"भारत का इतिहास" के अवतरणों में अंतर

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:भ्रमण, खोजें
पंक्ति 92: पंक्ति 92:
 
==भारतीय सेना का कमज़ोर संगठन ==
 
==भारतीय सेना का कमज़ोर संगठन ==
 
सामंतवाद के विकास से भारतीय सेना का संगठन कमज़ोर पड़ गया था। विभिन्न सरदार और राजे लड़ाई में समन्वित तरीक़े से लड़ नहीं सकते थे और पराजय के बाद जल्दी-जल्दी अपने क्षत्रों में लौट जाते थे। उधर तुर्कों ने एक संगठित सेना का विकास कर लिया था। वे सैनिकों को एक जगह भर्ती करते थे, उन्हें नक़द वेतन देते थे और इस प्रकार से उनकी सेना में मैदान में अधिक देर तक टिकने की आदत थी, उनके सैनिक काफ़ी समय तक मैदान में टिक सकते थे और दुश्मन से लोहा ले सकते थे। इसका आधार 'इक़ता' व्यवस्था थी।
 
सामंतवाद के विकास से भारतीय सेना का संगठन कमज़ोर पड़ गया था। विभिन्न सरदार और राजे लड़ाई में समन्वित तरीक़े से लड़ नहीं सकते थे और पराजय के बाद जल्दी-जल्दी अपने क्षत्रों में लौट जाते थे। उधर तुर्कों ने एक संगठित सेना का विकास कर लिया था। वे सैनिकों को एक जगह भर्ती करते थे, उन्हें नक़द वेतन देते थे और इस प्रकार से उनकी सेना में मैदान में अधिक देर तक टिकने की आदत थी, उनके सैनिक काफ़ी समय तक मैदान में टिक सकते थे और दुश्मन से लोहा ले सकते थे। इसका आधार 'इक़ता' व्यवस्था थी।
 +
दिल्ली सल्तनत (लगभग 1200 ई0 से 1400 ई0)
 +
==मामलुक सुल्तान==
 +
तुर्क [[पंजाब]] और मुल्तान से लेकर गंगा घाटी तक, यहाँ तक की [[बिहार]] तथा [[बंगाल]] के कुछ क्षेत्रों में अपना प्रभाव क़ायम करने में सफल हो सके। इनके राज्य को 'दिल्ली सल्तनत' के नाम से जाना जाता है। क़रीब सौ वर्षों तक इन तुर्कों को अपने राज्य की सुरक्षा के लिए विदेशी आक्रमणों, तुर्की नेताओं के आंतरिक मतभेदों तथा विजित राजपूत शासकों द्वारा अपने राज्य को पुनः वापस लेने और यदि सम्भव हो तो तुर्कों को बाहर निकाल देने के प्रयासों का सामना करना पड़ा। तुर्की शासक इन बाधाओं को पार कर विजय पाने में सफल हुए और तेरहवीं शताब्दी के अन्त तक उन्होंने न केवल [[मालवा]] और [[गुजरात]] को अपने अधीन कर लिया, वरन दक्कन और दक्षिण [[भारत]] तक पहुँच गए। इस प्रकार उत्तर भारत में स्थापित तुर्की साम्राज्य का प्रभाव सारे भारत पर पड़ा और इसके परिणामस्वरूप सौ वर्षों में समाज, प्रशासन तथा सांस्कृतिक जीवन पर दूरगामी परिवर्तन हुए।
 +
सबसे पहले हम तेरहवीं शताब्दी में दिल्ली सल्तनत के विस्तार और उसकी बढ़ती शक्ति का अध्ययन करेंगे।
 +
==शक्तिशाली राजतंत्र की स्थापना के लिए संघर्ष==
 +
[[मुहम्मद ग़ोरी|मुइज्जुद्दीन मुहम्मद ग़ोरी]] के बाद उसका ग़ुलाम [[क़ुतुबुद्दीन ऐबक]] सिंहासन पर बैठा। क़ुतुबुद्दीन ने तराइन के युद्ध के बाद तुर्की सल्तनत के विस्तार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। मुइज्जुद्दीन का ही एक और ग़ुलाम याल्दुज़ ग़ज़नी के सिंहासन पर बैठा। ग़ज़नी का शासक होने के नाते याल्दुज़ ने [[दिल्ली]] के राज्य का भी दावा किया। पर उसे ऐबक ने स्वीकार नहीं किया और इसी के समय से दिल्ली सल्तनत ने ग़ज़नी से सम्बन्ध विच्छेद कर लिया। यह भारत के लिए बहुत अच्छा हुआ, क्योंकि इस प्रकार यह मध्य [[एशिया]] की राजनीति से बचा रहा। इससे दिल्ली सल्तनत को, भारत के बाहर के देशों पर निर्भर हुए बिना, स्वतंत्र रूप से विकास करने का अवसर मिला।
 +
==अल्तमश==
 +
 +
(1201 ई0-1236 ई0)
 +
चौगान खेलते समय 1210 ई0 में घोड़े से गिरने के कारण ऐबक की मृत्यु हो गई। उसके बाद उसका दामाद अल्तमश उसका उत्तराधिकारी बना, पर सिंहासन पर बैठने के पहले उसे ऐबक के पुत्र से युद्ध कर उसे पराजित करना पड़ा। इस प्रकार आरम्भ से ही पिता की मृत्यु के बाद उसके पुत्र के सिंहासनाधिकार की प्रथा को धक्का लगा।
 +
 +
अल्तमश (1210-36) को उत्तर भारत में तुर्कों के राज्य का वास्तविक संस्थापक माना जा सकता है। उसके सिंहासन पर बैठने के समय 'अली मर्दन ख़ाँ' ने बंगाल और बिहार तथा ऐबक के एक और ग़ुलाम, 'कुबाचा' ने, मुल्तान के स्वतंत्र शासकों के रूप में घोषणा कर दी थी। कुबाचा ने [[लाहौर]] तथा [[पंजाब]] के कुछ हिस्सों पर अपना अधिकार भी कर लिया। पहले पहल दिल्ली के निकट भी अल्तमश के कुछ सहकारी अधिकारी उसकी प्रभुता स्वीकार करने में हिचकिचा रहे थे। राजपूतों ने भी स्थिति का लाभ उठाकर अपनी स्वतंत्रता घोषित कर दीं। इस प्रकार [[कालिंजर]], [[ग्वालियर]] तथा [[अजमेर]] और [[बयाना]] सहित सारे पूर्वी [[राजस्थान]] ने तुर्की बोझ अपने कन्धों से उतार फेंका।
 +
 +
अपने शासन के प्रारम्भिक वर्षों में अल्तमश ने अपना ध्यान उत्तर-पश्चिम की ओर लगाया। 'ख्वारिज़म शाह' की ग़ज़नी विजय से उसकी स्थिति को नया ख़तरा पैदा हो गया था। ख्वारिज़म साम्राज्य मध्य एशिया में अपने समय का सबसे शक्तिशाली साम्राज्य था और उसकी पूर्वी सीमा [[सिन्धु नदी]] को छूती थी। इस ख़तरे को समाप्त करने के लिए अल्तमश ने लाहौर पर अपना क़ब्ज़ा कर लिया। मंगोलों ने 1220 ई0 में ख्वारिज़मी साम्राज्य को समाप्त कर इतिहास के सबसे शक्तिशाली साम्राज्य में गिने जाने वाले साम्राज्य की नींव डाली, जो अपने चरमोत्कर्ष में [[चीन]] से लेकर [[भूमध्य सागर]] तथा कास्पियन समुद्र से लेकर जक्सारटेस नदी तक फैला हुआ था। जब 'मंगोल' कहीं और व्यस्त थे, अल्तमश ने मुल्तान और उच्छ से कुबाचा को उखाड़ फैंका। इस प्रकार दिल्ली सल्तनत की सीमा एक बार फिर सिन्धु तक पहुँच गई।
 +
 +
पश्चिम में अपनी स्थिति मज़बूत कर अल्तमश ने अन्य क्षेत्रों की ओर ध्यान दिया। बंगाल और बिहार में 'इवाज़' नाम के एक व्यक्ति ने 'सु्ल्तान ग़ियासुद्दीन' की पदवी ग्रहण कर अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर दी थी। वह कुशल तथा उदार प्रशासक था और उसने सार्वजनिक लाभ के लिए कई चीज़ों का निर्माण किया। यद्यपि उसने अपने पड़ोसी राज्यों के क्षेत्रों पर चढ़ाई की, तथापि पूर्व बंगाल में सेन तथा [[उड़ीसा]] और कामरूप ([[असम]]) में हिन्दू राजाओं का प्रभाव बना रहा। इवाज़, अल्तमश के लड़के द्वारा 1226-27 में लखनौती के निकट एक युद्ध में पराजित हुआ। बंगाल और बिहार एक बार फिर दिल्ली के अधीन हो गए, पर इन क्षेत्रों पर शासन क़ायम रखना आसान नहीं था और इन्होंने [[दिल्ली]] को बार-बार चुनौती दी।
 +
 +
इसी समय अल्तमश ने ग्वालियर, बयाना, अजमेर तथा नागौर को भी वापस अपने क़ब्ज़े में करने के लिए क़दम उठाए। इस प्रकार उसने पूर्वी राजस्थान को अपने अधीन कर लिया। उसने [[रणथंभौर]] और [[जालौर]] पर भी विजय प्राप्त की, लेकिन [[चित्तौड़]] के निकट [[नागदा]] तथा [[गुजरात]] के [[चालुक्य वंश|चालुक्यों]] के विरुद्ध अपने अभियानों में वह सफल नहीं हो सका।
 +
==रज़िया==
 +
(1236-39)
 +
अपने अंतिम दिनों में अल्तमश अपने उत्तराधिकार के सवाल को लेकर चिन्तित था। वह अपने किसी भी लड़के को सुल्तान बनने योग्य नहीं समझता था। बहुत सोचने विचारने के बाद अन्त में उसने अपनी पुत्री 'रज़िया' को अपना सिंहासन सौंपने का निश्चय किया तथा अपने सरदारों और उल्माओं को इस बात के लिए राज़ी किया। यद्यपि स्त्रियों ने प्राचीन [[मिस्र]] और [[ईरान]] में रानियों के रूप में शासन किया था और इसके अलावा शासक राजकुमारों के छोटे होने के कारण राज्य का कारोबार सम्भाला थी, तथापि इस प्रकार पुत्रों के होते हुए सिंहासन के लिए स्त्री को चुनना एक नया क़दम था। अपनी स्थिति मज़बूत करने के लिए रज़िया को न केवल अपने सगे भाइयों, बल्कि शक्तिशाली तुर्की सरदारों का भी मुक़ाबला करना पड़ा और वह केवल तीन वर्षों तक ही शासन कर सकी। यद्यपि उसके शासन की अवधि बहुत कम थी, तथापि उसके कई महत्वपूर्ण पहलू थे। रज़िया के शासन के साथ ही सम्राट और तुर्की सरदारों, जिन्हें 'चहलगानी' (चालीस) कहा जाता है, के बीच संघर्ष प्रारम्भ हो गया। अल्तमश अपने तुर्क सरदारों का बहुत आदर करता था। उसकी मृत्यु के बाद ये सरदार शक्ति और घमंण्ड में चूर होकर सिंहासन पर कठपुतली के रूप में ऐसे शासक को बैठाना चाहते थे जिस पर उनका पूरा नियंत्रण रहे। उन्हें शीघ्र ही पता लग गया कि स्त्री होने पर भी रज़िया उनके हाथों की कठपुतली बनने को तैयार नहीं थी। रज़िया ने स्त्रियों का पहनावा छोड़ दिया और बिना पर्दे के दरबार में बैठने लगी। वह शिकार पर भी जाती और युद्ध के समय सेना का नेतृत्व भी करती। वह अपना एक अलग दल तैयार करना चाहती थी। इसे तुर्क सरदार सहन नहीं कर सकते थे। उन्होंने रज़िया पर स्त्री-आचरण को तोड़ने और एक अबीसिनीयाई सरदार 'याक़ूत ख़ाँ' से प्रेम करने का आरोप लगाया। प्रान्तों में कई शक्तिशाली सरदारों ने भी रज़िया के विरुद्ध मोर्चा बनाया। यद्यपि रज़िया बड़ी वीरता के साथ लड़ी, पर अन्त में वह पराजित हुई और भागने के दौरान एक जंगल में सोते समय डाकुओं के हाथों मारी गई।
 +
==बलबन का युग==
 +
(1246-84)
 +
तुर्क सरदारों और शासन के बीच संघर्ष चलता रहा। एक तुर्क सरदार 'उलघु ख़ाँ' ने, जिसे उसके बाद के नाम, 'बलबन' से जाना जाता है, धीरे-धीरे सारी शक्ति अपने हाथों में केन्द्रित कर ली और वह 1265 में सिंहासन पर बैठा। उसके सिंहासन पर बैठने के बाद तुर्क सरदार और शासन के बीच संघर्ष रुका। आरम्भ में बलबन अल्तमश के छोटे पुत्र नसीरुद्दीन महमूद का नाइब था, जिसे उसने 1246 में गद्दी पर बैठने में मदद की थी। बलबन ने अपनी एक पुत्री का विवाह युवा सुल्तान से करवा कर अपनी स्थिति और मज़बूत कर ली। बलबन की बढ़ती शक्ति उन तुर्क सरदारों की आंखों में चुभ रही थी जो नसीरुद्दीन महमूद के युवा और अनुभवहीन होने के कारण शासन में अपना प्रभाव क़ायम रखना चाहते थे। उन्होंने मिल कर 1250 में बलबन के विरुद्ध एक षड़यंत्र रचा और बलबन को पदच्युत करवा दिया। बलबन के स्थान पर एक भारतीय मुसलमान 'इमादुद्दीन रिहान' की नियुक्ति हुई। यद्यपि तुर्क सरदार सारे अधिकारों और सारी शक्ति को अपने ही हाथों में रखना चाहते थे तथापि वे रिहान की नियुक्ति के लिए इसलिए राज़ी हो गए क्योंकि वे इस बात पर एकमत नहीं हो सके कि उनमें से बलबन के स्थान पर किसकी नियुक्ति हो। बलबन ने अपना पद छोड़ना स्वीकार तो कर लिया, पर वह चुपके-चुपके अपने समर्थकों को इकट्ठा भी करता रहा। पदच्युत होने के दो वर्षों के अन्दर ही बलबन अपने कुछ विरोधियों को जीतने में सफल हो गया। अब वह शक्ति परीक्षा के लिए तैयार था। ऐसा लगता है कि बलबन ने पंजाब के एक बड़े क्षेत्र पर क़ब्ज़ा करने वाले मंगोलों से भी सम्पर्क स्थापित किया। सुल्तान महमूद को बलबन की शक्ति के आगे घुटने टेकने पड़े और उसने रिहान को बर्खास्त कर दिया। कुछ समय बाद रिहान पराजित हुआ और उसे मार दिया गया। बलबन ने उचित-अनुचित तरीक़ों से अपने अन्य विरोधियों को भी समाप्त कर दिया। अब उसने राजसी प्रतीक 'छत्र' को भी ग्रहण कर लिया, पर इतना होने पर भी सम्भवतः तुर्क सरदारों की भावनाओं को ध्यान में रख वह सिंहासन पर नहीं बैठा। सुल्तान महमूद की 1265 में मृत्यु हो गई। कुछ इतिहासकारों का मत है कि बलबन ने सुल्तान को ज़हर देकर मार दिया और सिंहासन के अपने रास्ते को साफ करने के लिए उसके पुत्रों की भी हत्या कर दी। बलबन द्वारा अपनाए गए उपाय बहुत बार अनुचित और अवांछनीय होते थे, पर इसमें कोई संदेह नहीं कि उसके सिंहासन पर बैठने के साथ ही एक शक्तिशाली केन्द्रीय सरकार के युग का आरम्भ हुआ।
 +
बलबन का विश्वास था कि आंतरिक और बाहरी ख़तरों का सामना करने का एकमात्र उपाय सम्राट के सम्मान और उसकी शक्ति को बढ़ाना है और इस कारण वह बराबर इस बात का प्रयत्न करता रहा। उस काल में मान्यता थी कि अधिकार और शक्ति केवल राजसी और प्राचीन वंशों का विशेषाधिकार है। उसी के अनुरूप बलबन ने भी सिंहासन के अपने दावे को मज़बूत करने के लिए घोषणा की कि वह कहानियों में प्रसिद्ध तुर्क योद्धा 'अफ़रासियान' का वंशज है। राजसी वंशज से अपने सम्बन्धों के दावों को मज़बूत करने के लिए बलबन ने स्वयं को तुर्क सरदारों के अग्रणी के रूप में प्रदर्शित किया। उसने शासन के उच्च पदों के लिए केवल उच्च वंश के सदस्यों को स्वीकार करना आरम्भ किया। इसका अर्थ यह था कि भारतीय मुसलमान इन पदों से वंचित रह जाते थे। बलबन कभी-कभी तो इस बात की हद कर देता था। उदाहरणार्थ उसने एक ऐसे बड़े व्यापारी से मिलना अस्वीकार कर दिया जो ऊँचे ख़ानदान का नहीं था। इतिहासकार 'ईरानी' ने, जो स्वयं ख़ानदानी तुर्कों का समर्थक था, अपनी रचना में बलबन से यह कहलवाया है- 'जब भी मैं किसी नीच वंश के आदमी को देखता हूँ तो क्रोध से मेरी आँखें जलने लगती हैं और मेरे हाथ मेरी तलवार तक (उसे मारने के लिए) पहुँच जाते हैं।' बलबन ने वास्तव में ऐसे शब्द कहे थे या नहीं, लेकिन इनसे सम्भवतः गैर-तुर्कों के प्रति उसके दृष्टिकोण के बारे में पता चलता है।
 +
 +
ख़ानदानी तुर्क सरदारों का स्वयं को अग्रणी बताते हुए भी बलबन अपनी शक्ति में किसी को, यहाँ तक की अपने परिवार के सदस्यों को भी, हिस्सेदार बनाने के लिए तैयार नहीं था। उसको तानाशाही इस हद तक थी कि और तो और वह अपने किसी समर्थ की भी आलोचना सहन नहीं कर सकता था। उसका एक प्रधान कार्य 'चहलगानी' की शक्ति को समाप्त कर सम्राट की शक्ति को मज़बूत करना था। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए वह अपने सम्बन्धी 'शेर ख़ाँ' को ज़हर देकर मारने में भी नहीं हिचका। लेकिन साथ-साथ जनता के समर्थन और विश्वास को प्राप्त करने के लिए वह न्याय के मामले में थोड़ा भी पक्षपात नहीं करता था। अपने अधिकार की अवहेलना करने पर वह बड़े से बड़े व्यक्ति को भी नहीं छोड़ता था। इस प्रकार ग़ुलामों के प्रति दुर्व्यवहार करने पर [[बदायूँ]] तथा [[अवध]] के शासकों के पिताओं को कड़ी सजा दी गई। राज्य की सभी प्रकार की सूचना प्राप्त करने के लिए बलबन ने हर विभाग में अपने जासूस तैनात कर दिए। आंतरिक विद्रोहों तथा [[पंजाब]] में जमे हुए मंगोलों से मुक़ाबला करने के लिए एक शक्तिशाली केन्द्रीय सेना का संगठन किया। इन मंगोलों से दिल्ली सल्तनत को गम्भीर ख़तरा बना हुआ था। इसके लिए उसने सैनिक विभाग 'दीवान-ई-अर्ज़' को पुनर्गठित किया और ऐसे सैनिकों को पेंशन देकर सेवा मुक्त किया जो अब सेवा के लायक नहीं रह गए थे, क्योंकि इनमें से अधिकतर सैनिक तुर्क थे और अल्तमश के हिन्दुस्तान आए थे। उन्होंने बलबन के इस क़दम के विरोध में अपनी आवाज़ उठाई, पर बलबन ने उनकी एक न सुनी।
 +
 +
दिल्ली के आसपास के क्षेत्रों तथा दोआब में अल्तमश की मृत्यु के बाद क़ानून और व्यवस्था की हालत बिगड़ गयी थी। गंगा-यमुना दोआब तथा [[अवध]] में सड़कों की स्थिति ख़राब थी और चारों ओर डाकुओं के भय के कारण वे इतनी असुरक्षित थीं कि पूर्वी क्षेत्रों से सम्पर्क रखना कठिन हो गया। कुछ [[राजपूत]] ज़मीदारों ने इस क्षेत्र में क़िले बना लिए थे और अपनी स्वतंत्रता घोषित कर दी थी। मेवातियों में दिल्ली के आसपास के क्षेत्रों में लूटपाट करने का साहस आ गया था। बलबन ने इन तत्वों का बड़ी कठोरता के साथ दमन किया। डाकुओं का पीछा कर उन्हें बर्बरता से मौत के घाट उतार दिया गया। बदायूँ के आसपास के क्षेत्रों में राजपूतों के क़िलों को तोड़ दिया गया तथा जंगलों को साफ़ कर वहाँ अफ़ग़ान सैनिकों बस्तियाँ बना दी गईं, ताकि वे सड़कों की सुरक्षा कर सकें और राजपूत ज़मीदारों के शासन के विरुद्ध विद्रोहों को तुरन्त कुचल सकें।
 +
 +
इन कठोर तरीक़ों से बलबन ने स्थिति पर नियंत्रण कर लिया। लोगों को अपनी शक्ति से प्रभावित करने के लिए उसने अपने दरबार की शान-शौकत को बढ़ाया। वह जब भी बाहर निकलता था, उसके चारों तरफ़ अंगरक्षक नंगी तलवारें लिए चलते थे। उसने दरबार में हँसी-मज़ाक समाप्त कर दिया और यह सिद्ध करने के लिए कि उसके सरदार उसकी बराबरी नहीं कर सकते, उनके साथ शराब पीना बंद कर दिया। उसने 'सिज्दा' और 'पैबोस' (सम्राट के सामने झुक कर उसके पैरों को चूमना) के रिवाजों को आवश्यक बना दिया। ये और उसके द्वारा अपनाए गए कई अन्य रिवाज मूलतः ईरानी थे और उन्हें ग़ैर-इस्लामी समझा जाता था। लेकिन इसके बावजूद उनका विरोध करने की किसी में भी हिम्मत नहीं थी। क्योंकि ऐसे समय में जब मध्य और पश्चिम एशिया में मंगोलों के आक्रमण से अधिकतर इस्लामी साम्राज्य ख़त्म हो चुके थे, बलबन और दिल्ली सल्तनत को ही इस्लाम के नेता के रूप में देखा जाने लगा था।
 +
 +
बलबन की 1286 में मृत्यु हो गई। वह निस्संदेह दिल्ली सल्तनत और विशेषकर उसके प्रशासन के प्रमुख प्रतिष्ठाताओं में से एक था। सम्राट के अधिकारों को प्रमुखता देकर बलबन ने दिल्ली सल्तनत की शक्ति को भी मज़बूत किया, लेकिन वह मंगोलों के आक्रमण से [[भारत]] की उत्तरी सीमा को पूरी तरह नहीं बचा सका। इसके अलावा ग़ैर-तुर्कों को उच्च पदों पर नियुक्त न करने और प्रशासन के आधार को संकीर्ण बनाने की नीति से लोगों में असंतोष फैला, जिसके कारण उसकी मृत्यु के बाद नये विद्रोह आरम्भ हो गए।
 +
==उत्तर-पश्चिम सीमा की समस्या तथा बाह्रा ख़तरा==
 +
अपनी प्राकृतिक सीमाओं के कारण [[भारत]] अपने इतिहास के अधिकांश काल तक विदेशी आक्रमणों से सुरक्षित रहा है। विदेशी केवल उत्तर-पश्चिम मार्ग से यहाँ आ सकते थे। इसी क्षेत्र के पहाड़ी दर्रों से [[हूण]] और सीथियन आक्रमणकारियों की तरह तुर्क भी आए और यहाँ अपना साम्राज्य स्थापित करने में सफल हो गए। यह पहाड़ी क्षेत्र ऐसा है कि आक्रमणकारी को पंजाब की उर्वरक नदी घाटियों तक पहुँचने से रोकने के लिए ग़ज़नी होकर [[काबुल]] से [[कंन्धार]] तक के क्षेत्र पर नियंत्रण आवश्यक है। दक्षिण की ओर का क्षेत्र राजपूताना रेगिस्तान के कारण सुरक्षित है। तुर्की शासकों के लिए हिन्दूकुश क्षेत्र का नियंत्रण भी आवश्यक था क्योंकि मध्य एशिया से सैनिक तथा रसद पहुँचने का यही मुख्य मार्ग था।
