"रानी लक्ष्मीबाई" के अवतरणों में अंतर

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{{रानी लक्ष्मीबाई संक्षिप्त परिचय}}
'''बुन्देले और हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी।'''
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'''रानी लक्ष्मीबाई''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Rani Lakshmibai'', जन्म- [[19 नवंबर]], 1835, [[वाराणसी]]; मृत्यु- [[17 जून]], [[1858]]<ref name="ab">{{cite web |url=http://www.liveindia.com/freedomfighters/jhansi_ki_rani_laxmi_bai.html|title=झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई|accessmonthday=28 अप्रैल|accessyear=2013|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=हिन्दी}}</ref>) [[मराठा]] शासित [[झाँसी]] राज्य की रानी और [[1857]] के [[प्रथम स्वतंत्रता संग्राम|प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम]] की वीरांगना थीं। बलिदानों की धरती [[भारत]] में ऐसे-ऐसे वीरों ने जन्म लिया है, जिन्होंने अपने [[रक्त]] से देश प्रेम की अमिट गाथाएं लिखीं। यहाँ की ललनाएं भी इस कार्य में कभी किसी से पीछे नहीं रहीं, उन्हीं में से एक का नाम है- झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई। उन्होंने न केवल भारत की बल्कि विश्व की महिलाओं को गौरवान्वित किया। उनका जीवन स्वयं में वीरोचित गुणों से भरपूर, अमर देशभक्ति और बलिदान की एक अनुपम गाथा है।
'''खुब लड़ी मरदानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥'''
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* रानी लक्ष्मीबाई मराठा शासित झांसी की रानी और [[भारत]] की स्वतंत्रता संग्राम की प्रथम वनिता थीं। भारत को दासता से मुक्त करने के लिए सन् 1857 में बहुत बड़ा प्रयास हुआ। यह प्रयास [[इतिहास]] में भारत का प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम या [[सिपाही स्वतंत्रता संग्राम]] कहलाता है।  
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* [[अंग्रेज़|अंग्रेज़ों]] के विरुद्ध रणयज्ञ में अपने प्राणों की आहुति देने वाले योद्धाओं में वीरांगना महारानी लक्ष्मीबाई का नाम सर्वोपरी माना जाता है। 1857 में उन्होंने भारत के स्वतंत्रता संग्राम का सूत्रपात किया था। अपने शौर्य से उन्होंने अंग्रेज़ों के दाँत खट्टे कर दिए थे।
भारत को दासता से मुक्त करने के लिए सन  1857 में बहुत बड़ा प्रयास हुआ। यह प्रयास इतिहास में [[भारत का प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम]] कहलाता है। इसका संचालन देश के अनेक वीर और वीरांगनाओं ने किया था। इनमें झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई अंग्रेज जनरल ह्युरोज के शब्दों में सर्वश्रेष्ठ और सर्वोत्कृष्ट वीर थी।  
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* अंग्रेज़ों की शक्ति का सामना करने के लिए उन्होंने नये सिरे से सेना का संगठन किया और सुदृढ़ मोर्चाबंदी करके अपने सैन्य कौशल का परिचय दिया था।
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रानी लक्ष्मीबाई का जन्म 19 नवंबर, 1835 को [[काशी]] के पुण्य व पवित्र क्षेत्र [[असी घाट वाराणसी|असीघाट]], [[वाराणसी]] में हुआ था। इनके [[पिता]] का नाम 'मोरोपंत तांबे' और माता का नाम 'भागीरथी बाई' था। इनका बचपन का नाम 'मणिकर्णिका' रखा गया परन्तु प्यार से मणिकर्णिका को 'मनु' पुकारा जाता था। मनु की अवस्था अभी चार-पाँच वर्ष ही थी कि उसकी माँ का देहान्त हो गया। पिता मोरोपंत तांबे एक साधारण [[ब्राह्मण]] और अंतिम [[पेशवा]] [[बाजीराव द्वितीय]] के सेवक थे। माता भागीरथी बाई सुशील, चतुर और रूपवती महिला थीं। अपनी माँ की मृत्यु हो जाने पर वह [[पिता]] के साथ [[बिठूर]] आ गई थीं। यहीं पर उन्होंने मल्लविद्या, घुड़सवारी और शस्त्रविद्याएँ सीखीं। चूँकि घर में मनु की देखभाल के लिए कोई नहीं था इसलिए उनके पिता मोरोपंत मनु को अपने साथ बाजीराव के दरबार में ले जाते थे जहाँ चंचल एवं सुन्दर मनु ने सबका मन मोह लिया था। बाजीराव मनु को प्यार से 'छबीली' बुलाने थे।[[चित्र:Rani-Of-Jhansi-1.jpg|thumb|left|रानी लक्ष्मीबाई]]
