कहवा
कहवा या कॉफ़ी का पौधा भारत में 18वीं शताब्दी में ईस्ट इण्डिया कम्पनी द्वारा लाया गया था। सन् 1798 में तैलीचेरी के निकट यह प्रयोगात्मक रूप से बोया गया, किन्तु सन् 1830 से ही इसे पैदा किया जाने लगा। भारत में विश्व के उत्पादन का केवल 4.5 प्रतिशत कहवा ही पैदा होता है, किन्तु इसका स्वाद उत्तम होने के कारण विश्व के बाज़ारों में इसका मूल्य अधिक मिलता है। भारतीय कहवा को मधुर कहवा कहा जाता है। कहवा उत्पादन में लगभग 6 लाख व्यक्ति लगे हुए हैं। भारत में वर्ष 2007-2008 में 0.3 मिलियन टन कॉफ़ी का उत्पादन हुआ। इसके निर्यात से भारत को 1981 में 214 करोड़ रुपये प्राप्त हुए, वहीं 2008-2009 में 2,256 करोड़ रुपये प्राप्त हुए।
भौगोलिक दशाएँ
कहवा के उत्पादन के लिए निम्नलिखित भौगोलिक दशाओं की आवश्यकता होती है-
तापमान
इसका उत्पादन उन क्षेत्रों तक ही सीमित हैं, जहां औसत वार्षिक तापमान 15° से 18° सेंटीग्रेट से अधिक नहीं बढ़ता। साधारणतः इसके लिए 12° सेंटीग्रेट से 30° सेंटीग्रेट तक तापमान ठीक रहता है। कहवा अधिक तेज धूप को सहन नहीं कर सकता, अतः इसके आस-पास छायादार वृक्ष- जैसे केला, सिकोना, रबड़, मटर, सेम, नारंगी, सिल्वरओक आदि के वृक्ष लगाये जाते हैं।
वर्षा
कहवा की खेती के लिए 150 से 250 सेण्टीमीटर तक वर्षा पर्याप्त मानी गयी है। यदि वर्षा का वितरण समान रूप से हो तो यह 300 सेण्टीमीटर तक की वर्षा वाले क्षेत्रों में भी पैदा किया जा सकता है, किन्तु अधिक समय तक सूखा पड़ने या निरन्तर भारी वर्षा होने या जड़ों में पानी भरा रहने से इसका उत्पादन कम हो जाता है। देश में यह पहाड़ी ढालों पर, साधारणतः 900 से 1800 मीटर की ऊंचाई तक पैदा किया जाता है। दक्षिण भारत में कहवा के उद्यान साधारणतः घाटियों के पाश्ववर्ती भाग में तथा पश्चिमी घाटों पर पाये जाते हैं, जहां वर्षा काल में चलने वाली तेज पवनों से पौधों का बचाव हो जाता है।
मिट्टी
कहवा अधिकतर वनों की साफ़ की गयी भूमि में अच्छा होता है, जहां भूमि में अधिक उपजाऊ तत्त्व मिलते हैं। कहवा के लिए दोमट मिट्टी अथवा ज्वालामुखी के उद्गार से निकली हुई लावा मिट्टी भी अधिक उपयुक्त होती है, जिनमें क्रमशः वनस्पति और लोहे के अंश मिले रहते हैं।
श्रम
कहवा के वृक्षों को रोपने, स्थानान्तरित करने, फल को तोड़ने, उन्हें सुखाने, भूनने, पीसने एवं डिब्बों में बन्द करने के लिए सस्ते श्रमिकों की आवश्यकता होती है।
कहवा की कृषि
नर्सरी से प्राप्त पौधों को जनवरी से मार्च तक बोया जाता है। तीन वर्ष बाद पौधे से फल मिलने लगता है और 35 से 50 वर्ष तक फल मिलत रहते हैं। फल अधिकतर अक्टूबर से जनवरी तक चुने जाते हैं। दक्षिण भारत में वर्षा की प्रथम बौछारों के बाद फूल आने आरम्भ होते हैं और फल लगभग 5-6 महीने में पककर तैयार हो जाता है तथा इसे अक्टूबर-नवम्बर में चुन लेते हैं। कर्नाटक में फ़रवरी तक पौधे से लगभग 3-4 बार फल चुन लेते हैं, जबकि नीलगिरि में मई से जून तक कई बार फल चुने जाते हैं। एक वृक्ष से एक वर्ष में औसत आधा कि.ग्रा. तैयार किया गया कहवा मिलता है, अर्थात् प्रति हेक्टेअर पीछे 650 से 850 कि.ग्रा. कहवा का उत्पादन होता है।