 +
 +
पश्चिम एशिया की बदलती स्थिति के कारण दिल्ली सल्तनत के शासकों का उन सीमाओं पर नियंत्रण सम्भव नहीं हो सका, जिन्हें बाद में अंग्रेज़ 'वैज्ञानिक सीमा'(Scientific frontiers) कहते थे। रिज़मी साम्राज्य के उदय के साथ काबुल, कन्धार तथा ग़ज़नी पर से ग़ोरियों का प्रभाव शीघ्र ही समाप्त हो गया और ख़वारिज़मी साम्राज्य की सीमा सिंध नदी तक पहुँच गई। ऐसा लगता था जैसे उत्तर भारत पर प्रभुत्व के लिए ख़वारिज़मी शासकों और क़ुतुबुद्दीन ऐबक के उत्तराधिकारियों के बीच संघर्ष छिड़ जाएगा। लेकिन इसी समय इस क्षेत्र में एक और बड़ा ख़तरा पैदा हो गया। यह था मंगोलों का नेता '[[चंगेज़ ख़ाँ]]' जो स्वयं को ईश्वर का अभिशाप बताने में गर्व महसूस करता था।
 +
मंगोलों ने 1220 ई0 में ख़वारिज़मी साम्राज्य को समाप्त कर दिया था। उन्होंने जक्सारटेज़ से लेकर कास्पियन समुद्र तथा ग़ज़नी से लेकर इराक तक के क्षेत्र में कई शहरों और गाँवों कें ध्वंस कर दिया और कई जगह क़त्ले-आम करने में भी नहीं चूके। कई तुर्क सैनिक मंगोलों से जा मिले। मंगोलों ने जानबूझ कर युद्ध में बर्बरता की नीति अपनायी। जब भी वे विरोध करने वाले किसी शहर पर क़ब्ज़ा करते तो वहाँ के सभी सैनिकों और अधिकारियों को मौत घाट उतार देते और बच्चों व औरतों को ग़ुलामों के रूप में बेच देते। यहाँ तक की नागरिकों को भी नहीं बख्शा जाता। उनमें से कुशल दस्तकारों को मंगोल सेना की सेवा में लगा दिया जाता और हट्टे-कट्टे लोगों से अन्य नगरों पर चढ़ाई की तैयारियों के लिए 'बेगार' लिया जाता। इससे इस क्षेत्र के आर्थिक और सांस्कृतिक जीवन का ह्रास हो गया। पर साथ ही मंगोलों द्वारा इस क्षेत्र में शान्ति और व्यवस्था स्थापित करने और चीन से लेकर भूमध्यसागर के तट तक के व्यापार मार्ग को सुरक्षित बनाने से पुनरुत्थान की प्रक्रिया भी आरम्भ हुई। पर ईरान, तूरान और ईराक़ को अपनी प्राचीन समृद्धि फिर से प्राप्त करने में सदियाँ लग गईं। इसी दौरान मंगोल आक्रमण से दिल्ली सल्तनत पर भी महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ा। इनके भय से कई राजकुमारों, विद्वानों धर्मशास्त्रियों तथा अन्य प्रमुख लोगों ने [[दिल्ली]] में शरण ली। इस क्षेत्र में एकमात्र मुसलमान राज्य होने के नाते दिल्ली सल्तनत का महत्व बहुत बढ़ गया। एक ओर तो इसने विभिन्न शासकों के बीच [[इस्लाम]] के बंधन पर बहुत ज़ोर दिया और दूसरी ओर तुर्क आक्रमणकारियों का, जो अपना घर-बार छोड़ कर आए थे, भारतीय परिस्थितियों के अनुसार स्वयं को ढालना आवश्यक हो गया। [[भारत]] को मंगोलों से ख़तरा 1221 ई0 में पैदा हो गया। ख़वारिज़म सम्राज्य की पराजय के बाद मंगोलों ने युवराज जलालुद्दीन का पीछा यहाँ तक किया। जलालुद्दीन ने सिंध नदी के तट पर मंगोलों का वीरता से सामना किया, पर पराजित होने पर अपने घोड़े को नदी में फेंक कर भारत आ गया। यद्यपि चंगेज़ ख़ाँ सिंध नदी के आस पास तीन महीनों तक घूमता रहा, परन्तु उसने निश्चय किया कि वह भारत में न आकर ख़वारिज़म साम्राज्य के अन्य क्षेत्रों को पराजित करेगा। यह अब कहना कठिन है कि यदि चंगेज़ ने भारत पर आक्रमण करने का निश्चय किया होता तो उसके क्या परिणाम होते। भारत में तुर्क साम्राज्य अत्यन्त कमज़ोर तथा असंगठित था। सम्भवतः भारत को भी बड़े पैमाने पर क़त्लेआम और विनाश लीला देखनी पड़ती। जिसके सामने तुर्कों की बर्बरता गौण लगती। उस समय दिल्ली के शासक [[अल्तमश]] ने जलालुद्दीन को शरण देने से इंकार कर मंगोलों के क्रोध को शान्त करने की चेष्टा की। जलालुद्दीन कुछ समय तक [[लाहौर]] और [[सतलुज नदी]] के बीच के क्षेत्र में छिपता रहा। इसके परिणामस्वरूप यहाँ मंगोलों के कई आक्रमण हुए। अब सिंध नदी भारत की पश्चिमी सीमा नहीं रह गई थी। अब उसकी सुरक्षा सीमा लाहौर और मुल्तान थी। कुछ समय तक लाहौर और मुल्तान, अल्तमश और उसके प्रतिद्वन्द्वियों, 'याल्दुज' और 'कुबाचा' के बीच झगड़े की जड़ बना रहा। अन्त में अल्तमश लाहौर और मुल्तान दोनों पर क़ब्ज़ा करने में सफल रहा और इस प्रकार मंगोलों के विरुद्ध काफ़ी शक्तिशाली सुरक्षा-सीमा बना सका।
 +
 +
चंगेज़ ख़ाँ की मृत्यु के बाद 1226 ई0 में उसका साम्राज्य उसके पुत्रों के बीच बंट गया। साम्राज्य का पश्चिमी क्षेत्र उसके सबसे बड़े लड़के 'जुजी' को मिला। जुजी के लड़के 'बाटु ख़ाँ' ने रूस पर भी अपना अधिकार स्थापित कर लिया। मंगोल साम्राज्य के अन्य क्षेत्र चंगेज़ के और लड़कों में बंट गए। यद्यपि चंगेज़ ने भाइयों में से एक को प्रमुख (का-आन अथवा ख़ाँ) बनाकर अपने लड़कों में एकता की व्यवस्था की थी। लेकिन यह व्यवस्था अधिक समय तक नहीं टिक नहीं सकी।
 +
 +
चंगेज़ की मृत्यु से लेकर 1240 तक मंगोलों ने सतलुज को पार कर भारत के अन्य क्षेत्र पर क़ब्ज़ा करने की कोशिश नहीं की। इसका प्रमुख कारण था मंगोल ईराक़ और सीरियाई क्षेत्रों के दमन में व्यस्त थे। इससे दिल्ली के सुल्तानों को थोड़ा समय मिल गया। जिसमें उन्होंने शक्तिशाली सेना और शासन का गठन कर लिया।
 +
 +
हैरात, ग़ोर, ग़ज़नी तथा तुर्कीस्तान में मंगोल सेना का सेनाध्यक्ष 'तैर बहादुर' 1241 ई0 में लाहौर के पास आया। दिल्ली से बार-बार अनुरोध करने के बाद भी कोई सहायता नहीं पहुँचने पर शहर का प्रशासक वहाँ से भाग निकला। मंगोलों ने लाहौर में सैनिक पड़ाव नहीं डाला, पर दिल्ली के रास्ते को साफ़ करने के लिए वहाँ की सेना का विनाश कर दिया और शहर की आबादी में क़त्ले-आम मचा दिया। मंगोलों ने 1245 ई0 में मुल्तान पर आक्रमण किया। पर [[बलबन]] द्वारा अपनी सेना को लेकर वहाँ शीघ्रता से पहुँचने पर स्थिति सम्भल गई। जब बलबन रिहान के नेतृत्व में अपने विरोधियों का मुक़ाबला करने में व्यस्त था, मंगोलों को उस लाहौर पर क़ब्ज़ा करने का मौका मिल गया जिसका पुनर्निर्माण बलबन ने करवाया था। उस समय कई सरदार, यहाँ तक की मुल्तान का प्रशासक 'शेर ख़ाँ' भी, मंगोलों के साथ मिल गया। यद्यपि बलबन ने मंगोलों का डट कर मुक़ाबला किया, दिल्ली की सीमा [[झेलम नदी]] से घट कर [[व्यास नदी|व्यास]] तक सीमित रह गई। बलबन ने बाद में मुल्तान पर फिर क़ब्ज़ा कर लिया, तथापि वहाँ मंगोलों का ख़तरा बना ही रहा।
 +
 +
ऐसी परिस्थितियों का सामना करने के लिए बलबन ने शक्ति और कूटनीति, दोनों से काम लिया। उसने भटिंडा, सुनाम तथा समाना के क़िलों की मरम्मत करवाई तथा मंगोलों को व्यास पार करने से रोकने के लिए वहाँ एक शक्तिशाली सेना को तैनात किया। वह स्वयं दिल्ली में ही रहा और सीमा की देखभाल के लिए भी कभी लम्बे दौरे पर नहीं आया। साथ ही उसने अपने राजदूत 'हलाकू' के पास भेजे। हलाकू के राजदूत जब दिल्ली आए तो बलबन ने उनका बहुत सम्मान किया। बलबल सारे पंजाब क्षेत्र को मंगोलों के क़ब्ज़े में छोड़ने के लिए तैयार भी हो गया। अपनी ओर से मंगोलों ने दिल्ली पर कोई आक्रमण नहीं किया। लेकिन सीमा अनिश्चित ही रही और बलबन को मंगोलों को दबा कर रखने के लिए क़रीब-क़रीब हर साल अभियान छेड़ना पड़ता था। वह अन्त में मुल्तान को अधीन करने में सफल हो गया और उसने अपने सबसे बड़े लड़के 'महमूद' को वहाँ का स्वतंत्र शासक नियुक्त किया। इसी मुल्तान व्यास सीमा की सुरक्षा करते समय बलबन के सिंहासन का उत्तराधिकारी युवराज महमूद एक लड़ाई में मारा गया।
 +
 +
यद्यपि 1286 ई0 में बलबन की मृत्यु हो गई, उसके द्वारा स्थापित राजनीतिक और सैनिक व्यवस्था दिल्ली सल्तनत में बनी रही। 'हलाकू' का पोता 'अब्दुल्ला', जब 1292 में डेढ़ लाख घोड़ों के साथ दिल्ली की ओर बढ़ा तो 'जलालुद्दीन ख़िलजी' ने उसे बलबन द्वारा मज़बूत की गई भटिंडा और सुनाम सीमा पर पराजित किया। हार कर मंगोलों ने समझौता कर लिया। जिसके परिणास्वरूप चार हज़ार मंगोलों ने [[इस्लाम]] धर्म को क़बूल कर लिया तथा भारतीय शासक के पक्ष में आकर दिल्ली के आस पास बस गए।
 +
 +
मंगोलों द्वारा पंजाब में आगे बढ़कर दिल्ली की ओर आने का कारण मध्य एशिया की बदलती राजनीति थी। ईरान के 'मंगोल इल-ख़ानों' ने दिल्ली के सुल्तानों के साथ अधिकतर मैत्री के सम्बन्ध रखे थे। पूर्व में उनके प्रतिद्वन्द्वी ट्रांस-ऑक्सियाना के शासक चग़ताई मंगोल थे। ट्रांस- ऑक्सियाना का शासक दावा ख़ाँ जब ईरान के इल-खानों के विरुद्ध असफल हो गया तब उसने भारत पर अधिकार करने का प्रयास किया। उसने 1297 ई0 में दिल्ली की सुरक्षा करने वाले क़िलों के विरुद्ध अभियान शुरू किया। दावा ख़ाँ का लड़का कुतलुग़ ख़्वाजा 1299 ई0 में दो लाख मंगोल सैनिकों के साथ दिल्ली के दरवाज़े पर आ पहुँचा। मंगोलों ने दिल्ली और उसके आस पास के क्षेत्रों के बीच के सम्पर्क के साधन काट दिए और दिल्ली की कई सड़कों तक आ पहुँचे। यह पहली बार था कि मंगोलों ने दिल्ली पर अपना शासन स्थापित करने के लिए पक्के प्रयास किए। तात्कालिक दिल्ली के शासक [[अलाउद्दीन ख़िलजी]] ने मंगोलों का सामना दिल्ली से बाहर करने का निश्चय किया।
 +
उसने धैर्य की नीति अपनायी क्योंकि उसे मालूम था कि मंगोल लम्बी अवधि तक अपने देश से दूर नहीं रह सकते थे। मंगोलों के साथ कई लड़ाइयों में भारतीय सेना ने विजय प्राप्त की यद्यपि एक लड़ाई में प्रसिद्ध सरदार 'जाफ़र ख़ाँ' मारा गया। कुछ समय बाद बिना कोई बड़ी लड़ाई लड़े मंगोल वापस लौट गए। मंगोल एक लाख बीस हज़ार सैनिकों के साथ, 1303 ई0 में फिर दिल्ली तक आ गए। अलाउद्दीन ख़िलजी उन दिनों राजपूताना में [[चित्तौड़]] को पराजित करने में व्यस्त था। मंगोलों की ख़बर मिलते ही वह तेज़ी से वापस लौटा और दिल्ली के पास बनी अपनी नई राजधानी 'सीरी' में उसने क़िलाबंदी का मोर्चा सम्भाला। दोनों सेनाएँ दो महीनों तक एक दूसरे के सामने खड़ी रहीं। इस अवधि में दिल्ली के नागरिकों को बहुत कष्ट सहना पड़ा। क़रीब-क़रीब रोज़ ही लड़ाई होती थी। अन्त में बिना कुछ हासिल किए मंगोल फिर लौट गए।
 +
 +
दिल्ली पर मंगोलों के इन दो आक्रमणों ने यह सिद्ध कर दिया कि दिल्ली के सुल्तान उनका मुक़ाबला कर सकते थे। यह ऐसा कार्य था जिसमें मध्य और पश्चिम एशिया के शासक अब तक असफल ही हुए थे।<ref>मंगोल अपने साम्राज्य के विस्तार के दौरान पहली बार मिस्रियों से येरुशलम के निकट 1260 में पराजित हुए थे। </ref> पर दिल्ली के सुल्तानों के लिए भी यह एक चेतावनी थी। अलाउद्दीन ख़िलजी ने इनसे सबक़ पाकर एक बड़ी और शक्तिशाली सेना संगठित की और व्यास के निकट के क़िलों को मज़बूत करवाया। इस प्रकार वह इतना शक्तिशाली हो गया कि आगे के वर्षों में होने वाले मंगोलों के आक्रमणों को, उनकी सेना का क़त्ले-आम कर, नाकाम कर सका। ट्रांस-ऑक्सियाना के शासक दावा ख़ाँ की मृत्यु 1306 में हो गई और मंगोलों में गृह युद्ध आरम्भ हो गया। अब भारत पर से मंगोलों का भय तब तक टल गया जब तक [[तैमूर]] ने मंगोलों में फिर एकता स्थापित की। मंगोलों के बीच आपसी मतभेद का लाभ उठाकर दिल्ली के शासक लाहौर पर क़ब्ज़ा करने में सफल हो गए और कालान्तर में उन्होंने नमक पहाड़ियों तक अपने साम्राज्य का विस्तार कर लिया।
 +
 +
इस प्रकार हम देखते हैं कि सारी तेरहवीं शताब्दी के दौरान दिल्ली सल्तनत को उत्तर-पश्चिम से ख़तरा बना रहा। यद्यपि मंगोल धीरे-धीरे लगभग सारे पंजाब पर क़ब्ज़ा करने और यहाँ तक की दिल्ली तक आने में सफल हो गए, तुर्की शासकों की दूरदर्शिता और दृढ़ता से यह ख़तरा टल गया और बाद में उन्होंने पंजाब को भी वापस ले लिया। मंगोलों से दिल्ली सल्तनत पर उत्पन्न ख़तरे से सल्तनत की आंतरिक समस्याओं पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ा।
 +
==आंतरिक विद्रोह तथा दिल्ली सल्तनत के विस्तार के लिए संघर्ष==
 +
इल्बारी तुर्कों (जिन्हें कभी-कभी मामलुक अथवा ग़ुलाम शासक भी कहा जाता है) के शासन काल में दिल्ली के सुल्तानों को ने केवल विदेशी आक्रमणों, बल्कि आंतरिक विद्रोहों का भी सामना करना पड़ा। इनमें से कुछ विद्रोहों का नेतृत्व उन महत्वाकांक्षी मुसलमान सरदारों ने किया जो स्वाधीन होना चाहते थे और कुछ का उन राजपूत राजाओं और ज़मीदारों ने जो अपने क्षेत्रों से तुर्क आक्रमणकारियों को बाहर निकाल देना चाहते थे अथवा तुर्क शासकों की कठिनाइयों का फ़ायदा उठाकर अपने कमज़ोर पड़ोसियों के राज्यों को हड़प लेना चाहते थे। इस प्रकार ये राजा और ज़मीदार न केवल तुर्कों से बल्कि आपस में भी बराबर लड़ते रहते थे। इन आंतरिक विद्रोहों के उद्देश्य और लक्ष्य एक नहीं थे। इसलिए इन्हें एक साथ मिलाकर तुर्कों के ख़िलाफ़ 'हिन्दू-प्रतिरोध' की संज्ञा, देना ग़लत होगा। भारत एक मज़बूत बड़ा देश था और भौगोलिक कारणों से सारे देश पर एक केन्द्र से शासन करना अत्यन्त कठिन था। प्रान्तीय शासकों को बहुत अधिकार देने ही पड़ते थे और इससे तथा प्रान्तीय भावनाओं से प्रेरित होकर उनमें दिल्ली के शासन के विरुद्ध जाकर स्वयं को स्वाधीन घोषित करने की बराबर आकांक्षा रहती थी। प्रान्तीय शासक जानते थे कि दिल्ली के प्रति किए गए विरोध में उन्हें स्थानीय तत्वों का सहयोग मिलेगा।
 +
दिल्ली के सुल्तानों के विरुद्ध सभी विद्रोहों की सूची देना आवश्यक नहीं है। बंगाल, बिहार तथा भारत के अन्य पूर्वी क्षेत्र दिल्ली के अधिकार को समाप्त करने की लगातार चेष्टा करते रहे। ख़िलजी सरदार, मोहम्मद बिन बख्तियार ख़िलजी, सेन शासक लक्ष्मण सेन को 'नदिया' की गद्दी से हटाने में सफल हुआ। उसके बाद की गड़बड़ी में 'ईवाज़' नाम का व्यक्ति सत्ता हथियाने में सफल हुआ। उसने 'सुल्तान ग़ियासुद्दीन' की पदवी ग्रहण कर ली और स्वयं को स्वतंत्र शासक घोषित कर दिया। उत्तर-पश्चिम में उसने [[बिहार]] पर भी अधिकार क़ायम कर लिया तथा जाजनगर ([[उड़ीसा]]), तिरहुत (उत्तर बंगाल), बंग (पूर्व बंगाल) तथा कामरूप ([[असम]]) के शासकों से कर वसूलना आरम्भ कर दिया।
 +
 +
अल्तमश जब उधर से मुक्त हुआ तो उसने 1225 में ईवाज़ के विरुद्ध अभियान छेड़ दिया। ईवाज़ ने शुरू में तो घुटने टेक दिए लेकिन अल्तमश की पीठ फेरते ही उसने फिर अपनी स्वतंत्रता घोषित कर दी। अल्तमश का एक लड़का [[अवध]] का प्रशासक था। उसने एक युद्ध में ईवाज़ को पराजित कर मार डाला। लेकिन इसके बावजूद इस क्षेत्र में 1230 तक गड़बड़ी बनी रही, जब अल्तमश ने यह दूसरा अभियान छेड़ा।
 +
 +
अल्तमश की मृत्यु के बाद बंगाल के प्रशासक अपनी सुविधानुसार कभी तो स्वतंत्रता की घोषणा कर लेते और कभी दिल्ली के अधिकार को मान लेते। इस काल में बिहार अधिकतर लखनौती के नियंत्रण में रहा। स्वतंत्र रूप से शासन करने वाले प्रशासकों ने अवध और बिहार के बीच के क्षेत्र पर कई बार नियंत्रण करने की चेष्टा की पर अधिकतर असफल ही रहे। उन्होंने राधा (दक्षिण बंगाल), उड़ीसा तथा कामरूप को भी अपने अधीन करने की चेष्टा की। इन संघर्ष में उड़ीसा के शासक ने 1244 ई0 में लखनौती के निकट मुसलमान सेना को करारी मात दी। इसके बाद भी जाजनगर के विरुद्ध मुसलमानों के अभियान असफल सिद्ध हुए। एक बार बंगाल के एक मुसलमान शासक की सेना असम घाटी में काफ़ी अन्दर तक चली गई, पर वापसी में बिल्कुल ही खत्म हो गई। स्वयं शासक को भी बन्दी बना लिया गया और वह अपने ज़ख्मों से ही मर गया। इससे पता चलता है कि लखनौती के मुसलमान शासक पड़ोसी हिन्दू क्षेत्रों पर नियंत्रण करने लायक़ शक्तिशाली नहीं थे।
 +
बलबन के शक्तिशाली प्रशासन के दौरान बिहार और बंगाल को दिल्ली के अधीन करने के लिए फिर प्रयत्न किए गए। अब दिल्ली शासन की औपचारिक मान्यता काफ़ी नहीं थी। तुग़रिल ने पहले बलबन की अधीनता स्वीकार कर ली, पर फिर स्वयं को स्वतंत्र घोषित कर दिया, पर बलबन ने उसका पीछा नहीं छोड़ा। उसने तुग़रिल के परिवार के सदस्यों और उसके समर्थकों को बर्बर दंड दिया। तीन वर्षों तक चलने वाला यह एकमात्र अभियान था जिसके नेतृत्व के लिए बलबन स्वयं दिल्ली से दूर गया था।
 +
 +
बंगाल पर दिल्ली का नियंत्रण लम्बी अवधि तक नहीं बना रह सका। बलबन की मृत्यु के बाद उसके पुत्र बुग़रा ख़ाँ ने दिल्ली सिंहासन के लिए संघर्ष करने के बदले बंगाल तथा उसके आसपास के क्षेत्रों पर शासन करना बेहतर समझा। इस विचार से उसने स्वतंत्रता की घोषणा की और बंगाल में एक वंश के राज्य की नींव डाली, जिसने अगले चालीस वर्षों तक बंगाल में राज किया।
 +
 +
इस प्रकार तेरहवीं शताब्दी के अधिकतर काल में बंगाल दिल्ली के नियंत्रण से बाहर ही रहा। पंजाब का भी अधिकांश भाग मंगोलों के हाथ में था। यहाँ तक की गंगा दोआब में भी तुर्कों का शासन पूर्णतः सुरक्षित नहीं था। गंगा के उस पार कटेहरिया राजपूतों की राजधानी [[अहिछत्र]] थी, जहाँ से भी तुर्कों को बराबर भय बना रहता था। वे जब तब [[बदायूँ]] ज़िले पर आक्रमण करते रहते थे। अन्त में बलबन सिंहासन पर बैठने के बाद एक शक्तिशाली सेना लेकर आया और इस ज़िले में लूटपाट तथा क़त्ले-आम मचा दिया। सारा ज़िला आबादी से लगभग पूरी तरह शून्य हो गया। जंगलों को साफ किया गया और सड़कें बनाई गईं। 'बरनी' ने लिखा है कि 'उस दिन से बरन, अमरोहा,सम्बल तथा कटेहर के 'इक्ते' सुरक्षित हो गए और हमेशा के लिए उपद्रव-मुक्त हो गए।'
 +
 +
दिल्ली सल्तनत की दक्षिणी सीमा भी पूरी तरह सुरक्षित नहीं थी। यहाँ दो प्रकार की समस्याएँ थी। ऐबक ने तिजारा([[अलवर]]), [[ग्वालियर]], बयाना, [[रणथम्भौर]], [[कालिंजर]] आदि के कई क़िलों पर क़ब्ज़ा कर लिया था। उसने [[नागपुर]], [[अजमेर]] तथा [[जालौर]] के निकट 'नादोल' तक पूर्वी राजस्थान पर भी अपना अधिकार स्थापित कर लिया था। इस क्षेत्र का अधिकतर भाग पहले [[चौहान वंश|चौहान साम्राज्य]] का अंग था और अभी भी यहाँ कई चौहान परिवार शासन करते थे। ऐबक ने चौहान साम्राज्य के विरुद्ध चलाए गए अभियान में ही इन क्षेत्रों पर अपना क़ब्ज़ा कर लिया था। इसके बाद मालवा और गुजरात में बढ़ना तो और, तुर्कों के लिए पूर्वी राजस्थान में विजित भूमि तथा गंगा क्षेत्र पर भी अपना अधिकार बनाए रखना कठिन हो गया।
  
