संस्कृत-हिन्दी शब्दकोश

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आवश्यक निर्देश

1. शब्दों को देवनागरी वर्णों में अकारादि क्रम से रखा गया है।

2. पुंल्लिंग शब्दों का कर्तृकारक एकवचन रूप लिखा गया है, इसी प्रकार नपुंसकलिंग शब्दों का भी प्रथमा विभक्ति का एकवचनांत रूप लिखा है। जो शब्द विभिन्न लिंगों में प्रयुक्त होता है, उसके आगे स्त्री., या पुं. एवं नपुं. लिखकर दर्शाया गया है। विशेषण शब्दों का प्रातिपदिक रूप रखकर उसके आगे वि. लिख दिया गया है।

3. जो शब्द क्रियाविशेषण के रूप में प्रयुक्त होते हैं तथा विशेषण या संज्ञा से व्युत्पन्न होते हैं उन्हें उस संज्ञा या विशेषण के अन्तर्गत कोष्ठक के अन्दर रखा गया है, जैसे-'पर' के अन्तर्गत परेण या परे अथवा 'समीप' के अन्तर्गत समीपतः या समीपे।

4.(क) शब्दों के केवल भिन्न-भिन्न अर्थों को पृथक् अंग्रेजी क्रमांक देकर दर्शाया गया है। सामान्य अर्थाभास को स्पष्ट करने के लिए एक से अधिक पर्याय रखे गए हैं।
(ख) उद्धृत प्रमाणों के उल्लेख में देवनागरी के अंकों का प्रयोग किया गया है।

5. जहाँ तक हो सका है, शब्दों को प्रयोगाधिक्य तथा महत्त्व की दृष्टि से क्रमबद्ध किया गया है।

6. प्रत्येक मूल शब्द की संक्षिप्त व्युत्पत्ति [ ] प्रकोष्ठक में दे दी गई है जिससे कि शब्द का यथा ज्ञान हो सके। प्रत्यय और उपसर्ग की सामान्य जानकारी के लिए सामान्य प्रत्यय-सूचि साथ संलग्न है।

7.(क) समस्त शब्दों को मूल शब्द के अन्तर्गत ही पड़ी रेखा (=मूल शब्द) के पश्चात् रखा गया है, जैसे 'अग्नि' के अन्तर्गत-होत्र, 'अग्निहोत्र' प्रकट करता है।
(ख) समस्त शब्दों में-मूल शब्दों के पश्चात् उत्तरखंड-को मिलाने में सन्धि के नियमानुसार जो परिवर्तन होते हैं उन्हें पाठक को स्वयं जानने का अभ्यास होना चाहिए-यथा 'पूर्व' के साथ 'ऊपर' को मिलाने से 'पूर्वापर'; 'अघस्' के आगे 'गतिः' को मिलाने से ‘अधोगति’ बनता है। कई स्थानों पर उन समस्त शब्दों को, जो सरलता से न समझे जा सकें, पूरा-का-पूरा कोष्ठक में लिख दिया गया है।
(ग) जहाँ तक समस्त शब्द ही दूसरे समस्त शब्द के प्रथम खंड के रूप में प्रयुक्त हुआ है वहाँ उस पूर्वखंड को शीर्ष रेखा के साथ ° लगा कर दर्शाया गया है, जैसे- द्विज (समस्त शब्द) में 'इंद्र' या 'राज' जोड़ना है तो लिखेंगे-इंद्र, -'राज, और इसे पढ़ेंगे 'द्विजेन्द्र' या 'द्विजराज'।
(घ) सभी अलूक् समासयुक्त (उदा. कुशेशय, मनसिज, हृदिस्पृश् आदि) शब्द पृथक् रूप से यथास्थान रखे गए हैं। मूल शब्दों के साथ उन्हें नहीं जोड़ा गया।

8. कृदन्त और तद्धित प्रत्ययों से युक्त शब्दों को मूल शब्दों के साथ न रखकर पृथक् रूप से यथास्थान रखा गया है। फलतः ‘कूलंकष' 'भयंकर' 'अन्नमय' 'प्रातस्तन' और 'हिंगवत्' आदि शब्द 'कूल' और 'भय' आदि मूल शब्दों के अन्तर्गत नहीं मिलेंगे।

