रूप गोस्वामी की भजनकुटी

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उत्तर प्रदेश के वृन्दावन नगर में कदम्ब टेर से सटी हुई पश्चिम में श्री रूप गोस्वामी की भजनकुटी स्थित है। श्री रूपगोस्वामी कृष्ण की मधुर लीलाओं की स्मृति के लिए प्राय: इस निर्जन स्थली में भजन करते थे। वे यहाँ पर अपने प्रिय ग्रन्थों की रचना भी करते थे। उन्हें जब कभी-कभी महाभावमयी राधिका के विप्रलम्भ भावों की स्फूर्ति होती, तो हठात् इनके मुख से विप्रलम्भ भावमय श्लोक निकल आते थे। उस समय यहाँ के कदम्ब वृक्षों के सारे पत्ते उस विरहाग्नि में सूखकर नीचे गिर जाते तथा पुन: इनके हृदय में युगल मिलन की स्फूर्ति होते ही, इनके पदों को सुनकर कदम्ब वृक्षों में नई-नई कोपलें निकल आती थीं ।

एक कथा

एक समय श्री सनातन गोस्वामी श्री रूप गोस्वामी से मिलने के लिए यहाँ आये। उन दोनों में कृष्ण की रसमयी कथाएँ होने लगीं। दोनों कृष्ण कथा में इतने आविष्ट हो गये कि उन्हें समय का ध्यान नहीं रहा। दोपहर के पश्चात् आवेश कुछ कम होने पर श्रीरूप गोस्वामी ने सोचा प्रसाद ग्रहण करने का समय हो गया है, किन्तु मेरे पास कुछ भी नहीं है, जो श्री सनातन गोस्वामी को खिला सकूँ। इसलिए कुछ चिन्तित हो गये, इतने में ही साधारण वेश में एक सुन्दर-सी बालिका वहाँ उपस्थित हुई और रूप गोस्वामी को कहने लगी- बाबा! मेरी मैया ने चावल, दूध और चीनी मेरे हाथों से भेजी है, तुम शीघ्र खीर बनाकर खा लेना। यह कहकर वह चली गई। किन्तु थोड़ी देर में वह पुन: लौट आई। बाबा! तुम्हें बातचीत करने से ही अवसर नहीं। अत: मैं स्वयं ही पकाकर देती हूँ। ऐसा कहकर उसने झट से आस-पास से सूखे कण्डे लाकर अपनी फूँक से ही आग पैदाकर थोड़ी ही देर में अत्यन्त मधुर एवं सुगन्धित खीर प्रस्तुत कर दी और बोली- बाबा! ठाकुर जी का भोग लगाकर जल्दी से पा लो। मेरी मैया डाँटेगी। मैं जा रही हूँ। ऐसा कहकर वह चली गई। श्रीरूप गोस्वामी ने श्रीकृष्ण को समर्पित कर खीर सनातन गोस्वामी के आगे धर दी। दोनों भाईयों ने जब खीर खाई तो उन्हें राधा-कृष्ण की स्फूर्ति हो आई। वे हा राधे! हा राधे! कहकर विलाप करने लगे। सनातन गोस्वामी ने कहा- मैंने ऐसी मधुर खीर जीवन में कभी नहीं खायी। रूप, क्या भोजन के लिए तुमने मन-ही-मन अभिलाषा की थी? वह किशोरी और कोई नहीं महाभावमयी कृष्ण प्रिया राधिकाजी ही थीं। भविष्य में तुम उन्हें इस प्रकार कष्ट मत देना। अपनी त्रुटि समझकर श्रीरूप गोस्वामी बड़ा ही खेद करने लगे। जब उन्हें कुछ झपकी आई तो सपने में श्रीराधिका जी ने उन्हें दर्शन देकर अपने मधुर वचनों से उन्हें सांत्वना दी।