  

11:40, 1 सितम्बर 2010 का अवतरण

प्रतीक्षा
इस पन्ने पर सम्पादन का कार्य चल रहा है। कृपया प्रतीक्षा करें यदि 10 दिन हो चुके हों तो यह 'सूचना साँचा' हटा दें या दोबारा लगाएँ।
सूचना साँचा लगाने का समय → 12:45, 22 अगस्त 2010 (IST)

भारत और विश्व का परिदृश्य

आठवीं शताब्दी के बाद यूरोप और एशिया में कई महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए। इनसे न केवल यूरोप और एशिया के सम्बन्धों में, बल्कि लोगों के रहन-सहन और उनकी विचारधारा पर भी, दूरगामी प्रभाव पड़े। प्राचीन रोमन साम्राज्य और भारत के बीच बड़ी मात्रा में व्यापार होने के कारण इन परिवर्तनों का प्रभाव अपरोक्ष रूप से भारत पर भी पड़ा। इस समय विश्व का परिदृश्य इस प्रकार था- यूरोप में छठी शताब्दी के उत्तरार्ध के आरम्भ में शक्तिशाली रोमन साम्राज्य दो हिस्सों में बंट गया था। पश्चिमी भाग में, जिसकी राजधानी रोम थी, रूस और जर्मनी की ओर से बहुत बड़ी संख्या में स्लाव और जर्मन क़बीले के लोगों के आक्रमण हुए। पश्चिमी यूरोप में रोमन साम्राज्य के विघटन के बाद एक नये प्रकार के समाज और एक नई शासन व्यवस्था का जन्म हुआ। इस नयी व्यवस्था को सामंतवाद कहा जाता है। इस्लाम के उदय से अरब में हमेशा आपस में लड़ने वाले क़बीले एकजुट होकर एक शक्तिशाली साम्राज्य के रूप में आगे आए। चीन में आठवीं और नौवी शताब्दी में तांग शासन के काल में वहाँ की सभ्यता और संस्कृति अपने शिखर पर थी।

तीन साम्राज्यों का युग आठवीं से दसवीं शताब्दी

सात सौ पचास और एक हज़ार ईस्वी के बीच उत्तर तथा दक्षिण भारत में कई शक्तिशाली साम्राज्यों का उदय हुआ। नौंवीं शताब्दी तक पूर्वी और उत्तरी भारत में पाल साम्राज्य तथा दसवीं शताब्दी तक पश्चिमी तथा उत्तरी भारत में प्रतिहार साम्राज्य शक्तिशाली बने रहे। राष्ट्रकूटों का प्रभाव दक्कन में तो था ही, कई बार उन्होंने उत्तरी और दक्षिण भारत में भी अपना प्रभुत्व क़ायम किया। यद्यपि ये तीनों साम्राज्य आपस में लड़ते रहते थे तथापि इन्होंने एक बड़े भू-भाग में स्थिरता क़ायम रखी और साहित्य तथा कलाओं को प्रोत्साहित किया।

