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==भारतीय कृषि की समस्याएँ==
 
==भारतीय कृषि की समस्याएँ==
 
भारत कृषि प्रधान देश है, परन्तु यहाँ कृषि की दशा सन्तोषजनक नहीं है। कृषि उत्पादन में वृद्धि पूर्व में जनवृद्धि दर से भी कम रही। इसी कारण [[1975]] तक देश की खाद्य समस्या जटिल बनी रही। निम्न स्तर पर सीमित विकास के बावजूद आज भी भारतीय कृषि परम्परावादी है। भारतीय किसान खेती व्यसाय के रूप में नहीं करता है, बल्कि जीविकोपार्जन के लिये करता है। कृषि की पुरानी परम्परागत विधियों, पूंजी की कमी, भूमि सुधार की अपूर्णता, विपणन एवं वित्त संबंधी कठिनाइयों, आदि के कारण भारतीय कृषि की उत्पादकता अत्यन्त न्यून है। अब नई पीढ़ी में शिक्षा एवं कृषि को कमाई का साधन मानने की प्रर्वति से भी कृषि एवं कृषक की आर्थिक दशा में कुछ सुधार आने लगा है। भारतीय कृषि की प्रमुख निम्न समस्याएँ ऐसी हैं, जिनसे भारतीय कृषि शताब्दियों से पीड़ित है-
 
भारत कृषि प्रधान देश है, परन्तु यहाँ कृषि की दशा सन्तोषजनक नहीं है। कृषि उत्पादन में वृद्धि पूर्व में जनवृद्धि दर से भी कम रही। इसी कारण [[1975]] तक देश की खाद्य समस्या जटिल बनी रही। निम्न स्तर पर सीमित विकास के बावजूद आज भी भारतीय कृषि परम्परावादी है। भारतीय किसान खेती व्यसाय के रूप में नहीं करता है, बल्कि जीविकोपार्जन के लिये करता है। कृषि की पुरानी परम्परागत विधियों, पूंजी की कमी, भूमि सुधार की अपूर्णता, विपणन एवं वित्त संबंधी कठिनाइयों, आदि के कारण भारतीय कृषि की उत्पादकता अत्यन्त न्यून है। अब नई पीढ़ी में शिक्षा एवं कृषि को कमाई का साधन मानने की प्रर्वति से भी कृषि एवं कृषक की आर्थिक दशा में कुछ सुधार आने लगा है। भारतीय कृषि की प्रमुख निम्न समस्याएँ ऐसी हैं, जिनसे भारतीय कृषि शताब्दियों से पीड़ित है-
;भूमि पर जनसंख्या का निरंतर बढ़ता हुआ भार-
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====भूमि पर जनसंख्या का निरंतर बढ़ता हुआ भार====
 
भारत में जनसंख्या तीव्रगति से बढ़ रही है, जो [[मार्च]] [[2001]] में 102.82 करोड़ को पार कर चुकी है। अतः भूमि पर जनसंख्या का भार निरंतर बढ़ता जा रहा है। जनसंख्या वृद्धि के कारण प्रति व्यक्ति उपलब्ध भूमि का औसत कम होता जा रहा है। [[1901]] में यह 0.8 हेक्टेयर था, [[1931]] में 0.72, [[1941]] में 0.64, [[1951]] में 0.75, [[1961]] में 0.30, [[1971]] में 0.19, [[1981]] में 0.18 एवं वर्तमान में 0.08 हेक्टेअर हो गया है। विश्व का यह औसत 4.5 हेक्टेअर प्रति व्यक्ति पीछे है। कनाडा 2.12 हेक्टेअर, अर्जेन्टीना में 1.25, [[रूस]] में 1.23, [[संयुक्त राज्य अमेरीका]] में 0.89 तथा [[ऑस्ट्रेलिया]] में 3.39 हेक्टेअर है। पौष्टिक भोजन देने के लिये [[भारत]] में यह क्षेत्र बहुत ही कम है। संचित क्षेत्रफल में प्रति हेक्टेअर उत्पादन बढ़ाने के लिये अनेक संकर किस्मों का अधिकारिक प्रयोग किया गया है। [[1970]]-[[1971]] में नईं किस्मों के अन्तर्गत 154 लाख हेक्टेअर भूमि थी, जो बढ़कर 2008-2009 में 839 लाख हेक्टेअर हो गई है।
 
भारत में जनसंख्या तीव्रगति से बढ़ रही है, जो [[मार्च]] [[2001]] में 102.82 करोड़ को पार कर चुकी है। अतः भूमि पर जनसंख्या का भार निरंतर बढ़ता जा रहा है। जनसंख्या वृद्धि के कारण प्रति व्यक्ति उपलब्ध भूमि का औसत कम होता जा रहा है। [[1901]] में यह 0.8 हेक्टेयर था, [[1931]] में 0.72, [[1941]] में 0.64, [[1951]] में 0.75, [[1961]] में 0.30, [[1971]] में 0.19, [[1981]] में 0.18 एवं वर्तमान में 0.08 हेक्टेअर हो गया है। विश्व का यह औसत 4.5 हेक्टेअर प्रति व्यक्ति पीछे है। कनाडा 2.12 हेक्टेअर, अर्जेन्टीना में 1.25, [[रूस]] में 1.23, [[संयुक्त राज्य अमेरीका]] में 0.89 तथा [[ऑस्ट्रेलिया]] में 3.39 हेक्टेअर है। पौष्टिक भोजन देने के लिये [[भारत]] में यह क्षेत्र बहुत ही कम है। संचित क्षेत्रफल में प्रति हेक्टेअर उत्पादन बढ़ाने के लिये अनेक संकर किस्मों का अधिकारिक प्रयोग किया गया है। [[1970]]-[[1971]] में नईं किस्मों के अन्तर्गत 154 लाख हेक्टेअर भूमि थी, जो बढ़कर 2008-2009 में 839 लाख हेक्टेअर हो गई है।
;भूमि का असंतुलित वितरण-
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====भूमि का असंतुलित वितरण====
 
एक ओर जनसंख्या का भार भूमि पर बढ़ता जा रहा है, प्रति व्यक्ति खेती योग्य भूमि कम होती जा रही है, दूसरी ओर भूमि का वितरण अत्यन्त असंतुलित है। देश में आज भी किसानो के पास समस्त कृषि भूमि का 62 प्रतिशत है तथा 90 प्रतिशत किसानों के पास कुल कृषि भूमि का केवल 38 प्रतिशत है।
 
एक ओर जनसंख्या का भार भूमि पर बढ़ता जा रहा है, प्रति व्यक्ति खेती योग्य भूमि कम होती जा रही है, दूसरी ओर भूमि का वितरण अत्यन्त असंतुलित है। देश में आज भी किसानो के पास समस्त कृषि भूमि का 62 प्रतिशत है तथा 90 प्रतिशत किसानों के पास कुल कृषि भूमि का केवल 38 प्रतिशत है।
;कृषि की न्यून उत्पादकता-
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====कृषि की न्यून उत्पादकता====
 
