दक्षिण भारत 1615-1656

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1622 के बाद जब जहाँगीर के विरुद्ध शहज़ादा शाहजहाँ के विद्रोह के कारण दक्कन में अव्यवस्था हुई, तो मलिक अम्बर ने मुग़लों के हाथों हारे हुए बहुत से क्षेत्र फिर से जीत लिए। इस प्रकार दक्कन में मुग़लों की स्थिति को सुदृढ़ करने के जहाँगीर के प्रयत्न विफल हो गये। किन्तु मुग़लों के साथ शत्रुता को फिर से प्रारम्भ करने से अहमदनगर को हुए लाभ लम्बे समय तक बने रहे, यह संदेहास्पद है। इससे ऐसी स्थिति पैदा हो गई थी कि शाहजहाँ को निर्णय करना पड़ा अहमदनगर के स्वतंत्र अस्तित्व को मिटाने के अतिरिक्त और कोई रास्ता नहीं है। 1626 में 80 वर्ष की आयु में मलिक अम्बर की मृत्यु हो गई। किन्तु उसकी शत्रुता की परम्परा के कड़वे फल उसके उत्तराधिकारियों को चबाने पड़े।

अहमदनगर का पतन

शाहजहाँ 1627 में गद्दी पर बैठा। दक्कन के विरुद्ध दो अभियानों का नेतृत्व करने तथा पिता से विद्रोह के समय वहाँ काफ़ी समय व्यतीत करने के कारण शाहजहाँ को दक्कन और उसकी राजनीति का बहुत व्यक्तिगत ज्ञान था। शहनशाह के रूप में शाहजहाँ का पहला काम निज़ामशाही शासक द्वारा छीने गए दक्कनी प्रदेशों को वापस लेना था। इस काम के लिए उसने पुराने और अनुभवी सरदार ख़ान-ए-जहाँ लोदी को नियुक्त किया। किन्तु ख़ान-ए-जहाँ अपने प्रयत्न में असफल हुआ और उसे वापस दरबार बुला लिया गया। लेकिन उसने जल्दी ही विद्रोह कर दिया और निज़ामशाह से मिल गया। निज़ामशाह ने उसे बरार और बालाघाट के शेष क्षेत्रों से मुग़लों को खदेड़ने के लिए नियुक्त कर दिया। एक प्रमुख मुग़ल सरदार को इस प्रकार शरण देना एक ऐसी चुनौती थी, जिसे शाहजहाँ नज़रअन्दाज नहीं कर सकता था। यह स्पष्ट था कि मलिक़ अम्बर की मृत्यु के बाद भी बरार और बालघाट पर मुग़ल प्रभुत्व को स्वीकार करने की नीति निज़ामशाही शासक ने छोड़ी नहीं थी। अतः शाहजहाँ इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि दक्कन में मुग़लों के लिए तब तक शान्ति संभव नहीं है, जब तक कि अहमदनगर का स्वतंत्र अस्तित्व बना हुआ है। यह निर्णय अकबर और जहाँगीर की नीति से एकदम अलग था, फिर भी शाहजहाँ की रुचि दक्कन में अत्यावश्यक से अधिक विस्तार करने की नहीं थी। अतः बीजापुर के शासक के पास यह प्रस्ताव भेजा कि यदि वह अहमदनगर के विरुद्ध आक्रमण में मुग़लों का सहयोग करे तो रियासत का एक-तिहाई उसे दे दिया जायेगा। शाहजहाँ की इस चतुर चाल का मन्तव्य अहमदनगर को राजनयिक और सैनिक स्तर पर अकेला करना था। उसने मुग़लों की सेना में सम्मिलित कराने के लिए मराठा सरदारों के पास भी टोह लेने के लिए व्यक्ति भेजे।