नन्दबाग़

श्री रूपगोस्वामी की भजन-कुटी के समीप ही दक्षिण में नन्दबाग़ है। यहाँ महाराज नन्द का बगीचा था। तरह-तरह के फल और फूलों से लदे हुए हरे-भरे वृक्ष और लताएँ थी। नन्द महाराज की यहाँ एक खिड़क (गोशाला) भी थी। कृष्ण बलदेव यहाँ गोदोहन का भी कार्य करते थे तथा सखाओं के साथ अखाड़े में मल्ल-क्रीड़ा का अभ्यास भी करते थे। राधिका जी अपनी सहेलियों के साथ जावट ग्राम से नन्द भवन जाते समय इसी मार्ग से जाती थीं।

प्रसंग

एक समय राधिका सहेलियों के साथ पाक क्रिया के लिए नन्द-भवन आ रही थीं। यहाँ आने से पूर्व कुछ दूर से सखियों ने ग्वाल बालों के साथ कृष्ण को गोदोहन करते देखा। ललिता सखी ने कहा- हम इस मार्ग को छोड़कर दूसरे मार्ग से चलें। ब्रज का लम्पट चूड़ामणि गोदोहन करते हुए सतृष्ण नयनों से हमारी ओर देख रहा है। वह कुछ-न कुछ छेड़खानी करेगा ही। हम कुछ घूमकर दूसरे रास्ते से चलें। किन्तु राधिका जी ने कहा- वह लम्पट क्या कर लेगा? हम निर्भय होकर इसी रास्ते से चलें। ऐसा कहकर सखियों के साथ वे इसी मार्ग से चलने लगीं। जब वे अग्रसर होकर अत्यन्त निकट आ गई, तब कृष्ण ने गोदोहन करते हुए राधिका के मुखमण्डल पर दुग्ध की ऐसी धार मारी, जिससे राधा जी का सारा मुखमण्डल दुग्धमय हो गया। फिर तो सखा और सखियों में आनन्द की हिलोरें उठने लगीं। सभी हँसने लगे। राधिका जी ने भौंहें तानकर कृष्ण की ओर देखा। कुछ दूर आगे बढ़ने पर उनके गले की मुक्तामाला टूटकर पृथ्वी पर गिर गई। वे बैठकर बिखरी हुई मुक्ताओं का चयन करने लगीं। सखियों ने मन ही मन राधा जी का भाव भाँप लिया कि मुक्ता चयन के बहाने वे प्रियतम का कुछ क्षणों के लिए दर्शन कर रही हैं। श्रीरूप गोस्वामी ने इन सब लीला-स्मृतियों को अपने उज्ज्वल नीलमणि आदि ग्रन्थों में 'गागर में सागर' की भाँति संजोकर रखा है।

आशीषेश्वर महादेव एवं कुण्ड

नन्दबाग़ से ठीक पूर्व में थोड़ी दूर पर ही आशीषेश्वर महादेव एवं आशीषेश्वर कुण्ड है। यहाँ स्नानकर पर्जन्य महाराज सर्व प्रकार की मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाले आशीषेश्वर महादेव की आराधना करते थे। थोड़ी-सी आराधना के द्वारा ही प्रसन्न होकर मनोवांच्छित आशीर्वाद प्रदान करते हैं, इसलिए इनको आशीषेश्वर महादेव कहते हैं। कोई-कोई ब्रजवासी ऐसा भी कहते हैं कि इन्हीं के आशीष से पर्जन्य महाराज को सर्वगुण सम्पन्न पाँच पुत्र और श्रीकृष्ण जैसे सर्वगुण-सम्पन्न पौत्र की प्राप्ति हुई थी।

जलविहार कुण्ड

आशीषेश्वर कुण्ड के पश्चिम में जलविहार कुण्ड है। यहाँ कृष्ण सखाओं के साथ जलविहार करते हैं।

