घोड़ा
घोड़ा (अंग्रेज़ी: Horse) मनुष्य से संबंधित संसार का सबसे प्राचीन पालतू स्तनपोषी प्राणी है, जिसने अज्ञात काल से मनुष्य की किसी न किसी रूप में सेवा की है। घोड़ा ईक्यूडी[1] कुटुंब का सदस्य है। इस कुटुंब में घोड़े के अतिरिक्त वर्तमान युग का गधा, ज़ेबरा, भोट-खर, टट्टू, घोड-खर एवं खच्चर भी हैं। आदिनूतन युग[2] के ईयोहिप्पस[3] नामक घोड़े के प्रथम पूर्वज से लेकर आज तक के सारे पूर्वज और सदस्य इसी कुटुंब में सम्मिलित हैं।
परिचय
घोड़े का वैज्ञानिक नाम ईक्वस[4] लैटिन शब्द से लिया गया है, जिसका अर्थ घोड़ा है, परंतु इस कुटुंब के दूसरे सदस्य ईक्वस जाति की ही दूसरी छ: उपजातियों में विभाजित है। अत: केवल ईक्वस शब्द से घोड़े को अभिहित करना उचित नहीं है। आज के घोड़े का सही नाम ईक्वस कैबेलस[5] है। इसके पालतू और जंगली संबंधी इसी नाम से जाने जाते हैं। जंगली संबंधियों से भी यौन संबंध स्थापित करने पर बाँझ संतान नहीं उत्पन्न होती। कहा जाता है, आज के युग के सारे जंगली घोड़े उन्हीं पालतू घोड़ों के पूर्वज हैं जो अपने सभ्य जीवन के बाद जंगल को चले गए और आज जंगली माने जाते हैं। यद्यपि कुछ लोग मध्य एशिया के पश्चिमी मंगोलिया और पूर्वी तुर्किस्तान में मिलने वाले ईक्वस प्रज्वेलस्की[6] नामक घोड़े को वास्तविक जंगली घोड़ा मानते हैं, तथापि वस्तुत: यह इसी पालतू घोड़े के पूर्वजों में से है।
आवास
दक्षिणी अमरीका के जंगलों में आज भी घोड़े बृहत् झुंडों में पाए जाते हैं। एक झुंड में एक नर और कई मादाएँ रहती हैं। सबसे अधिक 1,000 तक घोड़े एक साथ एक जंगल में पाए गए हैं। परंतु ये सब घोड़े ईक्वस कैबेलस के ही जंगली पूर्वज हैं और एक घोड़े को नेता मानकर उसकी आज्ञा में अपना सामाजिक जीवन व्यतीत करते हैं। एक गुट के घोड़े दूसरे गुट के जीवन और शांति को भंग नहीं करते। संकटकाल में नर चारों तरफ से मादाओं को घेर खड़े हो जाते हैं और आक्रमणकारी का सामना करते हैं। एशिया में काफ़ी संख्या में इनके ठिगने क़द के जंगली संबंधी 50 से लेकर कई सौ तक के झुंडों में मिलते हैं। मनुष्य अपनी आवश्यकता के अनुसार उन्हें पालतू बनाता रहता है।
बनावट और रंग-रूप
संसार के वास्तविक जंगली घोड़े ईक्वस प्रज़्वलेस्की का नाम रूसी यात्री, कर्नल एन. एम. प्रज़्वेलस्की के नाम पर रखा गया है, क्योंकि इन्हें एक जंगली घोड़ा एक अधिकारी ने जैसान (Zaisan) में भेंट किया था। यह वर्तमान घोड़े और घोड़-खर के बीच का जानवर था। इसकी चारों टाँगों पर घोड़े के समान 'चेस्टनट'[7] थे, परंतु घोड़-खर के समान केवल इसकी पूँछ के निचले भाग पर लंबे बाल थे। शरीर का रंग बादामी[8] था और पीठ पर पीलापन। पिछले हिस्से पर और हल्का रंग था, जो उदर पर बिल्कुल सफ़ेद हो गया था। शरीर पर कोई काली पट्टी नहीं थी। गर्दन पर छोटे और सीधे बाल थे, किंतु कानों के बीच और माथे पर न थे। खोपड़ी और खुर घोड़े के समान थे। कोबडो[9] ज़िले में 20 वर्ष बाद बहुत से इसी प्रकार के बच्चे