इस युग की एक और महत्वपूर्ण बात राज्य और धर्म के बीच सम्बन्ध है। इस युग के कई शासक शैव और वैष्णव और कई बौद्ध और जैन धर्म को मानने वाले थे। वे ब्राह्मणों, बौद्ध बिहारों और जैन मन्दिरों को उदारतापूर्वक दान देते थे, लेकिन वे किसी भी व्यक्ति के प्रति उसके धार्मिक विचारों के लिए भेदभाव नहीं रखते थे और सभी मतावलंबियों को संरक्षण प्रदान करते थे। राष्ट्रकूट नरेशों ने भी मुसलमानों तक का स्वागत किया और उन्हें अपने धर्म प्रचार की स्वीकृति दी। साधारणतः कोई भी राजा धर्मशास्त्रों के नियमों तथा अन्य परम्पराओं में हस्तक्षेप नहीं करता था और इन मामलों में वह पुरोहित की सलाह पर चलता था। लेकिन इससे यह नहीं समझा जाना चाहिए कि पुरोहित राज्य के कार्यों में हस्तक्षेप करता था अथवा राजा पर उसका किसी प्रकार का दबाव था। इस युग के धर्मशास्त्रों के महान व्याख्याकार मेधतिथि का कहना है कि राजा के अधिकार व्यंजित करने वाले स्रोत वेद सहित धर्मशास्त्रों के अलावा 'अर्थशास्त्र' भी है। उसका 'राजधर्म' अर्थशास्त्र में निहित सिद्धांतों के अनुसार होना चाहिए। इसका वास्तविक अर्थ यह था कि राजा को राजनीति और धर्म को बिल्कुल अलग-अलग रखना चाहिए और धर्म को राजा का व्यक्तिगत कर्तव्य समझा जाना चाहिए। इस प्रकार उस युग के शासकों पर न तो पुरोहितों और न ही उनके द्वारा प्रतिपादित धर्म-क़ानून का कोई प्रभाव था। इस अर्थ में हम कह सकते हैं कि उस युग में राज्य मूलतः धर्म निरपेक्ष थे।

इन तीनों साम्राज्यों में राष्ट्रकूट साम्राज्य सबसे अधिक दीर्घजीवी रहा। यह न केवल अपने समय का सबसे शक्तिशाली साम्राज्य था, वरन इसने आर्थिक तथा सांस्कृतिक मामलों में उत्तर और दक्षिण भारत के बीच सेतु का कार्य किया।

पाल साम्राज्य

हर्ष के समय के बाद से उत्तरी भारत के प्रभुत्व का प्रतीक कन्नौज माना जाता था। बाद में यह स्थान दिल्ली ने प्राप्त कर लिया। पाल साम्राज्य की नींव 750 ई0 में 'गोपाल' नामक राजा ने डाली। बताया जाता है कि उस क्षेत्र में फैली अशान्ति को दबाने के लिए कुछ प्रमुख लोगों ने उसको राजा के रूप में चुना। इस प्रकार राजा का निर्वाचन एक अभूतपूर्व घटना थी। इसका अर्थ शायद यह है कि गोपाल उस क्षेत्र के सभी महत्वपूर्ण लोगों का समर्थन प्राप्त करने में सफल हो सका और इससे उसे अपनी स्थिति मज़बूत करन में काफी सहायता मिली।

प्रतिहार साम्राज्य

देवपाल के शासन के अन्तिम दिनों में प्रतिहार साम्राज्य की शक्ति बढ़ने लगी। प्रतिहारों का गुजरात अथवा दक्षिण-पश्चिम राजस्थान से सम्बन्ध होने के कारण उन्हें गुर्जर प्रतिहार भी कहा जाता है। ये पाल वंश से कुछ समय पहले ही शक्तिशाली बने। आरम्भ में सम्भवतः ये केवल स्थानीय अधिकारी थे, लेकिन कालान्तर में उन्होंने मध्य तथा पूर्वी राजस्थान के कई क्षेत्रों पर अपना अधिकार प्राप्त कर लिया। इनकी ख्याति तब बढ़ी जब इन्होंने राजस्थान और गुजरात में सिंध के अरबी शासकों के आक्रमण का विरोध किया। गुजरात के एक युद्ध में 738 ई0 में चालुक्यों ने 'म्लच्छों' को निर्णायक रूप से पराजित किया। बताया जाता है कि इसके बाद अरब कभी भी गुजरात में अपना प्रभाव क़ायम नहीं कर सके। इस युद्ध में भाग लेने वाला एक मुख्य व्यक्ति दन्तिदुर्ग था जो बादामी के चालुक्यों का एक सामंत था और जो इस समय दक्षिण में शासक बन बैठा था। बाद में दन्तिदुर्ग ने चालुक्यों को पराजित कर राष्ट्रकूट साम्राज्य की नींव डाली।

राष्ट्रकूट साम्राज्य

जब उत्तरी भारत में पाल और प्रतिहार वंशों का शासन था, दक्कन में राष्टूकूट राज्य करते थे। इस वंश ने भारत को कई योद्धा और कुशल प्रशासक दिए हैं। इस साम्राज्य की नींव 'दन्तिदुर्ग' ने डाली। दन्तिदुर्ग ने 750 ई0 में चालुक्यों के शासन को समाप्त कर आज के शोलापुर के निकट अपनी राजधानी 'मान्यखेट' अथवा 'मानखेड़' की नींव रखी। शीघ्र ही महाराष्ट्र के उत्तर के सभी क्षेत्रों पर राष्ट्रकूटों का आधिपत्य हो गया। गुजरात और मालवा के प्रभुत्व के लिए इन्होंने प्रतिहारों से भी लोहा लिया। यद्यपि इन हमलों के कारण राष्ट्रकूट अपने साम्राज्य का विस्तार गंगा घाटी तक नहीं कर सके तथापि इनमें उन्हें बहुत बड़ी मात्रा में धन राशि मिली और उनकी ख्याति बढ़ी। वंगी (वर्तमान आंध्र प्रदेश) के पूर्वी चालुक्यों और दक्षिण में कांची के पल्लवों तथा मदुरई के पांड्यों के साथ भी राष्ट्रकूटों का बराबर संघर्ष चलता रहा।

चोल साम्राज्य नौवीं से बारहवीं शताब्दी

चोल साम्राज्य का अभ्युदय नौवीं शताब्दी में हुआ और दक्षिण प्राय:द्वीप का अधिकांश भाग इसके अधिकार में था। चोल शासकों ने श्रीलंका पर भी विजय प्राप्त कर ली थी और मालदीव द्वीपों पर भी इनका अधिकार था। कुछ समय तक इनका प्रभाव कलिंग और तुंगभद्र दोआब पर भी छाया था। इनके पास शक्तिशाली नौसेना थी और ये दक्षिण पूर्वी एशिया में अपना प्रभाव क़ायम करने में सफल हो सके। चोल साम्राज्य दक्षिण भारत का निःसन्देह सबसे शक्तिशाली साम्राज्य था। अपनी प्रारम्भिक कठिनाइयों पर विजय प्राप्त करने के बाद क़रीब दो शताब्दियों तक अर्थात बारहवीं ईस्वी के मध्य तक चोल शासकों ने न केवल एक स्थिर प्रशासन दिया, वरन कला और साहित्य को बहुत प्रोत्साहन दिया। कुछ इतिहासकारों का मत है कि चोल काल दक्षिण भारत का 'स्वर्ण युग' था। चोल साम्राज्य की स्थापना विजयालय ने की जो आरम्भ में पल्लवों का एक सामंती सरदार था। उसने 850 ई0 में तंजावुर को अपने अधिकार में कर लिया और पांड्य राज्य पर चढ़ाई कर दी। चोल 897 तक इतने शक्तिशाली हो गए थे कि उन्होंने पल्लव शासक को हराकर उसकी हत्या कर दी और सारे टौंड मंडल पर अपना अधिकार कर लिया। इसके बाद पल्लव, इतिहास के पन्नों से विलीन हो गए, पर चोल शासकों को राष्ट्रकूटों के विरुद्ध भयानक संघर्ष करना पड़ा। राष्ट्रकूट शासक कृष्ण तृतीय ने 949 ई0 में चोल सम्राट परंतक प्रथम को पराजित किया और चोल साम्राज्य के उत्तरी क्षेत्र पर अधिकार कर लिया। इससे चोल वंश को धक्का लगा लेकिन 965 ई0 में कृष्ण तृतीय की मृत्यु और राष्ट्रकूटों के पतन के बाद वे एक बार फिर उठ खड़े हुए।

छठी शताब्दी के मध्य के बाद दक्षिण भारत में पल्लवों, चालुक्यों तथा पांड्य वंशों का राज्य रहा। पल्लवों की राजधानी कांची, चालुक्यों की बादामी तथा पांड्यों की राजधानी मदुरई थी, जो आधुनिक तंजावुर ज़िले में है और दक्षिण अर्थात केरल में, चेर शासक थे। कर्नाटक क्षेत्र में कदम्ब तथा गंगवंशों का शासन था। इस युग के अधिकतर समय में गंगा शासक राष्ट्रकूटों के अधीन थे या उनसे मिलते हुए थे। राष्ट्रकूट इस समय महाराष्ट्र क्षेत्र में सबसे अधिक प्रभावशाली थे। पल्लव, पांड्य तथा चेर आपस में तथा मिलकर राष्ट्रकूटों के विरुद्ध संघर्षरत थे। इनमें से कुछ शासकों विशेषकर पल्लवों के पास शक्तिशाली नौसेनाएँ भी थीं। पल्लवों के दक्षिण पूर्व एशिया के साथ बड़े पैमाने पर व्यापारिक सम्बन्ध थे और उन्होंने व्यापार तथा सांस्कृतिक सम्बन्धों को बढ़ाने के लिए कई राजदूत भी चीन भेजे। पल्लव अधिकतर शैव मत के अनुयायी थे और इन्होंने आधुनिक मद्रास के निकट महाबलीपुरम में कई मन्दिरों का निर्माण किया।

आर्थिक सामाजिक जीवन, शिक्षा तथा धर्म 800 ई0 से 1200 ई0

इस काल में भारतीय समाज में कई महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए। इनमें से एक यह था कि विशिष्ट वर्ग के लोगों की शक्ति बहुत बढ़ी जिन्हें 'सामंत', 'रानक' अथवा 'रौत्त' (राजपूत) आदि पुकारा जाता था। इस काल में भारतीय दस्तकारी तथा खनन कार्य उच्च स्तर का बना रहा तथा कृषि भी उन्नतिशील रही। भारत आने वाले कई अरब यात्रियों ने यहाँ की ज़मीन की उर्वरता और भारतीय किसानों की कुशलता की चर्चा की है। पहले से चली आ रही वर्ण व्यवस्था इस युग में भी क़ायम रही। स्मृतियों के लेखकों ने ब्राह्मणों के विशेषाधिकारों के बारे में बढ़ा-चढ़ा कर तो कहा ही, शूद्रों की सामाजिक और धार्मिक अयोग्यता को उचित ठहराने में तो वे पिछले लेखकों से कहीं आगे निकल गए।

इस काल में भी स्त्रियों को मानसिक स्तर पर नीचा माना जाता था। इनका कर्तव्य मूलतः बिना कुछ सोचे समझे अपने पति की आज्ञा का पालन था। एक लेखक ने स्त्री के अपने पति के प्रति कर्तव्य के बारे में कहा है कि उसे अपने पति के पैरों को धोना चाहिए और नौकर की तरह उसकी पूरी सेवा करनी चाहिए। लेकिन उसने पति के कर्तव्य के बारे में भी कहा है कि उसे धर्म के पथ पर चलना चाहिए और अपनी पत्नी के प्रति घृणा तथा ईर्ष्या के भाव से मुक्त रहना चाहिए। विवाह के बारे में स्मृतियों में कहा गया कि माँ-बाप को अपनी लड़कियों का विवाह छः और आठ वर्ष से बीच की आयु, अर्थात यौवनारम्भ, के पहले ही कर देना चाहिए। पति द्वारा पत्नी के त्याग (अर्थात जब उसका कुछ अता-पता नहीं चलता हो), उसकी (पति की) मृत्यु, उसके द्वारा सन्यास ग्रहण, समाज द्वारा बहिष्कार तथा उसके नपुंसक होने जैसी कुछ विशेष स्थितियों में स्त्री को पुनर्विवाह की स्वीकृति थी।

इस काल में पुरुषों और स्त्रियों के पहनावे में कोई विशेष परिवर्तन नहीं हुआ। पहले की तरह अब भी पुरुष आम तौर पर धोती तथा स्त्रियाँ साड़ी पहनती थीं। इसके अतिरिक्त उत्तर भारत में पुरुष जैकेट तथा स्त्रियाँ चोली पहनती थीं। उस समय की मूर्तियों को देखने से पता चलता है कि उत्तरी भारत में उच्च वर्ग के लोग लम्बे कोट, पैंट तथा जूते पहनते थे। उन दिनों सामूहिक शिक्षा की धारणा ने जन्म नहीं लिया था और लोग वही सीखते थे जो उनके जीवनयापन के लिए आवश्यक था। पढ़ना-लिखना कुछ ही लोगों में सीमित था। जिनमें अधिकतर ब्राह्मण या उच्च वर्ग के लोग थे। गाँव मे पढ़ना लिखना वहाँ का ब्राह्मण सिखाता था। बच्चे अधिकतर मन्दिरों में पढ़ते थे जो भूमि-अनुदान पर निर्भर करते थे। ज्ञानी ब्राह्मणों को भूमि दान में देना धार्मिक कृत्य माना जाता था।

संघर्ष का युग लगभग 1000 ई0 से 1200 ई0 तक

पश्चिम के साथ-साथ मध्य एशिया तथा उत्तर भारत में भी 1000 ई. तथा 1200 ई. के बीच तेज़ी के साथ परिवर्तन हुए। इन्हीं परिवर्तनों के परिणमस्वरूप इस काल के अन्त में उत्तर भारत में तुर्कों के आक्रमण हुए। नौवीं शताब्दी के अन्त तक अब्बासी ख़लिफ़ों का पतन आरम्भ हो गया था। उनका साम्राज्य अब छोटे-छोटे राज्यों में बँट गया था, जिन पर मुसलमान तुर्कों का शासन था। तुर्क, अब्बासी साम्राज्य में महल रक्षकों तथा पेशेवर सैनिकों के रूप में आए थे। लेकिन शीघ्र ही इतने शक्तिशाली बन गए कि नियुक्ति पर भी उनका अधिकार हो गया। जैसे-जैसे केन्द्रीय सरकार की शक्ति कम होती गई, प्रान्तीय शासक अपनी स्वतंत्रता की घोषणा करने लगे, यद्यपि कुछ समय तक इस पर एकता का पर्दा पड़ा रहा, क्योंकि सफल सरदारों को, जो किसी क्षेत्र में अपना अधिकार जमाने में सफल हो जाते थे, ख़लीफ़ा ही औपचारिक रूप से 'अमीर-उल-उमरा' (सेनापतियों का सेनापति) की पदवी देता था। ये शासक पहले 'अमीर' की, पर बाद में 'सुल्तान' की पदवी ग्रहण करने लगे।

इस युग में अशान्ति और संघर्ष के कई कारण थे। मध्य एशिया से तुर्क क़बीलों के बराबर आक्रमण हो रहे थे। अधिकतर तुर्क सैनिक पेशेवर थे जो असफल शासक का साथ छोड़ देने में ज़रा भी हिचकिचाते नहीं थे। इसके अलावा विभिन्न क्षेत्रों तथा मुसलमानों के विभिन्न सम्प्रदायों में भी बराबर संघर्ष चलता रहता था। एक के बाद एक साम्राज्य स्थापित होते गए और उतनी ही जल्दी उनका पतन होता गया। ऐसी स्थिति में केवल ऐसा व्यक्ति उभर कर आ सकता था जो योद्धा और नेता होने के साथ-साथ षड़यंत्र में भी अत्यन्त कुशल हो।

तुर्क क़बीले अपने साथ बेरहम लूटपाट तथा युद्ध की ऐसी प्रथा लाए जिसमें हर प्रकार के षड़यंत्र और चाल को उचित समझा जाता था। इन्होंने एक नयी प्रकार की युद्धनीति शुरू की। जिसमें प्रमुख भूमिका भारी अस्त्रशस्त्रों से लैस घुड़सवार सैनिकों की होती थी, जो तेज़ी से आगे-पीछे सरक सकते थे और घोड़े की पीठ से ही तीरों की बौछार कर सकते थे। यह लोहे की रक़ाबों से ही सम्भव था। 'लोहे की रक़ाबों' तथा एक नए तरह की 'लगाम' के कारण युद्धनीति में इस तरह का परिवर्तन आया। इसी बीच गुर्जर-प्रतिहारों के साम्राज्य के विघटन से उत्तरी भारत कई छोट-छोटे राज्यों में बंट गया जिनके शासकों के पास इस नई युद्ध नीति के महत्व को समझने तथा उसका मुक़ाबला करने के न तो साधन थे और न ही इच्छा थी।

महमूद ग़ज़नवी

इसी प्रक्रिया के दौरान ग़ज़नी के सिंहासन पर महमूद (998-1030) बैठा। मध्ययुगीन इतिहासकारों ने मध्य एशिया के क़बीलाई आक्रमणकारियों से वीरता से संघर्ष करने के कारण महमूद को इस्लाम का योद्धा माना है। इसके अलावा इस समय ईरानी संस्कृति का जो पुनर्जागरण हुआ, उसके साथ महमूद का गहरा सम्पर्क था। गर्वीले ईरानियों ने कभी भी अरबों की भाषा और संस्कृति नहीं अपनायी। समानी साम्राज्य में फ़ारसी भाषा और साहित्य को भी प्रोत्साहन दिया गया। 'फ़िरदौसी' की 'शाहनामा' के साथ ईरानी साहित्य अपने शिखर पर पहुँच गया। फ़िरदौसी महमूद के दरबार में राज कवि था। उसने यह दिखाने की चेष्टा की कि ईरान और तूरान का संघर्ष बहुत प्राचीन युग में भी था और उसने ईरानी योद्धाओं को अपने साहित्य में गौरवशाली बनाया। इस काल में ईरानी देशप्रेम का इतना उभार हुआ कि महमूद ने भी स्वयं को प्राचीन ईरानी किंवदन्तियों में चर्चित राजा 'अफ़रासियाब' का वंशज होने का दावा किया। फ़ारसी भाषा सारे ग़ज़नवी साम्राज्य की भाषा बन गई। इस प्रकार तुर्क न केवल मुसलमान वरन फ़ारसी भी बन गए। इसी संस्कृति को दो शताब्दियों के बाद वे भारत लाए।

