श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 44 श्लोक 14-23
दशम स्कन्ध: चतुश्चत्वारिंशोऽध्यायः (44) (पूर्वार्ध)
सखा! पता नहीं, गोपियों ने कौन-सी तपस्या की थी, जो नेत्रों के दोनों से नित्य-निरन्तर इनकी रूप-माधुरी का पान करती रहती हैं। इनका रूप क्या है, लावण्य का सार! संसार में या उससे परे किसी का भी रूप इनके रूप के समान नहीं है, फिर बढ़कर होने की तो बात ही क्या है! सो भी किसी के सँवारने-सजाने से नहीं, गहने-कपड़े से भी नहीं, बल्कि स्वयंसिद्ध है। इस रूप को देखते-देखते तृप्ति भी नहीं होती। क्योंकि यह प्रतिक्षण नया होता जाता है, नित्य नूतन है। समग्र यश, सौन्दर्य और ऐश्वर्य इसी के आश्रित हैं। सखियों! परन्तु इसका दर्शन तो औरों के लिये बड़ा ही दुर्लभ है। वह तो गोपियों के ही भाग्य में बदा है ।
सखी! व्रज की गोपियाँ धन्य हैं। निरन्तर श्रीकृष्ण में ही चित्त लगा रहने के कारण प्रेमभरे ह्रदय से, आँसुओं के कारण गद्गद कण्ठ से वे इन्हीं की लीलाओं का गान करती रहती हैं। वे दूध दुहते, दही मथते, धान कूटते, घर लीपते, बालकों को झुला झुलाते, रोते हुए बालकों को चुप कराते, उन्हें नहलाते-धुलाते, घरों को झाड़ते-बुहारते—कहाँ तक कहें, सारे काम-काज करते समय श्रीकृष्ण के गुणों के गान में ही मस्त रहती हैं ।
ये श्रीकृष्ण जब प्रातःकाल गौओं को चराने के लिये व्रज से वन में जाते हैं और सायंकाल उन्हें लेकर व्रज में लौटते हैं, तब बड़े मधुर स्वर से बाँसुरी बजाते हैं। उसकी टेर सुनकर गोपियाँ घर का सारा कामकाज छोड़कर झटपट रास्ते में दौड़ आती हैं और श्रीकृष्ण का मन्द-मन्द मुसकान एवं दयाभरी चितवन से युक्त मुखकमल निहार-निहारकर निहाल होती हैं। सचमुच गोपियाँ ही परम पुण्यवती हैं’ ।
भरतवंशशिरोमणे! जिस समय पुरवासिनी स्त्रियाँ इस प्रकार बातें कर रही थीं, उसी समय योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण ने मन-ही-मन शत्रु को मार डालने का निश्चय किया । स्त्रियों की ये भयपूर्ण बातें माता-पिता देवकी-वसुदेव भी सुन रहे थे[1]। वे पुत्र स्नेहवश शोक से विह्वल हो गये। उनके ह्रदय में बड़ी जलन, बड़ी पीड़ा होने लगी। क्योंकि वे अपने पुत्रों के बल-वीर्य को नहीं जानते थे । भगवान श्रीकृष्ण और उनसे भिड़ने वाला चाणूर दोनों ही भिन्न-भिन्न प्रकार के दाँव-पेंच का प्रयोग करते हुए परस्पर जिस प्रकार लड़ रहे थे, वैसे ही बलरामजी और मुष्टिक भी भिड़े हुए थे । भगवान के अंग-प्रत्यंक वज्र से भी कठोर हो रहे थे। उनकी रगड़ से चाणूर की रग-रग ढीली पड़ गयी। बार-बार उसे ऐसा मालूम हो रहा था मानो उसके उसके शरीर के सारे बन्धन टूट रहे हैं। उसे बड़ी ग्लानि, बड़ी व्यथा हुई । अब वह अत्यन्त क्रोधित होकर बाज की तरह झपटा और दोनों हाथों के घूँसे बाँधकर उसने भगवान श्रीकृष्ण की छाती पर प्रहार किया । परन्तु उसके प्रहार से भगवान तनिक भी विचलित न हुए, जैसे फूलों के गजरे की मार से गजराज। उन्होंने चाणूर की दोनों भुजाएँ पकड़ लीं और उसे अंतरिक्ष में बड़े वेग से कई बार घुमाकर धरती पर दे मारा। परीक्षित! चाणूर के प्राण तो घुमाने के समय ही निकल गये थे। उसकी वेष-भूषा अस्त-व्यस्त हो गयी, केश और मालाएँ बिखर गयीं, वह इन्द्रध्वज (इन्द्र की पूजा के लिये खड़े किये गये बड़े झंडे) के समान गिर पड़ा ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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