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अर्थः (पुल्लिंग) [ऋ+थन्]

1. आशय, प्रयोजन, लक्ष्य, उद्देश्य, अभिलाप, इच्छा, समास के उत्तर पद के रूप में प्रायः इसी अर्थ में प्रयुक्त होता है तथा निम्नांकित अर्थों में अनूदित किया जाता है:- 'के लिए' 'के निमित्त' 'की खातिर' 'के कारण' 'के बदले में'; संज्ञाओं को विशेषित करने के लिए विशेषण के रूप में भी प्रयुक्त होता है-सन्तानार्थाय विधये-रघु. 1/34 तां देवता-पित्रतिथिक्रियार्था (धेनुम्) 2/16, द्विजार्था यवागूः सिद्धा., यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र-भग. 3/9; क्रिया विशेषण के रूप में भी यह इसी अर्थ में प्रयुक्त होता है, यथा-अर्थम्, अर्थे या अर्थाय; किमर्थम्- किस प्रयोजन के लिए, वेलोपलक्षणार्थम्-श. 4, तदर्शनादभूच्छम्भोर्भूयान्दारार्थमादरः-कु. 6/13 गवार्थे ब्राह्मणार्थे च-पंच. 1/420, मदर्थे त्यक्तजीविताः-भग. 1/9, प्रत्याख्याता मया तत्र नलस्यार्थाय देवताः-नल. 13/19, ऋतुपर्णस्य चार्याय-23/9;
2. कारण, प्रयोजन, हेतु, साधन-अलुप्तश्च मुनेः क्रियार्थः-रघु. 2/55, साधन या हेतु
3. अभिप्राय, तात्पर्य, सार्थकता, आशय-अर्थ तीन प्रकार का है:-वाच्य (अभिव्यक्त), लक्ष्य (संकेतित या गौण) और व्यंग्य (ध्वनित)-तददोषी शब्दार्थों-काव्य. 1, अर्थो वाच्यश्च लक्ष्यश्च व्यङ्ग्यचेति विधानतः-सा. द. 2
4. वस्तु, विषय, पदार्थ, सारांश-अर्थो हि कन्या परकीय एवं जो ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा जाना जा सके, ज्ञानेन्द्रिय की वस्तु इंद्रिय° हि. 1/146, कु. 7/71 इन्द्रियेभ्यः पराहा अप मनः-कठ. (ज्ञानेन्द्रियों के विषय पाँच हैं- रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द)
5.
(क) मामला, व्यापार, बात, कार्य, प्राक प्रतिपन्नोऽय-मर्याऽडुगराजाय-वेणी, 3, अर्थोऽयमर्थान्तरभाव्य एवं कु. 9/18, अर्थोऽयनुबन्धी-दश, 67, सङ्गीतार्थ: मेघ, 56, गायन-व्यापार अर्थात् समवेत गान (गायनोपकरण), सन्देशार्था:-मेघ. 5, संदेश की बातें अर्थात् संदेश
(ख) हित, इच्छा (स्वार्थसाधनतत्परः-मनुस्मृति 4/196, द्वयमेवार्थ-साधनम्-रघु. 1/19, दुरापेऽर्थे 1/72, सर्वार्थ-चिन्तक: मनुस्मृति 7/121, मालविकायां न ये कश्चिदर्थ-मालवि
(ग) विषय-सामग्री, विषय-सूची-त्वामवगतार्थं करिष्यति-मुद्रा. (मैं आपको विषय-सामग्री से परिचित कराऊँगा), तेन हि अस्य गृहीतार्था भवामि-विक्रम. 2, (यदि ऐसी बात है तो मुझे इस विषय की जानकारी होनी चाहिए)
6. दौलत, धन, सम्पत्ति, रुपया-त्यागाय संभृतार्थानाम्-रघु. 1/7, धिगर्थाः कष्टसंश्रयाः-पंच. 1/163
7. धन या सांसारिक ऐश्वर्य को प्राप्त करना, जीवन के चार पुरुषार्थों में से एक-अन्य तीन हैं:- धर्म, काम और मोक्ष; अर्थ, काम और धर्म मिलाकर प्रसिद्ध त्रिक बनता है, तु. कु. 5/38,-अप्यर्थकामी तस्यास्तां धर्म एव मनीषिणः-रघु. 1/25
8.
(क) उपयोग, हित, लाभ, भलाई, तथा हि सर्वे तस्यासन् परार्थैकफला गुणाः-रघु. 1/29, यावानर्थ उदपाने सर्वतः संप्लुतोदके-भग. 2/46, दे. व्यर्थ और निरर्थक भी
(ख) उपयोग, आवश्यकता, जरूरत, प्रयोजन-करण. के साथ:- कोऽर्थः पुत्रेण जातेन-पंच. 1 (उस पुत्र के पैदा होने से क्या लाभ?) कश्च तेनार्थ:-दश. 59, कोऽर्थस्तिरश्चां गुणैः-पंच. 2/33, क्रूर व्यक्ति गुणों की क्या परवाह करते हैं? भर्तृ. 2/48;-योग्येनार्थः कस्य न स्याज्जनेन-शि. 18/66, नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन-भग. 3/18
9. मांगना, याचना, प्रार्थना, दावा, याचिका
10. कार्यवाही, अभियोग (विधि.)
11. वस्तुस्थिति, याथार्थ्य, जैसा कि यथार्थ, और अर्थतः में-°तत्त्वविद्
12. रीति, प्रकार, तरीका
13. रोक, दूर रखना-मशकार्थो धूमः, प्रतिषेध, उन्मूलन
14. विष्णु


