कामिल बुल्के

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कामिल बुल्के
फ़ादर कामिल बुल्के
फ़ादर कामिल बुल्के
पूरा नाम फ़ादर कामिल बुल्के
जन्म 1 सितम्बर 1909
जन्म भूमि बेल्जियम
मृत्यु 17 अगस्त 1982
मृत्यु स्थान दिल्ली
मुख्य रचनाएँ रामकथा : उत्पत्ति और विकास, अंग्रेजी-हिन्दी शब्दकोश, मुक्तिदाता, नया विधान, हिन्दी-अंग्रेजी लघुकोश, बाइबिल (हिन्दी अनुवाद)
विद्यालय कलकत्ता विश्वविद्यालय, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, यूवेन विश्वविद्यालय, यूरोप
शिक्षा इंजीनियरिंग, एम. ए., बी.ए.
पुरस्कार-उपाधि पद्म भूषण
इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची

फ़ादर कामिल बुल्के (अंग्रेज़ी:Camille Bulcke जन्म: 1 सितम्बर 1909 - मृत्यु: 17 अगस्त 1982) बेल्जियम से भारत आकर मृत्युपर्यंत हिंदी, तुलसीदास और वाल्मीकि के भक्त रहे। उन्हें साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में भारत सरकार द्वारा सन् 1974 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था। फ़ादर कामिल बुल्के का जन्म 1 सितम्बर 1909 को बेल्जियम की फ्लैंडर्स स्टेट के 'रम्सकपैले' गांव में हुआ था। 'यूवेन विश्वविद्यालय' से अभियांत्रिकी की शिक्षा समाप्त करने के बाद वह 1935 में भारत आए। सबसे पहले उन्होंने भारत का भ्रमण किया और भारत को अच्छी प्रकार से समझा। कुछ समय के लिए वह दार्जिलिंग में भी रहे और उसके बाद राँची और उसके बाद झारखंड के गुमला ज़िले के 'इग्नासियस विद्यालय' में गणित विषय का अध्यापन करने लगे। यहीं पर उन्होंने भारतीय भाषाएँ सीखनी प्रारम्भ कीं और उनके मन में हिन्दी भाषा सीखने की ललक पैदा हो गई, जिसके लिए वह बाद में प्रसिद्ध हुए। उन्होंने लिखा है-

'मैं जब 1935 में भारत आया तो अचंभित और दु:खी हुआ। मैंने महसूस किया कि यहाँ पर बहुत से पढ़े-लिखे लोग भी अपनी सांस्कृतिक परंपराओं के प्रति जागरूक नहीं हैं। यह भी देखा कि लोग अँगरेजी बोलकर गर्व का अनुभव करते हैं। तब मैंने निश्चय किया कि आम लोगों की इस भाषा में महारत हासिल करूँगा।'

हिन्दी का ज्ञान

बुल्के ने पंडित बदरीदत्त शास्त्री से हिन्दी और संस्कृत की शिक्षा प्राप्त की और 1940 में 'विशारद' की परीक्षा 'हिन्दी साहित्य सम्मेलन', प्रयाग से उत्तीर्ण की। उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय से संस्कृत में मास्टर्स डिग्री हासिल की(1942-1944)। कामिल बुल्के ने 1945-1949 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद से 'हिन्दी साहित्य' में शोध किया, उनका शोध विषय था 'राम कथा का विकास'। 1949 में ही वह 'सेंट जेवियर्स कॉलेज' राँची में हिन्दी व संस्कृत विभाग के विभागाध्यक्ष नियुक्त किए गए। सन् 1951 में उन्होंने भारत की नागरिकता ग्रहण की। कामिल बुल्के सन् 1950 में 'बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्' की कार्यकारिणी के सदस्य चुने गए। वह सन् 1972 से 1977 तक भारत सरकार की 'केन्द्रीय हिन्दी समिति' के सदस्य रहे।

