महाशय राजपाल
महाशय राजपाल
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पूरा नाम | महाशय राजपाल |
जन्म | 1885 |
जन्म भूमि | अमृतसर |
मृत्यु | 6 अप्रैल, 1929 |
अभिभावक | लाला रामदास |
कर्म भूमि | भारत |
कर्म-क्षेत्र | लेखक तथा प्रकाशक |
भाषा | हिन्दी |
नागरिकता | भारतीय |
प्रकाशित पुस्तकें | 1920 और 1930 के दशक में महाशय राजपाल ने चार भाषाओं में एक साथ स्तरीय पुस्तकें प्रकाशित कीं। हिन्दी और उर्दू में उनके द्वारा प्रकाशित पुस्तकों की संख्या 200 से ऊपर थी। |
अन्य जानकारी | महाशय राजपाल जी स्वयं अच्छे लेखक एवं कुशल सम्पादक थे। उन्होंने अनेक पुस्तकें स्वयं लिखीं तथा अन्य सुयोग्य लेखकों के लेखों तथा भाषणों को लिपिबद्ध करके और सम्पादित करके प्रकाशित किया। |
महाशय राजपाल (अंग्रेज़ी: Mahashay Rajpal ; जन्म- 1885, अमृतसर; मृत्यु- 6 अप्रैल, 1929) हिन्दी की महान् सेवा करने वाले लाहौर के निवासी थे। उनका लाहौर में प्रकाशन संस्थान था। वह खुद भी विद्वान् थे। राजपाल पक्के आर्य समाजी थे और विभिन्न मतों का अपनी पुस्तकों में तार्किक ढंग से खंडन करते थे। इसी से क्षुब्ध होकर इल्मदीन नाम के एक व्यक्ति ने उस समय छुरा मारकर महाशय राजपाल की हत्या कर दी, जब वह अपनी दुकान पर बैठे हुए थे। हत्यारे को कुछ युवकों द्वारा दौड़कर पकड़ लिया गया था। उसे 'लाहौर उच्च न्यायालय' से फ़ाँसी की सज़ा हुई थी। देश के बंटवारे के बाद राजपाल का परिवार दिल्ली चला आया था।
जीवन परिचय
महाशय राजपाल का जन्म भारत की सुप्रसिद्ध सांस्कृतिक व ऐतिहासिक नगरी अमृतसर में पंचमी आषाढ़ संवत (सन 1885) को हुआ था। यह काल भारतीय इतिहास में बड़ा महत्त्व रखता है। इस काल में राजपाल जी ने लाला रामदास जी के घर जन्म लेकर अपने कुल को धन्य कर दिया। लाला रामदास जी एक निर्धन खत्री थे। राजपाल प्रारम्भ से ही बहुत संस्कारी थे। वे बुद्धिमान, परिश्रमी व धीरधारी थे। पढ़ाई में बहुत योग्य थे। तब स्वजनों ने यह कल्पना नहीं की थी कि निर्धन कुल में जन्मा और एक सामान्य अर्जीनवीस का यह पुत्र इतिहास के पृष्ठों पर अपनी अमिट छाप छोड़ेगा।[1]
प्रारम्भिक कठिनाइयाँ
जब राजपाल जी छोटे ही थे, तब किसी कारण से उनके पिता घर छोड़कर कहीं निकल गए। उनका फिर कोई अता-पता ही न चला। इस समय बालक राजपाल स्कूल में पढ़ते थे। उनकी माता, वह स्वयं व छोटा भाई सन्तराम अब असहाय हो गए थे। दोनों भाइयों में राजपाल बड़े थे। पिताजी के होते हुए भी परिवार निर्धनता की चक्की में पिसता रहता था और उनके गृह त्याग से परिवार पर और अधिक विपदा आ पड़ी। राजपाल ने इसी दीन-हीन अवस्था में जैसे-तैसे मिडिल की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली। वे पढ़ाई में कुशाग्रबुद्धि और परिश्रमी विद्यार्थी थे। विपत्तियों से घिरकर भी उन्होंने हिम्मत न हारी। कठिन परिस्थितियों ने आपके जीवन को और भी निखार दिया।
व्यावसायिक शुरुआत
