भाग-1 प्रेरक वार्तालाप
(मंगलाचरण)
गनपति कृपानिधान विद्या वेद विवेक जुत।
छेहु मोहिं वरदान हर्ष सहित हरिगुन कहौ।।1।।
हरिचरित बहु भाई सेस दिनेस न कहि सकै।
प्रेम सहित चित लाइ सुनौ सुदामा की कथा।।2।।
विप्र सुदामा बसत हैं, सदा आपने धाम।
भीख माँगि भोजन करैं, हिये जपत हरि-नाम॥3॥
ताकी घरनी पतिव्रता, गहे वेद की रीति।
सलज सुशील, सुबुद्धि अति, पति सेवा सौं प्रीति॥4॥
कह्यौ सुदामा एक दिन, कृस्न हमारे मित्र।
करत रहति उपदेस गुरु, ऐसो परम विचित्र॥5॥
(सुदामा की पत्नी)
महादानि जिनके हितू, हैं हरि जदुकुल- चंद।
दे दारिद-सन्ताप ते, रहैं न क्यों निरद्वन्द।।6।।
(सुदामा)
कह्यौ सुदामा, बाम सुनु, बृथा और सब भोग।
सत्य भजन भगवान को, धर्म-सहित जग जोग।।7।।
(सुदामा की पत्नी)
लोचन-कमल, दु:ख मोचन तिलक भाल,
स्रवननि कुंडल, मुकुट धरे माथ हैं।
ओढ़े पीत बसन, गरे में बैजयंती माल,
संख-चक्र-गदा और पद्म लिये हाथ हैं।
विद्व नरोत्तम संदीपनि गुरु के पासए
तुम ही कहत हम पढ़े एक साथ हैं।
द्वारिका के गये हरि दारिद हरैंगे पियए
द्वारिका के नाथ वै अनाथन के नाथ हैं॥8॥
(सुदामा)
सिच्छक हौं सिगरे जग को तियए ताको कहाँ अब देति है सिच्छा।
जे तप कै परलोक सुधारतए संपति की तिनके नहि इच्छा॥
मेरे हिये हरि के पद पंकज, बार हजार लै देखि परिच्छा।
औरन को धन चाहिये बावरिए ब्राह्मन को धन केवल भिच्छा॥9॥
(सुदामा की पत्नी)
दानी बडे तिहु लोकन में जग जीवत नाम सदा जिनकौ लै।
दीनन की सुधि लेत भली बिधि सिद्वि करौ पिय मेरो मतो लै।
दीनदयाल के द्वार न जात सो, और के द्वार पै दीन ह्वै बोलै।
श्री जदुनाथ के जाके हितू सो, तिहूँपन क्यों कन मॉगत डोलै।।10।।
(सुदामा)
छत्रिन के पन जुद्ध- जुवा सजि बाजि चढै गजराजन ही।
बैस के बानिज और कृसीपन, सुद्र को सेवन साजन ही।
बिप्रन के पन है जु यही, सुख सम्पति को कुछ काज नहीं।
कै पढिबो कै तपोधन है, कन मॉगत बॉभनै लाज नहीं।।11।।
(सुदामा की पत्नी)
कोदोंए सवाँ जुरितो भरि पेटए तौ चाहति ना दधि दूध मठौती।
सीत बितीतत जौ सिसियातहिंए हौं हठती पै तुम्हें न हठौती॥
जो जनती न हितू हरि सों तुम्हेंए काहे को द्वारिका पेलि पठौती।
या घर ते न गयौ कबहूँ पियए टूटो तवा अरु फूटी कठौती।।12।।
(सुदामा)
छाँड़ि सबै जक तोहि लगी बकए आठहु जाम यहै झक ठानी।
जातहि दैहैंए लदाय लढ़ा भरिए लैहैं लदाय यहै जिय जानी॥
पाँउ कहाँ ते अटारि अटाए जिनको विधि दीन्हि है टूटि सी छानी।
जो पै दरिद्र लिखो है ललाट तौए काहु पै मेटि न जात अयानी॥13॥
(सुदामा की पत्नी)
पूरन पैज करी प्रह्लाद की , खम्भ सों बॉध्यो कपता जिहि बेरे।
द्रौपदि ध्यान धरयो जब हीं, तबहीं पट कोटि लगे चहूँ फेरे।
ग्राह ते छूटि गयो पिय, याहिं सो है निहचै जिय मेरे।
ऐसे दरिद्र हजार हरैं वे, कृपानिधि लोवन कोर के हेरे।।14।।
(सुदामा)