जोगिया स्थल

कृष्णकुण्ड के उत्तर-पूर्व में स्थित वृक्ष और लताओं से परिवेष्टित यह एक मनोरम स्थल है। यहाँ महादेव शंकर कृष्ण की आराधना करते हैं। इसलिए इसको महादेव जी की बैठक भी कहते हैं। कृष्ण का दर्शन पाने के लिए वे ब्रज में पागल से होकर इधर-उधर डोल रहे थे, परन्तु बहुत चेष्टा करने पर भी कृष्ण का दर्शन नहीं पा सके। क्योंकि कृष्ण कभी सोते रहते, तो कभी यशोदा का स्तन पान करते रहते। विशेषकर माँ यशोदा जटा-जूट धारण किये, सर्पों की माला पहने, बैल पर सवार, त्रिशूल धारी विचित्र वेश वाले जोगी को देखकर कहीं मेरे बालक को नज़र नहीं लग जाये, इसलिए बालकृष्ण का दर्शन कराना नहीं चाहती थी। अन्त में हारकर यहीं पर आसन लगाकर शिव ने अलख जगाई अर्थात डमरू बजाते हुए ज़ोर-ज़ोर से 'अलख निरजंन'-'अलख निरजंन' पुकारने लगे। वे जितने ही ज़ोर से अलख निरंजन कहते हुए डमरू बजाते, नन्दभवन में बालकृष्ण उतने ही ज़ोर से क्रन्दन करने लगते। न डमरू बजना थमता, न कृष्ण का क्रन्दन ही। अन्त में सयानी वृद्ध गोपियों ने यशोदा जी को परामर्श दिया, 'हो न हो यह उसी जोगी की करतूत है। वह निश्चित ही कोई मन्त्र जानता है, अत: क्यों न उस जोगी को बुलाकर बच्चे को शान्त किया जाय। गोपियों के परामर्श से वृद्ध गोपियाँ शिव रूपी योगी के पास आई और उनसे बोलीं- अरे जोगी! नन्दरानी यशोमती तुम्हें नन्दभवन में बुला रही हैं।, चलो इतना सुनते ही शंकर जी बड़े आनन्दित होकर नन्दभवन में पधारे। वहाँ उन्होंने राई और नमक हाथों में लेकर बालकृष्ण के सिर पर स्पर्श कर आशीर्वाद दिया। शंकर के हाथों का स्पर्श पाते ही नन्द लाला का रोदन रूक गया और वे हँसकर किलकारी मारने लगे। जोगी की आश्चर्यजनक महिमा देखकर नन्दरानी बड़ी प्रसन्न हुई और अपनी मोतियों की माला उन्हें दान में दी और जोगी से बोलीं- जोगी! तुम इसी नन्दभवन में रहो और जब-जब मेरा लाला रोए, तब-तब दर्शन देकर उसे शान्त करते रहना। सूरदास ने इस विषय का अपने पद में भावपूर्ण वर्णन किया हैं [1]

कृष्णकुण्ड

यह सघन कदम्ब वृक्षों के भीतर एक अत्यन्त रमणीय सरोवर है जो नन्दीश्वर पर्वत की पूर्व दिशा में निकट ही अवस्थित है। श्रीकृष्ण सखाओं के साथ यहाँ जल क्रीड़ा करते थे। इसी कुण्ड के उत्तरी तट पर गोचारण के लिए जाने आने का मार्ग है। यहाँ प्यासी गऊओं को कृष्ण जलपान भी कराते थे। छीतस्वामी ने गोचारण का अपने पदों में बहुत ही मार्मिक वर्णन किया है।[2] उद्धव जी जब नन्दगाँव पधारे तो रात भर नन्दभवन में श्रीनन्द-यशोदा को सांत्वना देते रहे। ब्रह्म मुहूर्त के समय उद्धव जी वहाँ से आकर इसी कुण्ड में स्नान कर कुण्ड के दक्षिणी तट पर प्रात:कालीन सन्ध्या आह्निक करने बैठे। उसी समय उन्होंने कुछ दूरी पर कदम्ब-क्यारी में अलक्षित गोपियों को देखा। वे सन्ध्या-आह्निक के पश्चात् कदम्ब-क्यारी में गोपियों से मिले।