उस युग में शिक्षा का प्रचलन बहुत कम था। मिडिल उत्तीर्ण का भी बड़ा आदर होता था, आसानी से नौकरी मिल जाती थी। राजपाल जी हाथ-पाँव मारकर, किसी की सहायता से आगे भी बढ़ सकते थे, परन्तु प्यारी माँ व भाई के निर्वाह का भार उनके ऊपर था। यह कर्तव्य उनको कुछ करने व कमाने के लिए प्रेरित कर रहा था। सोच-समझकर उन्होंने ‘किताबत’ का धंधा अपनाया। तब पंजाब में उर्दू का प्रभुत्व था। उर्दू की पुस्तक छापने से पहले कम्पोज़ नहीं की जाती थी। सुलेख लिखने वाले उन्हें एक विशेष काग़ज़ पर लिखते थे, इसी कला को ‘किताबत’ कहते हैं। फिर उनकी छपाई होती थी। सम्भवत: राजपाल जी की आरम्भ से ही लेखन-कला में रुचि थी। इसीलिए उन्होंने कातिब के रूप में कार्य आरम्भ कर दिया। दिन-रात परिवार के भरण-पोषण के लिए जी-जान से कार्य करते थे।[1] पूज्य स्वामी स्वतंत्रानंद जी महाराज ने लिखा है कि “सर्वप्रथम उन्होंने जिस पुस्तक को लिखा[2] वह महर्षि दयानंद कृत ‘संस्कार-विधि’ का उर्दू अनुवाद था। स्वामी जी महाराज ने यह नहीं लिखा कि यह अनुवाद किसने व कहाँ से छपा था। खोज व जानकारी के अनुसार ‘संस्कार-विधि’ का प्रथम उर्दू अनुवाद महाशय पूर्णचंद जी ने किया था। वे कैरों, ज़िला अमृतसर के निवासी थे। यह अनुवाद उसी काल में प्रकाशित हुआ था, जब राजपाल ने मिडिल परीक्षा उत्तीर्ण की थी। यह बीसवीं शताब्दी के आरम्भ की घटना है। इससे यह भी पता चलता है कि वे तब तक निश्चित रूप से वैदिक धर्मी बन चुके थे।
कार्यक्षेत्र
अमृतसर में एक बड़े प्रसिद्ध आर्यसमाजी हकीम फ़तहचन्द जी रहते थे। उनको एक कर्मचारी की आवश्यकता थी। राजपाल जी को काम की खोज थी। बारह रुपये मासिक पर आपने हकीम जी के पास नौकरी कर ली। अपनी कर्तव्यनिष्ठा, परिश्रमशीलता, सत्यनिष्ठा आदि गुणों से राजपाल ने हकीम जी के हृदय में एक विशेष स्थान बना लिया। आर्यसमाजी होने के कारण भी हकीम जी उनसे बहुत प्यार करते थे। उनके सद्गुणों व सुशीलता के कारण हकीम फ़तहचन्द इन्हें अपने पुत्र के समान ही मानते व जानते थे। हकीम जी ने स्वयं स्वामी स्वतंत्रानंद जी महाराज को यह बताया था कि राजपाल एक ऐसा सत्यनिष्ठ युवक था, जिसके सम्पर्क में आने वाला प्रत्येक व्यक्ति उसके आचरण से प्रभावित हुए बिना नहीं रहता था। वह धर्मात्मा और सदाचार की मूर्ति था।[1]
'बाल सुधार सभा' संगठन की स्थापना
हकीम फ़तहचन्द जी, राजपाल जी के उन दिनों की एक घटना सुनाया करते थे। होलियों के दिन थे। अमृतसर में होलियों पर अत्यंत अश्लील गीत गाते हुए टोलियाँ निकला करती थीं। युवकों की एक टोली बड़े भद्दे गाने गाते हुए बाज़ार से निकल रही थी। राजपाल जी उस समय हकीम जी के पास बैठे हुए थे। वे इस मण्डली के गाने को सुनकर चुपके से उठकर उनके पास गए। बड़ी शान्ति व विनम्रता से उन्हें समझाते हुए कहा कि जिन शब्दों को आप लोग बाज़ार में बोल रहे हो, क्या इन्हें आप अपने घरों में भी बोल सकते हो। राजपाल जी के इस प्रश्न को सुनकर वे लड़के बड़े लज्जित हुए। आपने उन लड़कों को भली प्रकार से जान और पहचान लिया। बात वहीं आई-गई हो गई। होलियों के दिन बीत गए। राजपाल जी ने उन लड़कों से सम्पर्क किया, उनको इकट्ठा किया और एक 'बाल सुधार सभा' नाम का संगठन खड़ा कर दिया। इस सभा के द्वार सबके लिए खुले थे। हिन्दू, सिक्ख, बालक तो इसमें भाग लेते ही थे, मुसलमान बालक भी इसमें सक्रिय रुचि लेते रहे। इस सभा द्वारा बालकों के चरित्र निर्माण का बड़ा ठोस कार्य किया गया। प्रतिदिन रात्रि 8 बजे इस सभा का अधिवेशन आरम्भ हुआ करता था। राजपाल जी सब बालकों को जीवन निर्माण के लिए धर्मोपदेश दिया करते थे। इस सभा में मांस-भक्षण, तम्बाकू व मदिरा पान आदि विषयों पर वाद-विवाद हुआ करते थे। इस सभा के प्रचार से अनेक युवकों ने दुर्व्यसनों का परित्याग किया। कितने ही युवक कुसंगति से बचे और कल्याण-मार्ग के पथिक बनकर यशस्वी हुए।
