कहा जाता है।[42] मानवीकरण के द्वारा वर्णनीय विषय में मार्तिकता और प्रेषणीयता लाई जाती है। हिन्दी की छायावादी कविता में मानवीकरण का बड़ा ही मनोहर एवं सशक्त प्रयोग हुआ है। प्राचीन कवियों के काव्य में भी मानवीकरण की विशेषताएं उपलब्ध हैं। सहज भावुक कवि रसखान ने भी 'मानवीकरण' अलंकार की सुन्दर योजना की है। कुछ उदाहरण देखने योग्य हैं-

  • प्रेमी की मुस्कान पर मुग्ध नायिका कहती है— बैरिनि वाहि भई मुसकानि जु वा रसखानि के प्रान बसी है।[43] यहाँ 'मुसकानि' चेतन प्राणी नहीं है। (न मानव ही है) फिर भी उसे 'बैरिनि' कहा गया है। बैरिणी वही हो सकती है जो चेतन हो। 'मुसकानि' का यहाँ मानवीकरण करके उक्ति में चमत्कार लाया गया है। अतएव यह 'मानवीकरण' अलंकार का उदाहरण है।
  • वहि बाँसुरि की धुनि कान परें कुलकानि हियौ तजि भाजति है।[44] 'कुलकानि' प्राणी नहीं है जो भागे। कुलकानि की चिन्ता मानव को ही हो सकती है। जानवरों में इस प्रकार की भावना नहीं होती। अत: यहाँ 'कुलकानि' में मानव की विशेषता को चित्रित करके उसका मानवीकरण किया गया है। *मोहन में नायिका का मन अटका हुआ है तथा मन को चैन नहीं पड़ता और स्थिति यह है कि— व्याकुलता निरखे बिन मूरति भागति भूख न भूषन भावै।[45] यहाँ भागति भूख में मानवीकरण अलंकार है, क्योंकि अमूर्त और अचेतन 'भूख' का मानवीकरण किया गया है तथा उसमें भागने की विशेषता दिखाई गई है। इस प्रकार हम देखते हैं कि रसखान की कविता में विभिन्न प्रकार के शब्दगत और अर्थगत अलंकारों का प्रयोग हुआ है।

कवि ने कहीं चमत्कार लाने के लिए अलंकारों को बरबस ठूंसने की चेष्टा नहीं की है। भाव और रस के प्रवाह पर भी उसकी दृष्टि केन्द्रित रही है। भावों और रसों की अभिव्यक्ति को उत्कृष्ट बनाने के लिए ही अलंकारों की योजना की गई है। उचित स्थान पर अलंकारों का ग्रहण किया गया है। उन्हें दूर तक खींचने का व्यर्थ प्रयास नहीं किया गया है। औचित्य के अनुसार ठीक स्थान पर उनका त्याग कर दिया गया है। रसखान द्वारा प्रयुक्त अलंकार अपने 'अलंकार' नाम को सार्थक करते हैं। शब्दालंकारों में अनुप्रास और अर्थालंकारों में उपमा, उत्प्रेक्षा एवं रूपक की निबंधना में कवि ने विशेष रूचि दिखाई है। बड़ी कुशलता के साथ उनका सन्निवेश किया है, उन्हें इस विधान में पूर्ण सफलता मिली है। अलंकारों की सुन्दर योजना से उनकी कविता का कला-पक्ष निस्सन्देह निखर आया है।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. काव्यशोभाकरान् धर्मानलंकारान् प्रवक्षते। ते चाद्यापि विकल्प्यन्ते कस्तान् कात्स्यैन वक्ष्यति॥ -काव्यादर्श, 2।1
  2. वक्राभिधेय शब्दोक्तिरिष्टावाचामलंकृति:। -काव्यालंकार, 1। 36
  3. स्वरवैसादृश्ये पि व्यंजनसदृशत्वं वर्णसाम्यम्। रसाद्यनुगत: प्रकृष्टो न्यासोनुप्रास: -काव्यप्रकाश, 9।2 परवृति
  4. सुजान रसखान, 17
  5. सुजान रसखान, 172
  6. सुजान रसखान, 13
  7. सुजान रसखान, 154
  8. सुजान रसखान, 1,2,5,6,7,8,9,10,11,12, 14,37,78
  9. श्लिष्टै, पदेरनेकार्थाभिधाने श्लेष ईष्यते॥ - साहित्यदर्पण, 10 । 11
  10. सुजान रसखान, 150
  11. यदुक्तामन्यथावाक्यमन्यथा न्येन योज्यते। श्लेषेण काक्वा वा ज्ञैया सा वक्रोक्तिरतथा द्विधा॥ - काव्यप्रकाश 9।78
  12. सुजान रसखान, 42
  13. अभेदप्राधान्ये आरोपे आरोपविषयानपह्नवे रूपकम्। -अलंकारसर्वस्व, पृ0 34
  14. सुजान रसखान, 71
  15. बिहारी रत्नाकर, दोहा 195
  16. सुजान रसखान, 122
  17. सुजान रसखान, 81
  18. सुजान रसखान, 93,रूपक अलंकार के और उदाहरण के लिए देखिए- सुजान रसखान, 1,16,72,74 आदि
  19. संसभावनमर्थोत्प्रेक्ष प्रकृतस्य समेन यत्। -काव्यप्रकाश, 10 । 9
  20. सुजान रसखान, 39
  21. कामायनी, पृ0 46
  22. निगीर्याध्यवसानन्तु प्रकृतरू परेण यत्। प्रस्तुतस्य यदन्यत्वं पद्यर्थोकौ च कल्पनम्॥ कार्यकारणयोर्यश्च पौर्वापर्यविपर्यय: विज्ञेया तिशयोक्ति: सा....॥ -काव्यप्रकाश, 10 । 100-101
  23. सुजान रसखान, 48
  24. सुजान रसखान, 72
  25. सुजान रसखान
  26. एकमनेकस्मिन्ननेकमेकस्मिन्कमेण पर्याय:। -अलंकारसर्वस्व, पृ0 189
  27. सुजान रसखान, 104
  28. विरुद्धाभासत्वं विरोध:। -काव्यालंकारसूत्र, 4।3।12
  29. प्रेमवाटिका, दोहा 6
  30. सुजान रसखान, 157
  31. विरुद्धत्वेनापाततो भासमानं हेतुकार्यपोर्वेयधिकरण्यमसंगति:॥ -रसगंगाधर, पृ0 589
  32. सुजान रसखान, 194
  33. सैव शृंखला संसर्गस्य विशेष्यविशेषणभावरूपत्वे एकावली। -रसगंगाधर, पृ0 623
  34. सुजान रसखान, 119
  35. अलंकार प्रदीप, पृ0 189
  36. सुजान रसखान, 8
  37. प्रेमवाटिका, 124
  38. अनुमानं तु विच्छित्या ज्ञानं साध्यस्य साधनात। --साहित्यदर्पण, पृ0 10। 63
  39. सुजान रसखान, 115
  40. सुजान रसखान, 100
  41. सुजान रसखान, 54
  42. साहित्य कोष (सं0- डा. धीरेन्द्र वर्मा) पृ0 589
  43. सुजान रसखान, 38
  44. सुजान रसखान, 67
  45. सुजान रसखान, 136

बाहरी कड़ियाँ

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