मंगोलिया से मिले थे। उसके बाद भी इस प्रकार के जंगली घोड़े कई बार मिल चुके हैं। कहा जाता है कि हिमयुग के अंत तक अमरीका से सारे घोड़े समाप्त होकर प्राय: लुप्त हो गए। यही नहीं, इस काल में रहने वाले अन्य अनेक बड़े बड़े जानवर भी किसी अज्ञात कारण से लुप्त हो गए। यूरेशिया में भी हिमयुग में जंगली घोड़े पर्याप्त संख्या में थे, परंतु आज एशिया के स्टेप्स[10] में प्रज़्वेलस्की घोड़े के अतिरिक्त कोई वास्तविक जंगली घोड़ा नहीं मिलता। टट्टू नाम के ठिगने घोड़े, जो आज भारत और एशिया के अन्य भागों में मिलते हैं, सब पालतू घोड़े के पूर्वज है।
इतिहास
घोड़े को पालतू बनाने का वास्तविक इतिहास अज्ञात है। कुछ लोगों का मत है कि 7,000 वर्ष पूर्व दक्षिणी रूस के पास आर्यों ने प्रथम बार घोड़े को पाला। बहुत से विज्ञानवेत्ताओं और लेखकों ने इसके आर्य इतिहास को बिल्कुल गुप्त रखा और इसके पालतू होने का स्थान दक्षिणी पूर्वी एशिया में कहा, परंतु वास्तविकता यह है कि अनंत काल पूर्व हमारे आर्य पूर्वजों ने ही घोड़े को पालतू बनाया, जो फिर एशिया से यूरोप, मिस्र और शनै: शनै: अमरीका आदि देशों में फैला। संसार के इतिहास में घोड़े पर लिखी गई प्रथम पुस्तक शालिहोत्र है, जिसे शालिहोत्र ऋषि ने महाभारत काल से भी बहुत समय पूर्व लिखा था। कहा जाता है कि 'शालिहोत्र' द्वारा अश्व-चिकित्सा पर लिखित प्रथम पुस्तक होने के कारण प्राचीन भारत में पशुचिकित्सा विज्ञान[11] को 'शालिहोत्र शास्त्र' नाम दिया गया। महाभारत युद्ध के समय राजा नल और पांडवों में नकुल अश्व विद्या के प्रकांड पंडित थे और उन्होंने भी शालिहोत्र शास्त्र पर पुस्तकें लिखी थीं। शालिहोत्र का वर्णन आज संसार की अश्व चिकित्सा विज्ञान पर लिखी गई पुस्तकों में दिया जाता है। भारत में अनिश्चित काल से देशी अश्व चिकित्सक को 'शालिहोत्री' कहा जाता है।
शालिहोत्र शास्त्र के अनुसार
शालिहोत्र में चार दर्जन प्रकार के घोड़े बताए गए हैं। इस पुस्तक में घोड़ों का वर्गीकरण बालों के आवर्तों के अनुसार किया गया है। इसमें लंबे मुँह और बाल, भारी नाक, माथा और खुर, लाल जीभ और होंठ तथा छोटे कान और पूँछ वाले घोड़ों को उत्तम माना गया है। मुँह की लंबाई 2 अँगुल, कान 6 अँगुल तथा पूँछ 2 हाथ लिखी गई है। घोड़े का प्रथम गुण गति का होना बताया है। उच्च वंश, रंग और शुभ आवर्तों वाले अश्व में भी यदि गति नहीं है, तो वह बेकार है। शरीर के अंगों के अनुसार भी घोड़ों के नाम त्यंड[12], त्रिकर्णिन[13], द्विखुरिन[14], हीनदंत[15], हीनांड[16], चक्रवर्तिन[17], चक्रवाक[18] आदि दिए गए हैं। गति के अनुसार तुषार, तेजस, धूमकेतु, एवं ताड़ज नाम के घोड़े बताए हैं। उक्त पुस्तक में घोड़े के शरीर में 12,000 शिराएँ बताई गई हैं। बीमारियाँ तथा उनकी चिकित्सा आदि, अनेक विषयों का उल्लेख पुस्तक में किया गया है, जो इनके ज्ञान और रुचि को प्रकट करता है। इसमें घोड़े की औसत आयु 32 वर्ष बताई गई है।
उत्पत्ति और विकास का इतिहास
