लोकविश्वास

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
गोविन्द राम (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:17, 28 मार्च 2015 का अवतरण (''''लोकविश्वास''' लोक और विश्वास दो शब्दों से बना है, जिस...' के साथ नया पन्ना बनाया)
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ:नेविगेशन, खोजें

लोकविश्वास लोक और विश्वास दो शब्दों से बना है, जिसका अर्थ है-लोकमान्य विश्वास। वे विश्वास जो लोक द्वारा स्वीकृत और लोक में प्रचलित होते हैं, लोकविश्वास कहलाते हैं। वैसे विश्वास किसी प्रस्थापना या मान्यता की व्यक्तिपरक स्वीकृति है, लेकिन जब उसे लोक की स्वीकृति प्राप्त हो जाती है, तब वह लोक का होकर लोकविश्वास बन जाता है। प्रश्न उठता है कि लोक की स्वीकृति कब और कैसे मिलती है। वस्तुत: विश्वास (व्यक्तिपरक या वैयक्तिक) और लोकविश्वास में अंतरक्रिया (interaction) होती रहती है। कोई भी व्यक्तिपरक विश्वास समाजीकरण की प्रक्रिया से गुजर कर सामूहिक या सामाजिक होता है। अतएव लोकविश्वास सामूहिक अनुभव का ही परिणाम है। एक उदाहरण पर्याप्त है। प्रसिद्ध वैज्ञानिक गैलिलियो गैलीली (1564 - 1642 ई.)के पहले बाइबिल जैसे पवित्र ग्रंथ से प्रमाणित विश्वास था कि पृध्वी अपने स्थान पर अडिग है और सूर्य उसके चोरों ओर घूमता है। गौलीलियो ने इसके विपरीत यह स्थापित किया कि सौर-मंडल का आधार-केन्द्र सूर्य है और उसका उगना एवं अस्त होना पृध्वी के घूमने के कारण प्रतीत होता है। दरअसल, यह उसका वैयक्तिक विश्वास था, और इसकी वजह से उसे धर्मविरोधी कहा गया तथा उस पर धर्म के विरुद्ध प्रचार करने का आरोप मढ़ा गया। परंतु बाद में, यह व्यक्तिपरक विश्वास लोकविश्वास के रुप में परिणत हो गया। वैज्ञानिक अनुभवों के प्रमाण की परख ने लोक को विश्वास की परिधि में लाकर खड़ा कर दिया और धीरे-धीरे विश्वलोक ने अपनी स्वीकृति का मोहर लगा दी।
उक्त उदाहरण से एक तथ्य और स्पष्ट हो जाता है कि इस विशिष्ट विश्वास का जन्म गैलिलियो के समय 16वीं शती में हुआ था और फिर उसका विकास होता गया। दूसरे, लोकविश्वास एक गतिशील तत्त्व है। लोक की आवश्यकता के अनुसार उसमें परिवर्तन होता रहता है। कभी-कभी उसका रूप बदलता है, तो कभी उसके स्थान पर दूसरा खड़ा हो जाता है। परिवर्तन की दिशा का नेतृत्व पहले व्यक्ति में निहित लोकशक्ति करती है, बाद में लोक। सूक्ष्मता से देखा जाय, तो लोकविश्वास की जड़ लोकमान्यता है और लोकमान्यता आधारहीन कभी नहीं होती। या तो उसका आधार वेद, पुराण या लोकमान्य ग्रंथों में लिखा कोई प्रमाण या साक्ष्य होता है या फिर लोक के बीच से आया कोई लोकमान्य तर्क या प्रमाण। बहरहाल, बिना किसी ठोस आधार के लोकविश्वास का उद्भव नहीं होता।

