भारत की वास्तुकला का इतिहास

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
आशा चौधरी (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:04, 28 अगस्त 2010 का अवतरण ('==भव्यों मन्दिरों का निर्माण== आठवीं शताब्दी के बाद औ...' के साथ नया पन्ना बनाया)
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ:नेविगेशन, खोजें

भव्यों मन्दिरों का निर्माण

आठवीं शताब्दी के बाद और विशेषकर दसवीं से बारहवीं शताब्दी के बीच का काल मन्दिर निर्माण कला का चरमोत्कर्ष माना जा सकता है। आज हम जिन भव्यों मन्दिरों को देखते हैं, उनमें से अधिकतर उसी काल में बनाये गए थे। इस काल की मन्दिर निर्माण कला की मुख्य शैली 'नागर' नाम से जानी जाती है। यद्यपि इस शैली के मन्दिर सारे भारत में पाए जाते हैं तथापि इनके मुख्य केन्द्र उत्तर भारत और दक्कन में थे। इसकी प्रमुख विशेषता 'प्रतिमा-कक्ष' (जिसे गर्भगृह कहा जाता है) के ऊपर की छत थी, जो गोल और बड़ी होती थी। यद्यपि इसके हर तरफ़ प्रक्षेप हो सकते थे। 'प्रतिमा कक्ष' से लगा एक और कमरा होता था जिसे 'मंडप' कहते थे और कभी-कभी मन्दिर के चारों ओर बड़ी-बड़ी दीवारें होती थीं जिनमें बड़े-बड़े फाटक थे। इस शैली के प्रमुख उदाहरण मध्य प्रदेश में खजुराहो तथा उड़ीसा में भुवनेश्वर के मन्दिर हैं। विश्वनाथ मन्दिर तथा खजुराहो का कंदरिया महादेव का मन्दिर इस शैली के उत्कृष्ट और सुन्दरतम उदाहरण हैं। इन मन्दिरों पर बारीक खुदाइयों से पता चलता है कि इस काल में मूर्ति कला अपने शिखर पर थी। इनमें से अधिकतर मन्दिरों का निर्माण चंदेलों ने किया था जो इस क्षेत्र में नवीं शताब्दी के आरम्भ से लेकर तेरहवीं शताब्दी के अन्त तक राज्य करते रहे। उड़ीसा में इस काल के मन्दिर निर्माण का सबसे उत्कृष्ट उदाहरण कोणार्क का सूर्य मन्दिर (13 वीं शताब्दी) तथा लिंगराज मन्दिर (11 वीं शताब्दी में निर्मित) हैं। पुरी का प्रसिद्ध जगन्नाथ मन्दिर भी इसी काल की देन है।

उत्तर भारत के और स्थानों में मथुरा, वाराणसी, दिलवाड़ा (आबू) आदि में भी बड़ी संख्या में मन्दिरों का निर्माण हुआ। दक्षिण भारत की तरह यहाँ भी मन्दिर और अधिक होते गए। ये सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन के केन्द्र भी थे। इनमें से सोमनाथ मन्दिर जैसे कुछ मन्दिरों ने अपार सम्पत्ति इकट्ठी कर ली। ये कई गाँव पर शासन करने लगे। उन्होंने व्यापार में भी भाग लिया।

राजपूत शासक कला और साहित्य को बढ़ावा देते थे। इस काल में संस्कृत की कई पुस्तकों और नाटकों की रचना हुई। चालुक्य का प्रसिद्ध मंत्री, 'भीम' न केवल विद्वानों को संरक्षण देता था बल्कि स्वयं भी एक लेखक था। उसने आबू के सुन्दर जैन मन्दिर का निर्माण करवाया।

परमार शासकों की राजधानी उज्जैन भी संस्कृत ज्ञान के केन्द्र के रूप में प्रसिद्ध थी। इसके अलावा इन क्षेत्रों की प्रतिनिधि भाषाओं, अपभ्रंश और प्राकृत, में भी रचनाएँ की गईं। इस कार्य में जैन विद्वानों ने भी महत्वपूर्ण योगदान दिया। इनमें से सबसे प्रसिद्ध हेमचन्द्र थे जिन्होंने संस्कृत के अलावा अपभ्रंश में भी रचनाएँ कीं। ब्राह्मणों के शक्तिशाली होने के बाद उच्च वर्गों में अपभ्रंश और प्राकृत का स्थान संस्कृत ने ले लिया। इसके बावजूद ऐसी भाषा जो जनभाषा के क़रीब थी प्रचलित रही और उसमें रचनाएँ होती रहीं। इन लोकप्रिय भाषाओं से हिन्दी, बंगला, मराठी जैसी उत्तर भारत की आधुनिक भाषाओं का विकास आरम्भ हो गया।


पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

टीका टिप्पणी और संदर्भ