1970 तक देश के अधिकांश भागों में औसत उत्पादन स्तर अधिकांश विकसित व कई विकासशील देशों (इण्डोनेशिया, फिलीपीन्स, मेक्सिको, ब्राजील, ईसीएम के देश आदि) से भी काफ़ी कम रहा, किन्तु 'हरित क्रान्ति' एवं निरन्तर सरकार द्वारा कृषकों को लाभप्रद मूल्य दिलाने की प्रवृत्ति से कृषक अनेक प्रकार की नई तकनीकि अपनाते रहे हैं। रबी की फ़सल काल में सरसों एवं खरीफ में [[सोयाबीन]] व [[मूंगफली]] का बढ़ता उत्पादन सरकार द्वारा ऊँची कीमतें<ref>न्यूनतम खरीद मूल्य</ref> निर्धारित करने से ही सम्भव हो सका है। आज [[राजस्थान]] सरसों एवं [[तिल]], [[गुजरात]] मूंगफली एवं [[मध्य प्रदेश]] सोयाबीन उत्पादक प्रमुख प्रदेश बन गये हैं।
 
1970 तक देश के अधिकांश भागों में औसत उत्पादन स्तर अधिकांश विकसित व कई विकासशील देशों (इण्डोनेशिया, फिलीपीन्स, मेक्सिको, ब्राजील, ईसीएम के देश आदि) से भी काफ़ी कम रहा, किन्तु 'हरित क्रान्ति' एवं निरन्तर सरकार द्वारा कृषकों को लाभप्रद मूल्य दिलाने की प्रवृत्ति से कृषक अनेक प्रकार की नई तकनीकि अपनाते रहे हैं। रबी की फ़सल काल में सरसों एवं खरीफ में [[सोयाबीन]] व [[मूंगफली]] का बढ़ता उत्पादन सरकार द्वारा ऊँची कीमतें<ref>न्यूनतम खरीद मूल्य</ref> निर्धारित करने से ही सम्भव हो सका है। आज [[राजस्थान]] सरसों एवं [[तिल]], [[गुजरात]] मूंगफली एवं [[मध्य प्रदेश]] सोयाबीन उत्पादक प्रमुख प्रदेश बन गये हैं।
 
==उत्पादन कम होने के कारण==
 
==उत्पादन कम होने के कारण==
;भाग्यवादी भारतीय किसान-
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====भाग्यवादी भारतीय किसान====
 
 
 
[[कृषि]] उत्पादन संबंधी उसे पर्याप्त अनुभव नहीं हैं, किन्तु अनेक बार शीत लहर, पाला व अनेक बार ओले अथवा सर्दी फ़सल नष्ट कर देते हैं। उसे अपने श्रम का उचित प्रतिफल प्राप्त नहीं हो पाता। अतः वह कृषि को व्यवसाय के रूप में नहीं बल्कि, जीवन-यापन की प्रणाली के रूप में अपनाता है। स्वभवतः वह वांछनीय मात्रा में उत्पादन उपलब्ध नहीं कर सकता। किसान की इसी भाग्यवादी प्रवृत्ति में परिवर्तन करने की एक रीति यह है कि उसे अधिकाधिक शिक्षित करने का प्रयत्न किया जाए। इसके अतिरिक्त प्राकृतिक संकटों का सामना करने के लिये वैज्ञानिक साधनों का प्रयोग करने की चेष्टा करनी चाहिए।
 
[[कृषि]] उत्पादन संबंधी उसे पर्याप्त अनुभव नहीं हैं, किन्तु अनेक बार शीत लहर, पाला व अनेक बार ओले अथवा सर्दी फ़सल नष्ट कर देते हैं। उसे अपने श्रम का उचित प्रतिफल प्राप्त नहीं हो पाता। अतः वह कृषि को व्यवसाय के रूप में नहीं बल्कि, जीवन-यापन की प्रणाली के रूप में अपनाता है। स्वभवतः वह वांछनीय मात्रा में उत्पादन उपलब्ध नहीं कर सकता। किसान की इसी भाग्यवादी प्रवृत्ति में परिवर्तन करने की एक रीति यह है कि उसे अधिकाधिक शिक्षित करने का प्रयत्न किया जाए। इसके अतिरिक्त प्राकृतिक संकटों का सामना करने के लिये वैज्ञानिक साधनों का प्रयोग करने की चेष्टा करनी चाहिए।
;खाद का दुरुपयोग-
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====खाद का दुरुपयोग====
 
भारत में पशुओं की संख्या अत्यधिक है और उनके गोबर तथा मूत्र से प्रतिवर्ष 2.89 करोड़ टन खाद प्राप्त की जा सकती है। इसके अतिरिक्त कम्पोस्ट तथा अन्य बेकार वस्तुओं से लगभग 93 लाख टन खाद उपलब्ध हो सकती है। दुर्भाग्य से गोबर का अधिकांश भाग ईंधन के रूप में जला दिया जाता है, क्योंकि ग्रामीण क्षेत्रों में अन्य सस्ते ईंधन का अभाव है। फलतः खेतों को पर्याप्त मात्रा में खाद नहीं मिल पाती, जिससे उत्पादन की स्थिति अच्छी नहीं है।
 
भारत में पशुओं की संख्या अत्यधिक है और उनके गोबर तथा मूत्र से प्रतिवर्ष 2.89 करोड़ टन खाद प्राप्त की जा सकती है। इसके अतिरिक्त कम्पोस्ट तथा अन्य बेकार वस्तुओं से लगभग 93 लाख टन खाद उपलब्ध हो सकती है। दुर्भाग्य से गोबर का अधिकांश भाग ईंधन के रूप में जला दिया जाता है, क्योंकि ग्रामीण क्षेत्रों में अन्य सस्ते ईंधन का अभाव है। फलतः खेतों को पर्याप्त मात्रा में खाद नहीं मिल पाती, जिससे उत्पादन की स्थिति अच्छी नहीं है।
  
वर्तमान में कृषि के विकास में रासायनिक [[उर्वरक|उर्वरकों]] ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। पोषण की दृष्टि से उर्वरकों की प्रति-हेक्टेअर खपत वर्ष [[2005]]-[[2006]] के 10.5 किग्रा. से बढ़कर [[2008]]-[[2009]] में 128.6 किग्रा. हो गई। तथापि, मृदा की सीमांत उत्पादकता अभी भी चुनौती बनी हुई है। इसके लिये मृदा विश्लेषण के आधार पर वर्धित एनपीके के अनुप्रयोग और उचित पोषणों के अनुप्रयोग की आवश्यकता है।
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वर्तमान में कृषि के विकास में रासायनिक [[उर्वरक|उर्वरकों]] ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। पोषण की दृष्टि से उर्वरकों की प्रति-हेक्टेअर खपत वर्ष [[2005]]-[[2006]] के 10.5 किग्रा. से बढ़कर [[2008]]-[[2009]] में 128.6 किग्रा. हो गई। तथापि, मृदा की सीमांत उत्पादकता अभी भी चुनौती बनी हुई है। इसके लिये मृदा विश्लेषण के आधार पर वर्धित एनपीके के अनुप्रयोग और उचित पोषणों के अनुप्रयोग की आवश्यकता है। अब दस लाख से ऊपर जनसंख्या वाले महानगरों में ठोस अपशिष्टों के निपटान एवं सीवेज अपशिष्ट निपटान के लिए विशेष यान्त्रिक प्रणालियां नगरों की सीमा से दूर विकसित की जा रही हैं। कम्पोस्ट खाद घरेलू गैस, सिंचाई का उपयोगी [[जल]], अन्य उपयोगी [[पदार्थ]] व [[गैस]] विभिन्न प्रक्रियांओं द्वारा प्राप्त की जाती हैं। इससे खेतों की उत्पादकता बढ़ने, भू-अपरदन घटने एवं ईंधन की आपूर्ति होने से लकड़ी व वनों पर दबाव भी घटता है।
 
