योग
योग
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विवरण | 'योग' एक आध्यात्मिक प्रकिया है। इसमें शरीर, मन और आत्मा को एक साथ लाने (योग) का कार्य होता है। यह भारत की प्राचीन धरोहर है, जो आज सम्पूर्ण विश्व में व्याप्त है। |
उत्पत्ति स्थल | भारत |
प्रकार | चार ('मंत्रयोग', 'हठयोग', 'लययोग' व 'राजयोग')। श्रीकृष्ण ने योग के तीन भेद- 'ज्ञानयोग', 'कर्मयोग' तथा 'भक्तियोग' बताये हैं। जबकि 'योग प्रदीप' में दस प्रकार के योग बताये गए हैं। |
विशेष | साक्ष्यों के आधार पर योग की उत्पत्ति 5000 ई. पू. में हुई होगी। गुरू-शिष्य परम्परा के द्वारा यह ज्ञान परम्परागत रूप से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को मिलता रहा। लगभग 200 ई. पू. में महर्षि पतंजलि ने योग को लिखित रूप में संग्रहित किया और 'योगसूत्र' की रचना की। |
संबंधित लेख | योग दर्शन, पतंजलि, अंतरराष्ट्रीय योग दिवस, स्वामी रामदेव, यम (संयम), आसन, हठयोग प्रदीपिका, हठयोग, राजयोग |
अन्य जानकारी | 'श्रीमद्भागवदगीता' प्रतिष्ठित ग्रंथ माना जाता है। इसमें 'योग' शब्द का कई बार प्रयोग हुआ है। कभी अकेले और कभी सविशेषण, जैसे- 'बुद्धियोग', 'संन्यासयोग', 'कर्मयोग' आदि। वेदोत्तर काल में 'भक्तियोग' और 'हठयोग' नाम भी प्रचलित हो गए हैं। महात्मा गाँधी ने 'अनासक्ति योग' का व्यवहार किया है। |
योग (अंग्रेज़ी: Yoga) भारत की प्राचीन विरासत है। यह एक आध्यात्मिक प्रकिया है, जिसमें शरीर, मन और आत्मा को एक साथ लाने (योग) का कार्य होता है। हिन्दू धर्म का योग से बड़ा ही घनिष्ठ सम्बंध है। हमारे ऋषि-मुनि, तपस्वी आदि योग के माध्यम से ही हज़ारों वर्ष तक कठिन तपस्या में लीन रहते थे। 'योग' हिन्दू धर्म, जैन धर्म तथा बौद्ध धर्म में ध्यान प्रक्रिया से सम्बंधित है। योग के माध्यम से शरीर, मन और मस्तिष्क को पूर्ण रूप से स्वस्थ किया जा सकता है। लम्बी आयु, सिद्धि और समाधि के लिए योग किया जाता रहा है। 'योग' शब्द भारत से बौद्ध धर्म के साथ चीन, जापान, तिब्बत, दक्षिण पूर्व एशिया और श्रीलंका में भी फैला। इस समय सारे सभ्य जगत् में लोग योग से परिचित हैं। योग के महत्त्व को देखते हुए ही संयुक्त राष्ट्र ने प्रत्येक वर्ष '21 जून' को 'अंतरराष्ट्रीय योग दिवस' मनाने का निर्णय लिया।
उत्पत्ति
पुरातत्त्ववेत्ताओं ने जो साक्ष्य प्राप्त किये हैं, उनसे पता चलता है कि योग की उत्पत्ति 5000 ई. पू. में हुई होगी। गुरू शिष्य परम्परा के द्वारा योग का ज्ञान परम्परागत तौर पर एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को मिलता रहा। लगभग 200 ई. पू. में महर्षि पतंजलि ने योग को लिखित रूप में संग्रहित किया और योगसूत्र की रचना की। योगसूत्र की रचना के कारण पतंजलि को योग का पिता कहा जाता है।[1]
अर्थ
