भाग-2 सुदामा का द्वारिका गमन
(सुदामा)
तीन दिवस चलि विप्र के, दूखि उठे जब पॉय।
एक ठौर सोए कहूँ, घास पयार बिछाय।।26।।
अन्तरयामी आपु हरि, जानि भगत की पीर।
सोवत लै ठाढौ कियो, नदी गोमती तीर।।27।।
इतै गोमती दरस तें, अति प्रसन्न भौ चित।
बिप्र तहॉ असनान करि, कीन्हो नित्त निमित्त।।28।।
भाल तिलक घसि कै दियो, गही सुमिरनी हाथ,
देखि दिव्य द्वारावती, भयो अनाथ सनाथ।।29।।
दीठि चकचौंधि गई देखत सुबर्नमईए
एक तें सरस एक द्वारिका के भौन हैं।
पूछे बिन कोऊ कहूँ काहू सों न करे बातए
देवता से बैठे सब साधि.साधि मौन हैं।
देखत सुदामा धाय पौरजन गहे पाँयए
कृपा करि कहौ विप्र कहाँ कीन्हौ गौन हैं।
धीरज अधीर के हरन पर पीर केए
बताओ बलवीर के महल यहाँ कौन हैं॥30॥
दीन जानि काहू पुरूस, कर गहि लीन्हों आय।
दीन द्वार ठाढो कियो, दीनदयाल के जाय।।31।।
द्वारपाल द्विज जानि कै, कीन्हीं दण्ड प्रनाम।
विप्र कृपा करि भाषिये, सकुल आपनो नाम।।32।।
नाम सुदामा, कृस्न हम, पढे. एकई साथ।
कुल पाँडे वृजराज सुति, सकल जानि हैं गाथ।।33।।
द्वारपाल चलि तहँ गयो, जहाँ कृस्न यदुराय।
हाथ जोडि. ठाढो भयो, बोल्यो सीस नवाय।।34।।
- श्रीकृष्ण का द्वारपालद् सुदामा से)
सीस पगा न झगा तन में प्रभुए जानै को आहि बसै केहि ग्रामा।
धोति फटी.सी लटी दुपटी अरुए पाँय उपानह की नहिं सामा॥
द्वार खड्यो द्विज दुर्बल एकए रह्यौ चकिसौं वसुधा अभिरामा।
पूछत दीन दयाल को धामए बतावत आपनो नाम सुदामा।।35।।
बोल्यौ द्वारपाल सुदामा नाम पाँड़े सुनिए
छाँड़े राज.काज ऐसे जी की गति जानै को?
द्वारिका के नाथ हाथ जोरि धाय गहे पाँय
भेंटत लपटाय करि ऐसे दु:ख सानै को?
नैन दोऊ जल भरि पूछत कुसल हरि
बिप्र बोल्यौं विपदा में मोहि पहिचाने को
जैसी तुम करौ तैसी करै को कृपा के सिंधु
ऐसी प्रीति दीनबंधु! दीनन सौ माने को?।।36।।
लोचन पूरि रहे जल सों, प्रभु दूरिते देखत ही दु:ख मेट्यो।
सोच भयो सुरनायक के कलपद्रुम के हित माँझ सखेट्यो।
कम्प कुबेर हियो सरस्यो, परसे पग जात सुमेरू ससेट्यो।
रंक ते राउ भयो तबहीं, जबहीं भरि अंक रमापति भेट्यो।।37।।
भेंटि भली विधि विप्र सों, कर गहिं त्रिभुवन राय।
अन्तःपुर माँ लै गए, जहाँ न दूजो जाय।।38।।
मनि मंडित चौकी कनक, ता ऊपर बैठाय।
पानी धर्यो परात में, पग धोवन को लाय।।39।।
राजरमनि सोरह सहस, सब सेवकन सनीति।
आठो पटरानी भई चितै चकित यह प्रीति।40।।
जिनके चरनन को सलिल, हरत गत सन्ताप।
पाँय सुदामा विप्र के धोवत, ते हरि आप।।41।।
ऐसे बेहाल बेवाइन सों पगए कंटक.जाल लगे पुनि जोये।
हाय! महादुख पायो सखा तुमए आये इतै न किते दिन खोये॥
देखि सुदामा की दीन दसाए करुना करिके करुनानिधि रोये।
पानी परात को हाथ छुयो नहिंए नैनन के जल सौं पग धोये॥।।42।।
धोइ चरन पट-पीत सों, पोंछत भे जदुराय।
सतिभामा सों यों कह्यो, करो रसोई जाय।।43।।
तन्दुल तिय दीन्हें हुते, आगे धरियो जाय।
देखि राज -सम्पति विभव, दै नहिं सकत लजाय।।44।।
अन्तरजामी आपु हरि, जानि भगत की रीति।
सुहृद सुदामा विप्र सों, प्रगट जनाई प्रीति।।45।।
(प्रभु श्री कृष्ण सुदामा से)
कछु भाभी हमको दियौए सो तुम काहे न देत।
चाँपि पोटरी काँख मेंए रहे कहौ केहि हेत॥।।46।।
आगे चना गुरु.मातु दिये तए लिये तुम चाबि हमें नहिं दीने।
श्याम कह्यौ मुसुकाय सुदामा सोंए चोरि कि बानि में हौ जू प्रवीने॥
