महाशय राजपाल
महाशय राजपाल (अंग्रेज़ी: Mahashay Rajpal) हिन्दी की महान सेवा करने वाले लाहौर के निवासी थे। उनका लाहौर में प्रकाशन संस्थान था। वह खुद भी विद्वान थे। राजपाल पक्के आर्य समाजी थे और विभिन्न मतों का अपनी पुस्तकों में तार्किक ढंग से खंडन करते थे। इसी से क्षुब्ध होकर इलामुद्दीन नाम के एक व्यक्ति ने उस समय छुरा मारकर महाशय राजपाल की हत्या कर दी, जब वह अपनी दुकान पर बैठे हुए थे। हत्यारे को कुछ युवकों द्वारा दौड़कर पकड़ लिया गया था। उसे 'लाहौर उच्च न्यायालय' से फ़ाँसी की सज़ा हुई थी। देश के बंटवारे के बाद राजपल का परिवार दिल्ली चला आया था।
जन्म
महाशय राजपाल का जन्म देश की सुप्रसिद्ध सांस्कृतिक व ऐतिहासिक नगरी अमृतसर में पाँच आषाढ़ संवत (सन 1885) को हुआ था। यह काल भारतीय इतिहास में बड़ा महत्त्व रखता है। इस काल में राजपाल जी ने लाला रामदास जी के घर जन्म लेकर अपने कुल को धन्य कर दिया। लाला रामदास जी एक निर्धन खत्री थे। बालक राजपाल एक संस्कारी जीव था। बुद्धिमान, परिश्रमी व धीरधारी था। पढ़ाई में बहुत योग्य था। तब स्वजनों ने यह कल्पना नहीं की थी कि निर्धन कुल में जन्मा और एक सामान्य अर्जीनवीस का यह पुत्र इतिहास के पृष्ठों पर अपनी अमिट छाप छोड़ेगा।[1]
प्रारम्भिक कठिनाइयाँ
जब राजपाल जी छोटे ही थे, तब किसी कारण से उनके पिता घर छोड़कर कहीं निकल गए। उनका फिर कोई अता-पता ही न चला। बालक राजपाल तब स्कूल में पढ़ता था। उनकी माता, वह स्वयं व छोटा भाई सन्तराम अब असहाय हो गए थे। दोनों भाइयों में राजपाल बड़े थे। पिताजी के होते हुए भी परिवार निर्धनता की चक्की में पिसता रहता था और उनके गृह त्याग से परिवार पर और अधिक विपदा आ पड़ी। राजपाल ने इसी दीन-हीन अवस्था में जैसे-तैसे मिडिल की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली। वे पढ़ाई में कुशाग्रबुद्धि और परिश्रमी विद्यार्थी थे। विपत्तियों से घिरकर भी उन्होंने हिम्मत न हारी। कठिन परिस्थितियों ने आपके जीवन को और भी निखार दिया।
व्यावसायिक शुरुआत
उस युग में शिक्षा का प्रचलन बहुत कम था। मिडिल उत्तीर्ण का भी बड़ा आदर होता था, आसानी से नौकरी मिल जाती थी। राजपाल जी हाथ-पाँव मारकर, किसी की सहायता से आगे भी बढ़ सकते थे, परन्तु प्यारी माँ व भाई के निर्वाह का भार उनके ऊपर था। यह कर्तव्य उनको कुछ करने व कमाने के लिए प्रेरित कर रहा था। सोच-समझकर उन्होंने ‘किताबत’ का धंधा अपनाया। तब पंजाब में उर्दू का प्रभुत्व था। उर्दू की पुस्तक छापने से पहले कम्पोज़ नहीं की जाती थी। सुलेख लिखने वाले उन्हें एक विशेष काग़ज़ पर लिखते थे, इसी कला को ‘किताबत’ कहते हैं। फिर उनकी छपाई होती थी। सम्भवत: राजपाल जी की आरम्भ से ही लेखन-कला में रुचि थी। इसीलिए उन्होंने कातिब के रूप में कार्य आरम्भ कर दिया। दिन-रात परिवार के भरण-पोषण के लिए जी-जान से कार्य करते थे।[1]
पूज्य स्वामी स्वतंत्रानंद जी महाराज ने लिखा है कि “सर्वप्रथम उन्होंने जिस पुस्तक को लिखा[2] वह महर्षि दयानंद कृत ‘संस्कार-विधि’ का उर्दू अनुवाद था। स्वामी जी महाराज ने यह नहीं लिखा कि यह अनुवाद किसने व कहाँ से छपा था। खोज व जानकारी के अनुसार ‘संस्कार-विधि’ का प्रथम उर्दू अनुवाद श्री महाशय पूर्णचंद जी ने किया था। वे कैरों, ज़िला अमृतसर के निवासी थे। यह अनुवाद उसी काल में प्रकाशित हुआ था, जब राजपाल ने मिडिल परीक्षा उत्तीर्ण की थी। यह बीसवीं शताब्दी के आरम्भ की घटना है। इससे यह भी पता चलता है कि वे तब तक निश्चित रूप से वैदिक धर्मी बन चुके थे।
हकीम फतहचन्द जी का सानिध्य
अमृतसर में एक बड़े प्रसिद्ध आर्यसमाजी हकीम फतहचन्द जी रहते थे। उनको एक कर्मचारी की आवश्यकता थी। राजपाल जी को काम की खोज थी। बारह रुपये मासिक पर आपने हाकिम जी के पास नौकरी कर ली। अपनी कर्तव्यनिष्ठा, परिश्रमशीलता, सत्यनिष्ठा आदि गुणों से राजपाल ने हकीम जी के हृदय में एक विशेष स्थान बना लिया। आर्यसमाजी होने के कारण भी हकीम जी उनसे बहुत प्यार करते थे। उनके सद्गुणों व सुशीलता के कारण हकीम फतहचन्द इन्हें अपने पुत्र के समान ही मानते व जानते थे। हकीम जी ने स्वयं स्वामी स्वतंत्रानंद जी महाराज को यह बताया था कि राजपाल एक ऐसा सत्यनिष्ठ युवक था, जिसके सम्पर्क में आने वाला प्रत्येक व्यक्ति उसके आचरण से प्रभावित हुए बिना नहीं रहता था। वह धर्मात्मा और सदाचार की मूर्ति था।[1]
सदाचारी व परोपकारी
राजपाल जी युवावस्था में ही सदाचारी व परोपकारी थे। उनके सम्पर्क में आने वाले सब लोग उनके सौजन्य की प्रशंसा किया करते थे। हकीम जी ने स्वामी स्वतंत्रानंद जी को बताया था कि वैदिक धर्म के लिए राजपाल के मन में तभी असीम श्रद्धा थी। वह मन, वचन व कर्म से सच्चे व पक्के आर्य थे। उनका धर्मभाव दूसरों के लिए एक उदाहरण था। अपने कर्तव्यों के पालन में वे कभी प्रमाद नहीं करते थे।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
बाहरी कड़ियाँ
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