माना जाता है कि महमूद ने न केवल तुर्क क़बीलों के विरुद्ध इस्लामी राज्य की रक्षा की वरन ईरानी संस्कृति के पुनर्जागरण में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। लेकिन भारत में वह केवल एक लुटेरे के रूप में याद किया जाता है। कहा जाता है कि महमूद ने भारत पर सत्रह बार आक्रमण किया। आरम्भ में उसने पेशावर और पंजाब के हिन्दू शाही शासकों के ख़िलाफ़ युद्ध किया। उसने मुल्तान के मुस्लिम शासकों के विरुद्ध भी युद्ध किया क्योंकि वे इस्लाम के उस सम्प्रदाय को मानने वाले थे जिनका महमूद कट्टर विरोधी था। हिन्दुशाही राज्य पंजाब से लेकर आधुनिक अफ़ग़ानिस्तान तक फैला हुआ था और उनके शासक ग़ज़नी में एक स्वतंत्र शक्तिशाली राज्य से उत्पन्न होने वाले ख़तरों को बखूबी समझते थे। हिन्दुशाही शासक जयपाल ने समानी शासन के अंतर्गत भूतपर्व गवर्नर के पुत्र के साथ मिलकर ग़ज़नी पर चढ़ाई भी की थी, लेकिन उसे हार का सामना करना पड़ा। उसने अगले वर्ष फिर चढ़ाई की और फिर पराजित हुआ। इन लड़ाइयों में युवराज के रूप में महमूद ने सक्रिय भाग लिया था।

शक्तिशाली साम्राज्य सेलजुक

महमूद की मृत्यु के बाद एक अन्य शक्तिशाली साम्राज्य 'सेलजुक' का अभ्युदय हुआ। सेलजुक साम्राज्य में सीरिया, ईरान तथा ट्राँस-अक्सियाना शामिल थे, इसे ख़ुरासान पर अधिकार ज़माने के लिए ग़ज़नियों का मुक़ाबला करना पड़ा। एक प्रसिद्ध लड़ाई में महमूद का पुत्र 'मसूद' बुरी तरह से पराजित हुआ और शरण के लिए लाहौर भागा। ग़ज़नवी साम्राज्य अब ग़ज़नी तथा पंजाब तक सीमित हो गया। यद्यपि ग़ज़नवी गंगा घाटी तथा राजपूताना में आकर लूट-पाट करते रहे, फिर भी भारत को उनसे कोई बड़ा सैनिक ख़तरा नहीं रह गया था। इसके साथ-साथ उत्तर भारत में कई नये राज्य स्थापित हुए, जो ग़ज़नवियों के आक्रमणों का मुक़ाबला कर सकते थे।

राजपूत राज्य

राजपूत नाम के नये वर्ग के उदय के साथ ही प्रतिहार साम्राज्य के विघटन के बाद उत्तर भारत में कई राजपूत राज्यों की नींव पड़ी। इनमें सबसे प्रमुख कन्नौज के गहदवाल, मालवा के परमार तथा अजमेर के चौहान थे। देश के अन्य क्षेत्रों में और भी छोटे-छोटे राज्य थे। जैसे आधुनिक जबलपुर के निकट कलचुरी, बुंदेलखण्ड में चंदेल, गुजरात में चालुक्य तथा दिल्ली में तोमर वंशों का शासन था। बंगाल पर पहले पाल वंश का अधिकार था, बाद में सेन वंश का अधिकार हुआ।

भव्यों मन्दिरों का निर्माण

आठवीं शताब्दी के बाद और विशेषकर दसवीं से बारहवीं शताब्दी के बीच का काल मन्दिर निर्माण कला का चरमोत्कर्ष माना जा सकता है। आज हम जिन भव्यों मन्दिरों को देखते हैं, उनमें से अधिकतर उसी काल में बनाये गए थे। इस काल की मन्दिर निर्माण कला की मुख्य शैली 'नागर' नाम से जानी जाती है। यद्यपि इस शैली के मन्दिर सारे भारत में पाए जाते हैं तथापि इनके मुख्य केन्द्र उत्तर भारत और दक्कन में थे।

उत्तर भारत पर तुर्कों की विजय

पंजाब में ग़ज़नवियों के बाद हिन्दू और मुसलमानों के बीच दो विभिन्न प्रकार के सम्बन्ध स्थापित हुए। एक तो लूट की लालसा थी जिसके परिणाम स्वरूप महमूद के उत्तराधिकारियों ने गंगा घाटी और राजपूताना में कई बार आक्रमण किए। राजपूत शासकों ने इन आक्रमणों का डट कर मुक़ाबला किया और कई बार तुर्कों को पराजित भी किया। लेकिन अब तक ग़ज़नवी साम्राज्य की शक्ति क्षीण हो चुकी थी और तुर्कों को कई बार पराजित कर राजपूत शासक चैन से बैठ गए। दूसरे स्तर पर मुसलमान व्यापारियों को न केवल स्वीकृति दी गई वरन उनका स्वागत भी किया गया क्योंकि उनके माध्यम से मध्य और पश्चिम एशिया के साथ भारत के व्यापार को बहुत बढ़ावा मिलता था और इससे इन राज्यों की आय भी बढ़ती थी। इस कारण उत्तर भारत के कुछ नगरों में मुसलमान व्यापारियों की कई बस्तियाँ स्थापित हो गईं। व्यापारियों के पीछे-पीछे कई मुसलमान धर्म प्रचारक भी आए जिन्होंने यहाँ सूफ़ी मत का प्रचार किया। इस प्रकार इस्लाम और हिन्दू समाज तथा और धर्मों में सम्पर्क स्थापित हुआ और वे दोनों एक दूसरे से प्रभावित हुए। लाहौर, अरबी तथा फ़ारसी भाषा और साहित्य का केन्द्र बन गया। तिलक जैसे हिन्दू सेनापतियों ने ग़ज़नवियों की सेना का नेतृत्व किया। ग़ज़नवियों की सेना में हिन्दू, सिपाही भी भर्ती होते थे।

ये दोनों प्रक्रियाएँ बराबर जारी रहतीं, यदि इसी बीच मध्य एशिया की राजनीतिक स्थिति में एक बहुत बड़ा परिवर्तन न होता। बारहवीं शताब्दी के मध्य तक तुर्की क़बीलों के एक और दल ने, जो कुछ हद तक बौद्ध और कुछ हद तक विधर्मी था, सेलजुक तुर्कों को उखाड़ का। इस प्रकार जो स्थान रिक्त हुआ उसमें दो नयी शक्तियाँ - ख्वारिज़मी और ग़ोरी का उदय हुआ। ख्वारिज़मी साम्राज्य का आधार ईरान था तथा ग़ोरी साम्राज्य का आधार उत्तर-पश्चिम अफ़ग़ानिस्तान। ग़ोरी आरम्भ में ग़ज़नी के 'सामंत' थे, पर शीघ्र ही ये इस बोझ को उठा फेंकने में सफल हो गए। ग़ोरियों की शक्ति सुल्तान अलाउद्दीन के समय बहुत बढ़ी। उसे 'संसार को जलाने वाला' कहा जाता था। क्योंकि उसने भाइयों के साथ किए गए दुर्व्यवहार के बदले के रूप में सारी ग़ज़नी को जलाकर ख़ाक में मिला दिया था। ख्वारिज़मी शासकों के कारण ग़ोरी मध्य एशिया में अपने पाँव जमाने की इच्छा को पूरा नहीं कर सके। उन दोनों के बीच झगड़े की जड़ - ख़ुरासान पर ख्वारिज़मी शाह ने अधिकार कर लिया। इससे ग़ोरियों के लिए भारत की ओर बढ़ने के अलावा और कोई रास्ता नहीं बचा था।

मुइज्जुद्दीन मुहम्मद बिन कासिम

शहाबुद्दीन मुहम्मद (जिसे मुइज्जुद्दीन मुहम्मद-बिन-कासिम के नाम से जाना जाता है) 1173 ई. में ग़ज़नी की गद्दी (1173-1206) पर बैठा। इन दिनों उसका बड़ा भाई ग़ोरे का शासक था। गोमल दर्रे से होता हुआ मुइज्जुद्दीन मुहम्मद सुल्तान और उच्छ तक आया और उन स्थानों को अपने अधीन कर लिया। उसने 1178 ई0 में राजपूताना रेगिस्तान के रास्ते गुजरात पहुँचने की कोशिश की, लेकिन गुजरात के शासक ने आबू पहाड़ के निकट हुए युद्ध में उसे इतनी बुरी तरह हराया कि मुइज्जुद्दीन मुहम्मद की जान पर बन आई, इस युद्ध के परिणामस्वरूप उसने महसूस किया कि भारत में आक्रमण के लिए पंजाब को आधार बनाना आवश्यक है। परिणामस्वरूप उसने पंजाब में ग़ज़नवियों के अधिकार को समाप्त करने की चेष्टा की और 1179-80 में पेशावर पर क़ब्ज़ा कर लिया। इसके बाद उसका लक्ष्य लाहौर था। लाहौर को भी उसने कई अभियानों के बाद 1186 में जीत लिया। इसके बाद उसने देबल तथा स्यालकोट के क़िलों पर भी क़ब्ज़ा किया। इस प्रकार 1190 तक मुइज्जुद्दीन मुहम्मद बिन साम दिल्ली और गंगा दोआब पर बड़े आक्रमण के लिए तैयार हो गया। लेकिन इस बीच उत्तर भारत में भी घटनाएँ स्थिर नहीं थी। यहाँ चौहानों की शक्ति धीरे-धीरे बढ़ रही थी। उन्होंने राजस्थान पर पंजाब की ओर से हमला करने वाले तुर्कों को बड़ी संख्या में मार दिया और उनके हमलों को नाकाम कर दिया। वे इस शताब्दी के मध्य तक तोमरों से दिल्ली छीनने में भी सफल हो गए थे। पंजाब की बढ़ती चौहानों की शक्ति से इस क्षेत्र के ग़ज़नवी शासकों के साथ उनका संघर्ष होना तय ही था।

पृथ्वीराज चौहान

जब मुइज्जुद्दीन मुहम्मद मुल्तान और उच्छ पर अधिकार करने की चेष्टा कर रहा था, एक चौदह साल का लड़का, पृथ्वीराज अजमेर की गद्दी पर बैठा। पृथ्वीराज के बारे में कई कहानियाँ मशहूर हैं।

युवा पृथ्वीराज ने आरम्भ से ही साम्राज्य विस्तार की नीति अपनाई। पहले अपने सगे-सम्बन्धियों के विरोध को समाप्त कर उसने राजस्थान के कई छोटे राज्यों को अपने क़ब्ज़े में कर लिया। फिर उसने बुंदेलखण्ड पर चढ़ाई की तथा महोबा के निकट एक युद्ध में चदेलों को पराजित किया। इसी युद्ध में प्रसिद्ध भाइयों, आल्हा और ऊदल ने महोबा को बचाने के लिए अपनी जान दे दी। पृथ्वीराज ने उन्हें पराजित करने के बावजूद उनके राज्य को नहीं हड़पा। इसके बाद उसने गुजरात पर आक्रमण किया, पर गुजरात के शासक 'भीम द्वितीय' ने, जो पहले मुइज्जुद्दीन मुहम्मद को पराजित कर चुका था, पृथ्वीराज को मात दी। इस पराजय से बाध्य होकर पृथ्वीराज को पंजाब तथा गंगा घाटी की ओर मुड़ना पड़ा।

क़ुतुबुद्दीन ऐबक

तराइन के युद्ध के बाद मुइज्जुद्दीन ग़ज़नी लौट गया और भारत के विजित क्षेत्रों का शासन अपने विश्वनीय ग़ुलाम क़ुतुबुद्दीन ऐबक के हाथों में छोड़ दिया। पृथ्वीराज के पुत्र को रणथम्भौर सौंप दिया गया जो तेरहवीं शताब्दी में शक्तिशाली चौहानों की राजधानी बना। अगले दो वर्षों में ऐबक ने, ऊपरी दोआब में मेरठ, बरन तथा कोइल (आधुनिक अलीगढ़) पर क़ब्ज़ा किया। इस क्षेत्र के शक्तिशाली डोर-राजपूतों ने ऐबक का मुक़ाबला किया, लेकिन आश्चर्य की बात है कि गहदवालों को तुर्की आक्रमण से सबसे अधिक नुकसान का ख़तरा था और उन्होंने न तो डोर-राजपूतों की कोई सहायता की और न ही तुर्कों को इस क्षेत्र से बाहर निकालने का कोई प्रयास ही किया। मुइज्जुद्दीन 1194 ई0 में भारत वापस आया। वह पचास हज़ार घुड़सवारों के साथ यमुना को पार कर कन्नौज की ओर बढ़ा। इटावा ज़िले में कन्नौज के निकट छंदवाड़ में मुइज्जुद्दीन और जयचन्द्र के बीच भीषण लड़ाई हुई। बताया जाता है कि जयचन्द्र जीत ही गया था जब उसे एक तीर लगा और उसकी मृत्यु हो गई। उसके मरने के साथ ही सेना के भी पाँव उखड़ गए। अब मुइज्जुद्दीन बनारस की ओर बढ़ा और उस शहर को तहस-नहस कर दिया। उसने वहाँ के मन्दिरों की भी नहीं छोड़ा। यद्यपि इस क्षेत्र के एक भाग पर तब भी गहदवालों का शासन रहा और कन्नौज जैसे कई गढ़, तुर्कों का विरोध करते रहे तथापि बंगाल की सीमा तक एक बड़ा भूभाग उनके क़ब्ज़े में आ गया।

तराइन और छंदवाड़ के युद्धों के परिणामस्वरूप उत्तर भारत में तुर्की साम्राज्य की नींव पड़ी। इस शासन की जड़ें मज़बूत करना कठिन काम था और लगभग 50 वर्षों तक तुर्क इसका प्रयास करते रहे। मुइज्जुद्दीन 1206 ई0 तक जीवित रहा। इस अवधि में उसने दिल्ली की दक्षिण सीमा की सुरक्षा के लिए बयाना तथा ग्वालियर के क़िलों पर क़ब्ज़ा किया। उसके बाद ऐबक ने चंदेल शासकों से कालिंजर, महोबा तथा ख़जुराहो को छीन लिया।

दोआब को अपना आधार बनाकर तुर्कों ने आसपास के क्षेत्रों पर आक्रमण आरम्भ कर दिया। ऐबक ने गुजरात तथा अनहिलवाड़ा के शासक भीम द्वितीय को पराजित किया और कई नगरों में लूटपाट मचाई। यहाँ यद्यपि एक मुसलमान शासक को नियुक्त किया गया था पर उसे शीघ्र ही गद्दी से उतार दिया गया। इससे पता चलता है कि तुर्क इतने दूर दराज क्षेत्रों में शासन करने के लायक शक्ति नहीं बने थे।

बख़्तियार ख़िलजी

पूर्व में तुर्क अधिक सफल रहे। एक ख़िलजी अधिकारी, बख़्तियार ख़िलजी, जिसके चाचा ने तराइन की लड़ाई में भाग लिया था, बनारस के पार कुछ क्षेत्रों का शासक हुआ। उसने इस बात का लाभ उठाया और बिहार में कई आक्रमण किए। बिहार में अभी कोई शक्तिशाली राजा नहीं था। इन आक्रमणों के दौरान उसने नालन्दा और विक्रमशिला जैसे बौद्ध मठों को ध्वंस कर दिया। इन बौद्ध संस्थानों को अब संरक्षण देने वाला कोई नहीं था। बख्तियार ख़िलजी ने काफ़ी सम्पत्ति और इसके साथ समर्थकों को भी इकट्ठा कर लिया। इन आक्रमणों के दौरान उसने बंगाल के मार्ग के बारे में भी सूचना इकट्ठी की। बंगाल अपने अतिरिक्त आंतरिक साधनों और विदेशी व्यापार के कारण अपनी सम्पत्ति के लिए प्रसिद्ध था।

ग़ोरी साम्राज्य का विस्तार

जब ऐबक और तुर्की और ख़िलजी सरदार उत्तर भारत में नए क्षेत्रों को जीतने और अपनी स्थिति मज़बूत करने की चेष्टा कर रहे थे, मुइज्जुद्दीन और उसका भाई मध्य एशिया में ग़ोरी साम्राज्य का विस्तार करने लगे थे। ग़ोरियों की विस्तार की आकांक्षा ने उन्हें शक्तिशाली ख्वारिज़म साम्राज्य से टक्कर लेने पर मज़बूर कर दिया। ख्वारिज़म शासक ने मुइज्जुद्दीन को 1203 में करारी मात दी। लेकिन यह पराजय एक प्रकार से उनके लिए लाभदायक सिद्ध हुई। क्योंकि इसके कारण उन्हें एशिया में विस्तार की आकांक्षा को त्यागना पड़ा और उन्होंने भारत में विस्तार की ओर अपना पूरा ध्यान लगा दिया। लेकिन इस युद्ध का तात्कालिक परिणाम यह हुआ कि मुइज्जुद्दीन की हार से साहस पा कर भारत में उसके कई विरोधियों ने बग़ावत कर दी। पश्चिम बंगाल की लड़ाकू जाति खोकर ने लाहौर और ग़ज़नी के बीच सम्पर्क साधनों को काट दिया। मुइज्जुद्दीन ने भारत में अपना अंतिम आक्रमण खोकरों के विद्रोह को दबाने के लिए किया जिसमें वह सफल भी हुआ। ग़ज़नी लौटते समय वह एक विरोधी मुस्लिम सम्प्रदाय के कट्टर समर्थक द्वारा मारा गया।