मांस भक्षण पर शास्त्रार्थ
महाशय राजपाल को उन्हीं दिनों उक्त सभा में मांस-भक्षण विषय पर एक शास्त्रार्थ करना पड़ा। महाशय जी पारिभाषिक शब्दों में तो शास्त्रार्थ-महारथी नहीं थे, फिर भी उस युग के सभी आर्यसमाजी कार्यकर्ता आवश्यकता पड़ने पर लिखित व मौखिक शास्त्रार्थ करने से पीछे नहीं हटते थे। सब आर्यपुरुष स्वाध्यायशील हुआ करते थे। हकीम फ़तहचन्द जी बताया करते थे कि राजपाल का एक मुसलमान युवक से उपरोक्त विषय पर शास्त्रार्थ हो गया। उन दिनों अमृतसर में धार्मिक विषयों पर बड़े-छोटे शास्त्रार्थ होते ही रहते थे। आर्य समाज के प्रसिद्ध शास्त्रार्थ महारथी मास्टर आत्माराम जी तथा इस्लाम के नामी शास्त्रार्थ-महारथी मौलाना सनाउल्ला दोनों ही अमृतसर के थे।
उस दिन शास्त्रार्थ में श्रोताओं को राजपाल जी के गहन व विस्तृत अध्ययन का पता चला। अपनी छोटी-सी आयु में आपने धर्म-ग्रंथों का बहुत लग्न से अनुशीलन किया था, इसीलिए आप इस शास्त्रार्थ में विजयी रहे। उस मुस्लिम युवक को महाशय राजपाल की युक्तियों के सामने निरुत्तर होकर मौन होना पड़ा। जिस श्रद्धा, उत्साह व योग्यता का आपने उस दिन परिचय दिया, उससे अमृतसर के आर्यपुरुष आपसे और अधिक प्रेम करने लगे। जब महाशय राजपाल जी ने होश सम्भाला भी न था कि परिवार के भरण-पोषण का भार उनके सिर पर आ पड़ा था। ऐसी स्थिति में जब उन्हें दिन-रात अथक परिश्रम करना पड़ता था, उन्होंने इतना विस्तृत अध्ययन कैसे कर लिया? इस प्रश्न का एक ही उत्तर है। यह था उनकी श्रद्धा का चमत्कार। धुन के धनी राजपाल जी के आचरण का यह पहलू बहुत शिक्षाप्रद है।[1]
कर्मचारियों से व्यवहार
स्वामी और सेवक के सहयोग तथा परस्पर विश्वास से ही व्यापार व संस्थाएँ फलती-फूलती हैं। वर्ग-संघर्ष की भावना से कटुता, कलह व असंतोष पैदा होता है। इससे न कर्मचारी का हित होता है, न व्यापारी का और न ही समाज का। महाशय राजपाल जी ने पर्याप्त समय तक सेवक के रूप में कार्य किया था, फिर स्वामी बनकर सेवकों से कार्य करवाने का सौभाग्य भी उन्हें प्राप्त हुआ। ऐसे विरले मनुष्य ही मिलेंगे, जिन्होंने सेवक के रूप में भी यश लूटा और फिर स्वामी बनकर भी यशस्वी हुए।[1]
आर्य पुस्तकालय
महाशय राजपाल जी का 'आर्य पुस्तकालय' पुराने पंजाब के आर्यों का संगम-स्थल था। उस युग का, विश्व का सबसे बड़ा आर्यसमाजी प्रकाशन-संस्थान ‘आर्य पुस्तकालय-सरस्वती आश्रम’ था। यह ठीक है कि यह संस्थान किसी भव्य भवन में तो नहीं था, परंतु भव्य भावनाओं से जनित, पालित व पोषित यह पुस्तकालय श्रद्धा का केंद्र था।
व्यक्तित्त्व