शाहजहाँ की सफलता

शाहजहाँ को अपने प्रयत्नों में प्रारम्भिक सफलता मिली। मलिक अम्बर ने अपने अभियानों के दौरान कुछ महत्त्वपूर्ण बीजापुरी सरदारों की हत्या कर दी थी। आदिलशाह भी मलिक अम्बर द्वारा नौरसपुर को जलाने और शोलापुर को छीन लेने के अपमान से जल रहा था। अतः उसने शाहजहाँ का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया और निज़ामशाही सीमा पर मुग़लों की सहायता के लिए सेना तैनात कर दी। लगभग इसी समय एक महत्त्वपूर्ण मराठा सरदार लखजी जाधव पर मुग़लों के साथ षड़यन्त्र करने का आरोप लगाकर कपटता से मार डाला गया। जाधव जहाँगीर के समय मुग़लों के साथ मिल गया था। लेकिन बाद में निज़ामशाही की सेवा में चला गया था। जाधव की हत्या के परिणामस्वरूप उसका दामाद शाहजी भोंसले (शिवाजी का पिता) अपने सम्बन्धियों के साथ मुग़लों के साथ मिल गया। शाहजहाँ ने उसे पंचहज़ारी का मनसब दिया और उसे पूना क्षेत्र में जागीर दी। कई और महत्त्वपूर्ण मराठा सरदार भी शाहजहाँ के पक्ष में हो गये।

फ़तेह ख़ाँ-शाहजहाँ का समझौता और निज़ामशाह की हत्या

1629 में शाहजहाँ ने अहमदनगर के विरुद्ध विशाल सेनायें तैनात कर दी। उनमें से एक को बालाघाट क्षेत्र में पश्चिम से आक्रमण करना था और दूसरी को तेलंगाना क्षेत्र में पूर्व से। उनकी गतिविधियों में सामंजस्य बनाये रखने के लिए शाहजहाँ स्वयं बुरहानपुर चला गया। भारी दबाव डालकर अहमदनगर रियासत का बड़ा हिस्सा मुग़ल अधिकार में ले लिया गया। रियासत की एक बाहरी चौकी परेण्डा पर घेरा डाल दिया गया। अब निज़ामशाह ने आदिलशाह के पास दयनीयता से भरी प्रार्थना भेजी और कहा कि रियासत का अधिकांश भाग पहले ही मुग़ल अधिकार में है, अगर परेण्डा का भी पतन हो गया तो उसका अर्थ होगा निज़ामशाही वंश का अन्त। साथ ही उसने चेतावनी भी दी कि अहमदनगर के बाद बीजापुर की बारी आयेगी। बीजापुर के दरबार में, मुग़लों की तेज़ गति को देखकर सरदारों का शक्तिशाली दल बेचैन था। वास्तव में सीमा पर स्थित बीजापुरी सेनाओं ने मात्र दर्शक की हैसियत से सारा घटना-क्रम दिखाया। उन्होंने मुग़ल कार्रवाई में सक्रिय भाग नहीं लिया था। दूसरी ओर मुग़लों ने संधि के अनुसार अहमदनगर के जीते हुए क्षेत्रों का एक तिहाई आदिलशाह को देने से इंकार कर दिया था। परिणामतः आदिलशाह ने पासा पलटा और निज़ामशाह की सहायता करने का निर्णय कर लिया। निज़ामशाह ने उसे शोलापुर लौटा देने का वायदा किया था। राजनीतिक परिस्थितियों के इस परिवर्तन से विवश होकर मुग़लों ने परेण्डा का घेरा उठा लिया और पीछे हट गये। किन्तु तभी अहमदनगर की आंतरिक स्थिति मुग़लों के हक में हो गयी। मलिक अम्बर के पुत्र फ़तेह ख़ाँ को निज़ामशाह ने कुछ समय पूर्व ही इस आशा से पेशवा नियुक्त किया था कि वह शाहजहाँ को शान्ति की संधि के लिए प्रेरित कर लेगा। लेकिन, फ़तेह ख़ाँ ने शाहजहाँ से समझौता कर लिया और उसके कहने पर उसने निज़ामशाह की हत्या कर दी और एक कठपुतली को गद्दी पर बैठा दिया गया। उसने मुग़ल बादशाह के नाम से ख़ुत्बा भी पढ़ा और सिक्का भी निकाला। इनाम के रूप में फ़तेह ख़ाँ को मुग़ल सेवा में ले लिया गया और उसे पूना के निकट वह जागीर प्रदान कर दी गई जो पहले शाहजी को दी गई थी। इसके परिणामस्वरूप शाहजी ने मुग़लों का पक्ष छोड़ दिया। यह घटना 1632 में घटी।