मोहम्मद बिन कासिम और महमूद ग़ज़नवी

मुइज्जुद्दीन मोहम्मद बिन कासिम की तुलना अक्सर महमूद ग़ज़नवी से की जाती है। योद्धा के रूप में महमूद ग़ज़नवी अधिक सफल था क्योंकि भारत अथवा मध्य एशिया के एक भी अभियान में वह पराजित नहीं हुआ। वह भारत के बाहर भी एक बड़े साम्राज्य पर शासन करता था। लेकिन हमें यह भी याद रखना चाहिए कि महमूद की अपेक्षा मुइज्जुद्दीन को भारत में और बड़े तथा संसंगठित राज्यों का सामना करना पड़ा। यद्यपि वह मध्य एशिया में उतना सफल नहीं हो सका, भारत में उसकी राजनीतिक उपलब्धियाँ और बड़ी थीं। उन दोनों को विभिन्न परिस्थितियों का सामना करना पड़ा। अतः इन दोनों की तुलना से कोई विशेष लाभ नहीं होगा। इसके अलावा भारत में राजनीतिक और सैनिक दृष्टि से इन दोनों का लक्ष्य कई बातों में बिल्कुल भिन्न था।

इन दोनों में से किसी को भी इस्लाम में विशेष दिलचस्पी नहीं थी। यदि एक बार कोई शासक उनके प्रभुत्व को स्वीकार कर लेता तो उसे अपने क्षेत्र में शासन करने दिया जाता। केवल विशेष परिस्थितियों में उसके पूरे राज्य अथवा उसके किसी हिस्से को पूरी तरह अपने अधिकार में लेना आवश्यक हो जाता। महमूद तथा मुइज्जुद्दीन दोनों की सेनाओं में हिन्दू सैनिक और अधिकारी थे और दोनों में से किसी ने अपने स्वार्थों को सिद्ध करने तथा भारतीय शहरों और मन्दिरों की लूट को उचित ठहराने के लिए इस्लाम के नारों का सहारा लेने में हिचकिचाहट महसूस नहीं की। पन्द्रह वर्षों की छोटी अवधि में उत्तर भारत के प्रमुख राज्यों ने तुर्की सेनाओं के सामने घुटने टेक दिए। इसके कारण भी जानना आवश्यक है। यह एक नियम के रूप में स्वीकार किया जा सकता है कि एक देश दूसरे से तभी पराजित होता है जब वह सामाजिक और राजनीतिक दृष्टि से कमज़ोर पड़ गया हो तथा अपने पड़ोसियों की तुलना में आर्थिक और सैनिक रूप से पीछे पड़ गया हो।

भारत का दूसरे राष्ट्रों से अलग-थलग रहना, यहाँ के बुद्धिजीवियों, विशेषकर ब्राह्मणों का संकीर्ण दृष्टिकोण और दस्तकारों तथा श्रमिकों को नीची दृष्टि से देखा जाना इसके कारण थे। यदि ऐसा नहीं होता तो राजपूत राज्यों को पराजित नहीं होना पड़ता जो ग़ज़नवी और ग़ोरी राज्यों से यदि और बड़े नहीं तो उनसे छोटे भी नहीं थे और जिनके पास अधिक मानवीय और प्राकृतिक साधन थे।

घोड़ों का आयात

सैनिक दृष्टि से तुर्क लोग कई कारणों से अधिक लाभदायक स्थिति में थे। ऊँची जाति के घोड़े मध्य एशिया, ईरान तथा अरब में होते थे जबकि भारत को उनका आयात करना पड़ता था। भारतीय लोग अच्छी क़िस्मों के घोड़ों को भारत में ही पैदा न कर सकने का कारण समझ में नहीं आता। जो भी हो अच्छे घोड़ों का आयात बहुत मंहगा पड़ता था और उनके यहाँ आने में किसी भी समय बाधा डाली जा सकती थी। ग़ज़नी शासकों द्वारा अफ़ग़ानिस्तान की विजय तथा समुद्र मार्ग पर अरबों के नियंत्रण से भारत को अच्छे घोड़ों के लिए मुसलमान व्यापारियों पर निर्भर रहना पड़ता था। बख्तबंद घुड़सवार तथा घुड़सवार धनुर्धारियों के कारण दसवीं शताब्दी के बाद मध्य एशिया और यूरोप में युद्ध के तरीकों में पूरी तरह परिवर्तन आ गया था। तुर्क इस प्रकार के नये युद्ध में कुशलता प्राप्त कर चुके थे। जबकि भारतीयों के साथ ऐसी बात नहीं थी। उन्हें अभी भी हाथियों और पैदल सैनिकों पर निर्भर रहना पड़ता था। घोड़ों का केवल पूरक के रूप में इस्तेमाल किया जाता था। भारतीय सैनिक विपत्ति पड़ने पर तुरन्त घोड़े से उतर पड़ते थे और पैदल ही लड़ते थे। उनकी इस आदत से उनके शत्रु अच्छी तरह परिचित हो चुके थे और पराजय होने पर उनका बड़ी संख्या में क़त्ल होता था।

भारतीय सेना का कमज़ोर संगठन

सामंतवाद के विकास से भारतीय सेना का संगठन कमज़ोर पड़ गया था। विभिन्न सरदार और राजे लड़ाई में समन्वित तरीक़े से लड़ नहीं सकते थे और पराजय के बाद जल्दी-जल्दी अपने क्षत्रों में लौट जाते थे। उधर तुर्कों ने एक संगठित सेना का विकास कर लिया था। वे सैनिकों को एक जगह भर्ती करते थे, उन्हें नक़द वेतन देते थे और इस प्रकार से उनकी सेना में मैदान में अधिक देर तक टिकने की आदत थी, उनके सैनिक काफ़ी समय तक मैदान में टिक सकते थे और दुश्मन से लोहा ले सकते थे। इसका आधार 'इक़ता' व्यवस्था थी। दिल्ली सल्तनत (लगभग 1200 ई0 से 1400 ई0)

मामलुक सुल्तान

तुर्क पंजाब और मुल्तान से लेकर गंगा घाटी तक, यहाँ तक की बिहार तथा बंगाल के कुछ क्षेत्रों में अपना प्रभाव क़ायम करने में सफल हो सके। इनके राज्य को 'दिल्ली सल्तनत' के नाम से जाना जाता है। क़रीब सौ वर्षों तक इन तुर्कों को अपने राज्य की सुरक्षा के लिए विदेशी आक्रमणों, तुर्की नेताओं के आंतरिक मतभेदों तथा विजित राजपूत शासकों द्वारा अपने राज्य को पुनः वापस लेने और यदि सम्भव हो तो तुर्कों को बाहर निकाल देने के प्रयासों का सामना करना पड़ा। तुर्की शासक इन बाधाओं को पार कर विजय पाने में सफल हुए और तेरहवीं शताब्दी के अन्त तक उन्होंने न केवल मालवा और गुजरात को अपने अधीन कर लिया, वरन दक्कन और दक्षिण भारत तक पहुँच गए। इस प्रकार उत्तर भारत में स्थापित तुर्की साम्राज्य का प्रभाव सारे भारत पर पड़ा और इसके परिणामस्वरूप सौ वर्षों में समाज, प्रशासन तथा सांस्कृतिक जीवन पर दूरगामी परिवर्तन हुए। सबसे पहले हम तेरहवीं शताब्दी में दिल्ली सल्तनत के विस्तार और उसकी बढ़ती शक्ति का अध्ययन करेंगे।

शक्तिशाली राजतंत्र की स्थापना के लिए संघर्ष

मुइज्जुद्दीन मुहम्मद ग़ोरी के बाद उसका ग़ुलाम क़ुतुबुद्दीन ऐबक सिंहासन पर बैठा। क़ुतुबुद्दीन ने तराइन के युद्ध के बाद तुर्की सल्तनत के विस्तार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। मुइज्जुद्दीन का ही एक और ग़ुलाम याल्दुज़ ग़ज़नी के सिंहासन पर बैठा। ग़ज़नी का शासक होने के नाते याल्दुज़ ने दिल्ली के राज्य का भी दावा किया। पर उसे ऐबक ने स्वीकार नहीं किया और इसी के समय से दिल्ली सल्तनत ने ग़ज़नी से सम्बन्ध विच्छेद कर लिया। यह भारत के लिए बहुत अच्छा हुआ, क्योंकि इस प्रकार यह मध्य एशिया की राजनीति से बचा रहा। इससे दिल्ली सल्तनत को, भारत के बाहर के देशों पर निर्भर हुए बिना, स्वतंत्र रूप से विकास करने का अवसर मिला।

अल्तमश

(1201 ई0-1236 ई0) चौगान खेलते समय 1210 ई0 में घोड़े से गिरने के कारण ऐबक की मृत्यु हो गई। उसके बाद उसका दामाद अल्तमश उसका उत्तराधिकारी बना, पर सिंहासन पर बैठने के पहले उसे ऐबक के पुत्र से युद्ध कर उसे पराजित करना पड़ा। इस प्रकार आरम्भ से ही पिता की मृत्यु के बाद उसके पुत्र के सिंहासनाधिकार की प्रथा को धक्का लगा।

अल्तमश (1210-36) को उत्तर भारत में तुर्कों के राज्य का वास्तविक संस्थापक माना जा सकता है। उसके सिंहासन पर बैठने के समय 'अली मर्दन ख़ाँ' ने बंगाल और बिहार तथा ऐबक के एक और ग़ुलाम, 'कुबाचा' ने, मुल्तान के स्वतंत्र शासकों के रूप में घोषणा कर दी थी। कुबाचा ने लाहौर तथा पंजाब के कुछ हिस्सों पर अपना अधिकार भी कर लिया। पहले पहल दिल्ली के निकट भी अल्तमश के कुछ सहकारी अधिकारी उसकी प्रभुता स्वीकार करने में हिचकिचा रहे थे। राजपूतों ने भी स्थिति का लाभ उठाकर अपनी स्वतंत्रता घोषित कर दीं। इस प्रकार कालिंजर, ग्वालियर तथा अजमेर और बयाना सहित सारे पूर्वी राजस्थान ने तुर्की बोझ अपने कन्धों से उतार फेंका।

अपने शासन के प्रारम्भिक वर्षों में अल्तमश ने अपना ध्यान उत्तर-पश्चिम की ओर लगाया। 'ख्वारिज़म शाह' की ग़ज़नी विजय से उसकी स्थिति को नया ख़तरा पैदा हो गया था। ख्वारिज़म साम्राज्य मध्य एशिया में अपने समय का सबसे शक्तिशाली साम्राज्य था और उसकी पूर्वी सीमा सिन्धु नदी को छूती थी। इस ख़तरे को समाप्त करने के लिए अल्तमश ने लाहौर पर अपना क़ब्ज़ा कर लिया। मंगोलों ने 1220 ई0 में ख्वारिज़मी साम्राज्य को समाप्त कर इतिहास के सबसे शक्तिशाली साम्राज्य में गिने जाने वाले साम्राज्य की नींव डाली, जो अपने चरमोत्कर्ष में चीन से लेकर भूमध्य सागर तथा कास्पियन समुद्र से लेकर जक्सारटेस नदी तक फैला हुआ था। जब 'मंगोल' कहीं और व्यस्त थे, अल्तमश ने मुल्तान और उच्छ से कुबाचा को उखाड़ फैंका। इस प्रकार दिल्ली सल्तनत की सीमा एक बार फिर सिन्धु तक पहुँच गई।

पश्चिम में अपनी स्थिति मज़बूत कर अल्तमश ने अन्य क्षेत्रों की ओर ध्यान दिया। बंगाल और बिहार में 'इवाज़' नाम के एक व्यक्ति ने 'सु्ल्तान ग़ियासुद्दीन' की पदवी ग्रहण कर अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर दी थी। वह कुशल तथा उदार प्रशासक था और उसने सार्वजनिक लाभ के लिए कई चीज़ों का निर्माण किया। यद्यपि उसने अपने पड़ोसी राज्यों के क्षेत्रों पर चढ़ाई की, तथापि पूर्व बंगाल में सेन तथा उड़ीसा और कामरूप (असम) में हिन्दू राजाओं का प्रभाव बना रहा। इवाज़, अल्तमश के लड़के द्वारा 1226-27 में लखनौती के निकट एक युद्ध में पराजित हुआ। बंगाल और बिहार एक बार फिर दिल्ली के अधीन हो गए, पर इन क्षेत्रों पर शासन क़ायम रखना आसान नहीं था और इन्होंने दिल्ली को बार-बार चुनौती दी।

इसी समय अल्तमश ने ग्वालियर, बयाना, अजमेर तथा नागौर को भी वापस अपने क़ब्ज़े में करने के लिए क़दम उठाए। इस प्रकार उसने पूर्वी राजस्थान को अपने अधीन कर लिया। उसने रणथंभौर और जालौर पर भी विजय प्राप्त की, लेकिन चित्तौड़ के निकट नागदा तथा गुजरात के चालुक्यों के विरुद्ध अपने अभियानों में वह सफल नहीं हो सका।

रज़िया

(1236-39) अपने अंतिम दिनों में अल्तमश अपने उत्तराधिकार के सवाल को लेकर चिन्तित था। वह अपने किसी भी लड़के को सुल्तान बनने योग्य नहीं समझता था। बहुत सोचने विचारने के बाद अन्त में उसने अपनी पुत्री 'रज़िया' को अपना सिंहासन सौंपने का निश्चय किया तथा अपने सरदारों और उल्माओं को इस बात के लिए राज़ी किया। यद्यपि स्त्रियों ने प्राचीन मिस्र और ईरान में रानियों के रूप में शासन किया था और इसके अलावा शासक राजकुमारों के छोटे होने के कारण राज्य का कारोबार सम्भाला थी, तथापि इस प्रकार पुत्रों के होते हुए सिंहासन के लिए स्त्री को चुनना एक नया क़दम था। अपनी स्थिति मज़बूत करने के लिए रज़िया को न केवल अपने सगे भाइयों, बल्कि शक्तिशाली तुर्की सरदारों का भी मुक़ाबला करना पड़ा और वह केवल तीन वर्षों तक ही शासन कर सकी। यद्यपि उसके शासन की अवधि बहुत कम थी, तथापि उसके कई महत्वपूर्ण पहलू थे। रज़िया के शासन के साथ ही सम्राट और तुर्की सरदारों, जिन्हें 'चहलगानी' (चालीस) कहा जाता है, के बीच संघर्ष प्रारम्भ हो गया। अल्तमश अपने तुर्क सरदारों का बहुत आदर करता था। उसकी मृत्यु के बाद ये सरदार शक्ति और घमंण्ड में चूर होकर सिंहासन पर कठपुतली के रूप में ऐसे शासक को बैठाना चाहते थे जिस पर उनका पूरा नियंत्रण रहे। उन्हें शीघ्र ही पता लग गया कि स्त्री होने पर भी रज़िया उनके हाथों की कठपुतली बनने को तैयार नहीं थी। रज़िया ने स्त्रियों का पहनावा छोड़ दिया और बिना पर्दे के दरबार में बैठने लगी। वह शिकार पर भी जाती और युद्ध के समय सेना का नेतृत्व भी करती। वह अपना एक अलग दल तैयार करना चाहती थी। इसे तुर्क सरदार सहन नहीं कर सकते थे। उन्होंने रज़िया पर स्त्री-आचरण को तोड़ने और एक अबीसिनीयाई सरदार 'याक़ूत ख़ाँ' से प्रेम करने का आरोप लगाया। प्रान्तों में कई शक्तिशाली सरदारों ने भी रज़िया के विरुद्ध मोर्चा बनाया। यद्यपि रज़िया बड़ी वीरता के साथ लड़ी, पर अन्त में वह पराजित हुई और भागने के दौरान एक जंगल में सोते समय डाकुओं के हाथों मारी गई।

