मोक्ष

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भारतीय दर्शन में नश्वरता को दु:ख का कारण माना गया है। संसार आवागमन, जन्म-मरण और नश्वरता का केंद्र हैं। इस अविद्याकृत प्रपंच से मुक्ति पाना ही मोक्ष है। प्राय: सभी दार्शनिक प्रणालियों ने संसार के दु:खमय स्वभाव को स्वीकार किया है और इससे मुक्त होने के लिये कर्म मार्ग या ज्ञान मार्ग का रास्ता अपनाया है। मोक्ष इस तरह के जीवन की अंतिम परिणति है। इसे पारमार्थिक मूल्य मानकर जीवन के परम उद्देश्य के रूप में स्वीकार किया गया है।[1]

जीवन मुक्ति

मोक्ष को वस्तु सत्य के रूप में स्वीकार करना कठिन है। सभी प्रणालियों में मोक्ष की कल्पना प्राय: आत्मवादी है। अंततोगत्वा यह एक वैयक्तिक अनुभूति ही सिद्ध हो पाता है। यद्यपि विभिन्न प्रणालियों ने अपनी अपनी ज्ञानमीमांसा के अनुसार मोक्ष की अलग-अलग कल्पना की है, तथापि अज्ञान, दु:ख से मुक्त हो सकता है। इसे जीवन मुक्ति कहेंगे।

कुछ प्रणालियाँ, जिनमें न्याय, वैशेषिक एवं विशिष्टाद्वैत उल्लेखनीय हैं, जीवन मुक्ति की संभावना को अस्वीकार करते हैं। दूसरे रूप को 'विदेह मुक्ति' कहते हैं। जिसके सुख दु:ख के भावों का विनाश हो गया हो, वह देह त्यागने के बाद आवागमन के चक्र से सर्वदा के लिये मुक्त हो जाता है। उसे निग्रहवादी मार्ग का अनुसरण करना पड़ता है। उपनिषदों में आनंद की स्थिति को ही मोक्ष की स्थिति कहा गया है, क्योंकि आनंद में सारे द्वंद्वों का विलय हो जाता है। यह अद्वैतानुभूति की स्थिति है। इसी जीवन में इसे अनुभव किया जा सकता है।

मानसिक क्रियाएँ

वेदांत में मुमुक्षु को श्रवण, अनन एवं निधिध्यासन, ये तीन प्रकार की मानसिक क्रियाएँ करनी पड़ती हैं। इस प्रक्रिया में नानात्व का जो अविद्याकृत है, विनाश होता है और आत्मा, जो ब्रह्मस्वरूप है, उसका साक्षात्कार होता है। मुमुक्षु 'तत्वमसि' से 'अहंब्रह्यास्मि' की ओर बढ़ता है। यहाँ आत्म साक्षात्कार को मोक्ष माना गया है। वेदांत में यह स्थिति जीवन मुक्ति की स्थिति है। मृत्यु उपरांत, वह ब्रह्म में विलीन हो जाता है। ईश्वरवाद में ईश्वर का सान्निध्य ही मोक्ष है। दूसरे वादों में संसार से मुक्ति ही मोक्ष है। लोकायत में मोक्ष को अस्वीकार किया गया है।

बौद्ध दर्शन में

बौद्ध दर्शन में निर्वाण की कल्पना मोक्ष के समानांतर ही की गई है। 'निर्वाण' का अर्थ है, बुझ जाना। संक्षेप में इसे चित्त निरोध की स्थिति स्वीकार किया गया है। बौद्ध दर्शन में भी बंधन का कारण अविद्या को माना गया है। यह बंधन ज्ञान के माध्यम से ही काटा जा सकता है। किंतु इस तरह का ज्ञान कठोर अनुशासन का पालन करने पर ही उपलब्ध हो सकेगा। इसके लिये अष्टांगिक मार्ग की व्यवस्था की गई है। वे इस प्रकार हैं: सम्यक दृष्टि, सम्यक संकल्प, सम्यक वचन, सम्यक कर्म, सम्यक जीविका, सम्यक प्रयत्न, सम्यक स्मृति और सम्यक समाधि।

इनमें से प्रथम दो ज्ञान, मध्य के तीन शील एवं अंतिम तीन समाधि के अंतर्गत आते हैं। इस मार्ग का अनुसरण करने पर तृष्णा का निरोध होता है, तृष्णा के निरोध से संग्रह प्रवृत्ति का निरोध होता है, फिर भव का विरोध होता है और जन्म का निरोध होता है। इस प्रकार स्कंर्धों का सर्वकालिक लोप हो जाता है। इस प्रकार की मुक्ति जीवन में भी संभव है, किंतु मृत्यु उपरांत निर्वाण का क्या स्वरूप होगा, इसे निषेधात्मक रूप से बतलाया गया है। एक प्रकार से वह शल्नय के समान है।

