भारत की भाषिक एकता: परंपरा और हिन्दी -माणिक गोविंद चतुर्वेदी

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लेखक- प्रो. माणिक गोविंद चतुर्वेदी

          निश्चित ही भारत अपनी भाषिक और सामाजिक संरचना के इतिहास और भूगोल के कारण भाषा और समाज के अध्येताओं के लिए अध्ययन का एक समस्यामूलक, किंतु रोचक विषय बना हुआ है। संसार में किसी दूसरे इतने विशाल और प्राचीन (जिसकी सांस्कृतिक परम्परा आद्यांत अक्षुण्ण हो) और वैविध्यपूर्ण राष्ट्र के न होने के कारण, वह अनेक बार अनेक भ्रांत और भ्रामक धारणाओं का शिकार होता रहा है। इसी का परिणाम है कि भारत में बाली जाने वाली बोलियों, उपभाषाओं और भाषाओं तथा उनके बोलने वाले समुदायों की विविधता तथा संख्या को देखते हुए जो उसे एक ओर भाषा सामाजिक विकट विग्रह (सोशियो-लिग्विंस्टिक ज्वाइंट) की संज्ञा दी है वहीं उसी भाषिक और सामाजिक इकाईयों के मूल में प्रवर्तमान एकात्मकता को देखकर भाषा वैज्ञानिकों ने उसे एक भाषिक क्षेत्र (ए लिग्विंस्टिक एरिया) कहा है। वस्तुतः समूचे दक्षिण् पूर्व एशिया में भारतीय उपमहाद्वीप एक ऐसा भाषिक क्षेत्र है जो अनेकता में एकता का अत्यंत सटीक निदर्शन प्रस्तुत करता है।
          यद्यपि भारत में प्राचीनतम भाषिक अभिलेख हमें प्राचीन भारतीय आर्यभाषा ‘छंदस’ या वैदिक संस्कृत में वैदिक वाङ्मय के रूप में उपलब्ध हैं, परंतु विद्वानों की धारणा है कि भारत में आर्यों के आगमन से पूर्व आग्नेय, द्रविड़ और भाट-चीनी परिवारों के लोग यहा बसे हुए थे। परिणामस्वरूप आर्य भाषाओं से पूर्व यहां इन्हीं परिवारों की भाषाएं बोली जाती थीं। कुछ विद्वानों के अनुसार भारत में सर्वाधिक प्राचीन जाति नीग्रो या हब्शी है, परंतु अब वह जाति भारत में पूर्णतः विलुप्त हो चुकी है। हां आपवाद रूप में अब भी अंडमान द्वीप समूह में इस जाति के कुछ अवशेष अवश्य मिल जाते हैं। कुछ विद्वानों के अनुसार अंडमानी भाषा का संबंध इसी जाति या परिवार के साथ है।
          नीग्रो जाति के बाद जिस जाति ने भारत में प्रवेश किया, वह है मूल आग्नेय जाति, जिसे प्राचीन काल में निषाद तथा आजकल कोल और मुंडा जाति कहा जाता है। यद्यपि ये लोग पश्चिमी दिशा से ही भारत आए थे, परंतु संप्रति ये लोग मुख्य रूप से बिहार के छोटा नागपुर क्षेत्र उड़ीसा, पश्चिमी बंगाल, मध्यप्रदेश तथा खासी पहाड़ियों के कुछ क्षेत्रों में ही पाये जाते हैं। 1967 की जनगणना के अनुसार इस भाषा परिवार की 65 बोलियां समूचे देश की जनसंख्या के लगभग 1.5 प्रतिशत लोगों द्वारा बोली जाती है। संथाली, मुंडारी, हो, भूमिज, कोरकू, खारिया, सौरा, खासी तथा नीकोबारी इस भाषा परिवार की प्रमुख भाषाएं हैं, तथा इनमें से नीकोबारी, खासी तथााा संथाली भाषाओं को पढ़ा लिखा भी जाता है।
          कोल मुंडा जाति के पश्चात द्रविड़ लोग भारत आए। विद्वानों की मान्यता है कि द्रविड़ जाति भी पश्चिम से ही आई थी, तथा आर्यों के आने के समय समूचे पश्चिमोत्तर भारत में बसी हुई थी। कुछ लोगों की धारणा है कि सिंधु घाटी की सभ्यता इन्हीं लोगों ने विकसित की थी। 1961 जनगणना के अनुसार इस समय द्रविड़ परिवार की 153 बोलियां समूचे भारत में कुल जनसंख्या के 24.47 प्रतिशत लोगों द्वारा बोली जाती हैं।
          द्रविड़ भाषाओं को निम्नलिखित तीन भौगोलिक भागों में बांटा जा सकता है:
1 - उत्तरी द्रविड़ भाषा -जैसे, ओरांव, मालतो आदि।
2 - मध्य देशीय द्रविड़ भााषाएं -जैसे कुई, खोंद आदि।
3 - दक्षिण देशीय द्रविड़ भाषाएं -जैसे तमिल, तेलुगु , कन्नड़, मलयालम आदि।
          द्रविड़ परिवार की चार साहित्यिक भाषाएं तमिल, कन्नड़, तेलगू और मलयालम भारतीय संविधान में परिगणित हैं, तथा दक्षिण भारत के चारों राज्यों तमिलनाडु, कर्नाटक, आंध्रप्रदेश तथा केरल में क्रमशः राजभाषा हैं। ये चारों भाषाएं द्रविड़ भाषाभाषी जन समुदाय के 95.56 प्रतिशत लोगों द्वारा बोली जाती है।
          भारत में आर्याें के आगमन के पूर्व ही उत्तर तथा पूर्वाेत्तर दिशाओं से भोट चीनी परिवार के लोग हिमालय की घाटियों में आकर बस चुके थे, जिन्हें प्राचीन काल में किरात कहा जाता था। इस परिवार की भाषाएं पश्चिमोत्तर में कश्मीर के लद्दाख क्षेत्र से लेकर पूर्व में दक्षिण पूर्वी आसाम तक बोली जाती है। अनुपात में भाषा भेद बहुत अधिक पाया जाता है। आशय यह है कि यहां तीस बत्तीस लाख लोग दो सौ से अधिक भाषाएं बोलते हैं। 1961 की जनगणना के अनुसार भारत में भोट चीनी परिवार की 226 मातृभाषाएं हैं, जिनमें तिब्बती आदि कुछ ही भाषाओं को संख्या आदि की दृष्टि से महत्वपूर्ण कहा जा सकता है। इस परिवार की केवल तिब्बती और मैतेयी (मणिपुरी) भाषाएं ही साहित्यिक भाषाएं हैं, शेष भाषाओं में से अधिकांश भाषाएं अभी भी अलिखित रूप में प्रचलित हैं।

