प्रयोग:फ़ौज़िया1
पैगम्बर मुहम्मद की कही हुई बातें और उनकी स्मृतियों का 'हदीस' नामक ग्रन्थ में संग्रह है।
आमतौर पर यह समझा जाता है कि इस्लाम 1400 वर्ष पुराना धर्म है, और इसके ‘प्रवर्तक’ पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल.) हैं। लेकिन वास्तव में इस्लाम 1400 वर्षों से काफ़ी पुराना धर्म है; उतना ही पुराना जितना धरती पर स्वयं मानवजाति का इतिहास और हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) इसके प्रवर्तक नहीं, बल्कि इसके आह्वाहक हैं।[1]
अर्थ
इस्लाम शब्द का अर्थ है–अल्लाह को समर्पण। इस प्रकार मुसलमान वह है, जिसने अपने आपको अल्लाह को समर्पित कर दिया, अर्थात् इस्लाम धर्म के नियमों पर चलने लगा। इस्लाम धर्म का आधारभूत सिद्धांत अल्लाह को सर्वशक्तिमान, एकमात्र ईश्वर और जगत का पालक तथा हज़रत मुहम्मद को उनका संदेशवाहक या पैगम्बर मानना है। यही बात उनके 'कलमे' में दोहराई जाती है—ला इलाहा इल्लल्लाह मुहम्मदुर्रसूलुल्लाह अर्थात् अल्लाह एक है, उसके अलावा कोई दूसरा (दूसरी सत्ता) नहीं और मुहम्मद उसके रसूल या पैगम्बर। कोई भी शुभ कार्य करने से पूर्व मुसलमान यह क़लमा पढ़ते हैं। इस्लाम में अल्लाह को कुछ हद तक साकार माना गया है, जो इस दुनिया से काफ़ी दूर सातवें आसमान पर रहता है। वह अभाव (शून्य) में सिर्फ़ 'कुन' कहकर ही सृष्टि रचता है। उसकी रचनाओं में आग से बने फ़रिश्ते और मिट्टी से बने मनुष्य सर्वश्रेष्ठ हैं। गुमराह फ़रिश्तों को 'शैतान' कहा जाता है। इस्लाम के अनुसार मनुष्य सिर्फ़ एक बार दुनिया में जन्म लेता है। मृत्यु के पश्चात् पुनः वह ईश्वरीय निर्णय (क़यामत) के दिन जी उठता है और मनुष्य के रूप में किये गये अपने कर्मों के अनुसार ही 'जन्नत' (स्वर्ग) या 'नरक' पाता है।
महात्मा की दृढ़ता
'इस्लाम' को बालपन ही से सबका विरोध सहना पड़ा। उसने निर्भीकतापूर्वक जब दूसरों के मिथ्याविश्वासों का खण्डन किया, तो सभी ने भरसक इस्लाम को उखाड़ फैंकने का प्रयत्न किया। सचमुच जिस प्रकार का विरोध था, यदि उसी प्रकार की दृढ़ता मुसलमानों और उनके धर्मगुरु ने न दिखाई होती तो कौन कह सकता है कि इस्लाम इस प्रकार संसार के इतिहास को पलट देने में समर्थ होता।
अरब
अत्यंत प्राचीन काल में ‘जदीस’, ‘आद’, ‘समूद’ आदि जातियाँ, जिनका अब नाममात्र शेष है, अरब में निवास करती थीं, किन्तु भारत-सम्राट हर्षवर्द्धन के सम-सामयिक हज़रत मुहम्मद के समय ‘क़हतान’, ‘इस्माईल’ और ‘यहूदी’ वंश के लोग ही अरब में निवास करते थे। प्राचीन काल में अरब-निवासी सुसभ्य और शिल्प-कला में प्रवीण थे। परन्तु ‘नीचैर्गच्छत्युपरि च तथा चक्रनेमिक्रमेण’ के अनुसार कालान्तर में उनके वंशज घोर अविद्यान्धकार में निमग्न हो गये और सारी शिल्पकलाओं को भूल कर ऊँट-बकरी चराना मात्र उनकी जीविका का उपाय रह गया। वह इसके लिए एक स्रोत से दूसरे स्रोत, एक स्थान से दूसरे स्थान में हरे चरागाहों को खोजते हुए खेमों में निवास करके कालक्षेप करने लगे। कनखजूरा, गोह, गिरगिट आदि सारे जीव उनके भक्ष्य थे। प्रज्ज्वलित अग्नि में जीवित मनुष्य को डाल देना उनके समीप कोई असाधु कर्म नहीं समझा जाता था। हिन्दू-पुत्र अम्रु ने अपने भाई के मारे जाने पर एक के बदले सौ के मारने की प्रतिज्ञा की।