चक्कवे चौंकि रहे चकि से, जहॉ भूले से भूप मितेक गिनाऊँ।
देव गंधर्व और किन्नर -जच्छ से,सॉझ लौं ठाढे रहैं जिहि ठाऊँ।।15।।
(सुदामा की पत्नी)
भूले से भूप अनेक खरे रहैं , ठाढै रहै तिमि चक्कवे भारी।
छेव गन्धर्व ओ किन्नर जच्छ से, रोके जे लोकन के अधिकारी।
अन्तरजामी ते आपुही जानिहैं, मानो यहै सिखि आजु हमारी।
द्वारिका नाथ के द्वार गए, सबतें पहिले सुधि लैहें तिहारी।।16।।
(सुदामा)
दीन दयाल को ऐसोई द्वार है, दीनन की सुधि लेत सदाई।
द्रोपदी तैं, गज तैं, प्रह्लाद तैं, जानि परी न विलम्ब लगाई।
याहि ते भावति मो मन दीनता, जो निवहै निबही जस आई।
जौ ब्रजराज सौ प्रीति नहीं, केहि काज सुरेसहु की ठकुराई।।17।।
(सुदामा की पत्नी)
फाटे पट, टूटी छानि भीख मॉगि -मॉगि खाय,
बिना जग्य बिमुख रहत देव - पित्रई।
वे हैं दीनबन्धु दुखी देखि कै दयालु ह्वै हैं,
दे हैं कुछ जौ सौ हौं जानत अगत्रई।
द्वारिका लौ जात पिय! एतौ अरसात तुम,
कहे कौ लजात कौन-सी विचित्रई।
जौ पै सब जन्म या दरिद्र ही सतायौ तोपै,
कौन काज आइहै, कृपानिधि की मित्रई।।18।।
(सुदामा)
तैं तो कही नीकी सुनु बात ही की यह,
रीति मित्रई की नित प्रीति सरसाइए।
मित्र के मिलते मित्र धाइए परसपर,
मित्र क जौ जेंइए तौ आपहू जेवाइए।
वे हैं महाराज जोरि बैठत समाज भूप,
तहॉ यहि रूपजाइ कहा सकुचाइए।
सुख-दुख के दिन तौ काटे ही बनैगे भूलि,
बिपति परे पैद्वार मित्र के न जाइये।।19।।
(सुदामा की पत्नी)
विप्र के भगत हरि जगत विदित बंधुए
लेत सब ही की सुधि ऐसे महादानि हैं।
पढ़े एक चटसार कही तुम कैयो बारए
लोचन अपार वै तुम्हैं न पहिचानि हैं।
एक दीनबंधु कृपासिंधु फेरि गुरुबंधुए
तुम सम कौन दीन जाकौ जिय जानि हैं।
नाम लेते चौगुनीए गये तें द्वार सौगुनी सोए
देखत सहस्त्र गुनी प्रीति प्रभु मानिहैं॥20॥
(सुदामा)
प्रीति में चूक नहीं उनके हरि, मो मिलिहैं उठि कंठ लगाइ कै।
द्वार गये कुछ दैहै पै दैहैं , वे द्वारिकानाथ जू है सब लाइके।
जे विधि बीत गये पन द्वै, अब तो पहुंचो बिरधपान आइ कै।
जीवन शेष अहै दिन केतिक, होहूं हरी सो कनावडो जाइ कै।।21।।
(सुदामा की पत्नी)
हूजै कनावडों बार हजार लौं, जौ हितू दीनदयालु से पाइए।
तीनहु लोक के ठाकुर जे, तिनके दरबार न जात लजाइए।
मेरी कही जिय में धरि कै पिय, भूलि न और प्रसंग चलाइए।
और के द्वार सो काज कहा पिय, द्वारिकानाथ के द्वारे सिधारिए।।22।।
(सुदामा)
द्वारिका जाहु जू द्वारिका जाहु जूए आठहु जाम यहै झक तेरे।
जौ न कहौ करिये तो बड़ौ दुखए जैये कहाँ अपनी गति हेरे॥
द्वार खरे प्रभु के छरिया तहँए भूपति जान न पावत नेरे।
पाँच सुपारि तै देखु बिचार कैए भेंट को चारि न चाउर मेरे॥23॥
यह सुनि कै तब ब्राह्मनीए गई परोसी पास।
पाव सेर चाउर लियेए आई सहित हुलास॥24॥
सिद्धि करी गनपति सुमिरिए बाँधि दुपटिया खूँट।
माँगत खात चले तहाँए मारग वाली बूट॥25॥