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====सिंचाई के साधनों का सीमित विकास====
अब दस लाख से ऊपर जनसंख्या वाले महानगरों में ठोस अपशिष्टों के निपटान एवं सीवेज अपशिष्ट निपटान के लिए विशेष यान्त्रिक प्रणालियां नगरों की सीमा से दूर विकसित की जा रही हैं। कम्पोस्ट खाद घरेलू गैस, सिंचाई का उपयोगी [[जल]], अन्य उपयोगी [[पदार्थ]] व [[गैस]] विभिन्न प्रक्रियांओं द्वारा प्राप्त की जाती हैं। इससे खेतों की उत्पादकता बढ़ने, भू-अपरदन घटने एवं ईंधन की आपूर्ति होने से लकड़ी व वनों पर दबाव भी घटता है।
 
;सिंचाई के साधनों का सीमित विकास-
 
 
भारतीय कृषि प्रधानतः मानसून पर निर्भर है, क्योंकि आज भी कुल [[कृषि]] योग्य भूमि के 41 प्रतिशत में सिंचाई होती है। देश में वृहत और मध्यम सिंचाई योजनाओं के जरिए सिंचाई की पर्याप्त संभवनाओं का सृजन किया गया है। देश में सिंचाई की कुल संभावना वर्ष [[1991]]-[[1992]] के 81.1 मिलियन हेक्टेअर से बढ़कर [[मार्च]] [[2007]] तक 102.77 मिलियन हेक्टेअर हो गई है। मानसून पर इतनी अधिक निर्भरता का प्रभाव यह होता है कि देश के अधिकांश भाग की कृषि प्रकृति की दया पर निर्भर है। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि जब तक सिंचाई की व्यवस्था नहीं होती, तब तक भूमि में खाद देना भी सम्भव नहीं है, क्योंकि खाद का यथोचित प्रयोग करने के लिये काफ़ी जल चाहिए, अन्यथा सामान्य खेती के सूखने का भी भय रहता है। सिंचाई की यह कमीं कम वर्षा वाले पठारी भागों एवं सारे उत्तर पश्चिमी भारत में विशेष रूप से महसूस की जाती है, क्योंकि औसत [[वर्षा]] 100 सेण्टीमीटर से भी कम एवं वर्षा की अनिश्चितता 35 प्रतिशत से भी अधिक रहती है।
 
भारतीय कृषि प्रधानतः मानसून पर निर्भर है, क्योंकि आज भी कुल [[कृषि]] योग्य भूमि के 41 प्रतिशत में सिंचाई होती है। देश में वृहत और मध्यम सिंचाई योजनाओं के जरिए सिंचाई की पर्याप्त संभवनाओं का सृजन किया गया है। देश में सिंचाई की कुल संभावना वर्ष [[1991]]-[[1992]] के 81.1 मिलियन हेक्टेअर से बढ़कर [[मार्च]] [[2007]] तक 102.77 मिलियन हेक्टेअर हो गई है। मानसून पर इतनी अधिक निर्भरता का प्रभाव यह होता है कि देश के अधिकांश भाग की कृषि प्रकृति की दया पर निर्भर है। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि जब तक सिंचाई की व्यवस्था नहीं होती, तब तक भूमि में खाद देना भी सम्भव नहीं है, क्योंकि खाद का यथोचित प्रयोग करने के लिये काफ़ी जल चाहिए, अन्यथा सामान्य खेती के सूखने का भी भय रहता है। सिंचाई की यह कमीं कम वर्षा वाले पठारी भागों एवं सारे उत्तर पश्चिमी भारत में विशेष रूप से महसूस की जाती है, क्योंकि औसत [[वर्षा]] 100 सेण्टीमीटर से भी कम एवं वर्षा की अनिश्चितता 35 प्रतिशत से भी अधिक रहती है।
;बीज-
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====बीज====
 
किसानों के लिये उच्च गुणवत्ता वाले बीजों की प्रायः कमी बनी रहती है। फलस्वरूप उसे बाज़ार से सस्ता और घटिया बीज ही उपलब्ध हो पाता है, इससे भी किसानों की आय में कमी आ जाती है। इसके लिये सरकारी मशीनरी की कार्यप्रणाली एवं लालफीताशाही समान रूप से दोषी है। अच्छे तथा सुधरी हुई किस्मों के बीजों का प्रचार सामुदायिक विकास केन्द्रों के माध्यम से किया जाना चाहिए तथा पंचायतों एवं सरकारी सहकारी समितियों के द्वारा बढि़या बीजों की वितरण व्यवस्था को विश्वसनीय एवं सुनिश्चित करना आवश्यक है।
 
किसानों के लिये उच्च गुणवत्ता वाले बीजों की प्रायः कमी बनी रहती है। फलस्वरूप उसे बाज़ार से सस्ता और घटिया बीज ही उपलब्ध हो पाता है, इससे भी किसानों की आय में कमी आ जाती है। इसके लिये सरकारी मशीनरी की कार्यप्रणाली एवं लालफीताशाही समान रूप से दोषी है। अच्छे तथा सुधरी हुई किस्मों के बीजों का प्रचार सामुदायिक विकास केन्द्रों के माध्यम से किया जाना चाहिए तथा पंचायतों एवं सरकारी सहकारी समितियों के द्वारा बढि़या बीजों की वितरण व्यवस्था को विश्वसनीय एवं सुनिश्चित करना आवश्यक है।
;पशुओं की हीनावस्था-
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====पशुओं की हीनावस्था====
 
भारतीय कृषि में पशुओं का अधिक महत्वपूर्ण स्थान रहा है, किन्तु इनकी स्थिति अच्छी नहीं है। इस लिये अब ग्रामीण क्षेत्रों में अब तेजी से किराये के हल, पावर टिलर्स, कुएं पर मोटर पम्प या ट्यूबबेल एवं गहाई के लिये थ्रेसर जैसी गैर पशु आधारित प्रणालियों का उपयोग बढ़ता जा रहा है। आज पशुपालन, मुख्यतः डेयरी उत्पादों, पशु मांस व अन्य पशु उत्पादों के लिए विशेष महत्वपूर्ण बनता जा रहा है, क्योंकि पशु को भी तेजी से आर्थिक इकाई माना जाने लगा है।
 