'योग' संस्कृत धातु 'युज' से उत्पन्न हुआ है, जिसका अर्थ है- "व्यक्तिगत चेतना" या "आत्मा की सार्वभौमिक चेतना" या "रूह से मिलन"। यह शब्द ‘युज समाधौ’ आत्मनेपदी दिवादिगणीय धातु में ‘घञ्’ प्रत्यय लगाने से निष्पन्न होता है। इस प्रकार ‘योग’ का अर्थ हुआ- "समाधि अर्थात् चित्त वृत्तियों का निरोध।" वैसे ‘योग’ शब्द ‘युजिर योग’ तथा ‘युज संयमने’ धातु से भी निष्पन्न होता है, किन्तु तब इस स्थिति में योग शब्द का अर्थ क्रमशः योगफल, जोड़ तथा नियमन होगा।[2]
इतिहास
वैदिक संहिताओं के अंतर्गत तथा प्राचीन काल से वेदों में (900 से 500 ई. पू.) तपस्वियों का उल्लेख मिलता है, जबकि तापसिक साधनाओं का समावेश प्राचीन वैदिक टिप्पणियों में प्राप्त है। कई मूर्तियाँ जो सामान्य योग या समाधि मुद्रा को प्रदर्शित करती हैं, सिंधु घाटी सभ्यता के स्थान पर प्राप्त हुईं हैं। पुरातत्त्वज्ञ ग्रेगरी पोस्सेह्ल के अनुसार- "ये मूर्तियाँ योग के धार्मिक संस्कार के योग से सम्बन्ध का संकेत करती है।" यद्यपि इस बात का निर्णयात्मक सबूत नहीं है, फिर भी अनेक पंडितों की राय में सिंधु घाटी सभ्यता और योग-ध्यान में सम्बन्ध है। ध्यान में उच्च चैतन्य को प्राप्त करने की रीतियों का विकास श्र्मानिक परम्पराओं द्वारा एवं उपनिषद की परंपरा द्वारा विकसित हुआ था। बुद्ध के पूर्व एवं प्राचीन ब्रह्मिनिक ग्रंथों मे ध्यान के बारे मे कोई ठोस सबूत नहीं मिलता। बुद्ध के दो शिक्षकों के ध्यान के लक्ष्यों के प्रति कहे वाक्यों के आधार पर वह यह तर्क करते हैं कि निर्गुण ध्यान की पद्धति ब्रह्मिन परंपरा से निकली, इसलिए उपनिषद की सृष्टि के प्रति कहे कथनों में एवं ध्यान के लक्ष्यों के लिए कहे कथनों में समानता है। यह संभावित हो भी सकता है और नहीं भी।
उपनिषदों में ब्रह्माण्ड संबंधी बयानों के वैश्विक कथनों में किसी ध्यान की रीति की सम्भावना के प्रति तर्क देते हुए कहा गया है कि नासदीय सूक्त किसी ध्यान की पद्धति की ओर ऋग्वेद से पूर्व भी इशारा करते हैं। यह बौद्ध ग्रंथ शायद सबसे प्राचीन ग्रंथ हैं, जिनमें ध्यान तकनीकों का वर्णन प्राप्त होता है। वे ध्यान की प्रथाओं और अवस्थाओं का वर्णन करते हैं, जो बुद्ध से पहले अस्तित्व में थीं और साथ ही उन प्रथाओं का वर्णन करते हैं, जो पहले बौद्ध धर्म के भीतर विकसित हुईं। हिन्दू वांग्मय में योग शब्द पहले कथा उपनिषद में प्रस्तुत हुआ, जहाँ ज्ञानेन्द्रियों का नियंत्रण और मानसिक गतिविधि के निवारण के अर्थ में यह प्रयुक्त हुआ है, जो उच्चतम स्तिथि प्रदान करने वाला माना गया है। योग का ठोस आधार पतंजलि के 'योगसूत्र' से देखने को मिलता है। 'योगसूत्र' योग दर्शन का मूल ग्रंथ है। यह हिन्दुओं के छह दर्शनों में से एक है और योगशास्त्र का एक ग्रंथ है। छ: दर्शनों में योगदर्शन का बड़ा ही महत्त्वपूर्ण स्थान है, जिससे समय के साथ योग की कई शाखाएँ निकलीं, जिनका प्रभाव बड़े व्यापक रूप में अनेक भारतीय पंथों, संप्रदायों और साधनाओं पर पड़ा।
योगशास्त्र के प्रवर्तक शिव