9. स्त्रीलिंग शब्दों को प्रायः पृथक् रूप से लिखा गया है, परन्तु अनेक स्थानों पर पुल्लिंग रूप के साथ ही स्त्रीलिंग रूप दे दिया गया है।

10.(क) धातुओं के आगे आ. (आत्मनेपदी), पर. (परस्मैपदी) तथा उभ. (उभयपदी), के साथ गणद्योतक चिह्न भी लगा दिए गये हैं।
(ख) प्रत्येक धातु का पद, गण, लकार ( ) कोष्ठ के अन्दर धातु के आगे रूप के साथ दे दिया गया है।
(ग) धातु के लट् लकार का, प्रथम पुरुष का एक वचनांत रूप ही लिखा गया है।
(घ) धातुओं के साथ उनके उपसर्गयुक्त रूप अकारादिक्रम से धातु के अन्तर्गत ही दिखलाए गए हैं।
(ङ) पद, वाच्य, विशेष अर्थ अथवा उपसर्ग के कारण धातुओं के परिवर्तित रूप () कोष्ठकों में दिखलाए गए हैं।

11. धातुओं के तव्य, अनीय, और य प्रत्यययुक्त कृदन्द रूप प्रायः नहीं दिए गए। शत्रन्त और शानजन्त विशेषण तथा ता, त्व या य प्रत्यय के लगाने से बने भाववाचक संज्ञा शब्दों को भी पृथक् रूप से नहीं दिया गया। ऐसे शब्दों के ज्ञान के लिए विद्यार्थी को व्याकरण का आश्रय लेना अपेक्षित है। जहाँ ऐसे शब्दों की रूपरचना या अर्थों में कोई विशेषता है उन्हें यथास्थान रख दिया गया है।

12. शब्दों से संबद्ध पौराणिक अन्तःकथाओं को शब्दार्थ के यथार्थ ज्ञान के लिए-() कोष्ठकों में संक्षिप्त रूप से रखा गया है।


13. जो शब्द या संबद्ध पौराणिक उपाख्यान मूल कोश में स्थान न पा सके, उन्हें परिशिष्ट के रूप में कोश के अन्त में जोड़ दिया गया है।

14. संस्कृत साहित्य में प्रयुक्त छन्दों के ज्ञान के लिए तथा अन्य भौगोलिक शब्द एवं साहित्यकारों की सामान्य जानकारी के लिए कोश के अन्त में परिशिष्ट जोड़ दिए गये हैं।


विशेष वक्तव्य

छात्रों की आवश्यकता का विशेष ध्यान रखकर इस कोश को और भी अधिक उपादेय बनाने के लिए प्रायः सभी मूल शब्दों के साथ उनकी संक्षिप्त व्युत्पत्ति दे दी गई है। शब्दों की रचना में उपसर्ग और प्रत्ययों का बड़ा महत्त्व है। इनकी पूरी जानकारी तो व्याकरण के पढ़ने से ही होगी। फिर भी इनका यहाँ दिग्दर्शन अत्यंत लाभदायक होगा।[1]

उपसर्ग - “उपसर्गेण धात्वर्थो बलादन्यत्र नीयते । प्रहाराहार संहारविहारपरिहारवत् ।”

उपसर्ग धातुओं के पूर्व लगकर उनके अर्थों में विभिन्नता ला देते हैं-

उपसर्ग उदाहरण उपसर्ग उदाहरण
अति अत्यधिकम् दुस् दुस्तरणम्
अधि अधिष्ठानम् दुर् दुर्भाग्यम्
अनु अनुगमनम् नि निदेश:
अप अपयश: निस् निस्तारणम्
अपि पिंघानम्‌ निर् निर्धन
अभि अभिभाषणम् परा पराजय:
अव अवतरणम् परि परिव्राजक:
आगमनम् प्र प्रबल
उत् उत्थाय, उद्गमनम् प्रति प्रतिक्रिया
उप उपगमनम् वि विज्ञानम्
सु सुकर

प्रत्यय - धातुओं के पश्चात् लगने वाले प्रत्यय कृत् प्रत्यय कहलाते हैं। शब्दों के पश्चात् लगने वाले प्रत्यय तद्धित कहलाते हैं।