          इस प्रकार स्पष्ट है कि भारत में आर्यों के आने से पहले द्रविड़ या दस्यु, निषाद या कोल मुंडा, किरात या भोट चीनी जातियों के लोग बसे हुए थे। संभवतः इस जातियों के परस्पर संसर्ग से इनकी भाषाओं पर एक दूसरे का प्रभाव पड़ने लगा था। परंतु जब आर्यजन भारत में आए और केंद्रीय सत्ता के रूप से स्थापित हो गए तो उन्होंने न केवल सभी पूर्ववर्ती सांस्कृतिक तत्वों को एकसूत्रता में बांधा, वरन एक अखिल भारतीय संस्कृति को जन्म भी दिया।
          विद्वानों की मान्यता है कि भारतीय जनमानस और जनसंस्कृति को सामासिक रूप में विकसित करने में प्राचीन आर्य भाषा संस्कृत का जो योगदान रहा है वह निश्चित ही अद्वितीय है। चूंकि संस्कृत अखिल भारतीय संस्कृति, साहित्य, दर्शन, धर्म आदि सब कुछ की अभिव्यक्ति की माध्यम ही नहीं बनी, वरन वह भारतीयता की प्रतीक ही बन गई है। 1961 की जनगणना के अनुसार इस समय समूचे देश में आर्य परिवार की 574 मातृभाषाएं कुल जनसंख्या के 75.30 प्रतिशत लोगों द्वारा बोली जाती है। इस प्रकार सबाके बाद में आने वाले आर्यजनों की भाषाएं भारत के सभी प्रदेशों में सर्वाधिक लोगों द्वारा बोली जाती हैं तथा ये ही भाषाएं सर्वाधिक विकसित भी हैं और सरकार द्वारा मान्य भी हैं।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

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