'योगशास्त्र' के प्रवर्तक भगवान शिव के 'विज्ञान भैरव तंत्र' और 'शिव संहिता' में उनकी संपूर्ण शिक्षा और दीक्षा समाई हुई है। तंत्र के अनेक ग्रंथों में उनकी शिक्षा का विस्तार हुआ है। भगवान शिव के योग को 'तंत्र' या 'वामयोग' कहते हैं। इसी की एक शाखा 'हठयोग' की है। भगवान शिव कहते हैं- "वामो मार्ग: परमगहनो योगितामप्यगम्य:" अर्थात 'वाम मार्ग अत्यन्त गहन है और योगियों के लिए भी अगम्य है।' शिव कहते हैं- "मनुष्य पशु है।" इस पशुता को समझना ही योग और तंत्र का प्रारम्भ है। योग में मोक्ष या परमात्मा प्राप्ति के तीन मार्ग हैं- 'जागरण', 'अभ्यास' और 'समर्पण'। तंत्रयोग समर्पण का मार्ग है। जब शिव ने जाना कि उस परम तत्व या सत्य को जानने का मार्ग तंत्रयोग है, तो उन्होंने अपनी अर्धांगिनी पार्वती को मोक्ष हेतु वह मार्ग बताया।
अमरनाथ के अमृत वचन
शिव द्वारा माँ पार्वती को जो ज्ञान दिया गया, वह बहुत ही गूढ़-गंभीर तथा रहस्य से भरा ज्ञान था। उस ज्ञान की आज अनेकानेक शाखाएँ हो चली हैं। वह ज्ञानयोग और तंत्र के मूल सूत्रों में शामिल है। 'विज्ञान भैरव तंत्र' एक ऐसा ग्रंथ है, जिसमें भगवान शिव द्वारा पार्वती को बताए गए 112 ध्यान सूत्रों का संकलन है। 'आदि' का अर्थ है- 'प्रारम्भ'। शिव को आदिदेव या आदिनाथ कहा जाता है। नाथ और शैव सम्प्रदाय के आदिदेव। शिव से ही योग का जन्म माना गया है। वैदिक काल के रुद्र का स्वरूप और जीवन दर्शन पौराणिक काल आते-आते पूरी तरह से बदल गया। वेद जिन्हें रुद्र कहते हैं, पुराण उन्हें शंकर और महेश कहते हैं। शिव का न प्रारंभ है और न अंत। शिव के 'शिवयोग' को 'तंत्र' या 'वामयोग' भी कहते हैं। शिवयोग में धारणा, ध्यान और समाधि अर्थात योग के अंतिम तीन अंग का ही प्रचलन अधिक रहा है।[3]
योग शब्द का प्रयोग
अत्यंत प्रसिद्धि के बाद भी योग की परिभाषा सुनिश्चित नहीं है। 'श्रीमद्भागवदगीता' प्रतिष्ठित ग्रंथ माना जाता है। इसमें 'योग' शब्द का कई बार प्रयोग हुआ है। कभी अकेले और कभी सविशेषण, जैसे- 'बुद्धियोग', 'संन्यासयोग', 'कर्मयोग' आदि। वेदोत्तर काल में 'भक्तियोग' और 'हठयोग' नाम भी प्रचलित हो गए हैं। महात्मा गाँधी ने 'अनासक्ति योग' का व्यवहार किया है। पातंजल योगदर्शन में 'क्रियायोग' शब्द देखने में आता है। 'पाशुपत योग' और 'माहेश्वर योग' जैसे शब्दों की भी चर्चा मिलती है। इन सब स्थलों में योग शब्द के जो अर्थ हैं, वह एक-दूसरे के विरोधी हैं, परंतु इतने विभिन्न प्रयोगों को देखने से यह तो स्पष्ट हो जाता है कि योग की परिभाषा करना कठिन है।
परिभाषा
परिभाषा ऐसी होनी चाहिए जो अव्याप्ति और अतिव्याप्ति दोषों से मुक्त हो, योग शब्द के वाच्यार्थ का ऐसा लक्षण बतला सके जो प्रत्येक प्रसंग के लिये उपयुक्त हो और योग के सिवाय किसी अन्य वस्तु के लिये उपयुक्त न हो। 