भारतीय कृषि में पशुओं का अधिक महत्वपूर्ण स्थान रहा है, किन्तु इनकी स्थिति अच्छी नहीं है। इस लिये अब ग्रामीण क्षेत्रों में अब तेजी से किराये के हल, पावर टिलर्स, कुएं पर मोटर पम्प या ट्यूबबेल एवं गहाई के लिये थ्रेसर जैसी गैर पशु आधारित प्रणालियों का उपयोग बढ़ता जा रहा है। आज पशुपालन, मुख्यतः डेयरी उत्पादों, पशु मांस व अन्य पशु उत्पादों के लिए विशेष महत्वपूर्ण बनता जा रहा है, क्योंकि पशु को भी तेजी से आर्थिक इकाई माना जाने लगा है।
;भूमि की शक्ति का ह्रास-
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====भूमि की शक्ति का ह्रास====
 
दीर्घ अवधि में निरंतर प्रयोग में आने के कारण भारतीय कृषि भूमि की उत्पादकता का ह्रास हो गया है। अतः भूमि की खोई हुई शक्ति को पुनः प्राप्त करने के लिए उसमें कम्पोस्ट खाद या प्रकृतिक जीवंश से पूर्ण खाद तथा [[उर्वरक]] देकर उसकी उपजाउ शक्ति बढ़ाने की चेष्टा की जाए।
 
दीर्घ अवधि में निरंतर प्रयोग में आने के कारण भारतीय कृषि भूमि की उत्पादकता का ह्रास हो गया है। अतः भूमि की खोई हुई शक्ति को पुनः प्राप्त करने के लिए उसमें कम्पोस्ट खाद या प्रकृतिक जीवंश से पूर्ण खाद तथा [[उर्वरक]] देकर उसकी उपजाउ शक्ति बढ़ाने की चेष्टा की जाए।
;भूमि का उपविभाजन एवं उपखण्डन-
+
====भूमि का उपविभाजन एवं उपखण्डन====
 
[[भारत]] में 90 प्रतिशत किसानों के पास कुल भूमि का 38 प्रतिशत भाग है। इसका अर्थ यह है कि एक किसान के पास औसत 0.2 हेक्टेअर से भी कम भूमि है। इतना ही नहीं यह भूमि कई टुकड़ों में बटी हुई है। इतने छोटे-छोटे भू-खण्डों पर खेती करना आर्थिक दृष्टि से उपादेय नहीं है। इससे भी कृषि एवं कृषक की दशा हीन रहती है। भूमि के छोटे-छोटे टुकड़ों की समस्या को हल करने के लिये सभी राज्यों में चकबन्दी की योजनाएँ चालू है। इन योजनाओं को भी सफल बनाने में भी पंचायतों एवं सहकारी समितियों का सहयोग प्राप्त करना चाहिए और भूमि के अधिकांश भाग को खेती के लिये लाभदायक बनाने की चेष्टा करनी चाहिए। इस संबंध में सहकारी समितियाँ भूमि की क्षतिपूर्ति के लिये ऋण देकर सहयोग प्रदान कर सकती है।
 
[[भारत]] में 90 प्रतिशत किसानों के पास कुल भूमि का 38 प्रतिशत भाग है। इसका अर्थ यह है कि एक किसान के पास औसत 0.2 हेक्टेअर से भी कम भूमि है। इतना ही नहीं यह भूमि कई टुकड़ों में बटी हुई है। इतने छोटे-छोटे भू-खण्डों पर खेती करना आर्थिक दृष्टि से उपादेय नहीं है। इससे भी कृषि एवं कृषक की दशा हीन रहती है। भूमि के छोटे-छोटे टुकड़ों की समस्या को हल करने के लिये सभी राज्यों में चकबन्दी की योजनाएँ चालू है। इन योजनाओं को भी सफल बनाने में भी पंचायतों एवं सहकारी समितियों का सहयोग प्राप्त करना चाहिए और भूमि के अधिकांश भाग को खेती के लिये लाभदायक बनाने की चेष्टा करनी चाहिए। इस संबंध में सहकारी समितियाँ भूमि की क्षतिपूर्ति के लिये ऋण देकर सहयोग प्रदान कर सकती है।
#कृषि साख संस्थाओं की कमी-
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====कृषि साख संस्थाओं की कमी====
 
भारत में [[कृषि]] कार्यों के लिए करोड़ों रुपये की साख की आवश्यकता प्रतिवर्ष होती है। कुछ दशक पूर्व तक इसकी पूर्ति महाजन, साहूकार एवं देशी बैंकरो द्वारा की जाती थी, किन्तु अब नियोजित अर्थव्यवस्था के अन्तर्गत कृषि एक प्राथमिकता प्राप्त क्षेत्र घोषित किया जा चुका है। अब देश की बैंकिंग व्यवस्था अपने कुल ऋणों का एक निश्चित प्रतिशत इस क्षेत्र के लिए देने को बाध्य है। इस समय बैंकों द्वारा दिए जाने वाले ऋण का लगभग 41 प्रतिशत प्राथमिकता प्राप्त क्षेत्र को दिया जा रहा है। इसमें कृषि का प्रतिशत 17 है।
 
भारत में [[कृषि]] कार्यों के लिए करोड़ों रुपये की साख की आवश्यकता प्रतिवर्ष होती है। कुछ दशक पूर्व तक इसकी पूर्ति महाजन, साहूकार एवं देशी बैंकरो द्वारा की जाती थी, किन्तु अब नियोजित अर्थव्यवस्था के अन्तर्गत कृषि एक प्राथमिकता प्राप्त क्षेत्र घोषित किया जा चुका है। अब देश की बैंकिंग व्यवस्था अपने कुल ऋणों का एक निश्चित प्रतिशत इस क्षेत्र के लिए देने को बाध्य है। इस समय बैंकों द्वारा दिए जाने वाले ऋण का लगभग 41 प्रतिशत प्राथमिकता प्राप्त क्षेत्र को दिया जा रहा है। इसमें कृषि का प्रतिशत 17 है।
#कृषि रोग आदि-
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====कृषि रोग आदि====
 
कभी-कभी फ़सलों की अनेक बीमारियाँ, बाढ़, ओले, पाला, शीतलहर, विभिन्न कीड़े मकोड़े, चूहे व वन्य जीव भी फ़सलों को हानि पहुँचाते रहते हैं। जिससे भूमि का वास्तविक उत्पादन बहुत कम रह जाता है। इन तत्वों को वैज्ञानिक उपकरणें की सहायता से ही नियंत्रित किया जा सकता है।
 
कभी-कभी फ़सलों की अनेक बीमारियाँ, बाढ़, ओले, पाला, शीतलहर, विभिन्न कीड़े मकोड़े, चूहे व वन्य जीव भी फ़सलों को हानि पहुँचाते रहते हैं। जिससे भूमि का वास्तविक उत्पादन बहुत कम रह जाता है। इन तत्वों को वैज्ञानिक उपकरणें की सहायता से ही नियंत्रित किया जा सकता है।
#विक्रय व्यवस्था-
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====विक्रय व्यवस्था====
 
