स्वस्तिक का प्रयोग

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महात्मा बुद्ध की प्रतिमा पर स्वस्तिक

स्वस्तिक का प्रयोग अनेक धर्म में किया जाता है। 'आर्य धर्म' और उसकी शाखा-प्रशाखाओं में स्वस्तिक का समान रूप से सम्मान है। बौद्ध, जैन, सिख धर्मो में उसकी समान मान्यता है। 'बौद्ध और जैन' लेखों से सम्बन्धित प्राचीन गुफाओं में भी यह प्रतीक मिलता है।

जैन तथा बौद्ध धर्मों में प्रयोग

जैन व बौद्ध सम्प्रदाय व अन्य धर्मों में प्रायः लाल, पीले एवं श्वेत रंग से अंकित स्वस्तिक का प्रयोग होता रहा है। महात्मा बुद्ध की मूर्तियों पर और उनके चित्रों पर भी प्रायः स्वस्तिक चिह्न मिलते हैं। बौद्ध धर्म में स्वस्तिक का आकार गौतम बुद्ध के हृदय स्थल पर दिखाया गया है। अमरावती के स्तूप पर स्वस्तिक चिह्न हैं। विदेशों में इस मंगल-प्रतीक के प्रचार-प्रसार में बौद्ध धर्म के प्रचारकों का भी काफ़ी योगदान रहा है। दूसरे देशों में स्वस्तिक का प्रचार महात्मा बुद्ध की चरण पूजा से बढ़ा है। बौद्ध धर्म के प्रभाव के कारण ही जापान में प्राप्त महात्मा बुद्ध की प्राचीन मूर्तियों पर स्वस्तिक चिह्न अंकित हुए मिले हैं। जापानी लोग स्वस्तिक को मन जी कहते हैं और धर्म-प्रतीकों में उसका समावेश करते हैं।

विभिन्न देशों में स्वस्तिक का महत्त्व

मध्य एशिया के देशों में स्वस्तिक चिह्न मांगलिक एवं सौभाग्य सूचक माना जाता रहा है। नेपाल में 'हेरंब' तथा बर्मा में 'महा पियेन्ने' के नाम से पूजित हैं। मिस्र में सभी देवताओं के पहले कुमकुम से क्रॉस की आकृति बनाई जाती है। वह 'एक्टोन' के नाम से पूजित है। यूरोप और अमेरिका की प्राचीन सभ्यता में स्वस्तिक का प्रयोग होते रहने के प्रमाण मिलते हैं। ईरान, यूनान, मिश्र, मैक्सिको और साइप्रस में की गई खुदाइयों में जो मिट्टी के प्राचीन बर्तन मिले हैं, उनमें से अनेक पर स्वस्तिक चिह्न हैं। ऑस्ट्रेलिया तथा न्यूजीलैण्ड के मावरी आदिवासियों द्वारा आदिकाल से स्वस्तिक को मंगल प्रतीक के रूप में प्रयुक्त किया जाता रहा है। ऑस्ट्रिया के राष्ट्रीय संग्रहालय में अपोलो देवता की एक प्रतिमा है, जिस पर स्वस्तिक चिह्न बना हुआ है। टर्की में ईसा से 2200 वर्ष पूर्व के ध्वज-दण्डों में अंकित स्वस्तिक चिह्न मिले हैं। एथेन्स में शत्रागार के सामने यह चिह्न बना हुआ है। स्कॉटलैण्ड और आयरलैण्ड में अनेक ऐसे प्राचीन पत्थर मिले हैं, जिन पर स्वस्तिक चिह्न अंकित हैं। प्रारम्भिक ईसाई स्मारकों पर भी स्वस्तिक चिह्न देखे गये हैं। कुछ ईसाई पुरातत्त्ववेत्ताओं का विचार है कि- "ईसाई धर्म के प्रतीक क्रॉस का भी प्राचीनतम रूप स्वस्तिक ही है। छठी शताब्दी में चीनी राजा वू ने स्वस्तिक को सूर्य के प्रतीक के रूप में मानने की घोषणा की थी।" तिब्बती स्वस्तिक को अपने शरीर पर गुदवाते हैं तथा चीन में इसे दीर्घायु एवं कल्याण का प्रतीक माना जाता है। विभिन्न देशों की रीति-रिवाज के अनुसार पूजा पद्धति में परिवर्तन होता रहता है। सुख समृद्धि एवं रक्षित जीवन के लिए ही स्वस्तिक पूजा का विधान है।[1]

बेल्जियम में 'नामूर संग्रहालय' में एक ऐसा उपकरण है, जो हड्डी से बना हुआ है। उस पर क्रॉस के कई चिह्न बने हुए हैं तथा उन चिह्नों के बीच में एक स्वस्तिक चिह्न भी है। इटली के अनेक प्राचीन अस्थि कलशों पर भी स्वस्तिक चिह्न हैं। इटली के संग्रहालय में रखे एक भाले पर भी स्वस्तिक का चिह्न हैं। वहाँ के अनेक प्राचीन अस्थिकलशों पर भी स्वस्तिक चिह्न मिलते हैं। स्वस्तिक को सुख और सौभाग्य का प्रतीक मानते हैं। वे आज भी इसे अपने आभूषणों में धारण करते हैं। जब जर्मनी में नात्सियों ने इसे विशुद्ध आर्यत्व का प्रतीक घोषित किया तो इसका विश्वव्यापी महत्त्व हो गया। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जर्मनी की नाजी पार्टी के लोग स्वस्तिक के निशान को बहुत ही महत्त्वपूर्ण एवं संभावनाओं से भरा हुआ माध्यम मानते थे। जर्मनी के तानाशाह एडोल्फ हिटलर ने उल्टे स्वस्तिक का चिह्न (वामावर्त स्वस्तिक) अपनी सेना के प्रतीक रूप में और ध्वज में शामिल किया था। सभी सैनिकों की वर्दी एवं टोपी पर यह उल्टा स्वस्तिक चिह्न अंकित था। उल्टा स्वस्तिक ही उसकी बर्बादी का कारण बना। उसके शासन का नाश हुआ एवं भारी तबाही के साथ युद्ध में उसकी हार हुई।



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