'गीता' में श्रीकृष्ण ने एक स्थल पर कहा है- "योग: कर्मसु कौशलम्" अर्थात "कर्मो में कुशलता को 'योग' कहते हैं।" स्पष्ट है कि यह वाक्य योग की परिभाषा नहीं है। कुछ विद्वानों का यह मत है कि जीवात्मा और परमात्मा के मिल जाने को 'योग' कहते हैं। इस बात को स्वीकार करने में यह बड़ी आपत्ति खड़ी होती है कि बौद्ध मतावलंबी भी, जो परमात्मा की सत्ता को स्वीकार नहीं करते, योग शब्द का व्यवहार करते और योग का समर्थन करते हैं। यही बात सांख्यवादियों के लिए भी कही जा सकती है, जो ईश्वर की सत्ता को असिद्ध मानते हैं। पंतजलि ने 'योगदर्शन' में परिभाषा दी है- 'योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः' अर्थात "चित्त की वृत्तियों के निरोध" पूर्णत: रुक जाने का नाम ही 'योग' है। इस वाक्य के दो अर्थ हो सकते हैं- 'चित्तवृत्तियों के निरोध की अवस्था का नाम योग है' या 'इस अवस्था को लाने के उपाय को योग कहते हैं।'
विद्वान् मतभेद
उपरोक्त परिभाषा पर कई विद्वानों को आपत्ति है। उनका कहना है कि चित्तवृत्तियों के प्रवाह का ही नाम चित्त है। पूर्ण निरोध का अर्थ होगा चित्त के अस्तित्व का पूर्ण लोप, चित्ताश्रय समस्त स्मृतियों और संस्कारों का नि:शेष हो जाना। यदि ऐसा हो जाए तो फिर समाधि से उठना संभव नहीं होगा। क्योंकि उस अवस्था के सहारे के लिये कोई भी संस्कार बचा नहीं होगा, प्रारब्ध दग्ध हो गया होगा। निरोध यदि संभव हो तो श्रीकृष्ण के इस वाक्य का क्या अर्थ होगा? 'योगस्थ: कुरु कर्माणि', 'योग में स्थित होकर कर्म करो।' विरुद्धावस्था में कर्म हो नहीं सकता और उस अवस्था में कोई संस्कार नहीं पड़ सकते, स्मृतियाँ नहीं बन सकतीं, जो समाधि से उठने के बाद कर्म करने में सहायक हों।
संक्षेप में आशय यह है कि योग के शास्त्रीय स्वरूप, उसके दार्शनिक आधार को सम्यक रूप से समझना बहुत सरल नहीं है। संसार को मिथ्या मानने वाला अद्वैतवादी भी निदिध्याह्न के नाम से उसका समर्थन करता है। अनीश्वरवादी सांख्य विद्वान् भी उसका अनुमोदन करता है। बौद्ध ही नहीं, मुस्लिम सूफ़ी और ईसाई मिस्टिक भी किसी न किसी प्रकार अपने संप्रदाय की मान्यताओं और दार्शनिक सिद्धांतों के साथ उसका सामंजस्य स्थापित कर लेते हैं। इन विभिन्न दार्शनिक विचारधाराओं में किस प्रकार ऐसा समन्वय हो सकता है कि ऐसा धरातल मिल सके जिस पर योग की भित्ति खड़ी की जा सके, यह बड़ा रोचक प्रश्न है।
विभिन्न परिभाषाएँ
- पातंजल योगदर्शन के अनुसार - 'योगश्चित्तवृत्त निरोधः'[4] अर्थात् 'चित्त की वृत्तियों का निरोध ही योग है।'
- सांख्य दर्शन के अनुसार - 'पुरुषप्रकृत्योर्वियोगेपि योगइत्यमिधीयते।' अर्थात् 'पुरुष एवं प्रकृति के पार्थक्य को स्थापित कर पुरुष का स्व स्वरूप में अवस्थित होना ही योग है।'
- 'विष्णुपुराण के अनुसार - 'योगः संयोग इत्युक्तः जीवात्म परमात्मने।' अर्थात् 'जीवात्मा तथा परमात्मा का पूर्णत: मिलन ही योग है।'
- भगवद्गीता के अनुसार - 'सिद्दध्यसिद्दध्यो समोभूत्वा समत्वंयोग उच्चते।'[5] अर्थात् 'दुःख-सुख, लाभ-अलाभ, शत्रु-मित्र, शीत और उष्ण आदि द्वन्दों में सर्वत्र समभाव रखना योग है।'
- आचार्य हरिभद्र के अनुसार - 'मोक्खेण जोयणाओ सव्वो वि धम्म ववहारो जोगो।' अर्थात 'मोक्ष से जोड़ने वाले सभी व्यवहार योग हैं।'
- बौद्ध धर्म के अनुसार - 'कुशल चितैकग्गता योगः।' अर्थात् 'कुशल चित्त की एकाग्रता योग है।'