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==झाँसी का युद्ध==
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उस समय [[भारत]] के बड़े भू-भाग पर अंग्रेज़ों का शासन था। वे झाँसी को अपने अधीन करना चाहते थे। उन्हें यह एक उपयुक्त अवसर लगा। उन्हें लगा रानी लक्ष्मीबाई स्त्री है और हमारा प्रतिरोध नहीं करेगी। उन्होंने रानी के दत्तक-पुत्र को राज्य का उत्तराधिकारी मानने से इंकार कर दिया और रानी को पत्र लिख भेजा कि चूँकि राजा का कोई पुत्र नहीं है, इसीलिए झाँसी पर अब अंग्रेज़ों का अधिकार होगा। रानी यह सुनकर क्रोध से भर उठीं एवं घोषणा की कि '''मैं अपनी झाँसी नहीं दूँगी'''। [[अंग्रेज़]] तिलमिला उठे। परिणाम स्वरूप अंग्रेज़ों ने झाँसी पर आक्रमण कर दिया। रानी ने भी युद्ध की पूरी तैयारी की। क़िले की प्राचीर पर तोपें रखवायीं। रानी ने अपने महल के सोने एवं चाँदी के सामान तोप के गोले बनाने के लिए दे दिया।
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==मृत्यु==
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रानी को असहनीय वेदना हो रही थी परन्तु मुखमण्डल दिव्य कान्त से चमक रहा था। उन्होंने एक बार अपने पुत्र को देखा और फिर वे तेजस्वी नेत्र सदा के लिए बन्द हो गए। वह [[17 जून]], [[1858]] का दिन था, जब क्रान्ति की यह ज्योति अमर हो गयी। उसी कुटिया में उनकी चिता लगायी गई जिसे उनके पुत्र दामोदर राव ने मुखाग्नि दी। रानी का पार्थिव शरीर पंचमहाभूतों में विलीन हो गया और वे सदा के लिए अमर हो गयीं। इनकी मृत्यु [[ग्वालियर]] में हुई थी। रानी लक्ष्मीबाई की वीरता से प्रभावित होकर ह्यूरोज को भी यह कहना पड़ा कि- "भारतीय क्रांतिकारियों में यह अकेली मर्द है।" विद्रोही सिपाहियों के सैनिक नेताओं में रानी सबसे श्रेष्ठ और बहादुर थी और उसकी मृत्यु से मध्य [[भारत]] में विद्रोह की रीढ़ टूट गई।
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सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी,
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बूढ़े भारत में आई फिर से नयी जवानी थी,
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गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी,
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दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी।
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चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी,
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बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
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खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।। -[[सुभद्रा कुमारी चौहान]]</poem>
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==अंग्रेज़ों का ज़ब्ती सिद्धांत==
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{{Main|अंग्रेज़ों का ज़ब्ती सिद्धांत}}
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झाँसी की रानी, जो इस बात से बहुत कुपित थी कि 1853 ई. में उसके पति के मरने पर [[लॉर्ड डलहौज़ी]] ने ज़ब्ती का सिद्धांत लागू करके उसका राज्य हड़प लिया। अतएव सिपाही विद्रोह शुरू होने पर वह विद्रोहियों से मिल गई और सर ह्यूरोज के नेतृत्व में अंग्रेज़ी फ़ौज का डटकर वीरतापूर्वक मुक़ाबला किया। जब अंग्रेज़ी फ़ौज क़िले में घुस गई, लक्ष्मीबाई क़िला छोड़कर कालपी चली गई और वहाँ से युद्ध जारी रखा। जब कालपी छिन गई तो रानी लक्ष्मीबाई ने [[तात्या टोपे]] के सहयोग से शिन्दे की राजधानी [[ग्वालियर]] पर हमला बोला, जो अपनी फ़ौज के साथ कम्पनी का वफ़ादार बना हुआ था।
  