बलबन का युग

(1246-84) तुर्क सरदारों और शासन के बीच संघर्ष चलता रहा। एक तुर्क सरदार 'उलघु ख़ाँ' ने, जिसे उसके बाद के नाम, 'बलबन' से जाना जाता है, धीरे-धीरे सारी शक्ति अपने हाथों में केन्द्रित कर ली और वह 1265 में सिंहासन पर बैठा। उसके सिंहासन पर बैठने के बाद तुर्क सरदार और शासन के बीच संघर्ष रुका। आरम्भ में बलबन अल्तमश के छोटे पुत्र नसीरुद्दीन महमूद का नाइब था, जिसे उसने 1246 में गद्दी पर बैठने में मदद की थी। बलबन ने अपनी एक पुत्री का विवाह युवा सुल्तान से करवा कर अपनी स्थिति और मज़बूत कर ली। बलबन की बढ़ती शक्ति उन तुर्क सरदारों की आंखों में चुभ रही थी जो नसीरुद्दीन महमूद के युवा और अनुभवहीन होने के कारण शासन में अपना प्रभाव क़ायम रखना चाहते थे। उन्होंने मिल कर 1250 में बलबन के विरुद्ध एक षड़यंत्र रचा और बलबन को पदच्युत करवा दिया। बलबन के स्थान पर एक भारतीय मुसलमान 'इमादुद्दीन रिहान' की नियुक्ति हुई। यद्यपि तुर्क सरदार सारे अधिकारों और सारी शक्ति को अपने ही हाथों में रखना चाहते थे तथापि वे रिहान की नियुक्ति के लिए इसलिए राज़ी हो गए क्योंकि वे इस बात पर एकमत नहीं हो सके कि उनमें से बलबन के स्थान पर किसकी नियुक्ति हो। बलबन ने अपना पद छोड़ना स्वीकार तो कर लिया, पर वह चुपके-चुपके अपने समर्थकों को इकट्ठा भी करता रहा। पदच्युत होने के दो वर्षों के अन्दर ही बलबन अपने कुछ विरोधियों को जीतने में सफल हो गया। अब वह शक्ति परीक्षा के लिए तैयार था। ऐसा लगता है कि बलबन ने पंजाब के एक बड़े क्षेत्र पर क़ब्ज़ा करने वाले मंगोलों से भी सम्पर्क स्थापित किया। सुल्तान महमूद को बलबन की शक्ति के आगे घुटने टेकने पड़े और उसने रिहान को बर्खास्त कर दिया। कुछ समय बाद रिहान पराजित हुआ और उसे मार दिया गया। बलबन ने उचित-अनुचित तरीक़ों से अपने अन्य विरोधियों को भी समाप्त कर दिया। अब उसने राजसी प्रतीक 'छत्र' को भी ग्रहण कर लिया, पर इतना होने पर भी सम्भवतः तुर्क सरदारों की भावनाओं को ध्यान में रख वह सिंहासन पर नहीं बैठा। सुल्तान महमूद की 1265 में मृत्यु हो गई। कुछ इतिहासकारों का मत है कि बलबन ने सुल्तान को ज़हर देकर मार दिया और सिंहासन के अपने रास्ते को साफ करने के लिए उसके पुत्रों की भी हत्या कर दी। बलबन द्वारा अपनाए गए उपाय बहुत बार अनुचित और अवांछनीय होते थे, पर इसमें कोई संदेह नहीं कि उसके सिंहासन पर बैठने के साथ ही एक शक्तिशाली केन्द्रीय सरकार के युग का आरम्भ हुआ। बलबन का विश्वास था कि आंतरिक और बाहरी ख़तरों का सामना करने का एकमात्र उपाय सम्राट के सम्मान और उसकी शक्ति को बढ़ाना है और इस कारण वह बराबर इस बात का प्रयत्न करता रहा। उस काल में मान्यता थी कि अधिकार और शक्ति केवल राजसी और प्राचीन वंशों का विशेषाधिकार है। उसी के अनुरूप बलबन ने भी सिंहासन के अपने दावे को मज़बूत करने के लिए घोषणा की कि वह कहानियों में प्रसिद्ध तुर्क योद्धा 'अफ़रासियान' का वंशज है। राजसी वंशज से अपने सम्बन्धों के दावों को मज़बूत करने के लिए बलबन ने स्वयं को तुर्क सरदारों के अग्रणी के रूप में प्रदर्शित किया। उसने शासन के उच्च पदों के लिए केवल उच्च वंश के सदस्यों को स्वीकार करना आरम्भ किया। इसका अर्थ यह था कि भारतीय मुसलमान इन पदों से वंचित रह जाते थे। बलबन कभी-कभी तो इस बात की हद कर देता था। उदाहरणार्थ उसने एक ऐसे बड़े व्यापारी से मिलना अस्वीकार कर दिया जो ऊँचे ख़ानदान का नहीं था। इतिहासकार 'ईरानी' ने, जो स्वयं ख़ानदानी तुर्कों का समर्थक था, अपनी रचना में बलबन से यह कहलवाया है- 'जब भी मैं किसी नीच वंश के आदमी को देखता हूँ तो क्रोध से मेरी आँखें जलने लगती हैं और मेरे हाथ मेरी तलवार तक (उसे मारने के लिए) पहुँच जाते हैं।' बलबन ने वास्तव में ऐसे शब्द कहे थे या नहीं, लेकिन इनसे सम्भवतः गैर-तुर्कों के प्रति उसके दृष्टिकोण के बारे में पता चलता है।

ख़ानदानी तुर्क सरदारों का स्वयं को अग्रणी बताते हुए भी बलबन अपनी शक्ति में किसी को, यहाँ तक की अपने परिवार के सदस्यों को भी, हिस्सेदार बनाने के लिए तैयार नहीं था। उसको तानाशाही इस हद तक थी कि और तो और वह अपने किसी समर्थ की भी आलोचना सहन नहीं कर सकता था। उसका एक प्रधान कार्य 'चहलगानी' की शक्ति को समाप्त कर सम्राट की शक्ति को मज़बूत करना था। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए वह अपने सम्बन्धी 'शेर ख़ाँ' को ज़हर देकर मारने में भी नहीं हिचका। लेकिन साथ-साथ जनता के समर्थन और विश्वास को प्राप्त करने के लिए वह न्याय के मामले में थोड़ा भी पक्षपात नहीं करता था। अपने अधिकार की अवहेलना करने पर वह बड़े से बड़े व्यक्ति को भी नहीं छोड़ता था। इस प्रकार ग़ुलामों के प्रति दुर्व्यवहार करने पर बदायूँ तथा अवध के शासकों के पिताओं को कड़ी सजा दी गई। राज्य की सभी प्रकार की सूचना प्राप्त करने के लिए बलबन ने हर विभाग में अपने जासूस तैनात कर दिए। आंतरिक विद्रोहों तथा पंजाब में जमे हुए मंगोलों से मुक़ाबला करने के लिए एक शक्तिशाली केन्द्रीय सेना का संगठन किया। इन मंगोलों से दिल्ली सल्तनत को गम्भीर ख़तरा बना हुआ था। इसके लिए उसने सैनिक विभाग 'दीवान-ई-अर्ज़' को पुनर्गठित किया और ऐसे सैनिकों को पेंशन देकर सेवा मुक्त किया जो अब सेवा के लायक नहीं रह गए थे, क्योंकि इनमें से अधिकतर सैनिक तुर्क थे और अल्तमश के हिन्दुस्तान आए थे। उन्होंने बलबन के इस क़दम के विरोध में अपनी आवाज़ उठाई, पर बलबन ने उनकी एक न सुनी।

दिल्ली के आसपास के क्षेत्रों तथा दोआब में अल्तमश की मृत्यु के बाद क़ानून और व्यवस्था की हालत बिगड़ गयी थी। गंगा-यमुना दोआब तथा अवध में सड़कों की स्थिति ख़राब थी और चारों ओर डाकुओं के भय के कारण वे इतनी असुरक्षित थीं कि पूर्वी क्षेत्रों से सम्पर्क रखना कठिन हो गया। कुछ राजपूत ज़मीदारों ने इस क्षेत्र में क़िले बना लिए थे और अपनी स्वतंत्रता घोषित कर दी थी। मेवातियों में दिल्ली के आसपास के क्षेत्रों में लूटपाट करने का साहस आ गया था। बलबन ने इन तत्वों का बड़ी कठोरता के साथ दमन किया। डाकुओं का पीछा कर उन्हें बर्बरता से मौत के घाट उतार दिया गया। बदायूँ के आसपास के क्षेत्रों में राजपूतों के क़िलों को तोड़ दिया गया तथा जंगलों को साफ़ कर वहाँ अफ़ग़ान सैनिकों बस्तियाँ बना दी गईं, ताकि वे सड़कों की सुरक्षा कर सकें और राजपूत ज़मीदारों के शासन के विरुद्ध विद्रोहों को तुरन्त कुचल सकें।

इन कठोर तरीक़ों से बलबन ने स्थिति पर नियंत्रण कर लिया। लोगों को अपनी शक्ति से प्रभावित करने के लिए उसने अपने दरबार की शान-शौकत को बढ़ाया। वह जब भी बाहर निकलता था, उसके चारों तरफ़ अंगरक्षक नंगी तलवारें लिए चलते थे। उसने दरबार में हँसी-मज़ाक समाप्त कर दिया और यह सिद्ध करने के लिए कि उसके सरदार उसकी बराबरी नहीं कर सकते, उनके साथ शराब पीना बंद कर दिया। उसने 'सिज्दा' और 'पैबोस' (सम्राट के सामने झुक कर उसके पैरों को चूमना) के रिवाजों को आवश्यक बना दिया। ये और उसके द्वारा अपनाए गए कई अन्य रिवाज मूलतः ईरानी थे और उन्हें ग़ैर-इस्लामी समझा जाता था। लेकिन इसके बावजूद उनका विरोध करने की किसी में भी हिम्मत नहीं थी। क्योंकि ऐसे समय में जब मध्य और पश्चिम एशिया में मंगोलों के आक्रमण से अधिकतर इस्लामी साम्राज्य ख़त्म हो चुके थे, बलबन और दिल्ली सल्तनत को ही इस्लाम के नेता के रूप में देखा जाने लगा था।

बलबन की 1286 में मृत्यु हो गई। वह निस्संदेह दिल्ली सल्तनत और विशेषकर उसके प्रशासन के प्रमुख प्रतिष्ठाताओं में से एक था। सम्राट के अधिकारों को प्रमुखता देकर बलबन ने दिल्ली सल्तनत की शक्ति को भी मज़बूत किया, लेकिन वह मंगोलों के आक्रमण से भारत की उत्तरी सीमा को पूरी तरह नहीं बचा सका। इसके अलावा ग़ैर-तुर्कों को उच्च पदों पर नियुक्त न करने और प्रशासन के आधार को संकीर्ण बनाने की नीति से लोगों में असंतोष फैला, जिसके कारण उसकी मृत्यु के बाद नये विद्रोह आरम्भ हो गए।

उत्तर-पश्चिम सीमा की समस्या तथा बाह्रा ख़तरा

अपनी प्राकृतिक सीमाओं के कारण भारत अपने इतिहास के अधिकांश काल तक विदेशी आक्रमणों से सुरक्षित रहा है। विदेशी केवल उत्तर-पश्चिम मार्ग से यहाँ आ सकते थे। इसी क्षेत्र के पहाड़ी दर्रों से हूण और सीथियन आक्रमणकारियों की तरह तुर्क भी आए और यहाँ अपना साम्राज्य स्थापित करने में सफल हो गए। यह पहाड़ी क्षेत्र ऐसा है कि आक्रमणकारी को पंजाब की उर्वरक नदी घाटियों तक पहुँचने से रोकने के लिए ग़ज़नी होकर काबुल से कंन्धार तक के क्षेत्र पर नियंत्रण आवश्यक है। दक्षिण की ओर का क्षेत्र राजपूताना रेगिस्तान के कारण सुरक्षित है। तुर्की शासकों के लिए हिन्दूकुश क्षेत्र का नियंत्रण भी आवश्यक था क्योंकि मध्य एशिया से सैनिक तथा रसद पहुँचने का यही मुख्य मार्ग था।

पश्चिम एशिया की बदलती स्थिति के कारण दिल्ली सल्तनत के शासकों का उन सीमाओं पर नियंत्रण सम्भव नहीं हो सका, जिन्हें बाद में अंग्रेज़ 'वैज्ञानिक सीमा'(Scientific frontiers) कहते थे। रिज़मी साम्राज्य के उदय के साथ काबुल, कन्धार तथा ग़ज़नी पर से ग़ोरियों का प्रभाव शीघ्र ही समाप्त हो गया और ख़वारिज़मी साम्राज्य की सीमा सिंध नदी तक पहुँच गई। ऐसा लगता था जैसे उत्तर भारत पर प्रभुत्व के लिए ख़वारिज़मी शासकों और क़ुतुबुद्दीन ऐबक के उत्तराधिकारियों के बीच संघर्ष छिड़ जाएगा। लेकिन इसी समय इस क्षेत्र में एक और बड़ा ख़तरा पैदा हो गया। यह था मंगोलों का नेता 'चंगेज़ ख़ाँ' जो स्वयं को ईश्वर का अभिशाप बताने में गर्व महसूस करता था। मंगोलों ने 1220 ई0 में ख़वारिज़मी साम्राज्य को समाप्त कर दिया था। उन्होंने जक्सारटेज़ से लेकर कास्पियन समुद्र तथा ग़ज़नी से लेकर इराक तक के क्षेत्र में कई शहरों और गाँवों कें ध्वंस कर दिया और कई जगह क़त्ले-आम करने में भी नहीं चूके। कई तुर्क सैनिक मंगोलों से जा मिले। मंगोलों ने जानबूझ कर युद्ध में बर्बरता की नीति अपनायी। जब भी वे विरोध करने वाले किसी शहर पर क़ब्ज़ा करते तो वहाँ के सभी सैनिकों और अधिकारियों को मौत घाट उतार देते और बच्चों व औरतों को ग़ुलामों के रूप में बेच देते। यहाँ तक की नागरिकों को भी नहीं बख्शा जाता। उनमें से कुशल दस्तकारों को मंगोल सेना की सेवा में लगा दिया जाता और हट्टे-कट्टे लोगों से अन्य नगरों पर चढ़ाई की तैयारियों के लिए 'बेगार' लिया जाता। इससे इस क्षेत्र के आर्थिक और सांस्कृतिक जीवन का ह्रास हो गया। पर साथ ही मंगोलों द्वारा इस क्षेत्र में शान्ति और व्यवस्था स्थापित करने और चीन से लेकर भूमध्यसागर के तट तक के व्यापार मार्ग को सुरक्षित बनाने से पुनरुत्थान की प्रक्रिया भी आरम्भ हुई। पर ईरान, तूरान और ईराक़ को अपनी प्राचीन समृद्धि फिर से प्राप्त करने में सदियाँ लग गईं। इसी दौरान मंगोल आक्रमण से दिल्ली सल्तनत पर भी महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ा। इनके भय से कई राजकुमारों, विद्वानों धर्मशास्त्रियों तथा अन्य प्रमुख लोगों ने दिल्ली में शरण ली। इस क्षेत्र में एकमात्र मुसलमान राज्य होने के नाते दिल्ली सल्तनत का महत्व बहुत बढ़ गया। एक ओर तो इसने विभिन्न शासकों के बीच इस्लाम के बंधन पर बहुत ज़ोर दिया और दूसरी ओर तुर्क आक्रमणकारियों का, जो अपना घर-बार छोड़ कर आए थे, भारतीय परिस्थितियों के अनुसार स्वयं को ढालना आवश्यक हो गया। भारत को मंगोलों से ख़तरा 1221 ई0 में पैदा हो गया। ख़वारिज़म सम्राज्य की पराजय के बाद मंगोलों ने युवराज जलालुद्दीन का पीछा यहाँ तक किया। जलालुद्दीन ने सिंध नदी के तट पर मंगोलों का वीरता से सामना किया, पर पराजित होने पर अपने घोड़े को नदी में फेंक कर भारत आ गया। यद्यपि चंगेज़ ख़ाँ सिंध नदी के आस पास तीन महीनों तक घूमता रहा, परन्तु उसने निश्चय किया कि वह भारत में न आकर ख़वारिज़म साम्राज्य के अन्य क्षेत्रों को पराजित करेगा। यह अब कहना कठिन है कि यदि चंगेज़ ने भारत पर आक्रमण करने का निश्चय किया होता तो उसके क्या परिणाम होते। भारत में तुर्क साम्राज्य अत्यन्त कमज़ोर तथा असंगठित था। सम्भवतः भारत को भी बड़े पैमाने पर क़त्लेआम और विनाश लीला देखनी पड़ती। जिसके सामने तुर्कों की बर्बरता गौण लगती। उस समय दिल्ली के शासक अल्तमश ने जलालुद्दीन को शरण देने से इंकार कर मंगोलों के क्रोध को शान्त करने की चेष्टा की। जलालुद्दीन कुछ समय तक लाहौर और सतलुज नदी के बीच के क्षेत्र में छिपता रहा। इसके परिणामस्वरूप यहाँ मंगोलों के कई आक्रमण हुए। अब सिंध नदी भारत की पश्चिमी सीमा नहीं रह गई थी। अब उसकी सुरक्षा सीमा लाहौर और मुल्तान थी। कुछ समय तक लाहौर और मुल्तान, अल्तमश और उसके प्रतिद्वन्द्वियों, 'याल्दुज' और 'कुबाचा' के बीच झगड़े की जड़ बना रहा। अन्त में अल्तमश लाहौर और मुल्तान दोनों पर क़ब्ज़ा करने में सफल रहा और इस प्रकार मंगोलों के विरुद्ध काफ़ी शक्तिशाली सुरक्षा-सीमा बना सका।

चंगेज़ ख़ाँ की मृत्यु के बाद 1226 ई0 में उसका साम्राज्य उसके पुत्रों के बीच बंट गया। साम्राज्य का पश्चिमी क्षेत्र उसके सबसे बड़े लड़के 'जुजी' को मिला। जुजी के लड़के 'बाटु ख़ाँ' ने रूस पर भी अपना अधिकार स्थापित कर लिया। मंगोल साम्राज्य के अन्य क्षेत्र चंगेज़ के और लड़कों में बंट गए। यद्यपि चंगेज़ ने भाइयों में से एक को प्रमुख (का-आन अथवा ख़ाँ) बनाकर अपने लड़कों में एकता की व्यवस्था की थी। लेकिन यह व्यवस्था अधिक समय तक नहीं टिक नहीं सकी।

चंगेज़ की मृत्यु से लेकर 1240 तक मंगोलों ने सतलुज को पार कर भारत के अन्य क्षेत्र पर क़ब्ज़ा करने की कोशिश नहीं की। इसका प्रमुख कारण था मंगोल ईराक़ और सीरियाई क्षेत्रों के दमन में व्यस्त थे। इससे दिल्ली के सुल्तानों को थोड़ा समय मिल गया। जिसमें उन्होंने शक्तिशाली सेना और शासन का गठन कर लिया।