कामिल बुल्के और 'रामचरितमानस'

धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन के लिए बुल्के के पास दर्शन का ज्ञान था। वह भारतीय दर्शन और साहित्य का व्यवस्थित रूप से अध्ययन करना चाहते थे। उन्होंने तुलसीदास के ग्रंथ रामचरित मानस को पढ़ा। वह रामचरित मानस से वह बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने रामचरित मानस का गहन अध्ययन किया। रामचरित मानस में उन्हें नैतिकता और व्यावहारिकता का आकर्षक समन्वय मिला। अत: उन्होंने अपने शोध का विषय 'रामकथा: उत्पत्ति और विकास' चुना। इस विषय पर उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से 'डॉक्टरेट' की उपाधि प्राप्त की। उनका यह कार्य भारत के साथ ही विश्व में प्रकाशित हुआ और इसके बाद पूरा विश्व बुल्के को जानने लगा।

उपलब्धि

बुल्के के द्वारा प्रस्तुत शोध की विशेषता थी कि यह मूलतः हिन्दी में प्रस्तुत किया गया पहला शोध प्रबंध है। फ़ादर बुल्के जिस समय इलाहाबाद में शोध कर रहे थे, उस समय सभी विषयों में शोध प्रबंध केवल अंग्रेज़ी भाषा में ही प्रस्तुत किए जाते थे। फ़ादर बुल्के ने आग्रह किया कि उन्हें हिन्दी में शोध प्रबंध प्रस्तुत करने की अनुमति दी जाए। इसके लिए शोध संबंधी नियमावली में परिवर्तन किया गया।

भाषा ज्ञान

बुल्के बहु-भाषाविद् थे। वह अपनी मातृभाषा 'फ्लेमिश' के अतिरिक्त अँगरेजी, फ्रेंच, जर्मन, लैटिन, ग्रीक, संस्कृत और हिन्दी पर भी संपूर्ण अधिकार रखते थे।

भारत की नागरिकता

1951 में भारत सरकार ने फ़ादर बुल्के को बड़े ही आदर के साथ भारत की नागरिकता प्रदान की। वह हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में प्रचारित करने वाली समिति के सदस्य बने। भारत के नागरिक बनने के बाद वह स्वयं को 'बिहारी' कहकर बुलाते थे।

हिन्दी साहित्यानुरागी

गजेंद्र नारायण सिंह जो कि फ़ादर कामिल बुल्के के छात्र रहे, वे बताते हैं कि- "मैं संत जेवियर्स कॉलेज में दाखिल हुआ था तो एक दिन समय निकालकर फ़ादर बुल्के से मिलने गया। उनके कमरे के बंद दरवाज़े पर दस्तक लगाते हुए मैंने कहा- 'में आई कम इन फ़ादर।' मेरे इतना कहते ही दरवाज़ा खुला और एक अत्यंत ही शांत, सौम्य, साधु पुरुष गर्दन पर भागलपुरी सिल्क की चादर लपेटे हुए खड़ा था। उन्होंने धीरे से गम्भीर स्वर में कहा- "अभी दरवाज़े पर दस्तक लगाते हुए आपने किसी भाषा का व्यवहार किया? क्या आपकी अपनी कोई बोली या भाषा नहीं है? आप स्वतंत्र राष्ट्र के नागरिक हैं, फिर भी विदेशी आंग्ल भाषा का व्यवहार हिन्दी के एक प्राध्यापक के पास क्यों कर रहे हैं? आपकी मातृभाषा क्या है?" प्रश्नों की झड़ी लगा दी उन्होंने। मैं अवाक स्तम्भ खड़ा रहा। उन्होंने मुझसे पूछा कि- "आपकी मातृभाषा क्या है?" मेरे द्वारा बताये जाने पर कि मैथली है, तो उन्होंने मुझसे निर्विकार भाव से कहा- "आइंदा जब आप मेरे पास आएं तो मैथली या हिन्दी मैं ही बात करेंगे, अंग्रेज़ी में कदापि नहीं।" हिन्दी के प्रति समर्पित ऐसे साहित्याअनुरागी बहुभाषाविद उस विदेशी संत प्राध्यापक की ओर निर्निमेष में ताकता ही यह गया।