कहवा की उपज ऊंचाई, आकार, वर्षा का समय, छाया, छंटाव, खाद आदि बातों पर निर्भर करती है। अमेरिका कहवा का प्रति हेक्टेअर उत्पादन 1000 किलोग्राम तथा रोबेस्टो कहवा का 873 किलोग्राम है। भारत में कहवे का औसत प्रति हेक्टेअर उत्पादन 1,000 किलोग्राम होता है। कहवा के पौधे को लगाने के तीन वर्ष बाद इसका फल प्राप्त होने लगता है। 40 से 50 वर्षों तक इससे फल प्राप्त होता रहता है। कहवा के फल को तोड़कर दो ढंग से तैयार किया जाता है। पहले ढंग के अनुसार उसे धूप में 2 से 3 सप्ताह तक सुखाया जाता है और फिर मशीन से साफ़ बीज निकाले जाते हैं। इस प्रकार प्राप्त किए गए कहवा को 'चेरी' कहते हैं। दूसरे ढंग के अनुसार फलों को इकट्टा कर उसका गूदा निकाल लेते हैं। फिर बड़े-बड़े हौजों में उसे साफ़ कर बीज निकाले जाते हैं। इनको धूप में सूखाकर 'पार्चमेण्ट कहवा' प्राप्त किया जाता है।
जब कहवा के बीजों को बारीक पीसा जाता है, उससे अधिक सत प्राप्त होता है, किन्तु मोटे पीसे गये कहवा से छानने योग्य कहवा प्राप्त होता है। आजकल दैनिक उपयोग के लिए 'रोबेस्ट कहवा' से तैयार की गयी 'तुरन्त कॉफी' का प्रचलन अधिक है। यूरोपीय देशों में भारत के मानसूनी कहवा की अधिक मांग होती है। इस प्रकार कहवा तैयार करने के लिए कहवा के बीजों को भूमि पर फैला देते हैं और उन्हें उलटते-पलटते रहते है, फिर बोरी में भरकर उनमें मानसूनी पवनों को प्रवेश कराया जाता है।
प्रकार
विश्व के कुल कहवा उत्पादन का मात्र 2 प्रतिशत उत्पादन भारत में किया जाता है, किन्तु इसका स्वाद उत्तम होने के कारण इसकी मांग विदेशों में अधिक रहती है। कहवा की उत्तम कृषि के लिए 150 से 180 सें.ग्रे. का औसत तापमान, 150 सेमी. से 250 सेमी की औसत वार्षिक तथा ढालू, पर्वतीय धरातल वाली एवं दोमट अथवा लावा निर्मित मिट्टी उपयुक्त होती है। भारत में दो प्रकार का कहवा पैदा किया जाता है-
- अरैबिका कहवा
- रोबेस्टा कहवा
अरैबिका कहवा
पहले प्रकार का कहवा सामान्यतः 750 से 1,506 मीटर की ऊंचाई पर उत्पन्न किया जाता है। यह उच्चकोटि को होता है। अतः इसका क्षेत्र अब घटकर 40 प्रतिशत ही रह गया है, क्योंकि इसमें कीड़े और रोग अधिक लग जाते हैं। अरेबिका कहवा की मुख्य किस्में चिक, कुर्ग, कैट, मारगो पाइप, बोरबन, अमरीलो तथा ब्लू माउण्टेन हैं। कुल क्षेत्रफल का 60 प्रतिशत अरेबिका कहवा के अन्तर्गत है। इस प्रकार का कहवा कर्नाटक में बाबाबदून, केरल के उत्तरी और दक्षिणी कुर्ग, अन्नामलाई, कनान-देवन्स, तमिलनाडु में शिवराय, नीलगिरि, वायनाद, नेलियमति और बेलगिरि में बोया जाता है।
रोबेस्टा कहवा