हज़रत मुहम्मद साहब
इस्लाम धर्म के प्रवर्तक हज़रत मुहम्मद साहब थे, जिनका जन्म 29 अगस्त, 570 को सउदी अरब के मक्का नामक स्थान में कुरैश क़बीले के अब्दुल्ला नामक व्यापारी के घर हुआ था। जन्म के पूर्व ही पिता की और पाँच वर्ष की आयु में माता की मृत्यु को जाने के फलस्वरूप उनका पालन-पोषण उनके दादा मुतल्लिब और चाचा अबू तालिब ने किया था। 25 वर्ष की आयु में उन्होंने खदीजा नामक एक विधवा से विवाह किया। मोहम्मद साहब के जन्म के समय अरबवासी अत्यन्त पिछड़ा, क़बीलाई और चरवाहों की ज़िन्दगी बिता रहे थे। अतः मुहम्मद साहब ने उन क़बीलों को संगठित करके एक स्वतंत्र राष्ट्र बनाने का प्रयास किया। 15 वर्ष तक व्यापार में लगे रहने के पश्चात् वे कारोबार छोड़कर चिन्तन-मनन में लीन हो गये। मक्का के समीप हिरा की चोटी पर कई दिन तक चिन्तनशील रहने के उपरान्त उन्हें देवदूत जिबरील का संदेश प्राप्त हुआ कि वे जाकर क़ुरान शरीफ़ के रूप में प्राप्त ईश्वरीय संदेश का प्रचार करें। तत्पश्चात् उन्होंने इस्लाम धर्म का प्रचार शुरू किया। उन्होंने मूर्ति पूजा का विरोध किया, जिससे मक्का का पुरोहित वर्ग भड़क उठा और अन्ततः मुहम्मद साहब ने 16 जुलाई 622 को मक्का छोड़कर वहाँ से 300 किमी. उत्तर की ओर यसरिब (मदीना) की ओर कूच कर दिया। उनकी यह यात्रा इस्लाम में 'हिजरत' कहलाती है। इसी दिन से हिजरी संवत् का प्रारम्भ माना जाता है। कालान्त में 630 ई0 में अपने लगभग 10 हज़ार अनुयायियों के साथ मुहम्मद साहब ने मक्का पर चढ़ाई करके उसे जीत लिया और वहाँ इस्लाम को लोकप्रिय बनाया। दो वर्ष पश्चात् 8 जून, 632 को उनका निधन हो गया।
तत्कालीन मूर्तियाँ
‘हुब्ल’, ‘लात्’, ‘मनात्’ ‘उज्ज’ आदि भिन्न-भिन्न अनेक देव-प्रतिमाएँ उस समय अरब के प्रत्येक कबील में लोगों की इष्ट थीं। बहुत पुराने समय में वहाँ मूर्तिपूजा न थी। ‘अमरू’ नामक काबा के एक प्रधान पुजारी ने ‘शाम’ देश में सुना कि इसकी आराधना से दुष्काल से रक्षा और शत्रु पर विजय प्राप्त होती है। उसी ने पहले-पहल ‘शाम’ से लाकर कुछ मूर्तियाँ काबा के मन्दिर में स्थापित कीं। देखादेखी इसका प्रचार इतना बढ़ा कि सारा देश मूर्तिपूजा में निमग्न हो गया। अकेले ‘काबा’ मन्दिर में 360 देवमूर्तियाँ थीं, जिनमें हुब्ल-जो छत पर स्थापित था-कुरेश-वंशियों का इष्ट था। ‘जय[2] हुब्ल’ उनका जातीय घोष था। लोग मानते थे कि ये मूर्तियाँ ईश्वर को प्राप्त कराती हैं, इसीलिए वे उन्हें पूजते थे। अरबी में ‘इलाह’ शब्द देवता और उनकी मूर्तियों के लिए प्रयुक्त होते है; किन्तु ‘अलाह’ शब्द ‘इस्लाम’ काल से पहले उस समय भी एक ही ईश्वर के लिए प्रयुक्त होता था।
श्रीमती ‘खदीजा’ और उनके भाई ‘नौफ़ल’ मूर्तिपूजा-विरोधी यहूदी धर्म के अनुयायी थे। उनके और अपनी यात्राओं में अनेक शिष्ट महात्माओं के सत्संग एवं लोगों के पाखण्ड ने उन्हें मूर्तिपूजा से विगतश्रद्ध बना दिया। वह ईसाई भिक्षुओं की भाँति बहुधा ‘हिरा’ की गुफा में एकान्त-सेवन और ईश्वर-प्रणिधान के लिए जाया करते थे। ‘इका बि-इस्मि रब्बिक’ (पढ़ अपने प्रभू के नाम के साथ) यह प्रथम क़ुरान वाक्य पहले वहीं पर देवदूत ‘जिब्राइल’ द्वारा महात्मा मुहम्मद के हृदय में उतारा गया। उस समय देवदूत के भयंकर शरीर को देखकर क्षण भर के लिए वह मूर्च्छि हो गये थे। जब उन्होंने इस वृत्तान्त को श्रीमती ‘ख़दीजा’ और ‘नौफ़ल’ को सुनाया तो उन्होंने कहा- “अवश्य वह देवदूत था जो इस भगवद्वाक्य को लेकर तुम्हारे पास आया था।“ इस समय महात्मा मुहम्मद की आयु 40 वर्ष की थी। यहीं से उनकी पैगम्बरी (भगवद्दूतता) का समय प्रास्म्भ होता है।