अपने हिन्दीविद होने के कारण डॉ. बुल्के को देश-विदेश में बहुत सम्मान प्राप्त था। 1950 से ही वे 'बिहार राष्ट्रसभा परिषद' की कार्यकारिणी के सदस्य थे। वे 1972 से ही भारत सरकार की 'केंद्रीय हिन्दी समिति' के भी सदस्य थे। उन्हें 1973 में बेल्जियम की 'रॉयल अकादमी' का सदस्य बनाया गया था। उनके ‘रामकथा’ हिन्दी विषय की उपाधि के लिये हिन्दी में लिखित प्रथम शोध प्रबंध की भाषा के माध्यम के रूप में हिन्दी को पहली बार प्रतिष्ठित कराने का श्रेय उनका है। इसके लिए उन्हें बहुत संघर्ष करना पड़ा था। स्वर्गीय काका कालेलकर ने एक बार कहा था- "फ़ादर बुल्के तुलसी के अधिकाधिक समीप पहुंचने के लिए जीवन भर प्रयत्नशील रहे।" कॉलेज मंच पर भाषण देते हुए उन्होंने कहा था- संस्कृत राजमाता है, हिन्दी बहूरानी है और अग्रेज़ी नौकरानी है। पर नौकरानी के बिना भी काम नहीं चलता।

अपने धर्म के प्रति आस्था

एक बार किसी कॉलेज में आयोजित 'तुलसी जयंती' पर कामिल बुल्के आमंत्रित थे। स्वागतकर्ता ने अपने स्वागत भाषण में कहा कि- "डॉ. बुल्के राम के अनन्य भक्त हैं।" इस पर प्रतिकार करते हुए उन्होंने कहा कि- "मैं तो कैथोलिक ईसाई पादरी हूं। मेरे लिए राम ईश्वर रूप नहीं हो सकते। मेरे लिये तो वंदनीय केवल ईसा मसीह हैं।" अपने मज़हब और उसके प्रति अटूट आस्था कामिल बुल्के में थी। बावजूद इस रूढ़ि और कट्टरता के वे 'तुलसी साहित्य' के प्रशंसक और ‘मानस’ के अनुरागी थे। वे अक्सर कहते थे कि- "गोस्वामी तुलसीदास विश्व के महान कवियों में थे और उनकी रचनाओं में ज्ञान का अक्षय भंडार छिपा है।"

'पद्मभूषण' सम्मान

कामिल बुल्के की हिन्दी सेवाओं के लिये 1974 में भारत सरकार ने उन्हें 'पद्मभूषण' की उपाधि दी। उस समय फ़ादर अक्सर कहते थे- "इस उपाधि के बाद बहुत-सा समय लोगों के साथ चला जाता है।" वे एक पल भी बेकार गंवाना पसंद नहीं करते थे। फ़ादर हिन्दी के इतने सबल पक्षधर थे कि सामान्य बातचीत में भी अग्रेज़ी शब्द का प्रयोग उन्हें पसंद नहीं था। उन्हें इस बात का दु:ख था कि हिन्दी वाले अपनी हिन्दी का सम्मान नहीं करते। उनका विचार था- "दुनिया भर में शायद ही कोई ऐसी विकसित साहित्य भाषा हो जो हिन्दी की सरलता की बराबरी कर सके।" उन्हें इस बात का दर्द था की हिन्दीभाषी और हिन्दी संस्थाएं हिन्दी को खा गए। जब भी कोई उनसे अंग्रेज़ी में बोलता था, वे पूछ लेते थे- "क्या तुम हिन्दी नहीं जानते?"