छाछ कुण्ड और झगड़ा कुण्ड

कृष्ण कुण्ड के पश्चिम और कुछ उत्तर की ओर थोड़ी ही दूर पर कृष्ण एवं सखा गोपियों से छाछ माँगकर पीते थे। गोपियाँ इन्हें प्रेम से छाछ पिलाती थीं। कभी-कभी वे, मुझे पहले लेने दो, मुझे पहले लेने दो! ऐसा कहकर परस्पर लड़ते-झगड़ते थे। इस बाल-लीला के कारण इस कुण्ड का नाम छाछ कुण्ड और झगड़ा कुण्ड पड़ा।

सूर्यकुण्ड

यह कृष्ण कुण्ड से दक्षिण की ओर राजमार्ग पर दाहिनी ओर अवस्थित है। यहाँ सूर्य नारायण कृष्ण का त्रिभंग ललित रूप दर्शन कर अधीर हो गये थे तथा कुछ देर के लिए अपनी गति भी भूल गये।

ललिता कुण्ड

सूर्यकुण्ड से पूर्व दिशा में हरे-भरे वनों के भीतर एक बड़ा ही रमणीय सरोवर है। यह ललिता जी के स्नान करने का स्थान है। कभी–कभी ललिता जी किसी छल-बहाने से राधिका को यहाँ लाकर उनका कृष्ण के साथ मिलन कराती थीं। यह कुण्ड नन्दगाँव के पूर्व दिशा में है।

प्रसंग

एक समय कृष्ण ने राधिका को देवर्षि नारद से सावधान रहने के लिए कहा। उन्होंने कहा- देवर्षि बड़े अटपटे स्वभाव के ऋषि हैं। कभी-कभी ये बाप-बेटे, माता-पिता या पति-पत्नी में विवाद भी करा देते हैं। अत: इनसे सावधान रहना ही उचित है। किन्तु राधिका जी ने इस बात को हँसकर टाल दिया। एक दिन ललिता जी वन से बेला, चमेली आदि पुष्पों का चयन कर कृष्ण के लिए एक सुन्दर फूलों का हार बना रहीं थीं। हार पूर्ण हो जाने पर वह उसे बिखेर देतीं और फिर से नया हार गूँथने लगतीं। वे ऐसा बार-बार कर रही थीं। कहीं वृक्षों की ओट से नारद जी ललिता जी के पास पहुँचे और उनसे पुन:-पुन: हार को गूँथने और बिखेरने का कारण पूछा। ललिता जी ने कहा कि मैं हार गूँथना पूर्णकर लेती हूँ तो मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि यह हार कृष्ण के लिए या तो छोटा है या बड़ा है। इसलिए मैं ऐसा कर रही हूँ। कौतुकी नारद जी ने कहा- कृष्ण तो पास ही में खेल रहे हैं। अत: क्यों न उन्हें पास ही बिठाकर उनके गले का