कृत्प्रत्यय उदाहरण कृत्प्रत्यय उदाहरण
अ, अङ पिपठिषा इत्नु स्तनयित्नु
- छिदा इष्णुच् रोचिष्ण
अच्, अप् पचः, सरः जिगमिषुः
- कर: उण् कारू:
अण्‌ कुम्भकार: ऊक जागरूक
अथुच् वेपथु: क (अ) ज्ञ:, द:
अनीयर्‌ करणीय, दर्शनीय कि (इ) चक्रि
आलुच्‌ स्पृहयालु कुरच्‌ विदुर
इक्‌ पचिः क्त (त, न) हत, छिन्न
क्तवत् (तवत्) उक्तवत्‌ ण्वुल् (अक) पाठक
क्तिन् (ति) कृति: तृच् कर्त्‌
क्त्वा (त्वा) पठित्वा तुमुन् (तुम्) कर्तुम्
कु (नु) गृघ्नु नङ् प्रश्न
क्यच् पुत्रीयति यत् गेय, देय
क्यप् (य) कृत्य हिस्र
क्रु (रु) भीरु ल्यप् (य) आदाय
क्वरप् (वर) नश्वर लयुट् (अन) पठनं, करणम
क्विप् स्पृक्‌, वाक्‌ वनिप् यज्वन्
खच् (अ) स्तनंधय: वरच् ईश्वर
घञ् (अ) त्याग:, पाक: वुञ्‌ (अक) निन्दक
थिनुण् (इन्) योगिन्‌, त्यागिन्‌ वुन् (अक) निन्दक
घुरच् (उर) भङ्गुर श (अ) क्रिया
ड (अ) दूरग: शतृ (अत्) पचत्‌
डु (उ) प्रभु: शानच् (आन या मान) शयान, वर्तमान
ण (अ) ग्राह: ष्ट्रन् (त्र) शस्त्रम्‌, अस्त्रम्‌
णिनि (इन्) स्थायिन्‌ - -
णमुल (अम्) स्मारं स्मारं - -
ण्यत् (य) कार्य - -
असुन् (अस्) सरस्, तपस् - -

तद्धित तथा उणादि प्रत्यय उदाहरण

अञ्‌ (अ) औत्सः उलच् हर्षुल
अण् (अ) शैवः ऊङ् कर्कन्धु
असुन्‌ (अस्) सरस्, तपस् देवृ
अस्ताति (अस्तात्) अधस्तात् एद्यसुच् (एघुस्) अन्येद्यु:
आलच् वाचाल राष्ट्रकम्, सुवर्णकम्
आलुच् दयालु क्स्न (स्न) कृत्स्नम्
इञ् दाशरथि, खञ् (ईन) महाकुलीन
इतच् कुसुमित ङीप् (ई) मृगी,
इमनिच् (इमन्) गरिमन्, चणम् अक्षरचणः,
इलच् फेनिल छ (ईय) त्वदीय, भवदीय,
इष्ठन् गरिष्ठ ञ (अ) पौर्वशालः
इस् ज्योतिस् ञ्य (य) पाञ्चजन्यः
ईकक् (ईक) शाक्तीक, टयुल् (तन) सायंतन
ईयसुन् (ईयस्) लघीयस् ठक्(इक) धार्मिक,
ईरच् शरीर ठञ् (इक) नैशिक
उरच् दन्तुर ठन् (इक) बौद्धिक
डतमच् (अतम) कतम दघ्नच जानुदघ्न
इतर (अतर) कतर फक् (आयन) आश्वलायन
ढक् (एय) कौन्तेय, गाङ्गेय फञ्‌ (आयन) वात्स्यायन
ण्य (य) दैत्य मध्यम
तरप् (तर, तम) प्रियतर मतुप्‌ (मत्) धीमत्‌
तमप् प्रियतम मतुप् (वत्) वलवत्‌
तसिल् (तस्) मूलतः मयट् जलमय
त्यक् पाश्चात्य मात्रच् ऊरुमात्र
त्यप् अत्रत्य सभ्य:
त्रल् कुत्र, सर्वत्र थाल् सर्वथा
यञ्‌ गार्ग्य: मधुर
लच् मांसल वलच् रजस्वला
विनि यशस्विन् प्कन् (क) पथिक
ष्यञ्‌ (य) सौन्दर्य, नौपुण्य सन् (स) चिकीर्पा
इह - -


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. संस्कृत-हिन्दी शब्दकोश |लेखक: वामन शिवराम आप्टे |प्रकाशक: कमल प्रकाशन, नई दिल्ली-110002 |

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