पौराणिक लोकविश्वास

सर्वप्रथम पौराणिक लोकविश्वासों के उदाहरण लेना उचित है। घड़े या दौने में मानव का उत्पत्ति का लोकविश्वास पुराणों के साक्ष्य पर टँगा रहा, फिर भी उसके विरूद्ध शंकाओं और तर्कों की चुनौती खड़ी होती रही और उसे कई बार नकारा गया। नये बौद्धिक जागरण ने उसे बिल्कुल गौण बना दिया, लेकिन नवीन वैज्ञानिक खोजों ने यह सिद्ध कर दिया है कि परखनली में भी जीवोत्पत्ति होती है और इस आधार पर वह पुराना लोकविश्वास पुन: संजीवनी पा गया है। दूसरी तरफ, शेषनाग के फन या कच्छप की पीठ पर पृथ्वी के रखे होने का लोकविश्वास अब लोकमान्य नहीं रहा। यह बात अलग है कि वह एक सीमित लोक में आज भी प्रचलन में हो। तात्पर्य यह है कि पौराणिक लोकविश्वासों को ज्यों-का-त्यों मान लेना या उनके संबंध में कोई प्रश्न न करना इस युग में संभव नहीं रहा। यहाँ तक कि देवी-देवताओं से संबंधित अद्भुत या चमत्कारपूर्ण लोकविश्वासों की चीड़-फाड़ होने लगी है और आस्था पर आधारित लोकविश्वासों के लिए नये-नये तर्क खोजे जा रहे हैं। लोकानुभवों से अर्जित स्थापनाओं या परिणामों के लोकमान्य होने से जो लोकविश्वास हर युग में बनते रहते हैं, उनका संबंध तत्कालीन विशिष्ट परिस्थितियों से रहता है और जब वैसी ही परिस्थितियाँ आती हैं, तब वे लोकसिद्ध विश्वास अपने आप उभरते हैं। एक पुरानी आरजा देखें-

               तीतुर-बारी-बादरी, बिधवा काजर-रेख।
               बौ बरसै, बौ घर करै, जामें मीन न मेख।।

      सहदेव या किसी दूसरे लोककवि ने लोकविश्वास को पद्य में गूंथकर लिखा है कि तीतर के पंखों जैसे बादल अवश्य बरसते हैं और अपने नेत्रों में काजल लगाने वाली विधवा किसी-न-किसी को जरूर रख लेती है। यह लोकविश्वास एक विशिष्ट अनुभव का प्रत्यक्ष परिणाम है, जो आज भी सत्य है। यही कारण है कि यह लोकप्रचलन में हमेशा रहा है। ऐसे लोकविश्वास लोकजीवन के यथार्थ का प्रतिनिधित्व करते हैं और लोकसंस्कृति की रेखाएँ निर्मित करते हैं। इन्हीं के समानांतर कुछ लोकविश्वास लोकमूल्य या लोकादर्श की नींव के रुप में अपना विशेष महत्त्व रखते हैं। एक-दो उदाहरणों से इस तथ्य की पुष्टि हो जाएगी। 