- भगवद्गीता के अनुसार - 'तस्माद्दयोगाययुज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्।' अर्थात् 'कर्त्तव्य कर्म बन्धक न हो, इसलिए निष्काम भावना से अनुप्रेरित होकर कर्त्तव्य करने का कौशल योग है।'
योग के प्रकार
योग की उच्चावस्था समाधि, मोक्ष, कैवल्य आदि तक पहुँचने के लिए अनेकों साधकों ने जो साधन अपनाये, उन्हीं साधनों का वर्णन योग ग्रन्थों में समय-समय पर मिलता रहा। उसी को योग के प्रकार से जाना जाने लगा। योग की प्रमाणिक पुस्तकों में 'शिवसंहिता' तथा 'गोरक्षशतक' में योग के चार प्रकारों का वर्णन मिलता है-
'मंत्रयोगों हष्ष्चैव लययोगस्तृतीयकः।
चतुर्थो राजयोगः'[6]
'मंत्रो लयो हठो राजयोगन्तर्भूमिका क्रमात्
एक एव चतुर्धाऽयं महायोगोभियते॥'[7]
उपर्युक्त दोनों श्लोकों के आधार पर योग के चार प्रकार हुए- 'मंत्रयोग', 'हठयोग', 'लययोग' व 'राजयोग'।
मंत्रयोग
'मंत्र' का सामान्य अर्थ है- 'मननात् त्रायते इति मंत्रः'। मन को त्राय[8] मंत्र ही है। मंत्र योग का सम्बन्ध मन से है, मन को इस प्रकार परिभाषित किया है- 'मनन इति मनः'। जो मनन, चिन्तन करता है, वही मन है। मन की चंचलता का निरोध मंत्र के द्वारा करना मंत्र योग है। मंत्र योग के बारे में 'योगतत्वोपनिषद' में वर्णन इस प्रकार है-
'योग सेवन्ते साधकाधमाः।' (अल्पबुद्धि साधक मंत्रयोग से सेवा करता है, अर्थात मंत्रयोग अनसाधकों के लिए है, जो अल्पबुद्धि है।')
मंत्र से ध्वनि तरंगें पैदा होती हैं। मंत्र शरीर और मन दोनों पर प्रभाव डालता है। मंत्र में साधक जप का प्रयोग करता है। मंत्र जप में तीन घटकों का काफ़ी महत्त्व है, वे घटक 'उच्चारण', 'लय' व 'ताल' हैं। तीनों का सही अनुपात मंत्र शक्ति को बढ़ा देता है। मंत्रजप मुख्यरूप से चार प्रकार से किया जाता है- 'वाचिक', 'मानसिक', 'उपांशु' तथा 'अणपा'।
हठयोग
'हठ' का शाब्दिक अर्थ हटपूर्वक किसी कार्य के करने से लिया जाता है। 'हठ प्रदीपिका' पुस्तक में हठ का अर्थ इस प्रकार दिया गया है-
हकारेणोच्यते सूर्यष्ठकार चन्द्र उच्यते।
सूर्या चन्द्रमसो र्योगाद्धठयोगोऽभिधीयते॥
'ह' का अर्थ सूर्य तथ 'ठ' का अर्थ चन्द्र बताया गया है। सूर्य और चन्द्र की समान अवस्था हठयोग है। शरीर में कई हज़ार नाड़ियाँ हैं। उनमें जिन तीन प्रमुख नाड़ियों का वर्णन है, वे इस प्रकार हैं- 'सूर्यनाड़ी' अर्थात 'पिंगला' जो दाहिने स्वर का प्रतीक है। 'चन्द्रनाड़ी' अर्थात 'इड़ा' जो बायें स्वर का प्रतीक है। इन दोनों के बीच तीसरी नाड़ी 'सुषुम्ना' है। इस प्रकार हठयोग वह क्रिया है, जिसमें पिंगला और इड़ा नाड़ी के सहारे प्राण को सुषुम्ना नाड़ी में प्रवेश कराकर ब्रह्मरंध्र में समाधिस्थ किया जाता है। 'हठ प्रदीपिका' में हठयोग के चार अंगों का वर्णन है- 'आसन', 'प्राणायाम', 'मुद्रा' और 'बन्ध'। 'घेरण्डसंहिता' में सात अंग- 'षटकर्म', 'आसन', 'मुद्राबन्ध', 'प्राणायाम', 'ध्यान', 'समाधि', जबकि 'योगतत्वोपनिषद' में आठ अंगों का वर्णन है- 'यम', 'नियम', 'आसन', 'प्राणायाम', 'प्रत्याहार', 'धारणा', 'ध्यान', और 'समाधि'।