पोटरि काँख में चाँपि रहे तुमए खोलत नाहिं सुधा रस भीने।
पाछिलि बानि अजौं न तजी तुमए तैसइ भाभी के तंदुल कीने॥।।47।।
छोरत सकुचत गॉठरी, चितवत हरि की ओर।
जीरन पट फटि छुटि पर्यो, बिथिर गये तेहि ठोर।।48।।
एक मुठी हरि भरि लई, लीन्हीं मुख में डारि।
चबत चबाउ करन लगे, चतुरानन त्रिपुरारि।।49।।
कांपि उठी कमला मन सोचति, मोसोंकह हरि को मन औंको।
ऋद्धि कॅपी, सबसिद्धि कॅपी, नव निद्धि कॅपी बम्हना यह धौं को।।
सोच भयो सुर-नायक के, जब दूसरि बार लिया भरि झोंको।
मेरू डर्यो बकसै जनि मोहिं, कुबेर चबावत चाउर चौंको।।50।।
हूल हियरा मैं सब काननि परी है टेर,
भेंटत सुदामै स्याम चाबि न अघातहीं।
कहै नरात्तम रिद्धि सिद्धिन में सोर भयो,
डाढी थरहरक और सोचें कमला तहीं।
नाकलोक नागलोक ओक ओक थोकथोक,
ठाढे थारहरै मुचा सूखे सब गात ही।
हाल्यो पर्यो थोकन में लाल्यो पर्यो,
चाल्यो पर्यो चौकन में, चाउर चबात ही।।51।।
भौन भरो पकवान मिठाइन, लोग कहैं निधि हैं सुखमा के।
साँझ सबेरे पिता अभिलाखत , दाख न चाखत सिंधु छमा के।
बाँभन एक कोऊ दुखिया सेर-पावैक चाउर लायो समाँ के।
प्रीति की रीति कहा कहिये, तेहि बैठि चबात हैं कन्त रमा के।।52।।
मूठी तीसरी भरत ही, रूकुमनि पकरी बाँह।
ऐसी तुम्हैं कहा भई, सम्पति की अनचाह।।53।।
कह्यो रूकुमिनी कान मैं, यह धौ कौन मिलाप।
कहत सुदामहिं आपसों, होत सुदामा आप।।54।।
यहि कौतुक के समय में , कही सेवकनि आय।
भई रसोई सिद्ध प्रभु, भोजन करिये आय।।55।।
थ्वप्र सुदामहिं न्हाय कर, धोती पहरि बनाय।
सन्ध्या करि मध्यान्ह की, चौका बैठे जाय।।56।।
रूपे के रुचिर धार पायस सहित सिता,
सोभा सब जीती जिन सरद के चन्द की।
दूसरे परोसा भात सोधों सुरभी को घृत,
फूले फूले फुलका प्रफुल्ल दुति मन्द की।
पपर-मुंगौरी - बरी व्यंजन अनेक भाँति,
देवता बिलोकि छवि देवकी के नन्द की।
या विधि सुदामा जू को आछे कैं जँवाएँ प्रभु,
पाछै केँ पछ्यावरि परोसी आनि कन्द की।।57।।
दाहिने वबद पढैं चतुरानन, सामुहें ध्यान महेस धर्यो है।
बाएँ दोऊ कर जोरि सुसेवक, देवन साथ सुरेश खर्यो है।
एतेई बीच अनेक लिये धन, पायन आय कुबेर पर्यो है।
छेखि विभौ अपनो सपनो, बपुरो वह बाभन चौंकि पर्यो है।।58।।
सात दिवस यहि विधि रहे, दिन आदर भाव।
चित्त चल्यौ घर चलन कौं, ताकर सुनौं बनाव।।59।।
देनो हुतौ सो दै चुकेए बिप्र न जानी गाथ।
चलती बेर गोपाल जूए कछू न दीन्हौं हाथ॥।।60।।
वह पुलकनि वह उठ मिलनिए वह आदर की भाँति।
यह पठवनि गोपाल कीए कछू ना जानी जाति॥।।61।।
घर.घर कर ओड़त फिरेए तनक दही के काज।
कहा भयौ जो अब भयौए हरि को राज.समाज॥।।62।।
हौं कब इत आवत हुतौए वाही पठ्यौ ठेलि।
कहिहौं धनि सौं जाइकैए अब धन धरौ सकेलि॥।।63।।
बालापन के मित्र हैं, कहा देउँ मैं सराप।
जैसी हरि हमको दियौ, तैसों पइहैं आप।।64।।
नौगुन धारी छगुन सों, तिगुने मध्ये में आप।
लायो चापल चौगुनी, आठौं गुननि गँवाय।।65।।
और कहा कहिए दसा, कंचन ही के धाम।
निपट कठिन हरि को हियों, मोको दियो न दाम।।66।।
बहु भंडार रतनन भरे, कौन करे अब रोष।
लाग आपने भाग को, काको दीजै दोस।।67।।
इमि सोचत सोचत झींखत, आयो निज पुर तीर।
दीठि परी इक बार ही, अय गयन्द की भीर।।68।।
हरि दरसन से दूरि दु:ख भयो, गये निज देस।
गौतम ऋषि को नाऊ लै, कीन्हों नगर प्रवेस।।69।।