यद्यपि घोड़े की उत्पत्ति के काफ़ी प्रमाण प्राप्त हो चुके है और उसका विकास के पूर्ण रूप से क्रमबद्ध अवशेष अमरीका और अन्य देशों में प्राप्त हो चुके हैं, फिर भी बहुत सी गुत्थियाँ अभी तक नहीं सुलझ पाई हैं। कहा जाता है, घोड़े के और मनुष्य के प्रथम पूर्वजों का जन्म एक ही काल में हुआ, अर्थात् दोनों की उत्पत्ति एक साथ हुई। 5,50,00,000 वर्ष पूर्व ईयोसीन या आदिनूतन युग के आरंभ में ईयोहिप्पस एवं हाइरैकोथीरियम[19] नामक प्रथम घोड़े की उत्पत्ति हुई। यह पूर्वज लोमड़ी के समान छोटा था, जिसकी खोपड़ी अल्प विकसित थी, पैर पतले और लंबे, अगले पैरों में चार अँगुलियाँ, पिछले में तीन, दाँत 44 और नीचे उपरिदंत वाले थे, जो इसके जंगली जीवन और कोमल पत्तों आदि के भोजन के अनुकूल थे। इस पूर्वज के फॉसिल[20] उत्तरी अमरीका, यूरोप तथा एशिया में प्राप्त हुए हैं। तब से क्रमश: घोड़े का विकास होता रहा है।
आदिनूतन युग के मध्य के औरोहिप्पस[21] और अंत के एपिहिप्पस[22] नामक पूर्वजों के अवशेष प्राप्त हुए हैं। इन सब पूर्वजों के दाँतों में प्रगति होती रही और वे शाकाहारी जीवन के लिये अनुकूल हो रहे थे। एपिहिप्पस के कंकाल अभी तक नहीं मिल पाए हैं। अत: हमारे निष्कर्ष में अभी न्यूनता रह गई है।
फिर 2,00,00,000 वर्ष के बाद औलिगोसीन[23] या आदिनूतन युग में तीन अँगुलियों वाले मेसोहिप्पस[24] घोड़े की उत्पत्ति हुई। इसकी चौथी अँगुली नष्ट हो चुकी थी। यह आकार में आदिनूतन युग के घोड़ों से अधिक बड़ा तो नहीं था, परंतु इसके शरीर के अनेक अंगों में प्रगति हो गई थी। इसके सिर में घोड़े के समान मुँह, आँखें थोड़ी पीछे को, एवं मस्तिष्क थोड़ा बड़ा था। इसकी गर्दन छोटी, पीठ लंबी तथा टाँगे पतली लंबी और तीन अँगुलियों वाली थीं। चौथी अँगुली की एक छोटी सी गाँठ रह गई थी। दाँतों में भी प्रगति हो चुकी थी।
इसी काल में माइयोहिप्पस नाम के घोड़े की भी उत्पत्ति हुई। यह मेसोहिप्पस से प्राय: बिल्कुल मिलता था। इसमें पाँचवीं अँगुली की चपती[25] मेसोहिप्पस की चपती से काफ़ी छोटी थी और इसके कपोलदंत भी अधिक जटिल हो गए थे। माइयोहिप्पस के कारण घोड़े के विकास की कहानी में थोड़ी जटिलता हुई है। इसी युग के ऐंकीथेरियम[26] नामक घोड़े के अवशेष भी प्राप्त हुई हैं, जिसके दाँतों में माइयोहिप्पस के समान जटिलता नहीं थी। संभवत: यह माइयोहिप्पस पूर्वज से जन्मा और यूरोप, एशिया तथा अमरीका में माइयोसीन[27] या मध्य नूतन, काल तक जीवित रहा।
मेसोहिप्पस के साथ मेगाहिप्पस[28]और हाइपोहिप्पस[29] नामक घोड़े भी आदिनूतन युग में पाए गए। इसके 1,00,00,000 वर्ष बाद, अर्थात् आज से 2,50,00,000 वर्ष पूर्व माइयोसीन[30] या मध्यनूतन काल के मध्य और अंतिम भाग में मर्सीहिप्पस[31] नामक पूर्वजों ने जन्म लिया। ये पूर्वज शनै: शनै: वर्तमान युग के घोड़े के निकट आ रहे थे। इनके दाँत ऊँचे उपरिदंत जैसे होते गए, ताकि वे अपने मैदानी जीवन और वानस्पतिक भोजन का उपभोग कर सकें।