लययोग
चित्त का अपने स्वरूप विलीन होना या चित्त की निरूद्ध अवस्था लययोग के अन्तर्गत आती है। साधक के चित्त् में जब चलते, बैठते, सोते और भोजन करते समय हर समय ब्रह्म का ध्यान रहे, इसी को लययोग कहते हैं। 'योगत्वोपनिषद' में इस प्रकार वर्णन है-
'गच्छस्तिष्ठन स्वपन भुंजन् ध्यायेन्त्रिष्कलमीश्वरम् स एव लययोगः स्यात।'[9]
राजयोग
'राजयोग' सभी योगों का राजा कहलाता है, क्योंकि इसमें प्रत्येक प्रकार के योग की कुछ न कुछ समामिग्री अवश्य मिल जाती है। राजयोग में महर्षि पतंजलि द्वारा रचित 'आष्टांगयोग' का वर्णन आता है। राजयोग का विषय चित्तवृत्तियों का निरोध करना है। आष्टांगयोग का सर्वाधिक प्रचलन और महत्त्व है। 'आष्टांगयोग' अर्थात 'योग के आठ अंग'। यह आठ अंग सभी धर्मों का सार हैं। उक्त आठ अंगों से बाहर धर्म, योग, दर्शन, मनोविज्ञान आदि तत्वों की कल्पना नहीं की जा सकती। यह आठ अंग हैं- यम, नियम, आसन, प्राणायम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। उक्त आठ अंगों के अपने-अपने उपअंग भी हैं। वर्तमान में योग के तीन ही अंग प्रचलन में हैं- 'आसन', 'प्राणायाम' और 'ध्यान', जो कि योगभ्रष्ट मार्ग है। योग को प्रथम यम से ही सीखना होता है।[10]
वेद-पुराणों में योग
वेद, पुराण आदि ग्रन्थों में योग के अनेक प्रकार बताए गए हैं। भगवान कृष्ण ने योग के तीन प्रकार बताए हैं-
- ज्ञान योग
- कर्म योग
- भक्ति योग
जबकि 'योग प्रदीप' में योग के दस प्रकार बताए गए हैं- 'राज योग', 'अष्टांग योग', 'हठयोग', 'लययोग', 'ध्यान योग', 'भक्ति योग', 'क्रिया योग', 'मंत्र योग', 'कर्म योग' और 'ज्ञान योग'। इसके अतिरिक्त 'धर्म योग', 'तंत्र योग' तथा 'नाद योग' आदि भी होते हैं।
अन्य धर्मों में योग परम्परा
भारत की अनेक धार्मिक परम्पराओं में योग किसी न किसी रूप में दिखाई देता है। हिन्दू धर्म के अतिरिक्त ये बौद्ध धर्म, जैन धर्म आदि में भी मान्य रहा।
बौद्ध धर्म में योग का स्थान
प्राचीन बौद्धिक धर्म ने ध्यानापरणीय अवशोषण अवस्था को निगमित किया। बुद्ध के प्रारंभिक उपदेशों में योग विचारों की सबसे प्राचीन निरंतर अभिव्यक्ति पाई जाती है। बुद्ध का एक प्रमुख नवीन शिक्षण यह था कि ध्यानापरणीय अवशोषण को परिपूर्ण अभ्यास से संयुक्त करे। बुद्ध के उपदेश और प्राचीन ब्रह्मनिक ग्रंथों में प्रस्तुत अंतर विचित्र है। बुद्ध के अनुसार- "ध्यानापरणीय अवस्था एकमात्र अंत नहीं है, उच्चतम ध्यानापरणीय स्थिती में भी मोक्ष प्राप्त नहीं होता।" अपने विचार के पूर्ण विराम प्राप्त करने के बजाय, किसी प्रकार की मानसिक सक्रियता होनी चाहिए, एक मुक्ति अनुभूति, ध्यान जागरूकता के अभ्यास पर आधारित होना चाहिए। बुद्ध ने मृत्यु से मुक्ति पाने के प्राचीन ब्रह्मनिक अभिप्राय को ठुकराया। ब्रह्मिनिक योगिन की एक गैरद्विसंक्य द्रष्टृगत स्थिति जहाँ मृत्यु में अनुभूति प्राप्त होती है, उस स्थिति को वे मुक्ति मानते हैं।
