आलूबुखारा

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अलूचा या आलूबुखारा (अंग्रेजी नाम: प्लम; वानस्पतिक नाम: प्रूनस डोमेस्टिका; प्रजाति: प्रूनस; जाति: डोमेस्टिका; कुल: रोजेसी) एक पर्णपाती वृक्ष है। इसके फल को भी अलूचा या प्लम कहते हैं। फल लीची के बराबर या कुछ बड़ा होता है और छिलका नरम तथा साधरणत: गाढ़े बैंगनी रंग का होता है। गूदा पीला और खटमिट्ठे स्वाद का होता है। भारत में इसकी खेती नहीं के समान है; परंतु अमरीका आदि देशों में यह महत्वपूर्ण फल है। केवल कैलिफोर्निया में लगभग एक लाख पेटी माल प्रति वर्ष बाहर भेजा जाता है। आलूबुखारा (प्रूनस बुखारेंसिस) भी एक प्रकार का अलूचा है, जिसकी खेती बहुधा अफगानिस्तान में होती है। अलूचा का उत्पत्तिस्थान दक्षिण-पूर्व यूरोप अथवा पश्चिमी एशिया में काकेशिया तथा कैस्पियन सागरीय प्रांत है। इसकी एक जाति प्रूनस सैल्सिना की उत्पत्ति चीन से हुई है। इसका जैम बनता है।

यह खटमिट्ठा फल भारत के पहाड़ी प्रदेशों में होता है। अलूचा के सफल उत्पादन के लिए ठंडी जलवायु आवश्यक है। देखा गया है कि उत्तरी भारत की पर्वतीय जलवायु में इसकी उपज अच्छी हो सकती है। मटियार, दोमट मिट्टी अत्यंत उपयुक्त है, परंतु इस मिट्टी का जलोत्सारण (ड्रेनेज) उच्च कोटि का होना चाहिए। इसके लिए 30-४0 सेर सड़े गोबर की खाद या कंपोस्ट प्रति वर्ष, प्रति वृक्ष के हिसाब से देना चाहिए। इसकी सिंचाई आड़ू की भांति करनी चाहिए। अलूचा का वर्गीकरण फल पकने के समयानुसार होता है: (1) शीघ्र पकनेवाला, जैसे अलूचा लाल, अलूचा पीला, अलूचा काला तथा अलूचा ड्वार्फ; (2) मध्यम समय में पकनेवाला, जैसे अलूचा लाल बड़ा, अलूचा जर्द तथा आलूबुखारा; (3) विलम्ब से पकनेवाला, जैसे अलूचा ऐल्फा, अलूचा लेट, अलूचा एक्सेल्सियर तथा केल्सीज जापान।

अलूचा का प्रसारण आँख बाँधकर (बडिंग द्वारा) किया जाता है। आड़ू या अलूचा के मूल वृंत पर आंख बांधी जाती है। दिसंबर या जनवरी में 15-15 फुट की दूरी पर इसके पौधे लगाए जाते हैं। आरंभ के कुछ वर्षों तक इसकी काट-छांट विशेष सावधानी से करनी पड़ती है। फरवरी के आरंभ में फूल लगते हैं। शीघ्र पकनेवाली किस्मों के फल मई में मिलने लगते हैं। अधिकांश फल जून-जुलाई में मिलते हैं। लगभग एक मन फल प्रति वृक्ष पैदा होता है।[1]

आयुर्वेद के मतानुसार यह हृदय को बल देनेवाला, गरम, कफ-पित्त-नाशक, पाचक, मधुर तथा प्रमेह, गुल्म, वबासीर और रक्तवात में उपयोगी है, दस्तावर है तथा ज्वर को शांत करता है। इसके वृक्ष का गोंद खाँसी तथा फेफड़े और छाती की पीड़ा में लाभदायक तथा गुर्दे और मूत्राशय की पथरी को तोड़कर निकालने वाली है। इसे भोजन के पहले खाने से पित्तविकार मिटते हैं तथा मुँह में रखने से प्यास कम लगती है। इसका चूर्ण घाव पर भुरभुराने से या इसके पानी से घाव धोने से भी लाभ होता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 1 |प्रकाशक: नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 259 |

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