माप लेकर हार बनाओ? ऐसा सुनकर ललिता जी ने कृष्ण को बुलाकर कृष्ण के अनुरूप सुन्दर हार गूँथकर कृष्ण को पहनाया। अब कृष्ण ललिता जी के साथ राधा जी की प्रतीक्षा करने लगे। क्योंकि राधिका ने ललिता से पहले ही ऐसा कहा था कि तुम हार बनाओ, मैं तुरन्त आ रही हूँ। किन्तु उनके आने में कुछ विलम्ब हो गया। सखियाँ उनका श्रृंगार कर रही थीं। नारद जी ने पहले से ही श्रीकृष्ण से यह वचन ले लिया था कि वे श्रीललिता और श्रीकृष्ण युगल को एक साथ झूले पर झूलते हुए दर्शन करना चाहते हैं। अत: आज अवसर पाकर उन्होंने श्रीकृष्ण को वचन का स्मरण करा कर ललिता जी के साथ झूले पर झूलने के लिए पुन:-पुन: अनुरोध करने लगे। नारद जी के पुन:-पुन: अनुरोध से राधिका की प्रतीक्षा करते हुए दोनों झूले में एक साथ बैठकर झूलने लगे। इधर देवर्षि, ललिता-कृष्ण की जय हो, ललिता-कृष्ण की जय हो, कीर्तन करते हुए राधिका के निकट उपस्थित हुए। राधिका ने देवर्षि नारद जी को प्रणाम कर पूछा- देवर्षि! आज आप बड़े प्रसन्न होकर ललिता-कृष्ण का जयगान कर रहे हैं। कुछ आश्चर्य की बात अवश्य है। आख़िर बात क्या है? नारद जी मुस्कराते हुए बोले- अहा! क्या सुन्दर दृश्य है। कृष्ण सुन्दर वनमाला धारण कर ललिता जी के साथ झूल रहे हैं। आपको विश्वास न हो तो आप स्वयं वहाँ पधारकर देखें। परन्तु राधिका जी को नारद जी के वचनों पर विश्वास नहीं हुआ। मेरी अनुपस्थिति में ललिता जी के साथ झूला कैसे सम्भव है? वे स्वयं उठकर आई और दूर से उन्हें झूलते हुए देखा, अब तो उन्हें बड़ा रोष हुआ। वे लौट आई और अपने कुञ्ज में मान करके बैठ गई। इधर कृष्ण राधा जी के आने में विलम्ब देखकर स्वयं उनके निकट आये। उन्होंने नारद जी की सारी करतूतें बतलाकर किसी प्रकार उनका मन शान्त किया तथा उन्हें साथ लेकर झूले पर झूलने लगे। ललिता और विशाखा उन्हें झुलाने लगीं। यह मधुर लीला यहीं पर सम्पन्न हुई थी। कुण्ड के निकट ही झूला-झूलने का स्थान तथा नारद कुण्ड है।

