श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 11 श्लोक 53-59
दशम स्कन्ध: एकादशो ऽध्यायः(11) (पूर्वार्ध)
जब बलराम आदि बालकों ने देखा कि श्रीकृष्ण बगुले के मुँह से निकल कर हमारे पास आ गये है, तब उन्हें ऐसा आनन्द हुआ, मानो प्राणों के संचार से इन्द्रियाँ सचेत और आन्दित हो गयीं हों। सब ने भगवान को अलग-अलग गले लगाया। इसके बाद अपने-अपने बछड़े हाँककर सब व्रज में आये और वहाँ उन्होंने उन्होंने घर के लोगों से सारी घटना कह सुनायी ।
परीक्षित्! बकासुर के वध की घटना सुनकर अब-के-सब गोपी-गोप आशचर्यचकित हो गये। उन्हें ऐसा जान पड़ा, जैसे कन्हैया साक्षात् मृत्यु के मुख से ही लौटे हों। वे बड़ी उत्सुकता, प्रेम और आदर से श्रीकृष्ण को निहारने लगे। उनके नेत्रों की प्यास बढ़ती ही जाती थी, किसी प्रकार उन्हें तृप्ति न होती थी । वे आपस में कहने लगे—‘हाय! हाय!! यह कितने आशचर्य की बात है। इस बालक को कई बार मृत्यु के मुँह में जाना पड़ा। परन्तु जिन्होंने इसका अनिष्ट करना चाहा, उन्हीं का अनिष्ट हुआ। क्योंकि उन्होंने पहले से दूसरों का अनिष्ट किया था । यह सब होने पर भी वे भयंकर असुर इसका कुछ भी नहीं बिगाड़ पाते। आते हैं इसे मार डालने की नीयत से, किन्तु आग पर गिरकर पतिंगों की तरह उलटे स्वयं स्वाहा हो जाते हैं । सच है, ब्रम्हवेत्ता महात्माओं के वचन कभी झूठे नहीं होते। देखो न, महात्मा गर्गाचार्य ने जितनी बातें कही थीं, सब-की-सब सोलहों आने ठीक उतर रहीं हैं’। नन्दबाबा आदि गोपगण इसी प्रकार बड़े आनन्द से अपने श्याम और राम की बातें किया करते। वे उनमें इतने तन्मय रहते कि उन्हें संसार के दुःख-संकटों का कुछ पता ही न चलता । इसी प्रकार श्याम और बलराम ग्वालबालों के साथ कभी आँखमिचौनी खेलते, तो कभी पुल बाँधते। कभी बंदरों की भाँति उछलते-कूदते, तो कभी और कोई विचित्र खेल करते। इस प्रकार के बालोचित खेलों से उन दोनों ने व्रज में अपनी बाल्यावस्था व्यतीत की ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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