अली आदिलशाह का उत्तराधिकारी इब्राहीम आदिलशाह द्वितीय (1580-1627) केवल नौ वर्ष की अवस्था में गद्दी पर बैठा। वह निर्धनों का बहुत ख्याल रखता था और उसे 'अबला बाबा' अर्थात् 'निर्धनों का मित्र' कहा जाता था। संगीत में उसकी गहरी रुचि थी। उसने रागों पर आधारित गीतों की एक पुस्तक 'किताब-ए-नौरस' लिखी थी। उसने एक नये नगर का निर्माण करवाया, जिसका नाम 'नौरसपुर' रखा गया और वहाँ बसने के लिए अनेक संगीतकारों को आमंत्रित किया गया। अपने गीतों में उसने बार-बार संगीत और ज्ञान की देवी सरस्वती की वन्दना की है। अपने विशाल दृष्टिकोण के कारण वह "जगत गुरु" कहलाता था। उसने हिन्दू सन्तों और मन्दिरों सहित सभी को संरक्षण दिया। उसने विटोभा की भक्ति के केन्द्र पण्धारपुर को भी अनुदान दिया। यह महाराष्ट्र में भक्ति आंदोलन का केन्द्र बना।

फ़तेह ख़ाँ के समर्पण के पश्चात शाहजहाँ ने महाबत ख़ाँ को दक्कन का वायसराय नियुक्त कर दिया और स्वयं आगरा लौट आया। बीजापुर और स्थानीय निज़ामशाही सरदारों के संयुक्त विरोध के कारण महाबतख़ाँ ने स्वयं को बहुत कठिन परिस्थितियों से घिरा पाया। बीजापुर ने दौलताबाद के क़िले पर ज़ोरदार दावा किया। इसके लिए बीजापुर ने फ़तेह ख़ाँ को भी क़िले के समर्पण के बदले पैसा देने का लालच दिया। और स्थानों पर भी मुग़लों ने अपनी स्थिति को बनाये रखना कठिन पाया।

मुग़लों और बीजापुर का संघर्ष

अतः यह स्पष्ट है कि पराजित अहमदनगर को आपसे में बाँटने के लिए मुग़लों और बीजापुर में वास्तव में संघर्ष था। आदिलशाह ने 1633 में दौलताबाद से समर्पण करवाने तथा वहाँ की सेना को रसद पहुँचाने के लिए रदौला ख़ाँ और मुरारी पंडित के नेतृत्व में एक विशाल सेना भेजी। शाहजी को भी मुग़लों को परेशान करने तथा उनकी रसद काटने के लिए बीजापुर की सेवा में ले लिया गया था। परन्तु बीजापुरी सेनाओं और शाहजी की सम्मिलित शक्ति सफल नहीं हो सकी। महावतख़ाँ ने दौलताबाद के एकदम निकट पहुँचकर घेरा डाल दिया और वहाँ की सेना को समर्पण करने पर विवश कर दिया। निज़ामशाह को ग्वालियर की जेल में भेज दिया गया। इसी से निज़ामशाही वंश का अन्त हो गया। लेकिन इससे भी मुग़लों की समस्याओं का अन्त नहीं हुआ। मलिक अम्बर का अनुसरण करते हुए शाहजी ने एक निज़ामशाही शहज़ादे को ढूँढ निकाला और उसे शासक बना दिया। आदिलशाह ने सात से आठ हज़ार घुड़सवारों की सेना शाहजी की सहायता के लिए भेजी और अनेक निज़ामशाही सरदारों को अपने क़िले शाहजी को समर्पित करने के लिए प्रेरित किया। अनेक बिखरे हुए निज़ामशाही सिपाही शाहजी की सेना में आ गये और उसकी सेना बीस हज़ार घुड़सवारों तक पहुँच गयी। इस सेना की सहायता से उसने मुग़लों को काफ़ी परेशान किया और अहमदनगर रियासत के बहुत से भागों पर अधिकार कर लिया।