रानी लक्ष्मीबाई का जन्म 21 अक्टूबर 1835 को [[काशी]] के पुण्य व पवित्र क्षेत्र असीघाट, [[वाराणसी]] में हुआ था। उसका बाल्यकार [[बिठूर]] में पेशवा के लड़के राव साहब और [[नाना साहब]] के साथ व्यतीत हुआ था। उसने घुड़सवारी आदि का वीरोचित अभ्यास किया था। लक्ष्मीबाई का विवाह झाँसी के राजा गंगाधर राव से हुआ। थोड़े समय के उपरान्त उनके पति की मृत्यु हो गई। गंगाधर राव ने अपना अन्त समय जानकर एक लड़का गोद ले लिया था। साम्राज्यवादी लार्ड डलहौजी ने उन दिनों देशी राज्यों को हड़पने का कुचक्र चलाकर अनेक राज्यों को अंग्रेजी राज्य मे मिला लिया था। उसकी कुदृष्टि झाँसी पर पड़ी और इसे हड़पने के लिए रानी के दत्तक पुत्र को मान्यता नहीं दी। रानी ने इसका तीव्र विरोध किया और कहा कि जीवित रहते झाँसी नहीं दूंगी।
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==टीका-टिप्पणी और संदर्भ==
अंग्रेजों के घोर अन्याय के विरूद्ध ही रानी लक्ष्मीबाई ने 1857 के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम का विस्फोट होने पर फिरंगी अंग्रेजों से देश को मुक्त करने के लिए अपनी तलवार उठाई थी। [[झांसी]], [[कालपी]] और [[ग्वालियर]] आदि के समरांगणों में उसने अपने अद्भुत शौर्य का परिचय दिया।
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<references/>
 
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==बाहरी कड़ियाँ==
ग्वालियर के समरांगण में ह्युरोज की सेना का सामना करते हुए उसने वीरगति प्राप्त की थी। उसके महान  जीवन के पटाक्षेप का दृश्य बड़ा मार्मिक था। शत्रुओं से संघर्ष करते हुए जब उनका घोड़ा चक्कर खाने लगा उसी समय एक शत्रु सैना ने उसके सिर पर तलवार का घातक वार किया। सिर से ख़ून की धारा बहने लगी। रानी का अब अन्तिम क्षण था। उसके कुछ सरदार मरणासन्न रानी को बाबा गंगादास की कुटिया में ले आये। बाबा ने रानी को पहंचन लिया और गले में गंगाजल डाला। रानी ने ‘ओऽम् नमो भगवते वासुदेवाय’ कहते हुए 18 जून 1858 को अपने प्राण छोड़ दिये और वह अमर हो गई। रानी ने अपनी मातृ-भूमि की स्वाधीनता के लिए देश के शत्रुओं के सामने सिर नहीं झुकाया था और वह बलिदान हो गई।
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*[http://www.liveindia.com/freedomfighters/jhansi_ki_rani_laxmi_bai.html Jhansi Ki Rani Lakshmibai Biography]
 
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*[http://books.google.co.in/books?id=WdKUn_8-Cz4C&printsec=frontcover&source=gbs_ge_summary_r&cad=0#v=onepage&q&f=false Jhansi Ki Rani LAXMIBAI]
 
