कजरी मेला
कजरी मेला भारत की संस्कृति को संजोए हुए और बुन्देलखंड की सांस्कृतिक विरासत का परिचायक है। यह मेला अगस्त माह में रक्षाबंधन के बाद आयोजित होता है। इस मेले को भुजरियों का मेला भी कहा जाता है। मेले में अपार जनसमूह ऐतिहासिक कीरत सागर सरोवर में सामूहिक कजली विसर्जन की पुरातन परम्परा का निर्वहन करता है।
इतिहास
उत्तर भारत के सबसे प्राचीन और विशाल मेले के रूप में विख्यात महोबा के कजली मेले की परम्परागत शुरुआत 1857 में प्रथम स्वाधीनता संग्राम के अमर शहीदों के बलिदान के साक्षी हवेली दरवाजा मैदान से हुई। बुंदेली लोककला संस्कृति का दिग्दर्शन कराने वाला कजली मेला महोबा के तत्कालीन चंदेल साम्राज्य द्वारा बारहवीं शताब्दी में हुए भुजरियों के युद्ध में मिली शानदार विजय के उत्सव की स्मृति में आयोजित होता है।
प्रचलित कथा के अनुसार दिल्ली नरेश पृथ्वीराज चौहान ने इस क्षेत्र में अपना आधिपत्य कायम करने के लिए यहाँ आक्रमण कर चंदेल शासक परमाल से युद्ध के बदले अपनी बेटी चंद्रावल को सोपने, लोहे को छुलाने पर सोना बना देने वाली चमत्कारी पारस पथरी, नोलखा हार आदि सात महत्वपूर्ण वस्तुएं उपहार में दे उसकी आधीनता स्वीकार करने अथवा युद्ध करने का प्रस्ताव भेजा था। सन 1182 में सावन की पूर्णिमा के दिन एकाएक अपनी मातृभूमि की आन बान और शान पर आए इस गंभीर संकट का सामना करते हुए चंदेल सेना के दो वीर सेनानायकों आल्हा और ऊदल ने अप्रतिम युद्ध कौशल का प्रदर्शन कर चौहान सेना को बुरी तरह परास्त कर विजय प्राप्त की थी। इस युद्ध मे भारी शिकस्त के साथ पृथ्वीराज चौहान को अपने एक पुत्र को भी खोना पड़ा था। पूर्णिमा का दिन तब युद्ध में गुजरने के कारण महोबा में राखी का त्योहार नहीं मनाया जा सका था और कजली भी विसर्जित नहीं हो सकी थी।[1]
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