इस्लाम का प्रचार और कष्ट
ईश्वर के दिव्य आदेश को प्राप्त कर उन्होंने मक्का के दाम्भिक और समागत यात्रियों को क़ुरान का उपदेश सुनाना आरम्भ किया। मेला के खास दिनों (‘इह्राम’ के महीनों) में दूर से आयें हुए तीर्थ-यात्रियों के समूह को छल-पाखण्डयुक्त लोकाचार और अनेक देवताओं की अपासना का खण्डन करके, वह एक ईश्वर (अल्लाह) की उपासना और शुद्ध तथा सरल धर्म के अनुष्ठान का उपदेश करते थे। ‘क़ुरैशी’ लोग अपने इष्ट, आचार और आमदनी की इस प्रकार निन्दा और उस पर इस प्रकार का कुठाराघात देखकर भी ‘हाशिम’- परिवार की चिरशत्रुता के भय से उन्हें मारने की हिम्मन न कर सकते थे। किन्तु इस नवीन धर्म-अनुयायी, दास-दासियों को तप्त बालू पर लिटाते, कोड़े मारते तथा बहुत कष्ट देते थे; तो भी धर्म के मतवाले प्राणपण से अपने धर्म को न छोड़ने के लिए तैयार थे। इस अमानुषिक असह्य अत्याचार को दिन पर दिन बढ़ते देख कर अन्त में महात्मा ने अनुयानियों को ‘अफ्रीका’ खण्ड के ‘हब्स’ नामक राज्य में- जहाँ का राजा बड़ा न्यायपरायण था- चले जाने की अनुमति दे दी। जैसे-जैसे मुसलमानों की संख्या बढ़ती जाती थी, ‘क़ुरैशी’ का द्वेष भी वैसे-वैसे बढ़ता जाता था; किन्तु ‘अबूतालिब’ के जीवन-पर्यन्त खुलकर उपद्रव करने की उनकी हिम्मत न होती थी। जब ‘अबूतालिब’ का देहान्त हो गया तो उन्होंने खुले तौर पर विरोध करने पर कमर बाँधी।
मदीना-प्रवास
अब महात्मा मुहम्मद की अवस्था 53 वर्ष की थी। उनकी स्त्री श्रीमती ‘खदीजा’ का देहान्त हो चुका था। एक दिन ‘क़ुरैशियों’ ने हत्या के अभिप्राय से उनके घर को चारों ओर से घेर लिया, किन्तु महात्मा को इसका पता पहले से ही मिल चुका था। उन्होंने पूर्व ही वहाँ से ‘यस्रिब्’ (मदीना) नगर को प्रस्थान कर दिया था। वहाँ के शिष्य-वर्ग ने अति श्रद्धा से गुरु सुश्रुषा करने की प्रार्थना की थी। पहुँचने पर उन्होंने महात्मा के भोजन, वासगृह आदि का प्रबन्ध कर दिया। जब से उनका निवास ‘यास्रिब’ में हुआ, तब से नगर का नाम ‘मदीतुन्नबी’ या नबी का नगर प्रख्यात हुआ। उसी को छोटा करके आजकल केवल ‘मदीना’ कहते है। ‘क़ुरान’ में तीस खण्ड हैं और वह 114 ‘सूरतों’ (अध्यायों) में भी विभक्त है।[3] निवास-क्रम से प्रत्येक सूरत ‘मक्की’ या ‘मद्नी’ नाम से पुकारी जाती है, अर्थात् मक्का में उतरी ‘सूरतें’ ‘मक्की’ और मदीना में उतरी ‘मद्नी’ कही जाती है।
महात्मा मुहम्मद अन्तिम भगवददूत