राजपाल जी युवावस्था में ही सदाचारी व परोपकारी थे। उनके सम्पर्क में आने वाले सब लोग उनके सौजन्य की प्रशंसा किया करते थे। हकीम जी ने स्वामी स्वतंत्रानंद जी को बताया था कि वैदिक धर्म के लिए राजपाल के मन में तभी असीम श्रद्धा थी। वह मन, वचन व कर्म से सच्चे व पक्के आर्य थे। उनका धर्मभाव दूसरों के लिए एक उदाहरण था। अपने कर्तव्यों के पालन में वे कभी प्रमाद नहीं करते थे। स्वामी श्रद्धानंद ने एक लेख में लिखा है कि "उन दिनों पटियाला में एक परिचित प्राध्यापक उन्हें देखकर कन्नी काट गए, मानो कि जानते हुए भी पहचानते नहीं।" लाला लाजपत राय ने स्वयं लिखा है कि "तब उनके कॉलेज पक्ष के सभी मित्र, एक लाला चंदूलाल के सिवाय, उनको छोड़ गए।" तब आर्यों की छाया से, विशेष रूप से महात्मा मुंशीराम जी से, लोग बचकर चलते थे। ऐसी विकट वेला में एक साधारण, साधनहीन युवक राजपाल ने जिस निर्भीकता व धर्म-भाव का परिचय दिया, उसका वर्णन करने में किसी की भी लेखनी अक्षम है।
विनम्र स्वभाव
पण्डित ज्ञानचंद्र जी ने कहा है कि "श्री महाशय राजपाल जी की सफलता व लोकप्रियता के कई कारण थे। वे परिश्रमी व सत्यनिष्ठ तो थे ही, साथ ही उनमें विनम्रता व मिठास के दो गुण ऐसे थे, जिनके कारण वे बेगानों को भी अपना बनाना जानते थे। वे दूसरों को प्राय: ‘जी’ कहकर सम्बोधित किया करते थे। उनके स्वभाव के माधुर्य पर सब रीझ जाते थे।"
हिन्दी प्रकाशन का शुभारम्भ
स्वतंत्रता के पहले पंजाब में हिन्दी का प्रचलन बहुत कम था, हिन्दी के प्रकाशक तो नगण्य थे। अधिकतर पुस्तकें उर्दू या पंजाबी में प्रकाशित होती थीं। उस ज़माने में महाशय राजपाल ने ‘आर्य पुस्तकालय’ तथा ‘सरस्वती आश्रम’ नामों के अन्तर्गत हिन्दी प्रकाशन का न केवल श्रीगणेश किया, बल्कि वे हिन्दी के प्रचार-प्रसार के सशक्त माध्यम बने। पहले, जब पुस्तक प्रकाशन बिल्कुल अव्यवस्थित था। प्रकाशन कला सीखाने के लिए आज की तरह न कोई सुविधाएं थीं, न ही इस विषय पर कोई प्रामाणिक पुस्तक उपलब्ध थी, राजपाल जी ने स्तरीय प्रकाशन के ऐसे आयाम स्थापित किए कि आज उन पर विश्वास करना भी कठिन लगता है। लाहौर में रहते हुए उन्होंने अनेक पुस्तकें इलाहाबाद के सुप्रसिद्ध 'इंडियन प्रेस' से छपवाई थीं। पूरे संस्करण की प्रतियां लकड़ी की बड़ी पेटियों में बंद होकर इलाहाबाद से दिल्ली आती थीं। उन्होंने रिब्ड एंटिक पेपर का प्रयोग किया, पुस्तकें के बहुरंगी आवरण कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) के सुप्रसिद्ध चित्रकार टी.एन. मित्रा से बनवाए और अनेक पुस्तकों पर राजा रवि वर्मा जैसे श्रेष्ठ कलाकारों की उत्कृष्ट पेटियों का प्रयोग किया। ऐसे सभी चित्र बहुरंगी हाफटोन में होते थे।[3] राजपाल जी ने जब ‘आर्य पुस्तकालय’ नाम से आर्य साहित्य प्रकाशन का कार्य आरम्भ किया था तो ‘सरस्वती आश्रम ग्रंथमाला’ के रूप में एक से एक उत्तम पुस्तक-श्रृंखला जनता को भेंट की। इस ग्रंथमाला की दूसरी पुस्तक थी ‘सत्योपदेश माला’। यह स्वामी सत्यानंद जी के प्रवचनों व लेखों का संग्रह था, जो राजपाल जी ने स्वयं श्रद्धेय स्वामी जी के प्रवचनों को सुनकर लिपिबद्ध किया था। राजपाल जी ने उस ज़माने में अंग्रेज़ी भाषा की चर्चित पुस्तकों के प्रामाणिक हिन्दी अनुवाद प्रकाशित किए थे, जैसे- 'मेरी स्टोप्स' की लोकप्रिय पुस्तक ‘मेरिड लव’ का पं. संतराम बी. ए. द्वारा हिन्दी अनुवाद 'विवाहित प्रेम' नाम से। दूसरी ओर ऐसे विषयों की पुस्तकों को हिन्दी में प्रकाशित करने का साहस भी किया, जो वर्जित थे। भारत में परिवार-नियोजन पर सबसे पहली हिन्दी पुस्तक ‘सन्तान संख्या का सीमा बंधन’ उन्होंने प्रकाशित की थी। यह 300 पृष्ठों की सचित्र प्रामाणिक पुस्तक थी। ‘बर्थ कंट्रोल’ के लिए तब हिन्दी का कोई शब्द प्रचलित नहीं हुआ था, क्योंकि जनसाधारण में जन्म निरोध की न समझ थी और न ही उसकी उपयोगिता का ज्ञान था। पुस्तक प्रकाशित होने पर बावैला मचा था, कि पुस्तक का विषय ही अनैतिक है, आदि।