हैरात, ग़ोर, ग़ज़नी तथा तुर्कीस्तान में मंगोल सेना का सेनाध्यक्ष 'तैर बहादुर' 1241 ई0 में लाहौर के पास आया। दिल्ली से बार-बार अनुरोध करने के बाद भी कोई सहायता नहीं पहुँचने पर शहर का प्रशासक वहाँ से भाग निकला। मंगोलों ने लाहौर में सैनिक पड़ाव नहीं डाला, पर दिल्ली के रास्ते को साफ़ करने के लिए वहाँ की सेना का विनाश कर दिया और शहर की आबादी में क़त्ले-आम मचा दिया। मंगोलों ने 1245 ई0 में मुल्तान पर आक्रमण किया। पर बलबन द्वारा अपनी सेना को लेकर वहाँ शीघ्रता से पहुँचने पर स्थिति सम्भल गई। जब बलबन रिहान के नेतृत्व में अपने विरोधियों का मुक़ाबला करने में व्यस्त था, मंगोलों को उस लाहौर पर क़ब्ज़ा करने का मौका मिल गया जिसका पुनर्निर्माण बलबन ने करवाया था। उस समय कई सरदार, यहाँ तक की मुल्तान का प्रशासक 'शेर ख़ाँ' भी, मंगोलों के साथ मिल गया। यद्यपि बलबन ने मंगोलों का डट कर मुक़ाबला किया, दिल्ली की सीमा झेलम नदी से घट कर व्यास तक सीमित रह गई। बलबन ने बाद में मुल्तान पर फिर क़ब्ज़ा कर लिया, तथापि वहाँ मंगोलों का ख़तरा बना ही रहा।

ऐसी परिस्थितियों का सामना करने के लिए बलबन ने शक्ति और कूटनीति, दोनों से काम लिया। उसने भटिंडा, सुनाम तथा समाना के क़िलों की मरम्मत करवाई तथा मंगोलों को व्यास पार करने से रोकने के लिए वहाँ एक शक्तिशाली सेना को तैनात किया। वह स्वयं दिल्ली में ही रहा और सीमा की देखभाल के लिए भी कभी लम्बे दौरे पर नहीं आया। साथ ही उसने अपने राजदूत 'हलाकू' के पास भेजे। हलाकू के राजदूत जब दिल्ली आए तो बलबन ने उनका बहुत सम्मान किया। बलबल सारे पंजाब क्षेत्र को मंगोलों के क़ब्ज़े में छोड़ने के लिए तैयार भी हो गया। अपनी ओर से मंगोलों ने दिल्ली पर कोई आक्रमण नहीं किया। लेकिन सीमा अनिश्चित ही रही और बलबन को मंगोलों को दबा कर रखने के लिए क़रीब-क़रीब हर साल अभियान छेड़ना पड़ता था। वह अन्त में मुल्तान को अधीन करने में सफल हो गया और उसने अपने सबसे बड़े लड़के 'महमूद' को वहाँ का स्वतंत्र शासक नियुक्त किया। इसी मुल्तान व्यास सीमा की सुरक्षा करते समय बलबन के सिंहासन का उत्तराधिकारी युवराज महमूद एक लड़ाई में मारा गया।

यद्यपि 1286 ई0 में बलबन की मृत्यु हो गई, उसके द्वारा स्थापित राजनीतिक और सैनिक व्यवस्था दिल्ली सल्तनत में बनी रही। 'हलाकू' का पोता 'अब्दुल्ला', जब 1292 में डेढ़ लाख घोड़ों के साथ दिल्ली की ओर बढ़ा तो 'जलालुद्दीन ख़िलजी' ने उसे बलबन द्वारा मज़बूत की गई भटिंडा और सुनाम सीमा पर पराजित किया। हार कर मंगोलों ने समझौता कर लिया। जिसके परिणास्वरूप चार हज़ार मंगोलों ने इस्लाम धर्म को क़बूल कर लिया तथा भारतीय शासक के पक्ष में आकर दिल्ली के आस पास बस गए।

मंगोलों द्वारा पंजाब में आगे बढ़कर दिल्ली की ओर आने का कारण मध्य एशिया की बदलती राजनीति थी। ईरान के 'मंगोल इल-ख़ानों' ने दिल्ली के सुल्तानों के साथ अधिकतर मैत्री के सम्बन्ध रखे थे। पूर्व में उनके प्रतिद्वन्द्वी ट्रांस-ऑक्सियाना के शासक चग़ताई मंगोल थे। ट्रांस- ऑक्सियाना का शासक दावा ख़ाँ जब ईरान के इल-खानों के विरुद्ध असफल हो गया तब उसने भारत पर अधिकार करने का प्रयास किया। उसने 1297 ई0 में दिल्ली की सुरक्षा करने वाले क़िलों के विरुद्ध अभियान शुरू किया। दावा ख़ाँ का लड़का कुतलुग़ ख़्वाजा 1299 ई0 में दो लाख मंगोल सैनिकों के साथ दिल्ली के दरवाज़े पर आ पहुँचा। मंगोलों ने दिल्ली और उसके आस पास के क्षेत्रों के बीच के सम्पर्क के साधन काट दिए और दिल्ली की कई सड़कों तक आ पहुँचे। यह पहली बार था कि मंगोलों ने दिल्ली पर अपना शासन स्थापित करने के लिए पक्के प्रयास किए। तात्कालिक दिल्ली के शासक अलाउद्दीन ख़िलजी ने मंगोलों का सामना दिल्ली से बाहर करने का निश्चय किया। उसने धैर्य की नीति अपनायी क्योंकि उसे मालूम था कि मंगोल लम्बी अवधि तक अपने देश से दूर नहीं रह सकते थे। मंगोलों के साथ कई लड़ाइयों में भारतीय सेना ने विजय प्राप्त की यद्यपि एक लड़ाई में प्रसिद्ध सरदार 'जाफ़र ख़ाँ' मारा गया। कुछ समय बाद बिना कोई बड़ी लड़ाई लड़े मंगोल वापस लौट गए। मंगोल एक लाख बीस हज़ार सैनिकों के साथ, 1303 ई0 में फिर दिल्ली तक आ गए। अलाउद्दीन ख़िलजी उन दिनों राजपूताना में चित्तौड़ को पराजित करने में व्यस्त था। मंगोलों की ख़बर मिलते ही वह तेज़ी से वापस लौटा और दिल्ली के पास बनी अपनी नई राजधानी 'सीरी' में उसने क़िलाबंदी का मोर्चा सम्भाला। दोनों सेनाएँ दो महीनों तक एक दूसरे के सामने खड़ी रहीं। इस अवधि में दिल्ली के नागरिकों को बहुत कष्ट सहना पड़ा। क़रीब-क़रीब रोज़ ही लड़ाई होती थी। अन्त में बिना कुछ हासिल किए मंगोल फिर लौट गए।

दिल्ली पर मंगोलों के इन दो आक्रमणों ने यह सिद्ध कर दिया कि दिल्ली के सुल्तान उनका मुक़ाबला कर सकते थे। यह ऐसा कार्य था जिसमें मध्य और पश्चिम एशिया के शासक अब तक असफल ही हुए थे।[1] पर दिल्ली के सुल्तानों के लिए भी यह एक चेतावनी थी। अलाउद्दीन ख़िलजी ने इनसे सबक़ पाकर एक बड़ी और शक्तिशाली सेना संगठित की और व्यास के निकट के क़िलों को मज़बूत करवाया। इस प्रकार वह इतना शक्तिशाली हो गया कि आगे के वर्षों में होने वाले मंगोलों के आक्रमणों को, उनकी सेना का क़त्ले-आम कर, नाकाम कर सका। ट्रांस-ऑक्सियाना के शासक दावा ख़ाँ की मृत्यु 1306 में हो गई और मंगोलों में गृह युद्ध आरम्भ हो गया। अब भारत पर से मंगोलों का भय तब तक टल गया जब तक तैमूर ने मंगोलों में फिर एकता स्थापित की। मंगोलों के बीच आपसी मतभेद का लाभ उठाकर दिल्ली के शासक लाहौर पर क़ब्ज़ा करने में सफल हो गए और कालान्तर में उन्होंने नमक पहाड़ियों तक अपने साम्राज्य का विस्तार कर लिया।

इस प्रकार हम देखते हैं कि सारी तेरहवीं शताब्दी के दौरान दिल्ली सल्तनत को उत्तर-पश्चिम से ख़तरा बना रहा। यद्यपि मंगोल धीरे-धीरे लगभग सारे पंजाब पर क़ब्ज़ा करने और यहाँ तक की दिल्ली तक आने में सफल हो गए, तुर्की शासकों की दूरदर्शिता और दृढ़ता से यह ख़तरा टल गया और बाद में उन्होंने पंजाब को भी वापस ले लिया। मंगोलों से दिल्ली सल्तनत पर उत्पन्न ख़तरे से सल्तनत की आंतरिक समस्याओं पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ा।

आंतरिक विद्रोह तथा दिल्ली सल्तनत के विस्तार के लिए संघर्ष

इल्बारी तुर्कों (जिन्हें कभी-कभी मामलुक अथवा ग़ुलाम शासक भी कहा जाता है) के शासन काल में दिल्ली के सुल्तानों को ने केवल विदेशी आक्रमणों, बल्कि आंतरिक विद्रोहों का भी सामना करना पड़ा। इनमें से कुछ विद्रोहों का नेतृत्व उन महत्वाकांक्षी मुसलमान सरदारों ने किया जो स्वाधीन होना चाहते थे और कुछ का उन राजपूत राजाओं और ज़मीदारों ने जो अपने क्षेत्रों से तुर्क आक्रमणकारियों को बाहर निकाल देना चाहते थे अथवा तुर्क शासकों की कठिनाइयों का फ़ायदा उठाकर अपने कमज़ोर पड़ोसियों के राज्यों को हड़प लेना चाहते थे। इस प्रकार ये राजा और ज़मीदार न केवल तुर्कों से बल्कि आपस में भी बराबर लड़ते रहते थे। इन आंतरिक विद्रोहों के उद्देश्य और लक्ष्य एक नहीं थे। इसलिए इन्हें एक साथ मिलाकर तुर्कों के ख़िलाफ़ 'हिन्दू-प्रतिरोध' की संज्ञा, देना ग़लत होगा। भारत एक मज़बूत बड़ा देश था और भौगोलिक कारणों से सारे देश पर एक केन्द्र से शासन करना अत्यन्त कठिन था। प्रान्तीय शासकों को बहुत अधिकार देने ही पड़ते थे और इससे तथा प्रान्तीय भावनाओं से प्रेरित होकर उनमें दिल्ली के शासन के विरुद्ध जाकर स्वयं को स्वाधीन घोषित करने की बराबर आकांक्षा रहती थी। प्रान्तीय शासक जानते थे कि दिल्ली के प्रति किए गए विरोध में उन्हें स्थानीय तत्वों का सहयोग मिलेगा। दिल्ली के सुल्तानों के विरुद्ध सभी विद्रोहों की सूची देना आवश्यक नहीं है। बंगाल, बिहार तथा भारत के अन्य पूर्वी क्षेत्र दिल्ली के अधिकार को समाप्त करने की लगातार चेष्टा करते रहे। ख़िलजी सरदार, मोहम्मद बिन बख्तियार ख़िलजी, सेन शासक लक्ष्मण सेन को 'नदिया' की गद्दी से हटाने में सफल हुआ। उसके बाद की गड़बड़ी में 'ईवाज़' नाम का व्यक्ति सत्ता हथियाने में सफल हुआ। उसने 'सुल्तान ग़ियासुद्दीन' की पदवी ग्रहण कर ली और स्वयं को स्वतंत्र शासक घोषित कर दिया। उत्तर-पश्चिम में उसने बिहार पर भी अधिकार क़ायम कर लिया तथा जाजनगर (उड़ीसा), तिरहुत (उत्तर बंगाल), बंग (पूर्व बंगाल) तथा कामरूप (असम) के शासकों से कर वसूलना आरम्भ कर दिया।

अल्तमश जब उधर से मुक्त हुआ तो उसने 1225 में ईवाज़ के विरुद्ध अभियान छेड़ दिया। ईवाज़ ने शुरू में तो घुटने टेक दिए लेकिन अल्तमश की पीठ फेरते ही उसने फिर अपनी स्वतंत्रता घोषित कर दी। अल्तमश का एक लड़का अवध का प्रशासक था। उसने एक युद्ध में ईवाज़ को पराजित कर मार डाला। लेकिन इसके बावजूद इस क्षेत्र में 1230 तक गड़बड़ी बनी रही, जब अल्तमश ने यह दूसरा अभियान छेड़ा।

अल्तमश की मृत्यु के बाद बंगाल के प्रशासक अपनी सुविधानुसार कभी तो स्वतंत्रता की घोषणा कर लेते और कभी दिल्ली के अधिकार को मान लेते। इस काल में बिहार अधिकतर लखनौती के नियंत्रण में रहा। स्वतंत्र रूप से शासन करने वाले प्रशासकों ने अवध और बिहार के बीच के क्षेत्र पर कई बार नियंत्रण करने की चेष्टा की पर अधिकतर असफल ही रहे। उन्होंने राधा (दक्षिण बंगाल), उड़ीसा तथा कामरूप को भी अपने अधीन करने की चेष्टा की। इन संघर्ष में उड़ीसा के शासक ने 1244 ई0 में लखनौती के निकट मुसलमान सेना को करारी मात दी। इसके बाद भी जाजनगर के विरुद्ध मुसलमानों के अभियान असफल सिद्ध हुए। एक बार बंगाल के एक मुसलमान शासक की सेना असम घाटी में काफ़ी अन्दर तक चली गई, पर वापसी में बिल्कुल ही खत्म हो गई। स्वयं शासक को भी बन्दी बना लिया गया और वह अपने ज़ख्मों से ही मर गया। इससे पता चलता है कि लखनौती के मुसलमान शासक पड़ोसी हिन्दू क्षेत्रों पर नियंत्रण करने लायक़ शक्तिशाली नहीं थे। बलबन के शक्तिशाली प्रशासन के दौरान बिहार और बंगाल को दिल्ली के अधीन करने के लिए फिर प्रयत्न किए गए। अब दिल्ली शासन की औपचारिक मान्यता काफ़ी नहीं थी। तुग़रिल ने पहले बलबन की अधीनता स्वीकार कर ली, पर फिर स्वयं को स्वतंत्र घोषित कर दिया, पर बलबन ने उसका पीछा नहीं छोड़ा। उसने तुग़रिल के परिवार के सदस्यों और उसके समर्थकों को बर्बर दंड दिया। तीन वर्षों तक चलने वाला यह एकमात्र अभियान था जिसके नेतृत्व के लिए बलबन स्वयं दिल्ली से दूर गया था।

बंगाल पर दिल्ली का नियंत्रण लम्बी अवधि तक नहीं बना रह सका। बलबन की मृत्यु के बाद उसके पुत्र बुग़रा ख़ाँ ने दिल्ली सिंहासन के लिए संघर्ष करने के बदले बंगाल तथा उसके आसपास के क्षेत्रों पर शासन करना बेहतर समझा। इस विचार से उसने स्वतंत्रता की घोषणा की और बंगाल में एक वंश के राज्य की नींव डाली, जिसने अगले चालीस वर्षों तक बंगाल में राज किया।

इस प्रकार तेरहवीं शताब्दी के अधिकतर काल में बंगाल दिल्ली के नियंत्रण से बाहर ही रहा। पंजाब का भी अधिकांश भाग मंगोलों के हाथ में था। यहाँ तक की गंगा दोआब में भी तुर्कों का शासन पूर्णतः सुरक्षित नहीं था। गंगा के उस पार कटेहरिया राजपूतों की राजधानी अहिछत्र थी, जहाँ से भी तुर्कों को बराबर भय बना रहता था। वे जब तब बदायूँ ज़िले पर आक्रमण करते रहते थे। अन्त में बलबन सिंहासन पर बैठने के बाद एक शक्तिशाली सेना लेकर आया और इस ज़िले में लूटपाट तथा क़त्ले-आम मचा दिया। सारा ज़िला आबादी से लगभग पूरी तरह शून्य हो गया। जंगलों को साफ किया गया और सड़कें बनाई गईं। 'बरनी' ने लिखा है कि 'उस दिन से बरन, अमरोहा,सम्बल तथा कटेहर के 'इक्ते' सुरक्षित हो गए और हमेशा के लिए उपद्रव-मुक्त हो गए।'

दिल्ली सल्तनत की दक्षिणी सीमा भी पूरी तरह सुरक्षित नहीं थी। यहाँ दो प्रकार की समस्याएँ थी। ऐबक ने तिजारा(अलवर), ग्वालियर, बयाना, रणथम्भौर, कालिंजर आदि के कई क़िलों पर क़ब्ज़ा कर लिया था। उसने नागपुर, अजमेर तथा जालौर के निकट 'नादोल' तक पूर्वी राजस्थान पर भी अपना अधिकार स्थापित कर लिया था। इस क्षेत्र का अधिकतर भाग पहले चौहान साम्राज्य का अंग था और अभी भी यहाँ कई चौहान परिवार शासन करते थे। ऐबक ने चौहान साम्राज्य के विरुद्ध चलाए गए अभियान में ही इन क्षेत्रों पर अपना क़ब्ज़ा कर लिया था। इसके बाद मालवा और गुजरात में बढ़ना तो और, तुर्कों के लिए पूर्वी राजस्थान में विजित भूमि तथा गंगा क्षेत्र पर भी अपना अधिकार बनाए रखना कठिन हो गया।



पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. मंगोल अपने साम्राज्य के विस्तार के दौरान पहली बार मिस्रियों से येरुशलम के निकट 1260 में पराजित हुए थे।