"जो कोई परमेश्वर और उसके प्रेरित की आज्ञा न माने, उसको सर्वदा के लिए नरक की अग्नि है।"[4] महात्मा मुहम्मद के आचरण को आदर्श मानकर उसे दूसरों के लिए अनुकरणीय कहा गया है। "तुम्हारे लिए प्रभु–प्रेरित का सुन्दर आचरण अनुकरणीय है।"[5] यह कह ही आए हैं कि अरब के लोग उस समय एकदम असभ्य थे। उन्हें छोटे–छोटे से लेकर बड़े–बड़े आचार और सभ्यता–सम्बन्धी व्यवहारों को भी बतलाना पड़ता था। उनको गुरु–शिष्य, पिता–पुत्र, बड़े–छोटे के सम्बन्ध का भी विशेष विचार नहीं था। महात्मा मुहम्मद को गुरु और प्रेरित स्वीकार करने पर उनका यही मुख्य सम्बन्ध मुसलमानों के साथ है, न कि भाईबन्दी, चचा–भतीजा वाला पहला सम्बन्ध; यथा- "मुहम्मद तुम पुरुषों में से किसी का बाप नहीं, वह प्रभु–प्रेरित और सब प्रेरितों पर मुहर (अन्तिम) है।"[6] 'मुसलमानों का उस (मुहम्मद) के साथ प्राण से भी अधिक सम्बन्ध है और उसकी स्त्रियाँ तुम्हारी (मुसलमानों) की माताएँ हैं।'
क़ुरान शरीफ़
इस्लाम धर्म की पवित्र पुस्तक का नाम क़ुरान है जिसका हिन्दी में अर्थ सस्वर पाठ है। क़ुरान शरीफ़ 22 साल 5 माह और 14 दिन के अर्से में ज़रूरत के मुताबिक़ किस्तों में नाज़िल हुआ। क़ुरान शरीफ़ में 30 पारे, 114 सूरतें और 540 रुकूअ हैं। क़ुरान शरीफ़ की कुल आयत की तादाद 6666 (छः हजार छः सौ छियासठ) है।[7]
लौह महफूज में क़ुरान
क़ुरान के विषय में उसके अनुयायियों का विश्वास है और स्वयं क़ुरान में भी लिखा है- “सचमुच पूज्य क़ुरान अदृष्ट पुस्तक में (वर्तमान) है। जब तक शुद्ध न हो, उसे मत छुओ। वह लोक-परलोक के स्वामी के पास उतरा है”।[8] अदृष्ट पुस्तक से यहाँ अभिप्राय उस स्वर्गीय लेख-पटिट्का से है जिसे इस्लामी परिभाषा में ‘लौह-महफूज’ कहते हैं। सृष्टिकर्त्ता ने आदि से उसमें त्रिकालवृत्ति लिख रक्खा है, जैसा कि स्थानान्तर में कहा है- “हमने अरबी क़ुरान रचा कि तुमको ज्ञान हो। निस्सन्देह वह उत्तम ज्ञान-भण्डार हमारे पास पुस्तकों की माता (लौह महफूज) में लिखा है।“ [9]
जगदीश्वर ने क़ुरान में वर्णित ज्ञान को जगत् के हित के लिए अपने प्रेरित मुहम्मद के हृदय में प्रकाशित किया, यही इस सबका भावार्थ है। अपने धर्म की शिक्षा देने वाले ग्रन्थ पर असाधारण श्रद्धा होना मनुष्य का स्वभाव है। यही कारण है कि क़ुरान के माहात्म्य के विषय में अनेक कथाएँ जनसमुदाय में प्रचलित हैं, यद्यपि उन सबका आधार श्रद्धा छोड़ कर क़ुरान में ढूँढ़ना युक्त नहीं है, किन्तु ऐसे वाक्यों का उसमें सर्वथा अभाव है, यह भी नहीं कहा जा सकता। एक स्थल पर कहा है- “यदि हम इस क़ुरान को किसी पर्वत (वा पर्वत-सदृश कठोर हृदय) पर उतारते, तो अवश्य तू उसे परमेश्वर के भय से दबा और फटा देखता। इन दृष्टान्तों को मनुष्यों के लिए हम वर्णित करते है जिससे कि वह सोचें।“[10]
पुरानी कथाएँ
"यह (वह) बस्तियाँ हैं, जिनका वृत्तान्त तुझे (हम) सुनाते हैं।"[11] "सो तू (मुहम्मद) कथा वर्णन कर, शायद यह विचार करे।"[12] क़ुरान का एक विशेष भाग शिक्षाप्रद इतिवृत्तों और कथाओं से पूर्ण है। उपर्युक्त वाक्य इसके साक्षी हैं। क़ुरान में वर्णित सभी विषयों का सामान्य ज्ञान इस क़ुरानसार की रचना से अभिप्रेत है। अतः यहाँ पर उन कथाओं का थोड़ा–सा वर्णन कर दिया जाता है। इनमें से अनेक कथाएँ कुछ घटा–बड़ा कर वहीं हैं जो बाइबिल में आई हैं। इन महात्माओं के बारे में है-
परमेश्वर, फ़रिश्ते, शैतान
दुनिया के सारे धर्म प्रायः सारे पदार्थों को दो श्रेणियों में विभक्त करते हैं, अर्थात् जड़ और चेतन। जड़ का वर्णन स्थान–स्थान पर पाठक स्वयं पढ़ेंगे। यहाँ चेतन का वर्णन किया जाता है। चेतन के भी दो भेद हैं—ईश्वर, जीव। जीवों में ही फ़रिश्ते शैतान भी हैं।