सम.-अधिकारः (अर्थाधिकार) (पुल्लिंग) रुपये-पैसे का कार्यभार, कोषाध्यक्ष का पद, नियोक्तव्या हि. 2.-अधिकारिन् (पु.) कोषाध्यक्ष, अन्तरम् (नपुं.) 1. अन्य अभिप्राय या भिन्न अर्थ 2. दूसरा कारण या प्रयोजन-अर्थोऽयमर्थान्तरभाव्य एवं कु. 3/18 3. एक नई बात या परिस्थिति, नया मामला 4. विरोधी या विपरीत अर्थ, अर्थ में भेद, एन्यासः एक अलंकार जिसमें सामान्य से विशेष विशेष से सामान्य का समर्थन होता है, यह एक प्रकार का विशेष से सामान्य अनुमान है अथवा इसके विपरीत-उक्तिरथन्तिरन्यासः स्यात सामान्यविशेषयोः । (1) हनूमानब्धिमतरद् दुष्करं किं महात्मनाम्। (2) गुणवद्वस्तुसंसर्गाद्याति नीचोऽपि गौरवम्, पुष्पमालानुषङ्गेण सूत्रं शिरसि धार्यते ।। कुवल., तु. काव्य. 10 और सा. द. 709,-अन्वित (अर्थान्वित) विशेषण 1. धनवान्, दौलतमंद 2. सार्थक,-आर्थिन् (अर्थार्थिन) विशेषण जो अपना अभीष्ट सिद्ध करने के लिए या धन प्राप्त करने के लिए प्रयत्न करता है,-अलंकारः (अर्थालंकार) (पुल्लिंग) साहित्यशास्त्र में वह अलंकार जो या तो अर्थ पर निर्भर हो, या जिसका निर्णय अर्थ से किया जाए, शब्द से नहीं (विप. शब्दालंकार),-आगमः (अर्थागम्) (पुल्लिंग) 1. धन की प्राप्ति, आय 2. किसी शब्द के अभिप्राय को बतलाना,-आपत्तिः (अर्थापत्ति) स्त्रीलिंग 1. परिस्थितियों के आधार पर अनुमान लगाना, अनुमानित वस्तु, फलितार्थ, ज्ञान के पाँच साधनों में से एक अथवा (मीमांसकों के अनुसार) पाँच प्रमाणों में से एक, प्रतीयमान असंगति का समाधान करने के लिए यह एक प्रकार का अनुमान है, इसका प्रसिद्ध उदाहरण है:-पीनो देवदत्तः दिवा न भुङ्क्ते, यहाँ देवदत्त के 'मोटेपन' और 'दिन में न खाने' की असंगति के समाधान 'वह रात्रि को अवश्य खाता होगा' अनुमान से किया जाता है; 2. एक अलंकार (कुछ साहित्यशास्त्रियों के अनुसार) जिसमें एक संबद्ध उक्ति से ऐसे अनुमान का सुझाव मिलता है जो प्रस्तुत विषय से कोई संबंध नहीं रखता- या इसके ठीक विपरीत है; यह कैमुतिकन्याय या दण्डापूपन्याय से मिलता जुलता है; उदा.-हारोऽयं हरिणाक्षीणां लुठति स्तनमण्डले, मुक्तानामप्यवस्थेयं के वयं स्मरकिंङ्कराः । अमरु. 100, अभितप्तमयोऽपि मार्दवं भजते कैव कथा शरीरिषु-रघु. 8/43,-उत्पत्तिः (अर्थोत्पत्तिः) स्त्रीलिंग धन प्राप्ति, [1]


इन्हें भी देखें: संस्कृत-हिन्दी शब्दकोश (संकेताक्षर सूची), संस्कृत-हिन्दी शब्दकोश (संकेत सूची) एवं संस्कृत-हिन्दी शब्दकोश


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. संस्कृत-हिन्दी शब्दकोश |लेखक: वामन शिवराम आप्टे |प्रकाशक: कमल प्रकाशन, नई दिल्ली-110002 |पृष्ठ संख्या: 104-105 |

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