योग

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योग (अंग्रेज़ी: Yoga) भारत की प्राचीन विरासत है। यह एक आध्यात्मिक प्रकिया है, जिसमें शरीर, मन और आत्मा को एक साथ लाने (योग) का कार्य होता है। हिन्दू धर्म का योग से बड़ा ही घनिष्ठ सम्बंध है। हमारे ऋषि-मुनि, तपस्वी आदि योग के माध्यम से ही हज़ारों वर्ष तक कठिन तपस्या में लीन रहते थे। 'योग' हिन्दू धर्म, जैन धर्म तथा बौद्ध धर्म में ध्यान प्रक्रिया से सम्बंधित है। योग के माध्यम से शरीर, मन और मस्तिष्क को पूर्ण रूप से स्वस्थ किया जा सकता है। लम्बी आयु, सिद्धि और समाधि के लिए योग किया जाता रहा है। 'योग' शब्द भारत से बौद्ध धर्म के साथ चीन, जापान, तिब्बत, दक्षिण पूर्व एशिया और श्रीलंका में भी फैला। इस समय सारे सभ्य जगत में लोग योग से परिचित हैं। योग के महत्त्व को देखते हुए ही संयुक्त राष्ट्र ने प्रत्येक वर्ष '21 जून' को 'अंतरराष्ट्रीय योग दिवस' मनाने का निर्णय लिया।

जन्म

पुरातत्त्ववेत्ताओं ने जो साक्ष्य प्राप्त किये हैं, उनसे पता चलता है कि योग की उत्पत्ति 5000 ई. पू. में हुई होगी। गुरू शिष्य परम्परा के द्वारा योग का ज्ञान परम्परागत तौर पर एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को मिलता रहा। लगभग 200 ई. पू. में महर्षि पतंजलि ने योग को लिखित रूप में संग्रहित किया और योगसूत्र की रचना की। योगसूत्र की रचना के कारण पतंजलि को योग का पिता कहा जाता है।[1]

अर्थ

'योग' संस्कृत धातु 'युज' से उत्‍पन्न हुआ है, जिसका अर्थ है- "व्यक्तिगत चेतना" या "आत्मा की सार्वभौमिक चेतना" या "रूह से मिलन"। यह शब्द ‘युज समाधौ’ आत्मनेपदी दिवादिगणीय धातु में ‘घञ्’ प्रत्यय लगाने से निष्पन्न होता है। इस प्रकार ‘योग’ का अर्थ हुआ- "समाधि अर्थात् चित्त वृत्तियों का निरोध।" वैसे ‘योग’ शब्द ‘युजिर योग’ तथा ‘युज संयमने’ धातु से भी निष्पन्न होता है, किन्तु तब इस स्थिति में योग शब्द का अर्थ क्रमशः योगफल, जोड़ तथा नियमन होगा।[2]

योग शब्द का प्रयोग

अत्यंत प्रसिद्धि के बाद भी योग की परिभाषा सुनिश्चित नहीं है। 'श्रीमद्भागवदगीता' प्रतिष्ठित ग्रंथ माना जाता है। इसमें 'योग' शब्द का कई बार प्रयोग हुआ है। कभी अकेले और कभी सविशेषण, जैसे- 'बुद्धियोग', 'संन्यासयोग', 'कर्मयोग' आदि। वेदोत्तर काल में 'भक्तियोग' और 'हठयोग' नाम भी प्रचलित हो गए हैं। महात्मा गाँधी ने 'अनासक्ति योग' का व्यवहार किया है। पातंजल योगदर्शन में 'क्रियायोग' शब्द देखने में आता है। 'पाशुपत योग' और 'माहेश्वर योग' जैसे शब्दों की भी चर्चा मिलती है। इन सब स्थलों में योग शब्द के जो अर्थ हैं, वह एक-दूसरे के विरोधी हैं, परंतु इतने विभिन्न प्रयोगों को देखने से यह तो स्पष्ट हो जाता है कि योग की परिभाषा करना कठिन है।

परिभाषा

परिभाषा ऐसी होनी चाहिए जो अव्याप्ति और अतिव्याप्ति दोषों से मुक्त हो, योग शब्द के वाच्यार्थ का ऐसा लक्षण बतला सके जो प्रत्येक प्रसंग के लिये उपयुक्त हो और योग के सिवाय किसी अन्य वस्तु के लिये उपयुक्त न हो। 'गीता' में श्रीकृष्ण ने एक स्थल पर कहा है- "योग: कर्मसु कौशलम्‌" अर्थात "कर्मो में कुशलता को 'योग' कहते हैं।" स्पष्ट है कि यह वाक्य योग की परिभाषा नहीं है। कुछ विद्वानों का यह मत है कि जीवात्मा और परमात्मा के मिल जाने को 'योग' कहते हैं। इस बात को स्वीकार करने में यह बड़ी आपत्ति खड़ी होती है कि बौद्ध मतावलंबी भी, जो परमात्मा की सत्ता को स्वीकार नहीं करते, योग शब्द का व्यवहार करते और योग का समर्थन करते हैं। यही बात सांख्यवादियों के लिए भी कही जा सकती है, जो ईश्वर की सत्ता को असिद्ध मानते हैं। पंतजलि ने 'योगदर्शन' में परिभाषा दी है- 'योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः' अर्थात "चित्त की वृत्तियों के निरोध" पूर्णत: रुक जाने का नाम ही 'योग' है। इस वाक्य के दो अर्थ हो सकते हैं- 'चित्तवृत्तियों के निरोध की अवस्था का नाम योग है' या 'इस अवस्था को लाने के उपाय को योग कहते हैं।'