'रंगीला रसूल'
उन्हीं दिनों मुस्लिमों की ओर से दो पुस्तकें प्रकाशित की गई- ‘कृष्ण तेरी गीता जलानी पड़ेगी’ और ‘उन्नीसवीं सदी का महर्षि’। उन दोनों पुस्तकों में योगेश्वर श्रीकृष्ण और महर्षि दयानंद पर बहुत ही भद्दे और अश्लील शब्दों में कीचड़ उछाला गया था। जैसा कि उस समय का चलन था, इन दोनों पुस्तकों के प्रत्युत्तर में महाशय राजपाल जी ने ‘रंगीला रसूल’ नाम की पुस्तक सन 1923 में प्रकाशित की। इस पुस्तक के लेखक के नाम के स्थान पर ‘दूध का दूध और पानी का पानी’ लिखा था। वास्तव में इसके लेखक आर्य समाज के प्रसिद्ध विद्वान् पं. चमूपति थे, जो सम्भावित प्रतिक्रिया के कारण अपना नाम नहीं देना चाहते थे। उन्होंने महाशय राजपाल जी से यह वचन ले लिया था कि चाहे कितनी भी विकट परिस्थितियां क्यों न बनें, वे किसी को भी उक्त पुस्तक के लेखक के रूप में उनका नाम नहीं बताएंगे।[3]
राजपाल एण्ड सन्स की स्थापना
राजपाल एण्ड सन्स हिन्दी पुस्तकों के एक प्रमुख प्रकाशक हैं। इसकी स्थापना 1912 में लाहौर में महाशय राजपाल द्वारा की गयी थी। आरम्भ में इस प्रकाशन ने हिन्दी, उर्दू, अंग्रेज़ी तथा पंजाबी भाषाओं में आध्यात्मिक, सामाजिक तथा राजनीतिक विषयों पर पुस्तकें प्रकाशित कीं। भारत के विभाजन के उपरान्त 1947 में यह प्रकाशन दिल्ली आ गया और भारत के प्रमुख हिन्दी प्रकाशक के रूप में जाने जाने लगा। महाशय राजपाल की विलक्षण सूझ को वही लोग जानते हैं, जिन्होंने उनके द्वारा प्रकाशित व सम्पादित पुस्तकों की उनके द्वारा लिखित भूमिकाएँ पढ़ी हैं। उनके द्वारा स्थापित आर्य पुस्तकालय व सरस्वती आश्रम का एक गौरवपूर्ण इतिहास है। आर्य सामाजिक साहित्य की कई ऐसी पुस्तकें हैं, जो अपने-अपने विषय की बेजोड़ पुस्तकें मानी जाती हैं। ऐसी बीसियों पुस्तकों को लिखने का विचार उन पुस्तकों के लेखकों को महाशय राजपाल जी ने ही सुझाया। महाशय जी ने ‘भक्ति दर्पण’ नाम का एक गुटका स्वयं सम्पादित किया था। सन 1997 में ‘राजपाल एण्ड संस’ ने इसका 60वाँ संस्करण निकाला था। प्रकाशक समय-समय पर इसका संशोधन करते करवाते रहे हैं।
लेखन एवं संपादन क्षेत्र
सन 1920 और 1930 के दशक में महाशय राजपाल ने चार भाषाओं में एक साथ स्तरीय पुस्तकें प्रकाशित कीं। हिन्दी और उर्दू में उनके द्वारा प्रकाशित पुस्तकों की संख्या 200 से ऊपर थी। गुरुमुखी भाषा में केवल कुछेक पुस्तकें ही प्रकाशित कीं। अंग्रेज़ी में सुनियोजित ढंग से अनेक पुस्तकें प्रकाशित कीं, जो उस समय के विख्यात विद्वानों द्वारा लिखी गई थीं, जिनका अंग्रेज़ी पर पूरा अधिकार था। पं. गुरुदत्त, एम.ए., जो गवर्नमेंट कॉलेज, लाहौर में प्रोफेसर थे और डी.ए.