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*[http://books.google.co.in/books?id=0hKthqa2kkQC&printsec=frontcover&source=gbs_ge_summary_r&cad=0#v=onepage&q&f=false Rani of Jhansi]
[[Category:स्वतन्त्रता संग्राम 1857]]
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*[http://books.google.co.in/books?id=N-KpcaLP8VgC&printsec=frontcover&source=gbs_ge_summary_r&cad=0#v=onepage&q&f=false The Rani of Jhansi]
[[Category:इतिहास_कोश]]
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==संबंधित लेख==
[[Category:उत्तर_प्रदेश]]
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{{भारतीय वीरांगनाएँ}}{{भारत की रानियाँ और महारानियाँ}}{{स्वतंत्रता संग्राम 1857}}
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रानी लक्ष्मीबाई विषय सूची
रानी लक्ष्मीबाई
रानी लक्ष्मीबाई
पूरा नाम झांसी की रानी लक्ष्मीबाई
अन्य नाम मनु, मणिकर्णिका
जन्म 19 नवंबर, 1835
जन्म भूमि वाराणसी, उत्तर प्रदेश
मृत्यु 17 जून, 1858[1]
मृत्यु स्थान ग्वालियर, मध्य प्रदेश
अभिभावक मोरोपंत तांबे और भागीरथी बाई
पति/पत्नी गंगाधर राव निवालकर
संतान दामोदर राव[2]
प्रसिद्धि रानी लक्ष्मीबाई मराठा शासित झांसी की रानी और भारत की स्वतंत्रता संग्राम की प्रथम वनिता थीं।
नागरिकता भारतीय
अन्य जानकारी रानी लक्ष्मीबाई का बचपन में 'मणिकर्णिका' नाम रखा गया परन्तु प्यार से मणिकर्णिका को 'मनु' पुकारा जाता था। विवाह के बाद इनका नाम 'लक्ष्मीबाई' हुआ।

रानी लक्ष्मीबाई (अंग्रेज़ी: Rani Lakshmibai, जन्म- 19 नवंबर, 1835, वाराणसी; मृत्यु- 17 जून, 1858[1]) मराठा शासित झाँसी राज्य की रानी और 1857 के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की वीरांगना थीं। बलिदानों की धरती भारत में ऐसे-ऐसे वीरों ने जन्म लिया है, जिन्होंने अपने रक्त से देश प्रेम की अमिट गाथाएं लिखीं। यहाँ की ललनाएं भी इस कार्य में कभी किसी से पीछे नहीं रहीं, उन्हीं में से एक का नाम है- झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई। उन्होंने न केवल भारत की बल्कि विश्व की महिलाओं को गौरवान्वित किया। उनका जीवन स्वयं में वीरोचित गुणों से भरपूर, अमर देशभक्ति और बलिदान की एक अनुपम गाथा है।

  • रानी लक्ष्मीबाई मराठा शासित झांसी की रानी और भारत की स्वतंत्रता संग्राम की प्रथम वनिता थीं। भारत को दासता से मुक्त करने के लिए सन् 1857 में बहुत बड़ा प्रयास हुआ। यह प्रयास इतिहास में भारत का प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम या सिपाही स्वतंत्रता संग्राम कहलाता है।
  • अंग्रेज़ों के विरुद्ध रणयज्ञ में अपने प्राणों की आहुति देने वाले योद्धाओं में वीरांगना महारानी लक्ष्मीबाई का नाम सर्वोपरी माना जाता है। 1857 में उन्होंने भारत के स्वतंत्रता संग्राम का सूत्रपात किया था। अपने शौर्य से उन्होंने अंग्रेज़ों के दाँत खट्टे कर दिए थे।
  • अंग्रेज़ों की शक्ति का सामना करने के लिए उन्होंने नये सिरे से सेना का संगठन किया और सुदृढ़ मोर्चाबंदी करके अपने सैन्य कौशल का परिचय दिया था।

जीवन परिचय

रानी लक्ष्मीबाई का जन्म 19 नवंबर, 1835 को काशी के पुण्य व पवित्र क्षेत्र असीघाट, वाराणसी में हुआ था। इनके पिता का नाम 'मोरोपंत तांबे' और माता का नाम 'भागीरथी बाई' था। इनका बचपन का नाम 'मणिकर्णिका' रखा गया परन्तु प्यार से मणिकर्णिका को 'मनु' पुकारा जाता था। मनु की अवस्था अभी चार-पाँच वर्ष ही थी कि उसकी माँ का देहान्त हो गया। पिता मोरोपंत तांबे एक साधारण ब्राह्मण और अंतिम पेशवा बाजीराव द्वितीय के सेवक थे। माता भागीरथी बाई सुशील, चतुर और रूपवती महिला थीं। अपनी माँ की मृत्यु हो जाने पर वह पिता के साथ बिठूर आ गई थीं। यहीं पर उन्होंने मल्लविद्या, घुड़सवारी और शस्त्रविद्याएँ सीखीं। चूँकि घर में मनु की देखभाल के लिए कोई नहीं था इसलिए उनके पिता मोरोपंत मनु को अपने साथ बाजीराव के दरबार में ले जाते थे जहाँ चंचल एवं सुन्दर मनु ने सबका मन मोह लिया था। बाजीराव मनु को प्यार से 'छबीली' बुलाने थे।