तिब्बती बौद्ध धर्म का केंद्र
'योग' तिब्बती बौद्ध धर्म का केंद्र है। न्यिन्गमा परंपरा में ध्यान के अभ्यास का मार्ग नौ यानों या वाहन में विभाजित है। कहा जाता है कि यह परम व्यूत्पन्न भी है। अंत के छह को "योग यानास" के रूप में वर्णित किया जाता है। यह है- क्रियायोग, उपयोग (चर्या), योगायाना, महायोग, अनुयोग और अंतिम अभ्यास अतियोग। सरमा परंपराओं ने महायोग और अतियोग को अनुत्तारा वर्ग से स्थानापन्न करते हुए क्रिया योग, उपा (चर्या) और योग को शामिल किया है। अन्य तंत्र योग प्रथाओं में 108 शारीरिक मुद्राओं के साथ सांस और दिल ताल का अभ्यास शामिल है। अन्य तंत्र योग प्रथाओं में 108 शारीरिक मुद्राओं के साथ सांस और दिल ताल का अभ्यास शामिल हैं। न्यिन्गमा परंपरा यंत्र योग का अभ्यास भी करती है। यह एक अनुशासन है, जिसमें सांस कार्य (या प्राणायाम), ध्यानापरणीय मनन और सटीक गतिशील चाल से अनुसरण करने वाले के ध्यान को एकाग्रित करते हैं। लुखंग मे दलाई लामा के सम्मर मंदिर की दीवारों पर तिब्बती प्राचीन योगियों के शरीर को मुद्राओं सहित चित्रित किया गया है।
महत्त्व
योग प्रत्येक व्यक्ति के लिए हर तरह से आवश्यक है। यह हमारे शारीरिक, मानसिक और आत्मिक स्वास्थ्य के लिए लाभदायक है। योग का उद्देश्य शरीर, मन और आत्मा के बीच संतुलन अर्थात योग बनाना है। योग के उद्देश्य को पूरा करने के लिए मुद्रा, ध्यान और श्वसन सम्बन्धी अभ्यास की आवश्यकता होती है। योग की क्रियाओं में जब तन, मन और आत्मा के बीच योग बनता है, तब आत्मिक संतुष्टि, शांति और चेतना का अनुभव होता है। इसके अतरिक्त योग शारीरिक और मानसिक रूप से भी फायदेमंद है। योग शरीर को शक्तिशाली एवं लचीला बनाए रखता है, साथ ही तनाव से भी छुटकारा दिलाता है, जो रोजमर्रा की जि़न्दगी के लिए आवश्यक है। योग से शरीर में रोग प्रतिरोधी क्षमता का विकास होता है। योग करने वाले वृद्धावस्था में भी चुस्त दुरूस्त रहते हैं। आयु के संदर्भ में भी योग लाभप्रद है।
योग किसके लिए
योग किसी भी उम्र के स्वस्थ स्त्री-पुरुष कर सकते हैं। स्वास्थ्य सम्बंधी परेशानियों में भी योग किया जा सकता है, लेकिन इसमें कुछ सावधानियों का ध्यान रखना होता है। जो व्यक्ति शरीर को बहुत अधिक घुमा-फिरा नहीं सकते, वे भी कुर्सी पर आराम से बैठकर योग कर सकते हैं। योग हर किसी की ज़रूरत है। कामकाजी लोग अपने दफ्तर में भी कुछ देर योग करके अत्यधिक काम के दबाव के बावजूद भी खुद को तरोताजा महसूस कर सकते हैं। शारीरिक कार्य करने वाले, जैसे- खिलाड़ी, एथलेटिक्स, नर्तक अपने शरीर को मजबूत, ऊर्जावान और लचीला बनाए रखने के लिए योग कर सकते हैं। छात्र मन की एकाग्रता और ध्यान के लिए योग कर सकते हैं।
प्रसिद्ध योगगुरु
वैसे तो योग हमेशा से भारत की प्राचीन धरोहर रही है। समय के साथ-साथ योग विश्व प्रख्यात तो हुआ ही है, साथ ही इसके महत्व को जानने के बाद आज योग लोगों की दिनचर्या का अभिन्न अंग भी बन गया है। लेकिन योग के प्रचार-प्रसार में विश्व प्रसिद्ध योग गुरुओं का भी योगदान रहा है, जिनमें से अयंगर योग के संस्थापक बी. के. एस. अयंगर और योगगुरु बाबा रामदेव का नाम अधिक प्रसिद्ध है।