वी. कॉलेज के संस्थापकों में थे, उनकी 400 पृष्ठ की पुस्तक 'विज्रडम ऑफ़ रिशीज' थी। अपने विषय पर यह पुस्तक आज भी प्रामाणिक दस्तावेज के समान मानी जाती है, हालांकि इस बात को 80 वर्ष से अधिक हो गए हैं। इसी प्रकार प्रो. टी. ऐल. वासवानी की पुस्तक ‘दि टार्च-बेयरर’ प्रकाशित की। वासवानी जी उस समय के चर्चित विद्वान् लेखक व सिंधी समाज के प्रबुद्ध विचारक थे। एक और पुस्तक थी, जो आर्य समाज के दस नियमों का अंग्रेज़ी में परिचय देती है, और जिसके लेखक थे- पं. चमूपति, जो बाद में गुरुकुल कांगड़ी के आचार्य बने। पुस्तक का नाम था ‘दि टैन कमाण्डमेंट्स।’ इस पुस्तक के आज तक अनेक संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। इसके अतिरिक्त भी अन्य कई पुस्तक अंग्रेज़ी में प्रकाशित की गईं।[3] विचार स्वातन्त्र्य और प्रकाशन की स्वतंत्रता सदियों से कठिन परीक्षा से गुजरती रही है। इतिहास साक्षी है कि सम्राटों ने और धर्मगुरुओं ने, जब भी कोई पुस्तक अथवा विचारधारा उनके मत के प्रतिकूल हुई, तो उसे दबा दिया गया या फिर पुस्तक की प्रतियां जब्त कर ली गईं। ऐसे विचारकों और लेखकों को कठिन से कठिन सज़ा और मृत्यु दण्ड देने तक में जरा भी हिचक नहीं की जाती थी। अनेक लेखकों को कारावास के दण्ड भुगतने पड़े, उन्हें कत्ल कर दिया गया, उन पर मौत के फतवे लगाए गए और उनके सिर पर इनाम भी रखे गए। महाशय राजपाल जी ने प्रकाशन की स्वतंत्रता के लिए अपने प्राणों की बलि दी। पिछली सदी के पहले तीन दशक अर्थात् सन 1930 तक विभिन्न धर्मों में एक दूसरे की तीखी आलोचना, वाद-विवाद, शास्त्रार्थ, बहस-मुबाहसों का चलन था। एक धर्मावलम्बी अन्य धर्मों के मंतव्यों पर दो टूक भाषा में लिखा करता था और अपने धर्म की श्रेष्ठता सिद्ध करता था।
कुशल संवाददाता
महाशय राजपाल ने स्वयं एक पुस्तक की भूमिका में यह लिखा है कि "वे बहुत तीव्रगति से लिखते थे।" उस युग में भारतीय भाषाओं में टंकण मशीनें व शीघ्रलिपि[4] का प्रचलन अभी नहीं हुआ था। अत: सुलेख व शीघ्र लिखने वाले लेखकों को कार्यालय में प्राथमिकता दी जाती थी। पुराने आर्य-पत्रों को उलटने-पलटने से आश्चर्यजनक तथ्य हमारे सामने आता है। आर्य समाज बच्छोवाली लाहौर का 29वाँ वार्षिकोत्सव था। महाशय जी ‘सद्धर्म प्रचारक’ के संवाददाता के रूप में इसमें सम्मिलित हुए। इन्होंने इस उत्सव के समय व्याख्यानों-प्रवचनों की आदि विस्तृत रिपोर्ट तैयार की। अपनी सम्पादकीय टिप्पणियों सहित यह वृत्तान्त ‘सद्धर्म प्रचारक’ को प्रकाशनार्थ दिया था। राजपाल जी का कार्यक्षेत्र पंजाब रहा। उनकी व्यक्तिगत स्थिति ऐसी थी कि वह दूर-दूर नहीं जा सकते थे, परंतु उनका कार्य ऐसा था कि उनका नाम देशव्यापी हो गया था। देश की सीमाओं को भी लांघकर विदेशों में जहाँ-जहाँ भी आर्यसमाजी हैं, वहाँ-वहाँ आर्य साहित्य के कारण महाशय राजपाल जी का व्यक्तित्व व्यापक हो गया।
अच्छे लेखक एवं कुशल सम्पादक