बहुत प्राचीन लोकविश्वास है कि रणखेत में जूझने वाले वीर सीधे स्वर्ग जाते हैं अथवा उनकी कीर्ति हमेशा रहता ही। इस लोकविश्वास पर ही वीरता का आदर्श या लोकमूल्य जीवित है। विश्व के सभी देशों, धर्मों जातियों और वर्गों में कर्म से संबंधित एक लोकविश्वास है कि कर्मों का फल सभी को भोगना पड़ता है। जो अच्छे कर्म करता है, उसे अच्छा फल मिलता है और जो बुरे कर्म करता है, उसे बुरा फल। इस आधार पर मानव को अच्छे कर्म करने की प्रेरणा मिलती है और कर्म का मूल्य या आदर्श बनता है। धर्मों में पुण्यों से मोक्ष मिलता है और पुण्यों का अर्थ है अच्छे कर्म। इस तरह लोकविश्वासों के आधार जहाँ नैतिकता में मिलते हैं, वहाँ धर्मों में भी निहित रहते हैं। एक बहुत स्पष्ट तथ्य यह भी है कि लोकविश्वास उपयोगिता से जुड़े रहते हैं। इसका प्रमाण वृक्ष-संबंधी लोकविश्वास है। वृक्षों पर देवों का वास, वृक्षों की पूजा, बेलपत्र शिव का आहार, बाँस जलाने से वंश का नाश, आँवले की पूजा से पापों का नाश, तुलसीदल मुँह में डालने से मोक्ष, महुआ-पुजा से वर-प्राप्ति आदि लोकविश्वासों का मूल कारण वृक्षों की सुरक्षा है। आदिमानव की प्रारंभिक अवस्थिति से लेकर आज के इस अणु-युग के उत्कर्ष तक वृक्षों की उपयोगिता सदैव बनी रही, इसीलिए वृक्षों को काटने से बचाने के लिए ये लोकविश्वास धीरे-धीरे विकसित हुए थे। अगर लोक से उनकी मान्यता समाप्त हो जाती है, तो सभी जंगल वृक्षविहीन होकर अपने अस्तित्व को दाँव पर लगा देंगे। इन लोकविश्वासों के संदर्भ में आज की वनसुरक्षा की समस्या परखी जा सकती है। प्राचीन मान्यता थी कि एक वृक्ष लगाने से एक संतान के पालन-पोषण का फल मिलता है या सौ गायों के दान का पुण्य होता है। लेकिन आज वे मान्यताएँ धीरे-धीरे लुप्त होती जा रही हैं। अब तो पुण्य या सुकर्म-फल नापने के पैमाने ही ओझल हो गये हैं। पहले उनके मापक थे यज्ञ, कन्यादान, संतान-पालन, गोदान आदि, लेकिन उनसे संबंधित लोकविश्वासों के अध:पतन से वे महत्त्वहीन हो गए हैं।
परम्परा से प्राप्त लोकविश्वास भी प्रचलन में रहते हैं। उनमें कुछ ऐसे हैं जो आज भी किसी-न-किसी रुप में उपयोगी सिद्ध होते हैं, क्योंकि वे मानव-मन के किसी छोर से बँधे रहते हैं। भाग्य-संबंधी लोकविश्वास इतने मनोवैज्ञानिक हैं कि जहाँ मन की पहुँच नहीं हो पाती, वहाँ वे पहुँचकर मन को संतोष देते हैं। यदि कोई व्यक्ति निराशा और पीड़ा की चरमसीमा के शिखर पर खड़ा है और उसे कोई समाधान नहीं सूझता, तो भाग्य पर उसका विश्वास उसे एक नयी संतृप्ति देता है, जिससे वह चरम सीमा के आरोह को पार कर लेने की शक्ति या भीतरी ऊर्जा पा लेता है। 'भाग्य में ऐसा ही लिखा था' का विश्वास उसे सहनशीलता, धैर्य और शांति देता है तथा मस्तिष्कघात से बचाता है। इसी तरह के मनोचिकित्सक लोकविश्वास पुनर्जन्म पर आधारित हैं। प्रत्येक मनुष्य मरने के बाद फिर जन्म लेता है, इस मान्यता से मृत्यु का स्थायी भय दूर हो जाता है। इसी तरह 'इस जन्म के कर्मों का फल दूसरे जन्म में मिलता है' के विश्वास से कर्मफल न मिलने की निराशा या अच्छे कर्मों से अच्छा परिणाम न पाने पर उठी मन की टूटन शांत हो जाती है। इनके अतिरिक्त शकुन-अपशकुन, भूत-प्रेत, जंत्र-मंत्र आदि संबंधी ऐसे लोकविश्वास हैं, जो उपयोगी सिद्ध न होने के कारण अंधविश्वास की कोटि में आ गए हैं। वैसे कभी-कभी उनका मनोवैत्ज्ञानिक प्रभाव उनके अस्तित्व की अहमियत पुष्ट करता है। बच्चे को न लग जाने पर जलती बाती से जब न उतारी जाती है, तब बच्चा प्रकाशवृत्तों को देखकर चमत्कृत होता है और रोना त्याग देता है। यह ठीक है कि अंधविश्वासों में प्रामाणिक आधार नहीं होते, लेकिन जब वे लोकविश्वास के रुप में जन्मे थे, तब उनके आधार निश्चित ही थे। आज वे घिस-पिट गये या विस्मृत हो चुके हैं और समझ के बाहर हैं, इसीलिए वे 'अंध' विश्वास बन गए हैं। संक्षेप में, लोकविश्वास की कसौटी लोक है। लोकस्वीकृति या लोकमान्यता न मिलने पर लोकविश्वास गौण होकर लुप्त हो जाता है। अतएव उसका एक छोर लोकमान्यता है, जिसके बिना उसका अस्तित्व नहीं बनता। दूसरी तरफ लोकविश्वास जब अपनी व्यावहारिक स्थिति से उठकर सैद्धांतिक बनता है, तब लोकमूल्य के रुप में परिणत हो जाता है। लोकविश्वास की पूरी यात्रा को निम्न प्रकार से दर्शाया जा सकता है

प्रमाण+ अनुभव> प्रस्थापना (व्यक्ति द्वारा)> विश्वास (व्यक्ति की स्वीकृति) > लोकमान्यता> लोकविश्वास

लोकविश्वास की यह यात्रा निरंतर चलती रहती है। लोकविश्वास लोकसंस्कृति के विधायक तत्त्व हैं। एक अंचल के लोकविश्वासों की सामूहिक इकाई उस अंचल की लोकदृष्टि का तटस्थ चित्र प्रस्तुत करती ही है, साथ ही उसके लोकादर्शों या लोकमूल्यों की रेखाओं को भी स्पष्ट रुप में रखती है। इस प्रकार लोकविश्वास समाज और संस्कृति के महत्त्वपूर्ण अंग हैं।


पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

टीका टिप्पणी और संदर्भ


बाहरी कड़ियाँ

संबंधित लेख