रचनाएँ

बुल्के ने बाइबिल का हिन्दी अनुवाद भी किया। मॉरिस मेटरलिंक के प्रसिद्ध नाटक 'द ब्लू बर्ड' का नील पंछी नाम से बुल्के ने अनुवाद किया। उनकी छोटी-बड़ी कुल मिलाकर उन्होंने क़रीब 29 किताबें लिखीं। उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं -

  1. रामकथा : उत्पत्ति और विकास
  2. अंग्रेजी-हिन्दी शब्दकोश
  3. मुक्तिदाता
  4. नया विधान
  5. हिन्दी-अंग्रेजी लघुकोश
  6. नीलपक्षी
  7. बाइबिल (हिन्दी अनुवाद)
  • उनके द्वारा तैयार किया 'अंग्रेजी-हिन्दी शब्दकोश' आज भी प्रामाणिकता और उपयोगिता की दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ माना जाता है।
हिन्दी-अँगरेजी शब्दकोश

बुल्के आजीवन हिन्दी की सेवा में लगे रहे। हिन्दी-अँगरेजी शब्दकोश के निर्माण के लिए वे सतत प्रयत्नशील रहे। वर्ष 1968 में अंग्रेजी हिन्दी कोश प्रकाशित हुआ जो आज भी सबसे प्रामाणिक शब्दकोष माना जाता है। उन्होंने इसमें 40 हज़ार शब्द जोड़े और इसे आजीवन अद्यतन भी करते रहे।

हरिवंशराय बच्चन की कविता

फ़ादर कामिल बुल्के जी को सम्मान देते हुए हरिवंशराय बच्चन ने 'तुम्हें प्रणाम' शीर्षक से एक कविता लिखी थी, जो निम्न प्रकार है-

फादर बुल्के तुम्हें प्रणाम!

जन्मे और पले योरुप में
पर तुमको प्रिय भारत धाम
फादर बुल्के तुम्हें प्रणाम!
रही मातृभाषा योरुप की
बोली हिन्दी लगी ललाम
फादर बुल्के तुम्हें प्रणाम!
ईसाई संस्कार लिए भी
पूज्य हुए तुमको श्रीराम
फादर बुल्के तुम्हें प्रणाम!
तुलसी होते तुम्हें पगतरी
के हित देते अपना चाम
फादर बुल्के तुम्हें प्रणाम!
सदा सहज श्रद्धा से लेगा
मेरा देश तुम्हारा नाम

फादर बुल्के तुम्हें प्रणाम!

कथन

फ़ादर बुल्के ने कहा -

'1938 में मैंने हिन्दी के अध्ययन के दौरान रामचरित मानस तथा विनय पत्रिका का परिशीलन किया। इस अध्ययन के दौरान रामचरित मानस की ये पंक्तियाँ पढ़कर अत्यंत आंनद का अनुभव हुआ-
धन्य जनमु जगतीतल तासू।
पितहि प्रमोद चरित सुनि जासू॥
चारि पदारथ करतल ताके।
प्रिय पितु-मातु प्रान सम जाके।

दिल्ली विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के पूर्व अध्यक्ष प्रोफ़ेसर नित्यानंद तिवारी कहते हैं-

'फ़ादर कामिल बुल्के और मैंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय में हिन्दी के प्राध्यापक डॉक्टर माता प्रसाद गुप्त के निर्देशन में अपना शोध कार्य पूरा किया था। मैंने उनमें हिन्दी के प्रति हिन्दी वालों से कहीं ज़्यादा गहरा प्रेम देखा। ऐसा प्रेम जो भारतीय जड़ों से जुड़ कर ही संभव है। उन्होंने रामकथा और रामचरित मानस को बौद्धिक जीवन दिया।'

निधन

फ़ादर कामिल बुल्के की मृत्यु गैंग्रीन के कारण 17 अगस्त 1982 को दिल्ली में हुई।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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