ईश्वर
ईश्वर को ‘क़ुरान’ ने सृष्टि का कर्ता, धर्ता, हर्ता माना है, जैसा कि उसके निम्न उद्धरणों से मालूम होगा—
- “वह (ईश्वर) जिसने भूमि में जो कुछ है (सबको) तुम्हारे लिए बनाया।“[13]
- “उसने सचमुच भूमि और आकाश बनाया। मनुष्य का क्षुद्र वीर्य–विन्दु से बनाया। उसने पशु बनाए, जिनसे गर्म वस्त्र पाते तथा और भी अनेक प्रकार के लाभ उठाते हो, एवं उन्हें खाते हो।“[14]
- “वह तुम्हारा ईश्वर चीजों का बनाने वाला है। उसके सिवाय कोई भी पूज्य नहीं है।“[15]
- “ईश्वर सब चीजों का सृष्टा तथा अधिकारी है।“[16]
- “निस्सन्देह ईश्वर भूमि और आकाश को धारण किए हुए है कि वह नष्ट न हो जाए।“[17]
- “जो परमेश्वर मारता और जिलाता है।“[18]
- ईश्वर बड़ा ही दयालु है, वह अपराधों को क्षमा कर देता है—
“निस्सन्देह तेरा ईश्वर मनुष्यों के लिए उनके अपराधों का क्षमा करने वाला है।“[19]
- आस्तिकों पर ही नहीं, फ़रिश्तों पर भी—
“इस बात में (हे मुहम्मद !) तेरा कुछ नहीं, चाह वह (ईश्वर) उन (क़फ़िरों) को क्षमा करे या उन पर विपद डाले, यदि वह अत्याचारी है।“[20]
- ईश्वर सत्य है—
“परमेश्वर सत्य है।“[21]
- ईश्वर का न्यायकारी होना इस प्रकार से कहा गया है—
“क़यामत के दिन हम ठीक तौलेंगे, किसी जीव पर कुछ भी अन्याय नहीं किया जाएगा। चाहे वह एक सरसों के बराबर ही क्यों न हो, किन्तु हमारे पास में पूरा हिसाब रहेगा।“[22]
- निम्न वाक्य के अनेक ईश्वरीय गुण बतलाए गए हैं—
“परमेश्वर जिसके सिवाय कोई भी ईश्वर नहीं है—जीवन और सत् है। उसे नींद या औंध नहीं आती। जो कुछ भी भूमि और प्रकाश में है, वह उसी के लिए ही है। जो की उसकी आज्ञा के बिना उसके पास सिफ़ारिश करे? वह जानता है, जो कुछ उनके आगे या पीछ है, वह कोई बात उससे छिपा नहीं सकते, सिवाय इसके कि जिसे वह चाहे विशाल भूमि और प्रकाश की कुर्सी, जिसकी रक्षा उसे नहीं थकाती वह उत्तम और महान है।“
- परमेश्वर माता–पिता–स्त्री–पुत्रादि रहित है—
“न वह किसी से पैदा हुआ है, न उससे कोई पैदा है।“[24]
- ईश्वर में मार्ग मे खर्च करने का वर्णन इस प्रकार है—
“कौन है जो कि ईश्वर को अच्छा कर्ज दे, वह उसे कई गुना बढ़ाएगा।“[25]
“निस्सन्देह दाता स्त्री–पुरुषों ने परमेश्वर को अच्छा कर्ज दिया है, उनका वह दुगुना होगा, और उनके लिए (इसका) अच्छा बदला है।“[26]
फ़रिश्ता
जिस प्रकार पुराणों में परमेश्वर के बाद अनेक देवता भिन्न–भिन्न काम करने वाले माने जाते हैं, यमराज मृत्यु के अध्यक्ष, इन्द्र वृष्टि के अध्यक्ष इत्यादि, इसी प्रकार ‘इस्लाम’ ने फ़रिश्तों’ को माना है। पहले फ़रिश्तों के सम्बन्ध में क़ुरान में आए कुछ वाक्य देने पर इस पर विचार करना अच्छा होगा, इसलिए यहाँ वे वाक्य उदधृत किए जाते हैं- “जब हमें (परमेश्वर) ने फ़रिश्तों को (आदम के लिए) दण्डवत करने को कहा, तो सबने दण्डवत की, किन्तु इब्लीस ने इन्कार कर दिया, घमण्ड किया और (वह) नास्तिकों में से था।“[27] “जब हमने फ़रिश्तों को दण्डवत करने का कहा, तो इब्लीस के अतिरिक्त सभी ने किया। (इब्लीस) बोला—क्या मैं उसे दण्डवत करूँ जो मिट्टी से बना है।“[28] “जब हमने फ़रिश्तों को कहा—आदम को दण्डवत करो तो (उन्होंने) दण्डवत की, किन्तु इब्लीस, जो कि जिन्नों में से था—ने न किया।“[29]