महाशय राजपाल जी स्वयं अच्छे लेखक एवं कुशल सम्पादक थे। उन्होंने अनेक पुस्तकें स्वयं लिखीं तथा अन्य सुयोग्य लेखकों के लेखों तथा भाषणों को लिपिबद्ध करके और सम्पादित करके प्रकाशित किया। अमर बलिदानी स्वामी श्रद्धानंद जी के पत्र ‘सद्धर्म-प्रचारक’ में वे स्वामी के सहायक सम्पादक थे। कालांतर में वे लाहौर से निकलने वाले साप्ताहिक 'प्रकाश' के वर्षों सह-सम्पादक रहे। इसी पृष्ठभूमि के साथ उन्होंने पुस्तक प्रकाशन के क्षेत्र में तब पदार्पण किया, जब इस व्यवसाय में संघर्ष और जोखिम अधिक था, पैसा कम। परन्तु उस ज़माने में वही लोक प्रकाशन में आते थे, जो आदर्शवादी थे और अपनी धुन के पक्के, और जो पुस्तकों के माध्यम से सामाजिक एवं राष्ट्रीय चेतना जगाना चाहते थे। महाशय राजपाल जी की आयु उनके बलिदान के समय केवल 44 वर्ष थी। अपने छोटे से लगभग पन्द्रह वर्षों के प्रकाशकीय जीवन काल में उन्होंने न केवल हिन्दी पुस्तकों के प्रकाशन में नए कीर्तिमान स्थापित किए, अपितु सुदूर देशों में बसे भारतीय मूल के लोगों तक उन्हें पहुंचाने का भी योजनाबद्ध ढंग से सफल प्रयत्न किया। उनके जीवन काल में उनके प्रकाशन मॉरिशस, फिजी, पूर्वी अफ्रीका, ब्रिटिश तथा डच गायना आदि स्थानों पर बड़ी संख्या में जाते थे। पुस्तकों के माध्यम से भारतीय विचारधारा और संस्कृति के संदेशवाहक साहित्य के निर्यात में भी उनकी ऐतिहासिक भूमिका रही थी। श्रेष्ठ साहित्य के प्रकाशन के इतिहास में महाशय राजपाल का नाम सदा स्वर्ण अक्षरों में लिखा जाएगा। उन्होंने न केवल वैदिक धर्म के बारे में, उत्तम साहित्य के प्रकाशन में नये-नये कीर्तिमान स्थापित किए वरन् समाज सुधार व राष्ट्रीय स्वाधीनता संग्राम के आंदोलनों को बल प्रदान करते हुए सैकड़ों महत्त्वपूर्ण पुस्तकों का प्रकाशन भी किया।
मृत्यु
'रंगीला रसूल' के प्रकाशन के बाद से महाशय राजपाल जी पर तीन जानलेवा हमले हुए, जिसमें 6 अप्रैल, 1929 का आक्रमण राजपाल जी के लिए प्राणलेवा बना। महाशय राजपाल ने अपने वचन की रक्षा अपने प्राणों की बलि देकर की, पर पंडित चमूपति सरीखे विद्वान् पर आंच तक न आने दी। 1924 में छपी 'रंगीला रसूल' बिकती रही, पर किसी ने उसके विरुद्ध शोर न मचाया। फिर महात्मा गाँधी ने अपनी मुस्लिम परस्त नीति में इस पुस्तक के विरुद्ध एक लेख लिखा। इस पर कट्टरवादी मुसलमानों ने महाशय राजपाल के विरुद्ध आन्दोलन छेड़ दिया। ब्रिटिश सरकार ने उनके विरुद्ध 153 ए धारा के अधीन अभियोग चला दिया। अभियोग चार वर्ष तक चला। राजपाल जी को छोटे न्यायालय ने डेढ़ वर्ष का कारावास तथा 1000 रुपये का दंड सुनाया। इस निर्णय के विरुद्ध अपील करने पर दंड एक वर्ष तक कम कर दिया गया। इसके पश्चात् मामला हाई कोर्ट में गया।
दिलीप सिंह की अदालत ने महाशय राजपाल को दोषमुक्त करार दे दिया। मुस्लिम समुदाय इस निर्णय से भड़क उठा। ख़ुदाबख्श नामक एक पहलवान मुसलमान ने महाशय जी पर हमला कर दिया, जब वे अपनी दुकान पर बैठे थे। पर संयोग से आर्य संन्यासी स्वतंत्रानंद जी महाराज एवं स्वामी वेदानन्द जी महाराज वहां उपस्थित थे। उन्होंने घातक को ऐसा कसकर दबोचा कि वह छूट ना सका। उसे पकड़ कर पुलिस के हवाले कर दिया गया। उसे सात वर्ष का दंड मिला। रविवार 8 अक्टूबर, 1927 को स्वामी सत्यानन्द जी महाराज को महाशय राजपाल समझ कर अब्दुल अज़ीज़ नामक एक मतान्ध मुसलमान ने एक हाथ में चाकू, एक हाथ में उस्तरा लेकर आक्रमण कर दिया। स्वामी जी को घायल कर वह भागना ही चाह रहा था कि पड़ोस के दुकानदार महाशय नानकचंद जी कपूर ने उसे पकड़ने का प्रयास किया। इस प्रयास में वे भी घायल हो गए, तो उनके छोटे भाई लाला चूनीलाल जी उसकी ओर लपके। उन्हें भी घायल करते हुए हत्यारा भाग निकला, पर उसे चौक अनारकली पर पकड़ लिया गया। उसे 14 वर्ष का दंड मिला ओर तदन्तर तीन वर्ष के लिए शांति की गारंटी का दंड सुनाया गया। स्वामी सत्यानन्द जी के घाव ठीक होने में लगभग डेढ़ महीना लगा। 