इनके कपोलदंत भी आज के घोड़े के समान हो गए थे और दाँतों में सीमेंट[32] की सतह भी उत्पन्न हो गई, जो इससे पहले युगों के पूर्वजों में नहीं थी। इन पूर्वजों में शरीर की लंबाई बढ़ गई थी। सिर में मुँह, आंखें और मस्तिष्क आज के घोड़े जैसे ही हो गए थे। टाँगों की हड्डियाँ भी परिवर्तित हो गई थीं। बहि:प्रकोष्ठिका[33] से अंत: प्रकोष्ठिका[34] जुड़ गई थी और बहिर्जधिका[35] एक पतली पट्टी के समान रह गई थी। परंतु अभी तक टांगों में तीन अँगुलियाँ बाकी थीं, जिनमें बीच की अँगुली, जिस पर शरीर का भार रहता था, मोटी, बड़ी, और घोड़े के समान खुर वाली थी। मर्सीहिप्पस साधारणत: आज के टट्टू के समान प्रतीत होता था। अतिनूतन या प्लायोसीन[36] युग में आज से 1,00,00,000 वर्ष पूर्व मर्सीहिप्पस ने अनेक नई जातियों को जन्म दिया, जिनमें से अधिकतर जातियाँ युग के अंत तक लुप्त हो गई।
नीयोहिप्पेरियन[37], हिप्पेरियन[38], नैनिहिप्पस[39], कैलिहिप्पस[40] और प्लायोहिप्पस[41] इस युग के प्रांरभ से प्राय: अंत तक विद्यमान थे। ये सब घोड़े उत्तरी अमरीका में मिले। केवल हिप्पेरियन अमरीका, यूरोप और एशिया सब जगह प्रकट हुआ। प्लायोहिप्पस आज के घोड़े ईक्वस का निकटतम पूर्वज था। यह इस युग का वह घोड़ा था जिसमें दोनों पार्श्व अँगुलियां पूर्णतया नष्ट हो गई थीं और शरीर के अंग प्राय: ईक्वस के समान हो गए थे।
आज से 10,00,000 वर्ष पूर्व प्लायस्टोसीन[42], अर्थात् प्रातिनूतन युग, में आज का घोड़ा जन्मा। आस्ट्रेलिया के अतिरिक्त आज का घोड़ा संसार के सब देशों में इस युग में मिला। इस विकास क्रम में इयोहिप्पस से लेकर वर्तमान घोड़े ईक्वस तक इनकी आकार वृद्धि, टाँगों का लंबा होना, बाँई दाईं अँगुलियों का क्रमश: कम होना और बीच की अँगुली का बराबर बढ़ते रहना मुख्य है। इसके साथ साथ इनकी पीठ बराबर मजबूत और दृढ़ होती गई और कृंतक[43] दाँत बराबर चौड़े होते गए। खोपड़ी गहरी और आँखों के आगे का हिस्सा लंबा हो गया। मस्तिष्क के आकार और जटिलता में वृद्धि होती गई। इस प्रकार एक छोटे से प्राणी से आज के विशालकाय और दृढ़ घोड़े का विकास हुआ।
प्लायोसीन या अतिनूतन युग के निखातक नर्मदा की घाटी में मध्य भारत में और उत्तर में सिवालिक की चट्टानों में मिले हैं। इनको ईक्वस नामाद्रीकस एवं ई. सिवालेन्सिस नाम दिए गए। ये कंधे तक 5 फुट ऊँचे होते थे। आँखों के स्थान से आगे खोपड़ी में गड्ढा था। ये आज के घोड़े और मर्सीहिप्पस की बीच की स्थिति प्रकट करते हैं।
प्रोफेसर वूल का मत है कि अरबी घोड़े की उत्पत्ति सिवालिक घोड़े से नर्मदा घोड़े द्वारा हुई, क्योंकि मर्सीहिप्पस के युग में ही भारत की सिवालिक पहाड़ियों में हिप्पेरियन के अवशेष प्राप्त हुए और इन्हें हिप्पोथीरियम ऐंटिलोपियम[44] नाम दिया गया। भारत में इस पर अधिक खोज नहीं हुई है। ये दीर्घकाय, भारी घोड़े यूरोपीय, प्राचीन युद्धाश्वों के वंशज हैं। इनके पैर घने बालों से ढके होते हैं।
शारीरिक विशेषताएँ