इसके बाद शाहजहाँ ने दक्कन की समस्या पर व्यक्तिगत ध्यान देने का निर्णय लिया। उसने यह समझ लिया कि समस्या का मूल कारण बीजापुर का रुख़ है। इसलिए उसने एक बड़ी सेना बीजापुर पर आक्रमण करने के लिए रवाना की और साथ ही आदिलशाह के पास इस टोह के लिए भी दूत भेजे कि पुरानी संधि को लागू करे अहमदनगर रियासत को बीजापुर और मुग़लों में विभाजित कर लिया जाए।

शाहजहाँ की संधियाँ

लालच और छड़ी की इस नीति का शाहजहाँ के दक्कन की ओर कूच से बीजापुर की नीति में एक और परिवर्तन हुआ। मुरारी पंडित सहित मुग़ल विरोधी दल के नेताओं को अपदस्थ करके मार डाला गया और शाहजहाँ के साथ एक नयी संधि या अहमनामे पर हस्ताक्षर किये गए। इस संधि के अनुसार आदिलशाह ने मुग़लों की प्रभुत्ता को स्वीकार कर लिया। इसके साथ ही उसने गोलकुण्डा के कार्यों में भी हस्तक्षेप न करना स्वीकार किया, जो मुग़लों की सुरक्षा में था। यह भी तय किया गया कि बीजापुर और गोलकुण्डा के बीच सभी भावी विवाद शाहजहाँ की मध्यस्थता से हल होंगे। आदिलशाह ने यह भी मंजूर किया कि शाहजी को काबू में करने के लिए वह मुग़लों के साथ मिलकर काम करेगा और शाहजी द्वारा बीजापुर की सेवा में आना स्वीकार कर लेने पर उसे मुग़ल-सीमा से दूर दक्षिण में तैनात करेगा। इन सबके बदले में बीस लाख हूण (लगभग अस्सी लाख रुपये) सालाना की आय वाला अहमदनगर रियासत का एक भाग बीजापुर को दे दिया गया। शाहजहाँ ने संधि की अटूटता का विश्वास दिलाने के लिए आदिलशाह के पास अपनी हथेली की छाप लगा कर प्रतिज्ञा करते हुए एक फ़रमान भी भेजा।

शाहजहाँ ने गोलकुण्डा के साथ भी एक संधि करके दक्कन के मामलों में समझौते को अन्तिम रूप दिया। गोलकुण्डा के शासक ने ख़ुत्बे से ईरान के शाह का नाम निकाल कर शाहजहाँ का नाम सम्मिलित करना स्वीकार कर लिया। क़ुतुबशाह ने मुग़ल बादशाह के प्रति वफ़ादार रहने का वचन दिया। इसके बदले चार लाख हूणों का वह कर जो पहले गोलकुण्डा बीजापुर को देता था, माफ़ कर दिया गया। सुरक्षा के बदले मुग़ल बादशाह को दो लाख हूण सालाना देने की व्यवस्था रखी गयी।

बीजापुर और गोलकुण्डा से 1636 की ये संधियाँ राजनीतिज्ञोचित थीं। वस्तुतः इनके माध्यम से शाहजहाँ ने अकबर के अन्तिम लक्ष्यों को पूर्ण किया। देश के एक कोने से दूसरे कोने तक मुग़लों की प्रभुत्ता स्वीकार कर ली गयी थी। मुग़लों के साथ शान्ति संधि ने दक्कनी रियासतों को दक्षिण की ओर अपने विस्तार का और अगले दो दशकों में उन्हें अपनी शक्ति और समृद्धि की चरम सीमा तक पहुँचने का अवसर प्रदान किया।