ऊपर के वाक्यों में फ़रिश्तों का वर्णन आया है। भगवान ने आदम (मनुष्य के आदि पिता) को बनाकर उन्हें आदम को दण्डवत करने को कहा। सबने वैसा किया, किन्तु इब्लीस ने न किया। यह इब्लीस उस समय फ़रिश्तों में सबसे ऊपर (देवेन्द्र) था। तृतीय वाक्या में जो उसे ‘जिन्न’ कहा गया है, उससे ज्ञात होता है कि फ़रिश्ते और जिन्न एक ही हैं या जिन्न फ़रिश्तों के अंतर्गत ही कोई जाति है। इब्लीस ने यह कह कर आदम को दण्डवत करने से इन्कार किया कि वह मिट्टी से बना है। अतः मालूम पड़ता है कि उत्पत्ति किसी और अच्छे पदार्थ से हुई है। अन्यत्र इब्लीस के वाक्य ही से मालूम हो जाता है कि उनकी उत्पत्ति अग्नि से हुई है। अपने भक्तों की रक्षा के लिए ईश्वर इन फ़रिश्तों को भेजते हैं।
शैतान
फ़रिश्तों के अतिरिक्त क़ुरान में एक प्रकार और भी अदृष्ट प्राणी कहे गए हैं, जो सब जगह आने–जाने में फ़रिश्तों के समान ही हैं; किन्तु वह शुभकर्म से हटाने और अशुभ कराने के लिए मनुष्यों को प्रेरणा देते रहते हैं। इन्हें शैतान कहते हैं। हमने इस पुस्तक में उनके लिए पापात्मा शब्द लिखा है। शैतानों में सबका सरदार वही इब्लीस है, जिसका कि नाम ऊपर आया है। शैतान के विषय में कहा गया है- यह केवल शैतान है, जो तुम्हें अपने दोस्तों से डराता है।[30] शैतान किस प्रकार मनुष्यों को अशुभ कर्म की ओर प्रेरित करता है, उसको इस वाक्य में कहा गया है- “शैतान उनके कर्मों को सँवार देता है तथा कहता है—अब कोई भी मनुष्य तुम्हें जीत नहीं सकता, मैं तुम्हारा रक्षक हूँ, किन्तु जब दोनों पक्ष आमने–सामने आते हैं, तो वह मुँह मोड़ लेता है और कहता है—मैं तुमसे अलग हूँ, मैं निस्सन्देह देखता हूँ, जिसे तुम नहीं देखते, और परमेश्वर पाप का कठोर नाशक है।“[31]
इसलिए कहा है- “कह, मेरे शरण के प्रलोभनों में मैं तेरी शरण (आया) हूँ।“[32] काम कर चुकने पर शैतान क्या चाहता है, यह इस वाक्य में है- “काम समाप्त हो जाने पर शैतान ने कहा—निस्सन्देह तुमसे ईश्वर ने ठीक प्रतिज्ञा की थी और मैंने तुमसे प्रतिज्ञा की, फिर तोड़ दी मेरा तुम पर अधिकार नहीं, इसके सिवाय कि मैंने पुकारा और तुमने (मेरी बात) स्वीकार की। सो मुझे दोष मत दो, अपने आपको दोष दो। मैं न तुम्हारा सहायक हूँ और न तुम मेरे सहायक।“[33]
भेद
इस्लाम धर्म के पाँच भेद किये जाते हैं-
(i) नित्य वे आधारभूत हैं, जिन्हें हर रोज़ करना चाहिए। इस्लाम में निम्न पाँच कर्तव्यों को हर मुसलमान के लिए अनिवार्य बताया गया है-
- प्रतिदिन पाँच वक्त (फ़जर, जुहर, असर, मगरिब, इशा) नमाज़ पढ़ना
- ज़रूरतमंदों को ज़कात (दान) देना
- रमज़ान के महीने में सूर्योदय के पहले से लेकर सूर्यास्त तक रोज़ा रखना
- जीवन में कम से कम एक बार हज अर्थात् मक्का स्थित काबा की यात्रा करना तथा
- इस्लाम की रक्षा के लिए ज़िहाद (धर्मयुद्ध) करना।
(ii) नैमित्तिक कर्म वे कर्म हैं, जिन्हें करने पर पुण्य होता है, परन्तु न करने से पाप नहीं होता।
(iii) काम्य वे कर्म हैं जो किसी कामना की पूर्ति के लिए किए जाते हैं।
(iv) असम्मत वे कर्म हैं जिनकों करने की धर्म सम्मति तो नहीं देता, किन्तु करने पर कर्ता को दण्डनीय भी नहीं ठहराता।