जैन दर्शन में

जैन दर्शन में जीव और अजीव का सबंध कर्म के माध्यम से स्थापित होता है। कर्म के माध्यम से जीव को अजीव या जड़ से बँध जाना ही बंधन है। इस प्रक्रिया का आस्राव शब्द से व्यक्त करते हैं। आस्राव का निरोध होने पर ही जीव अजीव से मुक्त हो सकता है। इसके लिये त्रिविध संयम की व्यवस्था की गई है। सम्यक दर्शन (श्रद्धा), सम्यक ज्ञान और सम्यक चरित्र का पालन करते हुए मोक्ष की प्राप्ति होती है। इन 'त्रिरत्नों' के पालन से आस्राव निरूद्ध होता है। मुक्त होने के क्रम में दो स्थितियाँ आती हैं-

  1. पहले नवीन कर्मों का प्रवाह निरुद्ध होता है, इसे 'संवर' कहते हैं।
  2. दूसरी अवस्था में पूर्व जन्मों के संचित कर्मों का भी विनाश हो जाता है। इसे 'निर्जरा' कहते हैं।

इसके बाद की ही स्थिति मोक्ष कहलाती है। यह जीवनमुक्ति की स्थिति है, लेकिन विदेह मुक्ति के बाद जैन किसी ईश्वर या ब्रह्म की सत्ता को स्वीकार नहीं करते। फिर भी यह स्पष्ट रूप से पारमार्थिक स्वरूप माना गया है। विदेह मुक्ति की अवस्था में 'केवल ज्ञान' की उपलब्धि हो जाती है। ऐसी स्थिती में आत्मा सर्वांगीण संपूर्ण होती है। अनंत ज्ञान, अनंत शांति एवं अनंत ऐश्वर्य उसे सहज ही प्राप्त हो जाते हैं।

मुक्ति का अर्थ

न्याय, वैशेषिक मोक्ष की कल्पना भिन्न प्रकार से करते हैं। वे मोक्ष की स्थिति को आनंदमय नहीं मानते। क्योंकि दु:ख और सुख दोनों आत्मा के विशेष गुण हैं, इसलिये दोनों सत्य हैं। न्याय वैशेषिक अभाव को भी एक पदार्थ मानते हैं। इसीलिये दोनों सत्य हैं। न्याय, वैशेषिक अभाव को भी एक पदार्थ मानते हैं। इसीलये दु:ख के अभाव का अर्थ आनंद का होना, नहीं है। मुक्ति का अर्थ है 'अपवर्ग', दु:ख सुख दोनों से परे होना। ये दोनों आत्मा के मूलभूत गुण नहीं हैं। इसलिये मोक्ष की स्थिति में आत्मा दोनों से मुक्त हो जाती है। दु:ख से मुक्ति पाने के पहले हमें सुख की आशा ही छोड़ देनी चाहिए। क्योंकि दु:ख अंत तक हमारा पीछा नहीं छोड़ता, लेकिन हम उसका अतिक्रमण कर सकते हैं। यह अवस्था सुख दु:ख के परे होने से प्राप्त होती है। ऐसा व्यक्ति देहत्याग के पश्चात् विदेह मुक्ति को प्राप्त कर लेता है। इस अवस्था में आत्मा अपने विशेष गुणों से परे हो जाता है। एक तरह से वह संवेदनहीन और इच्छा शून्य हो जाता है उसमें पुन: चैतन्य प्रविष्ट होगा ही नहीं। जीवनमुक्ति इस संप्रदाय में अस्वीकार की गई है।फिर वह अच्छे कर्मो का संपादन करते हुए, 'दिव्य विभूति' पद को प्राप्त कर सकता है। किंतु आत्मा के विशेष गुण बने रहेंगें। इसमें भी योग, ध्यान और क्रमिक अभ्यास के कठोर संयमों का पालन करना पड़ता है।