10,00,000 वर्ष पूर्व से अब तक मनुष्य ने अपनी बुद्धि के अनुसार घोड़े को पालतू बनाया और अन्यान्य अच्छी अच्छी नस्लों को पैदा किया। बोझा खींचने, घुड़दौड़ में दौड़ाने, सवारी करने और रथ आदि में चलने वाले अलग अलग प्रकार के घोड़ों की उत्पत्ति हुई है। विदेशों में घोड़ों के नाम उनके जीवनक्रम के अनुसार दिए गए हैं। भारत में घोड़ों को उनके रंग तथा वंश के अनुसार मुश्की, अरबी आदि नाम दिए जाते हैं।
कुछ लोगों का यह भ्रम है कि घोड़ा मनुष्य के बराबर बुद्धिमान होता है। वैज्ञानिक तथ्यों के अनुसार, इसकी बुद्धि सबसे मूर्ख मनुष्य से भी कम होती है। घोड़े में दृष्टि की तीव्रता होती है, क्योंकि संसार के स्थलीय जीवों में किसी प्राणी की आँख शरीर के अनुुपात में घोड़े के समान बड़ी नहीं होती। दृष्टि की तीव्रता होते हुए भी इसकी आँख में गर्तिका[45]नहीं होती। अत: इसके लिये हमारे समान दृष्टि को केंद्रित करना संभव नहीं है। बिना सिर घुमाए काफ़ी क्षेत्र में देखना इसकी आँखों से संभव है। इसकी आँखें और नाक दोनों मनुष्य से अधिक सक्रिय होती हैं।
कुछ घोड़ों में ईयोहिप्पस के समान 44 दाँत होते हैं, परंतु साधारणत: नरों में 40 और मादाओं में 36 दांत होते हैं। नर में प्रत्येक हनु में कृंतक दाँतों के तनिक पीछे एक श्वदंत होता है, घोड़ियों में नहीं।
- चेस्टनट
घोड़े के अंगों की एक विशेष रचना चेस्टनट[46] नाम का मस्सा होता है यह अगली टाँगों में घुटने के पिछले ऊपरी भाग पर एक लंबी चमकीली[47] के रूप में होता है, परंतु पिछली टांगों में यह एक छोटा धब्बा सा गुल्फ[48] के नीचे होता है पद की पिछली सतह पर, बालों के बीच छिपा हुआ एक अर्गट[49] होता है। गधे में यह अर्गट घोड़े से बड़ा होता है। यह एक लुप्तावशेष है, जो घोड़े के पूर्वजों में पैर को पृथ्वी पर टिकाने में सहायक होता था।
- आयु
ढाई साल में घोड़े के बच्चों के दूध के दाँत गिर जाते हैं। चार से छ: वर्ष की उम्र तक पूरे दाँत निकल आते हैं। पालतू घोड़े प्राय: बीस वर्ष की उम्र में बूढ़े हो जाते हैं। अधिक से अधिक 45 वर्ष की उम्र तक के घोड़े देखे गए हैं। संस्कृत की भारतीय पुस्तकों में घोड़े के अनेक सुंदर चित्र, उसकी आकृति, सुंदरता, शुभ-अशुभ-लक्षण और वंश का वर्णन करते हुए दिए गए हैं। इन पुस्तकों के अंग्रेजी अनुवाद भी शनै: शनै: प्रकाशित हो रहे हैं।[50]
नस्ल
भारत राजा-महाराजाओं का देश रहा है। आज भी देश के कई हिस्सों में राज घराने मौजूद हैं। इन राजा-महाराजाओं के जमाने में आम आदमी के लिए सवारी की बड़ी समस्या थी, उस समय राजघराने ही घोड़ों से चलते थे। जैसे-जैसे ट्रेंड बदला वैसे ही आदतें और तौर तरीके भी बदलते चले गए। जब देश में गाड़ियों का प्रचलन बढ़ा तो सवारी की समस्या भी कम होती चली गयी। जो राजघराने घोड़ों का इस्तेमाल करते थे वो भी अब गाड़ियों से चलने लगे थे। लेकिन घोड़ों के प्रति लगाव कम नहीं हुआ। बेहतर नस्ल वाले घोड़ों को फौज में इस्तेमाल किया जाने लगा। जो लोग घोड़ा पालन करते हैं, वह अच्छी कमाई करते हैं। घोड़ा पालन करने वाले लोग इनका वाणिज्यिक इस्तेमाल करने लगे। यानी बेहतरीन नस्ल वाले घोड़ों को पालकर उनको घुडसवारी के शौक़ीन, खेल में इस्तेमाल करने के लिए बेचते हैं।[51]