भारतीय किसान की एक महत्वपूर्ण समस्या यह रही है कि उसे अपना माल मण्डियों में बेचना पड़ता है। ये मण्डियाँ या तो बहुत दूर हैं, जहाँ पहुँचने के लिये यातायात के साधन पर्याप्त नहीं हैं या इनके विक्रय की व्यवस्था ठीक नहीं है। अतः किसान को अपने माल के उचित दाम प्राप्त करने में कठिनाई होती है। इस कठिनाई के कारण ही कभी-कभी तो वह अपना माल ग्राम के साहूकार को ही बेंच देता है, जिससे उसे और भी कम मूल्य प्राप्त होता है।
 
भारतीय किसान की एक महत्वपूर्ण समस्या यह रही है कि उसे अपना माल मण्डियों में बेचना पड़ता है। ये मण्डियाँ या तो बहुत दूर हैं, जहाँ पहुँचने के लिये यातायात के साधन पर्याप्त नहीं हैं या इनके विक्रय की व्यवस्था ठीक नहीं है। अतः किसान को अपने माल के उचित दाम प्राप्त करने में कठिनाई होती है। इस कठिनाई के कारण ही कभी-कभी तो वह अपना माल ग्राम के साहूकार को ही बेंच देता है, जिससे उसे और भी कम मूल्य प्राप्त होता है।
 
==पंचवर्षीय योजनाओं के अन्तर्गत कृषि विकास==
 
==पंचवर्षीय योजनाओं के अन्तर्गत कृषि विकास==
 
स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरांत देश में खाद्यान्न की कमी को दूर करने के लिये कृषि के विकास पर विशेष ध्यान दिया गया। [[1966]] में हरित क्रान्ति के आगमन से [[भारत]] में पारम्परिक कृषि व्यवहारों का प्रतिस्थापन औद्योगिक प्रौद्योगिकी एवं फार्म व्यवहारों से किया जाने लगा। जिससे कृषि की दशा में तेजी से सुधार हुआ। कृषि के क्षेत्र में नवीन तकनीकि को अपनाया गया, उन्नत बीजों का प्रयोग बढ़ा, उर्वरकों एवं कीटनाशकों के प्रयोग में गुणात्मक सुधार आया, कृषि में यंत्रीकरण का प्रयोग बढ़ा, सिंचाई के साधनों में वृद्धि हुई एवं अन्य ढांचागत सुविधाएं बढ़ई गई, आगतों में सब्सिडी दी गई, [[ऊसर मिट्टी|ऊसर भूमि]] सुधार कार्यक्रम चलाये गये तथा फ़सल बीमा आदि की सुविधाएँ कृषकों को प्रदान की गईं। इस तरह कृषि में संस्थागत एवं तकनीकि सुधारों के साथ साथ सघन एवं विस्तृत खेती की गई। इन सबका सम्मिलित असर यह हुआ कि देश में खाद्यान्न की उपज, जो [[1950]]-[[1951]] में मात्र 5 करोड़ टन थी, वह 2008-2009 में बढ़कर 21 करोड़ टन हो गई। इसके अतिरिक्त गैर खाद्य फ़सलों एवं व्यवसायिक फ़सलों, यथा- [[गन्ना]], [[जूट]], [[चाय]], [[कहवा]], [[कपास]] तथा रबर आदि के उत्पादन में पर्याप्त वृद्धि हुई। इस तरह देश में हुई उत्पादन में वृद्धि योजना काल में कृषि उत्पादन के विभिन्न उपादानों में हुये सतत सुधा का परिणाम रही।
 
स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरांत देश में खाद्यान्न की कमी को दूर करने के लिये कृषि के विकास पर विशेष ध्यान दिया गया। [[1966]] में हरित क्रान्ति के आगमन से [[भारत]] में पारम्परिक कृषि व्यवहारों का प्रतिस्थापन औद्योगिक प्रौद्योगिकी एवं फार्म व्यवहारों से किया जाने लगा। जिससे कृषि की दशा में तेजी से सुधार हुआ। कृषि के क्षेत्र में नवीन तकनीकि को अपनाया गया, उन्नत बीजों का प्रयोग बढ़ा, उर्वरकों एवं कीटनाशकों के प्रयोग में गुणात्मक सुधार आया, कृषि में यंत्रीकरण का प्रयोग बढ़ा, सिंचाई के साधनों में वृद्धि हुई एवं अन्य ढांचागत सुविधाएं बढ़ई गई, आगतों में सब्सिडी दी गई, [[ऊसर मिट्टी|ऊसर भूमि]] सुधार कार्यक्रम चलाये गये तथा फ़सल बीमा आदि की सुविधाएँ कृषकों को प्रदान की गईं। इस तरह कृषि में संस्थागत एवं तकनीकि सुधारों के साथ साथ सघन एवं विस्तृत खेती की गई। इन सबका सम्मिलित असर यह हुआ कि देश में खाद्यान्न की उपज, जो [[1950]]-[[1951]] में मात्र 5 करोड़ टन थी, वह 2008-2009 में बढ़कर 21 करोड़ टन हो गई। इसके अतिरिक्त गैर खाद्य फ़सलों एवं व्यवसायिक फ़सलों, यथा- [[गन्ना]], [[जूट]], [[चाय]], [[कहवा]], [[कपास]] तथा रबर आदि के उत्पादन में पर्याप्त वृद्धि हुई। इस तरह देश में हुई उत्पादन में वृद्धि योजना काल में कृषि उत्पादन के विभिन्न उपादानों में हुये सतत सुधा का परिणाम रही।
 
==योजनाकाल में कृषि विकास==
 
==योजनाकाल में कृषि विकास==
;कृषि पर व्यय
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'''कृषि पर व्यय-''' देश में पिछणी हुई कृषि को गति प्रदान करने के लिए योजना के आरम्भ से ही विशेष ध्यान दिया जाने लगा। [[भारत]] में पहली पंचवर्षीय योजना [[1 अप्रैल]], [[1951]] से प्रारम्भ की गई, जिसमें कृषि के विकास को सर्वोच्च वरीयता प्रदान की गई तथा इसके विकास के लिये पूरी योजना पर होने वाले कुल परिव्यय का 37 प्रतिशत रखा गया। दूसरी एवं तीसरी योजना में व्यय में कुछ कमी हुई, परन्तु उसके पश्चात कृषि क्षेत्र के विकास हेतु योजना परिव्यय में वृद्धि होती गई।
देश में पिछणी हुई कृषि को गति प्रदान करने के लिए योजना के आरम्भ से ही विशेष ध्यान दिया जाने लगा। [[भारत]] में पहली पंचवर्षीय योजना [[1 अप्रैल]], [[1951]] से प्रारम्भ की गई, जिसमें कृषि के विकास को सर्वोच्च वरीयता प्रदान की गई तथा इसके विकास के लिये पूरी योजना पर होने वाले कुल परिव्यय का 37 प्रतिशत रखा गया। दूसरी एवं तीसरी योजना में व्यय में कुछ कमी हुई, परन्तु उसके पश्चात कृषि क्षेत्र के विकास हेतु योजना परिव्यय में वृद्धि होती गई।
 
  
 
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11:03, 19 मार्च 2012 का अवतरण