रोबेस्टा कहवा आजकल अधिक लोकप्रिय होता जा रहा है। इसको रोगों और कीड़ों-मकोड़े का भय कम रहता है। इसका प्रति हेक्टेअर उत्पादन भी अधिक होता है। अतः अब कुल कॉफी क्षेत्र के 60 प्रतिशत भाग में इसे पैदा किया जाता है। कर्नाटक और केरल राज्यों के 60 प्रतिशत भाग में इसे पैदा किया जाता है। कर्नाटक और केरल राज्यों में इसे केला, आम, नारंगी तथा काली मिर्च के साथ पैदा किया जाता है। यह मुख्यतः मालाबार, वायनाद, दक्षिणी कुर्म, अन्नामलाई क्षेत्र में बोया जाता है।
- एक तीसरी किस्म का कहवा और पैदा किया जाता है। इसे लाइबेरिका कहवा कहते हैं। यह 12 से 16 मीटर ऊंची झाड़ी होती है, किन्तु किस्म हल्की होती है। इसे अधिकतर अन्य दो किस्मों के साथ मिलाकर काम में लाया जाता है।
उत्पादक क्षेत्र
भारत में कहवा के 1,78,308 छोटे व मध्यम आकार के बगीचे हैं, जिनमें 98.4 प्रतिशत बगीचे छोटे आकार के हैं। कॉफी के कुल उत्पादन क्षेत्र का 71.2 प्रतिशत इन्हीं छोटे आकार के बगीचे के अन्तर्गत है। इनमें कॉफी के कुल उत्पादन का 60 प्रतिशत प्राप्त होता है। भारत में कहवा का उत्पादन मुख्यतया तीन राज्यों यथा- कर्नाटक, केरल और तमिलनाडु में होता है। वर्तमान में देश 3.47 लाख हेक्टेअर क्षेत्र में कॉफी की कृषि होती है। कहवा के अन्तर्गत क्षेत्रफल का 57.5 प्रतिशत कर्नाटक में, 23.8 प्रतिशत केरल में और 8.6 प्रतिशत तमिलनाडु राज्यों में हैं। शेष क्षेत्र कॉफी के नवीन राज्यों आन्ध्र प्रदेश, उड़ीसा, असम, नागालैण्ड, मिजोरम, त्रिपुरा, अरुणाचल प्रदेश, मेघालय और मणिपुर हैं।
कर्नाटक में लगभग 4,600 उद्यान हैं, यहां कड़वा अधिकतर दक्षिणी और दक्षिण-पश्चिमी भाग में कुएँ, शिवामोग्गा, हासन, चिकमंगलरु और मैसूर ज़िलों में पैदा होता है, जो साधारणतः 13,00 मीटर ऊंचे हैं और जहां औसत वर्षा 125 सेण्टीमीटर होती है। वर्तमान में देश के कुल उत्पादन का लगभग 55.7 प्रतिशत कहवा कर्नाटक से प्राप्त होता है। केरल में कहवा उत्पादन क्षेत्र 1,200 मीटर ऊंचाई तक है, जहां वर्षा की मात्रा 200 सेण्टीमीटर तक होती है। प्रमुख उत्पादक क्षेत्र वायनाड, ट्रावनकोर और मालाबार ज़िले हैं। यहां से कुल उत्पादन लगभग 24.3 प्रतिशत प्राप्त किया जाता है।
तमिलनाडु से सम्पूर्ण दक्षिण-पश्चिम में अर्काट ज़िले से लगाकर तिरुनेल्वेली तक यह बोया जाता है। प्रमुख कॉफी उत्पादक क्षेत्र पालनी, शिवराय (सलेम), नीलगिरि तथा अनामलाई (कोयम्बटूर) हैं। तमिलनाडु से कुल उत्पादन का लगभग 9.1 प्रतिशत प्राप्त किया जाता है। वहीं दूसरी ओर महाराष्ट्र में सतारा, रत्नगिरि, कनारा ज़िले में और आन्ध्र प्रदेश में विशाखापत्तन ज़िले में भी कहवा पैदा किया जाता है। गत 20-25 वर्षों में कहवा का उपयोग और व्यापार दोनों ही बढ़े हैं। इस वृद्धि का कारण भारतीय कहवा बोर्ड के प्रयास हैं। कहवा का आन्तरिक उपभोग कर्नाटक, तमिलनाडु और केरल में अधिक होता है। भारत में प्रति व्यक्ति पीछे उपभोग की मात्र 70 ग्राम है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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