मोक्ष का साधन

सांख्य योग में 'कैवल्य' को जीवन का परम लक्ष्य माना गया है। यह मोक्ष के समान ही है। यह जिससे मुक्त होता है, उसे प्रकृति और जो मुक्त होता है, उसे पुरुष स्वरूप से ही असंग है। कैवल्य उसका स्वभाव है। प्रकृति के संसर्ग में आने पर वह अपने स्वरूप को भूल जाता है। वह अहम बुद्धि के आ जाने पर संसार को सत्य मान लेता है। संसार के प्रति अनासक्ति भाव उत्पन्न करने के लिये मुमुक्ष को कठोर तप, नियम एवं संयम का पालन करना पड़ता है। इस कठोर साधना के आठ अंग हैं, यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। इस साधना के माध्यम से व अहंभाव से मुक्त होता है। यहाँ मुक्त होने का अर्थ किसी अन्य सत्ता, ईश्वर या ब्रह्म से संयोग नहीं है, बल्कि मोक्ष यहाँ वियोग की स्थिति है। प्रवृत्ति से मुक्त होकर, परम शांति का मनन करता हुआ पुरुष अपनी असफलता को प्राप्त कर लेता है। इस अवस्था में साधक जीवन मुक्त हो जाता है। प्रकृति से अपनी भिन्नता को समझते हुए वह रोग द्वेष इत्यादि से प्रभावित नहीं होगा। देह त्यागने के बाद वह विदेह मुक्त हो जाएगा। सांध्य ईश्वर में विश्वास नहीं करता, लेकिन योग ईश्वर या भक्ति को भी मोक्ष का साधन मानता है। किंतु यह श्रद्धालु अथवा अज्ञानियों के लिये स्वीकृत किया गया है, जो कठोर योगांगों का अभ्यास करने में अक्षम हैं।

पूर्वमीमांसा में कर्म को सर्वाधिक महत्व दिया गया है। इसलिये जीवन में दु:ख से मुक्ति और सुख की प्राप्ति की इच्छा करने वाला धार्मिक कर्म करे। ये धार्मिक कर्म, यज्ञ, दान, इत्यादि करने से स्वर्गादि की प्राप्ति हाती है। एक तरह से मोक्ष कर इससे कोई संबंध नहीं है। अद्वैत वेदांत में मोक्ष की कल्पना उपनिषदों के आधार पर की गई है। वेदांत में कर्म अथवा भक्ति की प्रधानता न देकर ज्ञान को प्रधानता दी गई है। यद्यपि मुमुक्षु को कुछ निश्चित अनुशासनों का पालन करना पड़ता है। इसके अनंतर अद्वैतवादी शिक्षा पर ध्यान एकाग्र किया जाता है। आत्मा को ब्रह्म स्वरूप माना गया है। 'अहम्‌ ब्रह्मास्मि' का ज्ञान होना होता है। यही मोक्ष है। तब आत्मा सत, चित, आनंद से पूर्ण हो जाता है। आचार्य शंकर इस सिद्धांत के प्रधान व्याख्याता हैं। विशिष्टाद्वैत में ज्ञान की अपेक्षा भक्ति को प्रधान माना गया है। भक्ति के माध्यम से नारायण का सान्निध्य प्राप्त होता है।

ईश्वर का चिंतन

नारायण के संरक्षण में ही पूर्ण मुक्ति और आनंद की प्राप्ति होती है। यह सान्निध्य दो साधनों से प्राप्त किया जा सकता है। क्रमश: इसे भक्ति और प्रपत्ति कहते हैं। प्रपत्ति का अर्थ है- ईश्वर की कृपा पर पूर्ण विश्वास करके आत्मसमर्पण करना। इससे सहज ही मोक्ष लाभ होता है। रामानुज ने भक्ति के अंतर्गत कर्मयोग एवं ज्ञानयोग को भी गौण महत्व दिया है। भक्तियोग में ईश्वर का निरंतर चिंतन अनिवार्य बतलाया गया है। इस चिंतन का रूप प्रेममय भी हो सकता है। किंतु इसके माध्यम से मुमुक्षु ईश्वर की ओर उन्मुख होता है, उसे ईश्वर की प्रत्याक्षानुभूति नहीं होती। इसीलिये रामानुज जीवन मुक्ति को नहीं मानते। वह तो विदेह मुक्ति के बाद नारायण के लोक में ही संभव है। प्रपति और भक्ति के माध्यम से ही ईश्वर कृपा के फलस्वरूप मुक्ति संभव है। मध्वाचार्य भी मोक्ष के लिये भक्ति को साधन मानते हैं। इसी भक्ति के कारण जीव को ईश्वर का प्रसाद प्राप्त होता है और वह मोक्ष प्राप्त कर लेता है ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. मोक्ष (हिंदी) भारतखोज। अभिगमन तिथि: 23 सितम्बर, 2015।

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