भारत की अर्थव्यवस्था में कृषि का स्थान अत्यन्त ही महत्वपूर्ण है। देश के कुल निर्यात व्यापार में कृषि उत्पादित वस्तुओं का प्रतिशत काफ़ी अधिक रहता है। भारत में आवश्यक खाद्यान्न की लगभग सभी पूर्ति कृषि के माध्यम से ही की जाती है। वर्तमान समय में भी एक बहुत बड़ी आबादी को कृषि के माध्यम से रोजगार प्राप्त है। यह ऐसे में बहुत महत्त्वपूर्ण हो जाता है, जबकि देश में बेरोजगारी की समस्या दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही है। भारतीय कृषि को 'देश की रीढ़' माना गया है, क्योंकि यही वह उपाय है, जो देश की खुशहाली के लिए अत्यंत आवश्यक है।

महत्त्वपूर्ण तथ्य

देश की उन्नति तथा उसके समग्र विकास के लिए कृषि का महत्त्व कितना अधिक है, इस बात की निम्नलिखित तथ्यों से पुष्टि की जा सकती है-

  1. कृषि उद्योग भारत की अधिकांश जनता को रोजगार प्रदान करता है। इस देश की 52 प्रतिशत आबादी प्रत्यक्ष रूप से कृषि पर निर्भर है। कृषि उत्पादों को कच्चे माल के रूप में अनेक उद्योगों में प्रयोग करके लाखों व्यक्तियों को रोजगार प्राप्त होता है। इसके अतिरिक्त परिवहन कम्पनियों को कृषि पदार्थ, जैसे- खाद्यान्न, कपास, जूट, गन्ना, तिलहन आदि, एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने में भी भारी आय होती है। इस प्रकार भारतीय कृषि देश के निवासियों के लिये जीवन-निर्वाह का सबसे महत्वपूर्ण साधन है।
  2. भारत की खाद्यान्न आवश्यकता की लगभग शत-प्रतिशत पूर्ति भारतीय कृषि द्वारा ही की जाती है। इसके अतिरिक्त चीनी, वस्त्र, पटसन, तेल आदि उद्योग प्रायः पूरी तरह भारतीय कृषि पर ही निर्भर करते हैं। क्योंकि इनकी आवश्यकता के कच्चे माल की पूर्ति मुख्यतः घरेलू उत्पादन द्वारा ही होती है। कुछ लम्बे रेशे की रूई तथा पटसन की कमी रहती है, जो विदेशों से प्राप्त की जाती है।
  3. विश्व की सबसे बड़ी कृषि संबंधी अर्थव्यवस्थाओं में से एक भारत में कृषि क्षेत्र का योगदान वर्ष 2008-2009 में सकल घरेलू उत्पाद (2004-2005 की स्थिर कीमतों पर) का 15.7 प्रतिशत रहा, जबकि 2004-2005 में यह 18.9 प्रतिशत था।
  4. भारतीय कृषि मानसून पर निर्भर है। इसी कारण भारतीय कृषि को 'मानसून का जुआ' कहा गया है। यदि मानसून यथा-समय एवं यथेष्ट मात्रा में आ जाता है तो कृषि उत्मादन भी ठीक हो जाता है, जिससे देश में खाद्यान्नों की आवश्यकता की पूर्ति हो जाती है और उद्योंगों को भी यथेष्ट कच्चा माल प्राप्त हो जाता है। ऐसी स्थिति में सरकार अपनी कर व्यवस्था को तदानुसार ही निश्चित कर सकती है।
  5. भारत के कुल निर्यात व्यापार में कृषि वस्तुओं का प्रतिशत काफ़ी रहता है। वर्ष 1960-1961 में कुल 642 करोड़ रुपये का निर्यात हुआ, जिसमें से कृषि वस्तुओं तथा कृषि कच्चे पदार्थों पर आधारित उद्योग का निर्यात 284 करोड़ रुपये था। कृषि एवं सम्बद्ध उत्पादों का निर्यात वर्ष 2008-2009 में बढ़कर 77.783 करोड़ रुपये हो गया, जो देश के कुल निर्यात का 9.1 प्रतिशत है।
  6. भारत में कृषि के महत्व का कारण यह है कि इससे अनेक प्रमुख उद्योगों को कच्चा माल मिलता है। सूती वस्त्र, पटसन, चीनी, वनस्पति आदि उद्योग कृषि पर ही निर्भर हैं।

भारतीय कृषि की समस्याएँ

भारत कृषि प्रधान देश है, परन्तु यहाँ कृषि की दशा सन्तोषजनक नहीं है। कृषि उत्पादन में वृद्धि पूर्व में जनवृद्धि दर से भी कम रही। इसी कारण 1975 तक देश की खाद्य समस्या जटिल बनी रही। निम्न स्तर पर सीमित विकास के बावजूद आज भी भारतीय कृषि परम्परावादी है। भारतीय किसान खेती व्यसाय के रूप में नहीं करता है, बल्कि जीविकोपार्जन के लिये करता है। कृषि की पुरानी परम्परागत विधियों, पूंजी की कमी, भूमि सुधार की अपूर्णता, विपणन एवं वित्त संबंधी कठिनाइयों, आदि के कारण भारतीय कृषि की उत्पादकता अत्यन्त न्यून है। अब नई पीढ़ी में शिक्षा एवं कृषि को कमाई का साधन मानने की प्रर्वति से भी कृषि एवं कृषक की आर्थिक दशा में कुछ सुधार आने लगा है। भारतीय कृषि की प्रमुख निम्न समस्याएँ ऐसी हैं, जिनसे भारतीय कृषि शताब्दियों से पीड़ित है-

भूमि पर जनसंख्या का निरंतर बढ़ता हुआ भार

भारत में जनसंख्या तीव्रगति से बढ़ रही है, जो मार्च 2001 में 102.82 करोड़ को पार कर चुकी है। अतः भूमि पर जनसंख्या का भार निरंतर बढ़ता जा रहा है। जनसंख्या वृद्धि के कारण प्रति व्यक्ति उपलब्ध भूमि का औसत कम होता जा रहा है। 1901 में यह 0.8 हेक्टेयर था, 1931 में 0.72, 1941 में 0.64, 1951 में 0.75, 1961 में 0.30, 1971 में 0.19, 1981 में 0.18 एवं वर्तमान में 0.08 हेक्टेअर हो गया है। विश्व का यह औसत 4.5 हेक्टेअर प्रति व्यक्ति पीछे है। कनाडा 2.12 हेक्टेअर, अर्जेन्टीना में 1.25, रूस में 1.23, संयुक्त राज्य अमेरीका में 0.89 तथा ऑस्ट्रेलिया में 3.39 हेक्टेअर है। पौष्टिक भोजन देने के लिये भारत में यह क्षेत्र बहुत ही कम है। संचित क्षेत्रफल में प्रति हेक्टेअर उत्पादन बढ़ाने के लिये अनेक संकर किस्मों का अधिकारिक प्रयोग किया गया है। 1970-1971 में नईं किस्मों के अन्तर्गत 154 लाख हेक्टेअर भूमि थी, जो बढ़कर 2008-2009 में 839 लाख हेक्टेअर हो गई है।