विद्वान मतभेद

उपरोक्त परिभाषा पर कई विद्वानों को आपत्ति है। उनका कहना है कि चित्तवृत्तियों के प्रवाह का ही नाम चित्त है। पूर्ण निरोध का अर्थ होगा चित्त के अस्तित्व का पूर्ण लोप, चित्ताश्रय समस्त स्मृतियों और संस्कारों का नि:शेष हो जाना। यदि ऐसा हो जाए तो फिर समाधि से उठना संभव नहीं होगा। क्योंकि उस अवस्था के सहारे के लिये कोई भी संस्कार बचा नहीं होगा, प्रारब्ध दग्ध हो गया होगा। निरोध यदि संभव हो तो श्रीकृष्ण के इस वाक्य का क्या अर्थ होगा? 'योगस्थ: कुरु कर्माणि', 'योग में स्थित होकर कर्म करो।' विरुद्धावस्था में कर्म हो नहीं सकता और उस अवस्था में कोई संस्कार नहीं पड़ सकते, स्मृतियाँ नहीं बन सकतीं, जो समाधि से उठने के बाद कर्म करने में सहायक हों।

संक्षेप में आशय यह है कि योग के शास्त्रीय स्वरूप, उसके दार्शनिक आधार को सम्यक रूप से समझना बहुत सरल नहीं है। संसार को मिथ्या मानने वाला अद्वैतवादी भी निदिध्याह्न के नाम से उसका समर्थन करता है। अनीश्वरवादी सांख्य विद्वान भी उसका अनुमोदन करता है। बौद्ध ही नहीं, मुस्लिम सूफ़ी और ईसाई मिस्टिक भी किसी न किसी प्रकार अपने संप्रदाय की मान्यताओं और दार्शनिक सिद्धांतों के साथ उसका सामंजस्य स्थापित कर लेते हैं। इन विभिन्न दार्शनिक विचारधाराओं में किस प्रकार ऐसा समन्वय हो सकता है कि ऐसा धरातल मिल सके जिस पर योग की भित्ति खड़ी की जा सके, यह बड़ा रोचक प्रश्न है।

विभिन्न परिभाषाएँ

  1. पातंजल योगदर्शन के अनुसार - 'योगश्चित्तवृत्त निरोधः'[3] अर्थात् 'चित्त की वृत्तियों का निरोध ही योग है।'
  2. सांख्य दर्शन के अनुसार - 'पुरुषप्रकृत्योर्वियोगेपि योगइत्यमिधीयते।' अर्थात् 'पुरुष एवं प्रकृति के पार्थक्य को स्थापित कर पुरुष का स्व स्वरूप में अवस्थित होना ही योग है।'
  3. 'विष्णुपुराण के अनुसार - 'योगः संयोग इत्युक्तः जीवात्म परमात्मने।' अर्थात् 'जीवात्मा तथा परमात्मा का पूर्णत: मिलन ही योग है।'
  4. भगवद्गीता के अनुसार - 'सिद्दध्यसिद्दध्यो समोभूत्वा समत्वंयोग उच्चते।'[4] अर्थात् 'दुःख-सुख, लाभ-अलाभ, शत्रु-मित्र, शीत और उष्ण आदि द्वन्दों में सर्वत्र समभाव रखना योग है।'
  5. आचार्य हरिभद्र के अनुसार - 'मोक्खेण जोयणाओ सव्वो वि धम्म ववहारो जोगो।' अर्थात 'मोक्ष से जोड़ने वाले सभी व्यवहार योग हैं।'
  6. बौद्ध धर्म के अनुसार - 'कुशल चितैकग्गता योगः।' अर्थात् 'कुशल चित्त की एकाग्रता योग है।'
  7. भगवद्गीता के अनुसार - 'तस्माद्दयोगाययुज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्।' अर्थात् 'कर्त्तव्य कर्म बन्धक न हो, इसलिए निष्काम भावना से अनुप्रेरित होकर कर्त्तव्य करने का कौशल योग है।'


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्तरर्राष्ट्रीय योग दिवस-21 जून (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 30 जून, 2015।
  2. क्या है योग (हिन्दी) आर्ट ऑफ लिविंग। अभिगमन तिथि: 30 जून, 2015।
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  4. (2/48)

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