1636 की संधि के बाद के दशक में बीजापुर और गोलकुण्डा ने कृष्ण नदी से तंजौर और उससे भी आगे के समृद्ध और उपजाऊ क्षेत्र को रौंद डाला। इस क्षेत्र में कई छोटी-छोटी स्वतंत्र हिन्दू रियासतें भी थीं जिनमें से बहुत नाममात्र को ही विजयनगर के भूतपूर्व राजा रयाल के प्रति वफ़ादार थी। जैसे तंजौर, मदुरई और जिंजी के नायकों की रियासतें। इन रियासतों के विरुद्ध बीजापुर और गोलकुण्डा ने लगातार कई आक्रमण किए। शाहजहाँ की मध्यस्थता से उन्होंने यह समझौता कर लिया की विजित प्रदेश और लूट को दो और एक के अनुपात से विभाजित कर लिया जायेगा। दो-तिहाई बीजापुर का भाग था और एक-तिहाई गोलकुण्डा का। इन दोनों के मध्य अनेक झगड़ों के बावजूद दक्षिण में विजयों का क्रम जारी रहा।

शाहजी और शिवाजी

इस प्रकार बहुत कम समय में ही इन दोनों रियासतों का क्षेत्रफल दोगुने से भी अधिक हो गया और ये अपनी शक्ति और समृद्धी की चरम सीमा पर पहुँच गयीं। यदि ये शासक जीते हुए प्रदेशों में अपनी स्थिति मज़बूत बनाये रख सकते, तो दक्कन में एक लम्बा शान्ति काल स्थापित हो सकता था। दुर्भाग्य से तेज़ी से हुए विस्तार के कारण इन दोनों रियासतों में बचा-खुचा आंतरिक सामंजस्य भी समाप्त हो गया। बीजापुर में महत्त्वाकांक्षी सरदार शाहजी और उसके पुत्र शिवाजी ने तथा गोलकुण्डा में प्रमुख सरदार मीर जुमला ने अपने-अपने प्रभाव क्षेत्र बनाने शुरू कर दिए। मुग़लों ने भी देखा की दक्कन में शान्ति संतुलन बिगड़ गया है। उन्होंने भी विस्तारवादी कार्रवाई के समय कृपापूर्वक तटस्थ बने रहने की कीमत माँगी। 1656 में मुहम्मद आदिलशाह की मृत्यु और दक्कन में औरंगज़ेब के मुग़ल वायसराय बन कर आ जाने से ये परिस्थितियाँ पूरी तरह से परिपक्व हो गयीं।

दक्कनी रियासतों को अनेक सांस्कृतिक योगदानों का क्षेत्र माना जाता है। अली आदिलशाह, हिन्दू और मुसलमान सन्तों से चर्चाएँ करना पसन्द करता था। उसे 'सूफ़ी' के रूप में जाना जाता था। उसने अपने दरबार में अकबर से कहीं पहले ईसाई धर्म प्रचारकों को आमंत्रित किया था। उसके पास बहुत समृद्ध पुस्तकालय था। जिसमें उसने संस्कृत के प्रसिद्ध आचार्य वामन पंडित को नियुक्त किया था। संस्कृत और मराठी को संरक्षण देने की परम्परा का पालन उसके उत्तराधिकारियों ने भी किया।

इब्राहीम आदिलशाह द्वितीय

अली आदिलशाह का उत्तराधिकारी इब्राहीम आदिलशाह द्वितीय (1580-1627) केवल नौ वर्ष की अवस्था में गद्दी पर बैठा। वह निर्धनों का बहुत ख्याल रखता था और उसे 'अबला बाबा' अर्थात् 'निर्धनों का मित्र' कहा जाता था। संगीत में उसकी गहरी रुचि थी। उसने रागों पर आधारित गीतों की एक पुस्तक 'किताब-ए-नौरस' लिखी थी। उसने एक नये नगर का निर्माण करवाया, जिसका नाम 'नौरसपुर' रखा गया और वहाँ बसने के लिए अनेक संगीतकारों को आमंत्रित किया गया। अपने गीतों में उसने बार-बार संगीत और ज्ञान की देवी सरस्वती की वन्दना की है। अपने विशाल दृष्टिकोण के कारण वह "जगत गुरु" कहलाता था। उसने हिन्दू सन्तों और मन्दिरों सहित सभी को संरक्षण दिया। उसने विटोभा की भक्ति के केन्द्र पण्धारपुर को भी अनुदान दिया। यह महाराष्ट्र में भक्ति आंदोलन का केन्द्र बना।


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