6 अप्रैल, 1929 को महाशय राजपाल अपनी दुकान पर विश्राम कर रहे थे, तभी इल्मदीन नामक एक मतान्ध मुसलमान ने महाशय जी की छाती में छुरा घोंप दिया, जिससे महाशय जी का तत्काल प्राणांत हो गया। हत्यारा अपने प्राण बचाने के लिए भागा और महाशय सीताराम जी के लकड़ी के टाल में छुप गया। महाशय जी के सपूत विद्यारतन जी ने उसे कस कर पकड़ लिया। पुलिस हत्यारे को पकड़ कर ले गयी।[5]
सन 1924 में उन पर मुक़दमा शुरू हुआ था और सन 1929 में राजपाल जी का बलिदान हुआ। इन पांच वर्षों में उन्हें अनेक बार यह कहा गया कि आप असली लेखक का नाम बता दें, तो हमें आपसे कोई शिकायत नहीं रहेगी। यह बात उस ज़माने के प्रमुख मुस्लिम दैनिक पत्र ‘ज़मींदार’ में भी प्रकाशित हुई थी, परन्तु महाशय राजपाल जी ने एक ही बात दोहराई थी कि इस पुस्तक के लेखन-प्रकाशन की पूरी जिम्मेदारी मेरी ही है, अन्य किसी की नहीं। उन्होंने जो वचन दिया, उसे अंत तक निभाया। इन्हीं पांच वर्षों के दौरान उन्हें यह भी कहा गया था कि आप इस पुस्तक का प्रकाशन बन्द कर दें और माफ़ी मांग लें। राजपाल जी ने एक ही उत्तर दिया कि "मैं विचार-स्वातंत्र्य और प्रकाशन की स्वतंत्रता में विश्वास रखता हूँ और अपनी इस मान्यता के लिए बड़े से बड़ा दण्ड भुगतने के लिए तैयार हूँ।"
ब्रिटिश सरकार द्वारा मुक़दमे
महाशय राजपाल जी द्वारा प्रकाशित अनेक पुस्तकों पर तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने मुकदमा चलाया था। जुर्माने किए और ऐसी पुस्तकों के संस्करण भी जब्त कर लिए। इतिहास के प्रसिद्ध विद्वान् भाई परमानन्द ने, जिन्हें ब्रिटिश सरकार ने काले पानी की सजा दी थी, इतिहास की अनेक पुस्तकें राष्ट्रीय दृष्टिकोण से लिखी थीं। ये सभी पुस्तकें राजपाल जी ने प्रकाशित की थीं। इनमें से ‘तारीख-ए-हिन्द’ (भारत का इतिहास) पुस्तक छपते ही जब्त की गई और मुक़दमा भी चला। इसी तरह एक अन्य पुस्तक 'देश की बात', जो हिन्दी में प्रकाशित हुई थी, उस पर बनारस की कोर्ट में मुक़दमा चला, जिसके सिलसिले में उन्हें अनेक बार लाहौर से बनारस की यात्राएं करनी पड़ीं। अन्य भी ऐसी अनेक पुस्तकें थीं, जिनके प्रकाशन के कारण वे ब्रिटिश सरकार के कोपभाजन बने, जैसे- डॉ. सत्यपाल द्वारा लिखित ‘पंजाब-बीती अथवा जलियावाला बाग़ का हत्याकांड’, ‘कालेपानी के कारावास की कहानी’ (भाई परमानन्द) इत्यादि।[3]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 1.2 1.3 1.4 धर्म की बलिवेदी पर |लेखक: प्रो. राजेन्द्र जिज्ञासु |प्रकाशक: राजपाल एण्ड सन्ज़, कश्मीरी गेट, दिल्ली |संकलन: भारतकोश पुस्तकालय |
- ↑ जिसकी किताबत की
- ↑ 3.0 3.1 3.2 3.3 अविभाजित पंजाब में हिन्दी प्रकाशन के अग्रदूत-महाशय राजपाल (हिन्दी) रांची एक्सप्रेस। अभिगमन तिथि: 04 अप्रैल, 2015।
- ↑ Shorthand
- ↑ हुतात्मा महाशय राजपाल की बलिदान-गाथा एवं रंगीलारसूल (हिन्दी) अखिल भारत हिन्दू महासभा। अभिगमन तिथि: 04 अप्रैल, 2015।