उद्धव-क्यारी या विशाखा-कुण्ड

ललिताकुण्ड से दक्षिण-पूर्व दिशा में कुछ ही दूर कदम्ब-क्यारी या उद्धव-क्यारी स्थित है, यथार्थ में यह विशाखा जी का कुञ्ज है। पास ही विशाखा कुण्ड है। विशाखा जी कदम्ब वृक्षों से घिरे हुए निर्जन रमणीय वन में राधा-कृष्ण युगल का परस्पर मिलन कराती थी। कभी-कभी यहाँ कृष्ण सहेलियों को लेकर राधा जी के साथ रास भी करते थे। रासवेदी भी यहाँ दर्शनीय है। सरोवर के स्वच्छ एवं सुगन्धित जल में नाना-प्रकार से जल विहार भी करते थे। श्रीकृष्ण के मथुरा चले जाने पर सारा ब्रज विरह-समुद्र में डूब गया। गोप-गोपियों की बात ही क्या? पशु, पक्षी भी भोजन-पान सब कुछ त्याग कर कृष्ण विरह में व्याकुल हो गये। कृष्ण की प्रियतम गोपियाँ अक्रूर के रथ के साथ कृष्ण के पीछे-पीछे यहाँ तक आकर बेसुध होकर गिर पड़ी। वे फिर कभी घर नहीं लौटीं। अलक्षित रूप में विरह से व्याकुल होकर राधा जी इसी गहन वन में किसी प्रकार कृष्ण के आने की आशा में दिन गिनती थीं। उनके प्राण कण्ठ तक आ गये थे। उसी समय कृष्ण के दूत उद्धव जी विरह व्यथित गोपियों को सांत्वना देने के लिए यहाँ पधारे। किन्तु राधिका की विरह-दशा देखकर, उन्होंने उन्हें दूर से ही प्रणाम किया। परन्तु कुछ कह नहीं सके। इसी समय विरह व्याकुल राधिका एक भँवरे को कृष्ण का दूत समझकर दिव्योन्माद में चित्रजल्प, प्रजल्प आदि करने लगीं। वे भँवरे को कृष्ण का दूत समझकर कभी डाँटती-फटकारतीं, कभी उलाहना देतीं, कभी उपदेश देती, कभी दूत का सम्मान करतीं तो कभी उससे प्रियतम का कुशलक्षेम पूछतीं। उसे देख-सुनकर उद्धव जी आश्चर्यचकित हो गये। आये थे गुरु बनकर उपदेश देने के लिए किन्तु, शिष्य बन गये। उन्होंने सांत्वना देने के लिए कृष्ण के कुछ सन्देश गोपियों को सुनाये। किन्तु उससे गोपियों की विरह वेदना और भी तीव्र हो गई। गोपियों ने कहा- ऊधो मन न भये दस बीस, एक हुतो सो गयो श्याम संग, को आराधे ईश। और भी, ऊधो जोग कहाँ राखें, यहाँ रोम रोम श्याम है। अन्त में उद्धव जी ने गोपियों के चरणों की धूल ग्रहण करने के लिए ब्रज में गुल्म, लता, घास के रूप में जन्म ग्रहण करने की अभिलाषा करते हुए गोपियों की चरण धूलि की वन्दना की।[3] मेरे लिये तो यह परम सौभाग्य की बात होगी कि मैं इस वृन्दावन धाम में कोई झाड़ी, लता अथवा औषधि-जड़ी-बूटी ही बन जाऊँ। अहा! यदि मैं ऐसा बन जाऊँगा, तो मुझे इन ब्रजाग्ङनाओं की चरण धूलि निरन्तर सेवन करने के लिए मिलती रहेगी। इनकी चरण-रज में स्नान करके मैं धन्य हो जाऊँगा। धन्य हैं ये गोपियाँ! देखो तो सही, जिनको छोड़ना अत्यन्त कठिन है, उन स्वजन सम्बन्धियों तथा लोक-वेद की आर्य-मर्यादा का परित्याग करके, इन्होंने भगवान की पदवी उनके साथ तन्मयता, उनका परम प्रेम प्राप्त कर लिया है। नन्दबाबा के ब्रज में रहने वाली ब्रजाग्ङनाओं की चरण-धूलि को मैं बारंबार प्रणाम करता हूँ। अहा! इन गोपियों ने भगवान कृष्ण की लीलाओं के सम्बन्ध में जो कुछ गान किया है, वह तीनों लोकों को पवित्र कर रहा है और पवित्र करता रहेगा। [4] यह लीला स्थली एक ओर महासम्भोग रसमयी तथा दूसरी ओर महाविप्रलम्भ रसमयी भूमि है। इसके दर्शन और स्पर्श से साधक का जीवन कृतार्थ हो जाता है।