बी.के.एस. अंयगर
अयंगर को विश्व के अग्रणी योग गुरुओं में से एक माना जाता है। उन्होंने योग के दर्शन पर कई किताबें भी लिखी थीं, जिनमें 'लाइट ऑन योगा', 'लाइट ऑन प्राणायाम' और 'लाइट ऑन द योग सूत्राज ऑफ़ पतंजलि' शामिल हैं। अयंगर का जन्म 14 दिसम्बर, 1918 को बेल्लूर के एक ग़रीब परिवार में हुआ था। बताया जाता है कि अयंगर बचपन में काफ़ी बीमार रहा करते थे। ठीक नहीं होने पर उन्हें योग करने की सलाह दी गयी और तभी से वह योग करने लगे। अयंगर को "अयंगर योग का जन्मदाता" कहा जाता है। उन्होंने इस योग को देश-दुनिया में फैलाया। श्वांस सम्बंधी परेशानी के चलते 20 अगस्त, 2014 को उनका निधन हुआ।
बाबा रामदेव
बाबा रामदेव प्रसिद्ध भारतीय योग-गुरु हैं। उन्होंने योगासन व प्राणायामयोग के क्षेत्र में योगदान दिया है। रामदेव स्वयं जगह-जगह जाकर योग शिविरों का आयोजन करते हैं। सदियों पुराने योग के प्रचार-प्रसार में उनका प्रयास भी सराहनीय है। इसके पीछे उनका मक़सद धर्म से अधिक आम इंसान को शारीरिक और मानसिक कष्टों से छुटकारा दिलाना है। इसी बात ने बड़ी संख्या में लोगों को उनकी ओर आकर्षित किया है। योग को कंदराओं और आश्रमों से निकाल कर आम आदमी से जोड़ने का श्रेय बाबा रामदेव को ही जाता है। वह भी ऐसे मौके पर जब बहुराष्ट्रिय कंपनियों के बढ़ते शिकंजे के चलते महंगी हुई आधुनिक चिकित्सा ग़रीब लोगों से दूर होती जा रही है। ऐसे में बाबा ने मुफ़्त का योग देकर विभिन्न देशों के करोड़ों लोगों का भला किया है।
अंतरराष्ट्रीय योग दिवस
भारत की विरासत योग के महत्त्व को देखते हुए ही संयुक्त राष्ट्र ने प्रत्येक वर्ष '21 जून' को 'अंतरराष्ट्रीय योग दिवस' मनाने का निर्णय लिया था। 21 जून, 2015 को प्रथम 'अंतरराष्ट्रीय योग दिवस' मनाया गया। इस अवसर पर 192 देशों और 47 मुस्लिम देशों में योग दिवस का आयोजन किया गया। दिल्ली में एक साथ 35985 लोगों ने योग का प्रदर्शन किया। इसमें 84 देशों के प्रतिनिधि मौजूद थे। इस अवसर पर भारत ने दो विश्व रिकॉर्ड बनाकर 'गिनीज बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स' में अपना नाम दर्ज करा लिया। पहला रिकॉर्ड एक जगह पर सबसे अधिक लोगों के योग करने का बना, तो दूसरा एक साथ सबसे अधिक देशों के लोगों के योग करने का।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अन्तरर्राष्ट्रीय योग दिवस-21 जून (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 30 जून, 2015।
- ↑ क्या है योग (हिन्दी) आर्ट ऑफ लिविंग। अभिगमन तिथि: 30 जून, 2015।
- ↑ शिव हैं योग का प्रारम्भ (हिन्दी) वेबदुनिया। अभिगमन तिथि: 30 जून, 2015।
- ↑ (1/2)
- ↑ (2/48)
- ↑ शिवसंहिता, 5/11
- ↑ गोरक्षशतकम्
- ↑ पार कराने वाला
- ↑ 22-23
- ↑ योग क्या है (हिन्दी) वेबदुनिया। अभिगमन तिथि: 30 जून, 2015।