(v) निषिद्ध (हराम) कर्म वे हैं, जिन्हें करने की धर्म मनाही करता है और इसके कर्ता को दण्डनीय ठहराता है।
इस्लाम के सम्प्रदाय
इस्लाम में दो मुख्य सम्प्रदाय- शिया और सुन्नी मिलते हैं। मुहम्मद साहब की पुत्री फ़ातिमा और दामाद अली के बेटों हसन और हुसैन को पैगम्बर का उत्तराधिकारी मानने वाले मुसलमान 'शिया' कहलाते हैं। दूसरी ओर सुन्नी सम्प्रदाय ऐसा मानने से इन्कार करता है।
सलाम
मिलने जुलने आने जाने में सलाम का रिवाज़ है। सलाम करने वाला "अस्स्लामु अलैक़मु" कहता है जिसका अर्थ है तुम पर ख़ुदा की तरफ़ से सलामती हो, इसका जवाब है। "व अलेकुम अस्सलाम" अर्थात तुम पर सलामती हो।
यहूदी
यहूदी धर्म के महात्मा, इब्राहीम इशाक़, दाऊद, सुलेमान के भी माननीय महात्मा और रसूल है। अपने वंश के प्रति बड़े अभिमानी यहूदी लोग महात्मा के मदीना (यस्रिब्) आने पर पहले कुछ समय तक तो मुसलमानों के विरोधी न थे, परन्तु जब उन्होंने देखा कि हमारी प्रधानता अब घट रही है और मुहम्मद का प्रभाव अधिक बढ़ता जा रहा है, तो वह भी द्रोही हो गये। इस्लाम की शिक्षा का बहुत-सा भाग यहूदी और ईसाई धर्मों से लिया गया है। दोनों धर्मों के प्रति आरम्भ ही से महात्मा की बड़ी श्रद्धा थी। यहाँ तक कि ‘नमाज़’ भी पहले मुसलमान लोग उन्हीं पवित्र स्थान ‘योरुशिलम्’ की ओर मुँह करके पढ़ते आ रहे थे। जब यहूदियों ने शत्रुता करनी शुरू की तो महात्मा मुहम्मद ने अपने अनुयायियों को ‘योरुशिलम्’ से मुँह हटाकर ‘काबा’ को अपना ‘किब्ला’ (सम्मुख का स्थान) बनाने की आज्ञा दी। यहूदियों के व्यवहार के विषय में कहा गया है- ‘यहुदियों में कुछ लोग ईश्वर-वाक्य (क़ुरान) को सुनते है। फिर जो कुछ उन्होंने जाना था, उसे बदल देते है और इसे वह जानते है।‘[34] ‘यहूदी वाक्य को उसके स्थान से बदल देते है’।[35]
मुनाफ़िक
मदीना आने पर जिन मूर्तिपूजकों ने इस्लाम-धर्म स्वीकार किया, उन्हें ‘अंसार’ कहा जाता है; इनमें बहुत से वंचक मुसलमान भी थे जिन्हें ‘मुनाफ़िक’ का नाम दिया गया है। इन्हीं के विषय में कहा गया है- ‘हम निर्णय-दिन (क़यामत) और भगवान् पर विश्वास रखते हैं; ऐसा कहते हुए भी वह विश्वासी (मुसलमान) नहीं हैं। परमेश्वर और मुसलमानों को ठगते हुए वह अपने ही को ठगते है।‘[36]
विश्वासियों (मुसलमानों) के पास जब गये, तो कहा हम विश्वास रखते हैं; राक्षसों (नास्तिकों) के पास निकल जाते हैं तो कहते हैं-(मुसलमानों से) हँसी करते हैं, अन्यथा हम तो तुम्हारे साथ हैं।‘[37] “वह दोनों के बीच लटकते हैं, न इधर हैं, न उधर के।“[38] इसीलिए मरने पर- “निस्सहाय होकर (वह) नरक की अग्नि के सबसे निचले तल में रहेंगे।“[39]
काफ़िर
यह पहले कहा जा चुका है कि उस समय ‘अरब’ में मूर्तिपूजा का बहुत अधिक प्रचार था। क़ुरान में सबसे अधिक जोर से इसी का खण्डन किया गया है। महात्मा मुहम्मद ने जब यह सुना कि ‘काबा’ मन्दिर के निर्माता हमारे पूर्वज महात्मा ‘इब्राहीम’ थे, जो मूर्तिपूजक नहीं थे, तो उन्हें इस अपने काम में और बल-सा प्राप्त हुआ मालूम होने लगा। उनकी यह इच्छा अत्यन्त बलवती हो गई कि कब ‘काबा’ फिर मूर्तिरहित होगा। उन्होंने सच्चे देवता की पूजा का प्रचार और झूठे देवता की पूजा का खण्डन अपने जीवन का मुख्य लक्ष्य रखकर बराबर अपने काम को जारी रखा। ‘अरब’ की काशी ‘मक्का’ में ‘कुरैशी’ पण्डों का बड़ा जोर था। यह लोग अपने अनुयायियों को कहते थे- ‘वद्द’, ‘सुबाअ’, ‘यगूस’, ‘नस्र’ अपने इष्टों को कभी न छोड़ना चाहिये।