पूर्णमासी जी की गुफ़ा

विशाखा-कुञ्ज या कदम्ब-क्यारी के दक्षिण-पूर्व में नन्दगाँव से एक मील की दूरी पर पूर्णमासी जी का कुण्ड है। यहाँ पूर्णमासी जी की कुटीर है। ये कृष्णलीला के समय वृद्ध तपस्विनी के रूप में गेरूए वस्त्र धारण कर गाँव से दूर निर्जन स्थान में रहती थीं। नन्दादि सभी ब्रजवासी इनके प्रति बड़ी ही श्रद्धा रखते थे तथा इनका आशीर्वाद लेकर ही कोई कार्य करते थे। ये पहले अवन्तीपुरी में अपने पति पुत्र के साथ रहती थी। सान्दीपनि मुनि इनके पुत्र हैं। मधुमंगल सान्दीपनि के पुत्र और नान्दीमुखी सान्दीपनि मुनि की कन्या थी। पूर्णमासी जी कृष्ण के जन्म से पूर्व ही अपने पौत्र मधुमंगल और पौत्री नान्दीमुखी को साथ लेकर नन्दगाँव में चली आई थीं। वे प्रतिदिन प्रात:काल नन्दभवन में आकर कृष्ण का दर्शन करती थीं। तथा कृष्ण को आशीर्वाद देतीं थी। ये श्रीकृष्ण की स्वरूप शक्तिगत समष्टि लीला शक्ति की मूर्त विग्रह-स्वरूपिणी हैं। प्रकट लीला में देवर्षि नारद जी की शिष्या हैं तथा श्रीराधा-कृष्ण युगल की सारी लीलाओं की पुष्टि करती हैं।

नान्दीमुखी का निवास-स्थान

पूर्णमासी गुफ़ा के पास ही नान्दीमुखी का निवास स्थान है। ये पूर्णमासी जी की पौत्री हैं तथा कृष्णलीला की विविध प्रकार से पुष्टिकारिणी हैं।

डोमन वन और रूनकी-झुनकी कुण्ड

पूर्णमासी जी की गुफ़ा से लगा हुआ डोमन वन है। डोमन वन में ही रूनकी-झुनकी कुण्ड हैं। डोमन का तात्पर्य दो मन से है। यहाँ रूनकी-झुनकी सखियों का कुञ्ज है। ये दोनों सखियाँ नाना प्रकार के बहाने बनाकर यहाँ पर राधा-कृष्ण का मिलन कराती थीं। तथा दोनों को झूले पर बैठाकर आनन्द से झुलाती थीं। यहाँ राधा-कृष्ण दोनों का मन मिलने के कारण यह डोमन नाम से प्रसिद्ध है। किसी भक्त ने प्रेम भरे अपने पद में इसका वर्णन किया है-

इत सों आई कुमरि किशोरी उत सों नन्दकिशोर।
दो मिल वन क्रीड़ा करत बोलत पंछी मोर।।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. चल रे जोगी नन्दभवन में यसुमति तोहि बुलावे। लटकत-लटकत संकर आवै मन में मोद बढ़ावे।। नन्दभवन में आयो जोगी राई नोन कर लीनो। बार फेर लाला के ऊपर हाथ शीश पर दीनो।। विथा भई अब दूर बदन की किलक उठे नन्दलाला। ख़ुशी भई नन्द जू की रानी दीनी मोतियन माला।। रहुरे जी नन्दभवन में ब्रज को बासो कीजै। जब जब मेरो लाला रोवै तब तब दर्शन दीजै।। तुम तो जोगी परम मनोहर तुमको वेद बखाने। (शिवबोले) बूढ़ो बाबा नाम हमारो सूरश्याम मोहि जानें।।
  2. आगे गाय पाछैं गाय इत गाय उत गाय। गोविन्द हो गायनहों में बसवों को भावैं।। गायन के संग धावे गायन में सचुपावें। गायन की खुर रज अंगसों लगावें।। गायन सों व्रजछायौ वैकुण्ड हु बिसरायौ। गायन के हेत कर लै उठावें।। छीतस्वामी गिरिधारी विट्ठलेष वपुधारी। ग्वारिया को भेष धरें गायन में आवें।।
  3. आसामहो चरणरेणुजुषामहं स्यां वृन्दावने किमपि गुल्मलतौषधीनाम्। या दुस्त्यजं स्वजनमार्यपथञ्च हित्वा भेजुमुकुन्दपदवीं श्रुतिभिर्विमृग्याम्।।
  4. वन्दे नन्दव्रजस्त्रीणां पादरेणुमभीक्ष्णश: । यासां हरिकथोद्रीतं पुनाति भुवनत्रयम् ।। श्रीमद्भागवत 10/47/61,63

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