घुड़सवारी को एक अन्तराष्ट्रीय खेल का दर्जा प्राप्त है। भारत में घोड़ों का पालन अधिकतर राजस्थान, पंजाब, गुजरात और मणिपुर में किया जाता है। इनकी कई नस्लें भारत में पायी जाती हैं, लेकिन मारवाड़ी, काठियावाड़ी घोड़े को अव्वल दर्जा प्राप्त है।
- मारवाड़ी घोड़े का इस्तेमाल राजाओं के ज़माने में युद्ध के लिए किया जाता था। इसलिए कहा जाता है कि इन घोड़ों के शरीर में राजघराने का लहू दौड़ता है। मारवाड़ी नस्ल के घोड़े राजस्थान के मारवाड़ में पाए जाते हैं। यही इनका जन्मस्थल भी है। इनकी लम्बाई 130 से 140 से.मी. और ऊँचाई 152 से 160 से.मी. होती है। 22 से.मी. के चौड़े फेस वाले ये घोड़े काफी ताकतवर होते हैं। इनका इस्तेमाल ज्यादातर खेल प्रतियोगिताओं, सेना और राजघराने करते हैं। इस नस्ल के घोड़ों कि कीमत बहुत अधिक होती है। एक घोड़ा कई लाख की क़ीमत में बेचा जाता है। यह भारत में सबसे अव्वल दर्जे का घोड़ा है।
- कठियावाड़ी घोड़े की नस्ल भी काफी अच्छी मानी जाती है। इस घोड़े की जन्मस्थली गुजरात का सौराष्ट्र इलाका है। यह गुजरात के राजकोट, अमरेली और जूनागढ़ जिलों में पाया जाता है। इसका रंग ग्रे और गर्दन लम्बी होती है। यह घोड़ा 147 से.मी. ऊँचा होता है।
- स्पीती घोड़ों को पहाड़ी इलाकों के लिए बेहतर माना जाता है। ये ज्यादातर हिमाचल प्रदेश में पाए जाते हैं। इनकी ऊँचाई अधिकतर 127 से.मी. होती है। इस नस्ल के घोड़े पहाड़ी इलाकों में बेहतरीन काम करते हैं।
- ज़नस्कारी नस्ल के घोड़े भारत के लेह में पाए जाते हैं। यह घोड़े लेह और लद्दाख जैसे क्षेत्रों में बहुत पाए जाते हैं। इन घोड़ों का इस्तेमाल अधिकतर बोझा ढोने के लिए किया जाता है। इस नस्ल के घोड़ों की संख्या काफी कम है। इनकी नस्ल को बढ़ाने के लिए काफी प्रयास किए जा रहे हैं।
- मणिपुरी पोनी घोड़े की नस्ल को काफी अच्छा माना जाता है। इस नस्ल के घोड़े काफी ताकतवर और फुर्तीले होते हैं। इस नस्ल के घोड़ों का इस्तेमाल अधिकतर युद्ध और खेल के लिए किया जाता है। यह घोड़ा 14 अलग-अलग रंगों में पाया जाता है।
- भूटिया नस्ल के घोड़े ज्यादातर सिक्किम और दार्जिलिंग में पाए जाते हैं। इसका इस्तेमाल मुख्य रूप से दौड़ और सामान ढोने के लिए किया जाता है। इस नस्ल के घोड़े ज्यादातर नार्थ-ईस्ट में मिलते हैं।
- मालानी नस्ल के घोड़े अपनी श्रेष्ठ गुणवता के कारण देश-विदेश मे पहचान बना चुके हैं और इनकी खरीद-फरोख्त के लिए लोग तिलवाड़ा मेले में पहुँचते है। पोलो एवं रेसकोर्स के लिए इन घोड़ों की माँग लगातार बढ़ रही है। दौड़ते समय मालानी नस्ल के घोड़े के पिछले पैर, अपने पैरों की तुलना में, अधिक गतिशील होने के कारण अगले पैरों से टक्कर मारते हैं, जो इसकी चाल की खास पहचान है। इनके ऊँचे कान आपस में टकराने पर इनका आकर्षण बढ़ जाता हैं और ये घोड़े कानों के दोनों सिरों से सिक्का तक पकड़ लेते हैं। चाल व गति में बेमिसाल इन घोड़ों की सुदरंता, ऊँचा कद, मजबूत कद-काठी देखते ही बनती हैं। इनमें लाल रंग का घोड़ा सर्वाधिक आकर्षण का केन्द्र होता है। मालानी नस्ल की उत्पत्ति काठियावाड़ी और सिंधी नस्ल के घोड़ों से हुई हैं।[52]