भूमि का असंतुलित वितरण

एक ओर जनसंख्या का भार भूमि पर बढ़ता जा रहा है, प्रति व्यक्ति खेती योग्य भूमि कम होती जा रही है, दूसरी ओर भूमि का वितरण अत्यन्त असंतुलित है। देश में आज भी किसानो के पास समस्त कृषि भूमि का 62 प्रतिशत है तथा 90 प्रतिशत किसानों के पास कुल कृषि भूमि का केवल 38 प्रतिशत है।

कृषि की न्यून उत्पादकता

1970 तक देश के अधिकांश भागों में औसत उत्पादन स्तर अधिकांश विकसित व कई विकासशील देशों (इण्डोनेशिया, फिलीपीन्स, मेक्सिको, ब्राजील, ईसीएम के देश आदि) से भी काफ़ी कम रहा, किन्तु 'हरित क्रान्ति' एवं निरन्तर सरकार द्वारा कृषकों को लाभप्रद मूल्य दिलाने की प्रवृत्ति से कृषक अनेक प्रकार की नई तकनीकि अपनाते रहे हैं। रबी की फ़सल काल में सरसों एवं खरीफ में सोयाबीनमूंगफली का बढ़ता उत्पादन सरकार द्वारा ऊँची कीमतें[1] निर्धारित करने से ही सम्भव हो सका है। आज राजस्थान सरसों एवं तिल, गुजरात मूंगफली एवं मध्य प्रदेश सोयाबीन उत्पादक प्रमुख प्रदेश बन गये हैं।

उत्पादन कम होने के कारण

भाग्यवादी भारतीय किसान

कृषि उत्पादन संबंधी उसे पर्याप्त अनुभव नहीं हैं, किन्तु अनेक बार शीत लहर, पाला व अनेक बार ओले अथवा सर्दी फ़सल नष्ट कर देते हैं। उसे अपने श्रम का उचित प्रतिफल प्राप्त नहीं हो पाता। अतः वह कृषि को व्यवसाय के रूप में नहीं बल्कि, जीवन-यापन की प्रणाली के रूप में अपनाता है। स्वभवतः वह वांछनीय मात्रा में उत्पादन उपलब्ध नहीं कर सकता। किसान की इसी भाग्यवादी प्रवृत्ति में परिवर्तन करने की एक रीति यह है कि उसे अधिकाधिक शिक्षित करने का प्रयत्न किया जाए। इसके अतिरिक्त प्राकृतिक संकटों का सामना करने के लिये वैज्ञानिक साधनों का प्रयोग करने की चेष्टा करनी चाहिए।

खाद का दुरुपयोग

भारत में पशुओं की संख्या अत्यधिक है और उनके गोबर तथा मूत्र से प्रतिवर्ष 2.89 करोड़ टन खाद प्राप्त की जा सकती है। इसके अतिरिक्त कम्पोस्ट तथा अन्य बेकार वस्तुओं से लगभग 93 लाख टन खाद उपलब्ध हो सकती है। दुर्भाग्य से गोबर का अधिकांश भाग ईंधन के रूप में जला दिया जाता है, क्योंकि ग्रामीण क्षेत्रों में अन्य सस्ते ईंधन का अभाव है। फलतः खेतों को पर्याप्त मात्रा में खाद नहीं मिल पाती, जिससे उत्पादन की स्थिति अच्छी नहीं है।

वर्तमान में कृषि के विकास में रासायनिक उर्वरकों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। पोषण की दृष्टि से उर्वरकों की प्रति-हेक्टेअर खपत वर्ष 2005-2006 के 10.5 किग्रा. से बढ़कर 2008-2009 में 128.6 किग्रा. हो गई। तथापि, मृदा की सीमांत उत्पादकता अभी भी चुनौती बनी हुई है। इसके लिये मृदा विश्लेषण के आधार पर वर्धित एनपीके के अनुप्रयोग और उचित पोषणों के अनुप्रयोग की आवश्यकता है। अब दस लाख से ऊपर जनसंख्या वाले महानगरों में ठोस अपशिष्टों के निपटान एवं सीवेज अपशिष्ट निपटान के लिए विशेष यान्त्रिक प्रणालियां नगरों की सीमा से दूर विकसित की जा रही हैं। कम्पोस्ट खाद घरेलू गैस, सिंचाई का उपयोगी जल, अन्य उपयोगी पदार्थगैस विभिन्न प्रक्रियांओं द्वारा प्राप्त की जाती हैं। इससे खेतों की उत्पादकता बढ़ने, भू-अपरदन घटने एवं ईंधन की आपूर्ति होने से लकड़ी व वनों पर दबाव भी घटता है।

सिंचाई के साधनों का सीमित विकास

भारतीय कृषि प्रधानतः मानसून पर निर्भर है, क्योंकि आज भी कुल कृषि योग्य भूमि के 41 प्रतिशत में सिंचाई होती है। देश में वृहत और मध्यम सिंचाई योजनाओं के जरिए सिंचाई की पर्याप्त संभवनाओं का सृजन किया गया है। देश में सिंचाई की कुल संभावना वर्ष 1991-1992 के 81.1 मिलियन हेक्टेअर से बढ़कर मार्च 2007 तक 102.77 मिलियन हेक्टेअर हो गई है। मानसून पर इतनी अधिक निर्भरता का प्रभाव यह होता है कि देश के अधिकांश भाग की कृषि प्रकृति की दया पर निर्भर है। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि जब तक सिंचाई की व्यवस्था नहीं होती, तब तक भूमि में खाद देना भी सम्भव नहीं है, क्योंकि खाद का यथोचित प्रयोग करने के लिये काफ़ी जल चाहिए, अन्यथा सामान्य खेती के सूखने का भी भय रहता है। सिंचाई की यह कमीं कम वर्षा वाले पठारी भागों एवं सारे उत्तर पश्चिमी भारत में विशेष रूप से महसूस की जाती है, क्योंकि औसत वर्षा 100 सेण्टीमीटर से भी कम एवं वर्षा की अनिश्चितता 35 प्रतिशत से भी अधिक रहती है।

बीज

किसानों के लिये उच्च गुणवत्ता वाले बीजों की प्रायः कमी बनी रहती है। फलस्वरूप उसे बाज़ार से सस्ता और घटिया बीज ही उपलब्ध हो पाता है, इससे भी किसानों की आय में कमी आ जाती है। इसके लिये सरकारी मशीनरी की कार्यप्रणाली एवं लालफीताशाही समान रूप से दोषी है। अच्छे तथा सुधरी हुई किस्मों के बीजों का प्रचार सामुदायिक विकास केन्द्रों के माध्यम से किया जाना चाहिए तथा पंचायतों एवं सरकारी सहकारी समितियों के द्वारा बढि़या बीजों की वितरण व्यवस्था को विश्वसनीय एवं सुनिश्चित करना आवश्यक है।