रानी लक्ष्मीबाई

झाँसी का युद्ध

उस समय भारत के बड़े भू-भाग पर अंग्रेज़ों का शासन था। वे झाँसी को अपने अधीन करना चाहते थे। उन्हें यह एक उपयुक्त अवसर लगा। उन्हें लगा रानी लक्ष्मीबाई स्त्री है और हमारा प्रतिरोध नहीं करेगी। उन्होंने रानी के दत्तक-पुत्र को राज्य का उत्तराधिकारी मानने से इंकार कर दिया और रानी को पत्र लिख भेजा कि चूँकि राजा का कोई पुत्र नहीं है, इसीलिए झाँसी पर अब अंग्रेज़ों का अधिकार होगा। रानी यह सुनकर क्रोध से भर उठीं एवं घोषणा की कि मैं अपनी झाँसी नहीं दूँगी। अंग्रेज़ तिलमिला उठे। परिणाम स्वरूप अंग्रेज़ों ने झाँसी पर आक्रमण कर दिया। रानी ने भी युद्ध की पूरी तैयारी की। क़िले की प्राचीर पर तोपें रखवायीं। रानी ने अपने महल के सोने एवं चाँदी के सामान तोप के गोले बनाने के लिए दे दिया।

मृत्यु

रानी को असहनीय वेदना हो रही थी परन्तु मुखमण्डल दिव्य कान्त से चमक रहा था। उन्होंने एक बार अपने पुत्र को देखा और फिर वे तेजस्वी नेत्र सदा के लिए बन्द हो गए। वह 17 जून, 1858 का दिन था, जब क्रान्ति की यह ज्योति अमर हो गयी। उसी कुटिया में उनकी चिता लगायी गई जिसे उनके पुत्र दामोदर राव ने मुखाग्नि दी। रानी का पार्थिव शरीर पंचमहाभूतों में विलीन हो गया और वे सदा के लिए अमर हो गयीं। इनकी मृत्यु ग्वालियर में हुई थी। रानी लक्ष्मीबाई की वीरता से प्रभावित होकर ह्यूरोज को भी यह कहना पड़ा कि- "भारतीय क्रांतिकारियों में यह अकेली मर्द है।" विद्रोही सिपाहियों के सैनिक नेताओं में रानी सबसे श्रेष्ठ और बहादुर थी और उसकी मृत्यु से मध्य भारत में विद्रोह की रीढ़ टूट गई।

सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी,
बूढ़े भारत में आई फिर से नयी जवानी थी,
गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी,
दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी।
चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।। -सुभद्रा कुमारी चौहान

अंग्रेज़ों का ज़ब्ती सिद्धांत

झाँसी की रानी, जो इस बात से बहुत कुपित थी कि 1853 ई. में उसके पति के मरने पर लॉर्ड डलहौज़ी ने ज़ब्ती का सिद्धांत लागू करके उसका राज्य हड़प लिया। अतएव सिपाही विद्रोह शुरू होने पर वह विद्रोहियों से मिल गई और सर ह्यूरोज के नेतृत्व में अंग्रेज़ी फ़ौज का डटकर वीरतापूर्वक मुक़ाबला किया। जब अंग्रेज़ी फ़ौज क़िले में घुस गई, लक्ष्मीबाई क़िला छोड़कर कालपी चली गई और वहाँ से युद्ध जारी रखा। जब कालपी छिन गई तो रानी लक्ष्मीबाई ने तात्या टोपे के सहयोग से शिन्दे की राजधानी ग्वालियर पर हमला बोला, जो अपनी फ़ौज के साथ कम्पनी का वफ़ादार बना हुआ था।


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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 28 अप्रैल, 2013।
  2. 'दामोदर राव' दत्तक पुत्र था।

बाहरी कड़ियाँ

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