- कच्छी-सिंधी घोड़े की नस्ल को भारत में घोड़ों की सातवीं प्रजाति के रूप में पहचान मिली है। इस नस्ल को बन्नी क्षेत्र के बैलों और खराई के ऊंटों के बाद राष्ट्रीय स्तर पर पंजीकृत किया गया है। 'भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद' (आईसीएआर) ने कच्छी-सिंधी घोड़े को सातवीं घोड़ों की नस्ल के रूप में पंजीकृत किया है। दिलचस्प बात यह है कि कच्छी-सिंधी नस्ल के 3,136 घोड़े हैं, जो हिन्दू और मुस्लिम दोनों समुदायों के 1,850 मालिकों के पास हैं। इनकी ब्रीडिंग के लिए एक संघ बनाया गया था, जिसका नाम 'राम रहीम हॉर्स ब्रीडर्स असोसिएशन' था। यह नस्ल अपने धैर्य के स्तर के लिए पहचानी जाती है। यह गर्म और ठंडे मौसम में जीवित रह सकता है। इस घोड़े की कीमत 3 लाख से 14 लाख रुपये के बीच होती है और यह घोड़ा रेसर्स में पसंदीदा है।[53]
इन सब नस्लों में मारवाड़ी, काठियावाड़ी और मणिपुरी नस्ल के घोड़े सबसे बेहतर हैं। इसलिए इनका वाणिज्यिक पालन किया जा रहा है। जिससे कि घोड़ा पालकों को इनकी ऊँची क़ीमत मिलती है। इसके अलावा भारतीय घोड़ों का निर्यात भी किया जाता है।
|
|
|
|
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ Equidae
- ↑ Eosin period
- ↑ Eohippus
- ↑ Equus
- ↑ Equus caballus
- ↑ Equus przwalski
- ↑ chestnut
- ↑ अरुण
- ↑ Kobdo
- ↑ steppes
- ↑ Veterinary Science
- ↑ तीन वृषण वाला
- ↑ तीन कान वाला
- ↑ दो खुरवाला
- ↑ बिना दाँत वाला
- ↑ बिना वृषण वाला
- ↑ कंधे पर एक या तीन अलक वाला
- ↑ सफेद पैर और आँखों वाला
- ↑ Hyracoatherium
- ↑ जीवाश्म
- ↑ Orohippus
- ↑ Epihippus
- ↑ Oligocene
- ↑ Mesohippus
- ↑ splint
- ↑ Anchitherium
- ↑ Miocene
- ↑ Megahippus
- ↑ Hypohippus
- ↑ Miocene
- ↑ Mercyhippus
- ↑ cement
- ↑ radius
- ↑ ulna
- ↑ Fibula
- ↑ Pliocene
- ↑ Neohipparion
- ↑ Hipparion
- ↑ Nannihippus
- ↑ Calihippus
- ↑ Phiohippus
- ↑ pleistocene
- ↑ incisor
- ↑ Hippotherim antelopium
- ↑ fovea
- ↑ chestnut
- ↑ कठोर त्वचा
- ↑ टार्सस, Tarsus
- ↑ Ergot
- ↑ घोड़ा (हिंदी) भारतखोज। अभिगमन तिथि: 24 अक्टूबर, 2014।
- ↑ इस नस्ल के घोड़ों की कीमत होती हैं लाखों में... (हिंदी) hindi.krishijagran.com। अभिगमन तिथि: 10 जनवरी, 2018।
- ↑ मालानी नस्ल के घोड़ों का आकर्षण (हिंदी) hindi.webdunia.com। अभिगमन तिथि: 10 जनवरी, 2018।
- ↑ कच्छी-सिंधी घोड़े की नस्ल को मिली पहचान (हिंदी) navbharattimes.indiatimes.com। अभिगमन तिथि: 10 जनवरी, 2018।