पशुओं की हीनावस्था

भारतीय कृषि में पशुओं का अधिक महत्वपूर्ण स्थान रहा है, किन्तु इनकी स्थिति अच्छी नहीं है। इस लिये अब ग्रामीण क्षेत्रों में अब तेजी से किराये के हल, पावर टिलर्स, कुएं पर मोटर पम्प या ट्यूबबेल एवं गहाई के लिये थ्रेसर जैसी गैर पशु आधारित प्रणालियों का उपयोग बढ़ता जा रहा है। आज पशुपालन, मुख्यतः डेयरी उत्पादों, पशु मांस व अन्य पशु उत्पादों के लिए विशेष महत्वपूर्ण बनता जा रहा है, क्योंकि पशु को भी तेजी से आर्थिक इकाई माना जाने लगा है।

भूमि की शक्ति का ह्रास

दीर्घ अवधि में निरंतर प्रयोग में आने के कारण भारतीय कृषि भूमि की उत्पादकता का ह्रास हो गया है। अतः भूमि की खोई हुई शक्ति को पुनः प्राप्त करने के लिए उसमें कम्पोस्ट खाद या प्रकृतिक जीवंश से पूर्ण खाद तथा उर्वरक देकर उसकी उपजाउ शक्ति बढ़ाने की चेष्टा की जाए।

भूमि का उपविभाजन एवं उपखण्डन

भारत में 90 प्रतिशत किसानों के पास कुल भूमि का 38 प्रतिशत भाग है। इसका अर्थ यह है कि एक किसान के पास औसत 0.2 हेक्टेअर से भी कम भूमि है। इतना ही नहीं यह भूमि कई टुकड़ों में बटी हुई है। इतने छोटे-छोटे भू-खण्डों पर खेती करना आर्थिक दृष्टि से उपादेय नहीं है। इससे भी कृषि एवं कृषक की दशा हीन रहती है। भूमि के छोटे-छोटे टुकड़ों की समस्या को हल करने के लिये सभी राज्यों में चकबन्दी की योजनाएँ चालू है। इन योजनाओं को भी सफल बनाने में भी पंचायतों एवं सहकारी समितियों का सहयोग प्राप्त करना चाहिए और भूमि के अधिकांश भाग को खेती के लिये लाभदायक बनाने की चेष्टा करनी चाहिए। इस संबंध में सहकारी समितियाँ भूमि की क्षतिपूर्ति के लिये ऋण देकर सहयोग प्रदान कर सकती है।

कृषि साख संस्थाओं की कमी

भारत में कृषि कार्यों के लिए करोड़ों रुपये की साख की आवश्यकता प्रतिवर्ष होती है। कुछ दशक पूर्व तक इसकी पूर्ति महाजन, साहूकार एवं देशी बैंकरो द्वारा की जाती थी, किन्तु अब नियोजित अर्थव्यवस्था के अन्तर्गत कृषि एक प्राथमिकता प्राप्त क्षेत्र घोषित किया जा चुका है। अब देश की बैंकिंग व्यवस्था अपने कुल ऋणों का एक निश्चित प्रतिशत इस क्षेत्र के लिए देने को बाध्य है। इस समय बैंकों द्वारा दिए जाने वाले ऋण का लगभग 41 प्रतिशत प्राथमिकता प्राप्त क्षेत्र को दिया जा रहा है। इसमें कृषि का प्रतिशत 17 है।

कृषि रोग आदि

कभी-कभी फ़सलों की अनेक बीमारियाँ, बाढ़, ओले, पाला, शीतलहर, विभिन्न कीड़े मकोड़े, चूहे व वन्य जीव भी फ़सलों को हानि पहुँचाते रहते हैं। जिससे भूमि का वास्तविक उत्पादन बहुत कम रह जाता है। इन तत्वों को वैज्ञानिक उपकरणें की सहायता से ही नियंत्रित किया जा सकता है।

विक्रय व्यवस्था

भारतीय किसान की एक महत्वपूर्ण समस्या यह रही है कि उसे अपना माल मण्डियों में बेचना पड़ता है। ये मण्डियाँ या तो बहुत दूर हैं, जहाँ पहुँचने के लिये यातायात के साधन पर्याप्त नहीं हैं या इनके विक्रय की व्यवस्था ठीक नहीं है। अतः किसान को अपने माल के उचित दाम प्राप्त करने में कठिनाई होती है। इस कठिनाई के कारण ही कभी-कभी तो वह अपना माल ग्राम के साहूकार को ही बेंच देता है, जिससे उसे और भी कम मूल्य प्राप्त होता है।

पंचवर्षीय योजनाओं के अन्तर्गत कृषि विकास

स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरांत देश में खाद्यान्न की कमी को दूर करने के लिये कृषि के विकास पर विशेष ध्यान दिया गया। 1966 में हरित क्रान्ति के आगमन से भारत में पारम्परिक कृषि व्यवहारों का प्रतिस्थापन औद्योगिक प्रौद्योगिकी एवं फार्म व्यवहारों से किया जाने लगा। जिससे कृषि की दशा में तेजी से सुधार हुआ। कृषि के क्षेत्र में नवीन तकनीकि को अपनाया गया, उन्नत बीजों का प्रयोग बढ़ा, उर्वरकों एवं कीटनाशकों के प्रयोग में गुणात्मक सुधार आया, कृषि में यंत्रीकरण का प्रयोग बढ़ा, सिंचाई के साधनों में वृद्धि हुई एवं अन्य ढांचागत सुविधाएं बढ़ई गई, आगतों में सब्सिडी दी गई, ऊसर भूमि सुधार कार्यक्रम चलाये गये तथा फ़सल बीमा आदि की सुविधाएँ कृषकों को प्रदान की गईं। इस तरह कृषि में संस्थागत एवं तकनीकि सुधारों के साथ साथ सघन एवं विस्तृत खेती की गई। इन सबका सम्मिलित असर यह हुआ कि देश में खाद्यान्न की उपज, जो 1950-1951 में मात्र 5 करोड़ टन थी, वह 2008-2009 में बढ़कर 21 करोड़ टन हो गई। इसके अतिरिक्त गैर खाद्य फ़सलों एवं व्यवसायिक फ़सलों, यथा- गन्ना, जूट, चाय, कहवा, कपास तथा रबर आदि के उत्पादन में पर्याप्त वृद्धि हुई। इस तरह देश में हुई उत्पादन में वृद्धि योजना काल में कृषि उत्पादन के विभिन्न उपादानों में हुये सतत सुधा का परिणाम रही।

योजनाकाल में कृषि विकास

कृषि पर व्यय- देश में पिछणी हुई कृषि को गति प्रदान करने के लिए योजना के आरम्भ से ही विशेष ध्यान दिया जाने लगा। भारत में पहली पंचवर्षीय योजना 1 अप्रैल, 1951 से प्रारम्भ की गई, जिसमें कृषि के विकास को सर्वोच्च वरीयता प्रदान की गई तथा इसके विकास के लिये पूरी योजना पर होने वाले कुल परिव्यय का 37 प्रतिशत रखा गया। दूसरी एवं तीसरी योजना में व्यय में कुछ कमी हुई, परन्तु उसके पश्चात कृषि क्षेत्र के विकास हेतु योजना परिव्यय में वृद्धि होती गई।


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