[40] ‘क़ुरान’ के उपदेश को वह लोग कहते थे- “यह इस मुहम्मद की मन-गढ़न्त है।“[41] ‘इसको कोई विदेशी सिखाता है।... हम अच्छी तरह जानते हैं, उस सिखाने वाले की भाषा अरबी से भिन्न है और यह अरबी।‘[42] वह लोग विश्वास के रसूल होने के बारे में कहते थे- वह लोग विश्वास नहीं करते जब तक वह भूमि से (जल का) सोता न निकाल दे या खजूर, अंगूर आदि का (ऐसा) बगीचा न उत्पन्न कर दे जिसमें कि नहर बहती हो। अथवा अपने कहे अनुसार आकाश को टुकड़े-टुकड़े करके हमारे ऊपर न गिरा दे। या देवदूतों को प्रतिभू (जामिन) के तौर पर न लावे। या अच्छा महल (इसके लिए) हो जाय। अथवा आकाश पर चढ़ जाय। किन्तु उसके चढ़ने पर भी हम विश्वास नहीं करेंगे जब तक हम लोगों के पढ़ने लायक कोई लेख न लाये।“[43]
हिजरी संवत्
शुक्रवार, 16 जुलाई, 622 को हिजरी संवत् का प्रारम्भ हुआ, क्योंकि उसी दिन हज़रत मुहम्मद साहब मक्का के पुरोहितों एवं सत्ताधारी वर्ग के दबावों के कारण मक्का छोड़कर मदीना की ओर कूच कर गये थे। ख़लीफ़ा उमर की आज्ञा से प्रारम्भ हिजरी संवत् में 12 चन्द्रमास होते हैं। जिसमें 30 और 29 दिन के मास एक-दूसरे के बाद पड़ते हैं। वर्ष में 354 दिन होते हैं, फलतः यह सौर संवत् के वर्ष से 11 दिन छोटा हो जाता है। इस अन्तर को पूरा करने के लिए 30 वर्ष बाद ज़िलाहिज़ा महीन में कुछ दिन जोड़ दिये जाते हैं। हिजरी संवत् के महीनों के नाम इस प्रकार हैं—
- मोहर्रम-उल-हराम
- सफ़र
- रबी-उल-अव्वल
- उबी-उल-सानी
- जमादी-उल-अव्वल
- जमादी-उस-सानी
- रज़ब
- शाबान
- रमज़ान-उल-मुबारिक
- शवाल
- ज़ीकादा तथा
- जिज हिजा।
शरीयत
इस्लाम में शरीयत का तात्पर्य धार्मिक विधिशास्त्र से है। वे क़ानून, जो क़ुरान शरीफ़ तथा हदीस के विवरणों पर आधारित होते हैं तथा इस्लाम के आचार-व्यवहार का पालन करते है, शरीयत के अन्तर्गत आते हैं। शरीयत के चार प्रमुख स्रोत हैं—
- क़ुरान मज़ीद,
- हदीस या सुन्नत,
- इज्माअ तथा
- किआस।
इन चारों को इस्लाम की आधार शिला भी माना जाता है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ इस्लाम का इतिहास (हिन्दी) इस्लाम धर्म। अभिगमन तिथि: 23 सितंबर, 2010।
- ↑ ‘अलल्-हुब्ल’
- ↑ प्रत्येक अध्याय में अनेक ‘रकूअ’ और प्रत्येक ‘रकूअ’ में अनेक ‘आयते’ होती हैं।
- ↑ (72:2:4)
- ↑ (33:3:1)
- ↑ (33:5:6)
- ↑ कुरआन नूर की हिदायत (हिन्दी) (एच टी एम) वेब दुनिया। अभिगमन तिथि: 23 सितंबर, 2010।
- ↑ (56 : 3 : 3-5)
- ↑ (53 : 1 : 3-5)
- ↑ (59 : 3 : 4)
- ↑ (7:13:3)
- ↑ (7:22:5)
- ↑ (2:4:9)
- ↑ (16:1:2-5)
- ↑ (4:7:2)
- ↑ (39:6:10)
- ↑ (35:5:4)
- ↑ (53:3:12)
- ↑ (13:1:6)
- ↑ (3:13:8)
- ↑ (31:3:11)
- ↑ (21:4:6)
- ↑ (2:34:2)
- ↑ (112:1:3)
- ↑ (2:32:3) (57:2:1)
- ↑ (57:2:8)
- ↑ (2:4:5) (20:7:1)
- ↑ (17:7:1)
- ↑ (20:116)
- ↑ (3:18:4)
- ↑ (8:6:4)
- ↑ (26:6:5)
- ↑ (15:2:1-3)
- ↑ (2:9:4)
- ↑ (4:7:4)
- ↑ (2:2:1,2)
- ↑ (2:2:7)
- ↑ (3:21:2)
- ↑ (3:21:4)
- ↑ (71:1:23)
- ↑ (11:3:11)
- ↑ (16:14:3)
- ↑ (17:10:7,10)