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'''भांडारकर प्राच्य शोध संस्थान''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Bhandarkar Oriental Research Institute'') [[महाराष्ट्र]] के [[पुणे]] में स्थित एक संस्थान है। 'सर्वभारतीय प्राच्य विद्या सम्मेलन' का यह केंद्रीय कार्यालय है, जिसे अब भारतीय प्राच्यविदों की राष्ट्रीय संस्था के रूप में अंतर्राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त हो चुकी है।
 
==स्थापना==
 
==स्थापना==
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इसके सिवा उसने बंबई संस्कृत तथा प्राकृत ग्रंथमाला के प्रबंध का भार भी संस्थान को सौंप दिया।<ref>इस ग्रंथमाला का आरंभ सन् 1868 में किया गया था।</ref> यह बहुमूल्य परिसंपत्ति पाकर इस नवस्थापित संस्थान ने कई शैक्षिक योजनाएँ आरंभ करने का निश्चय किया। सन् [[1919]] में उसने पूना में प्रथम सर्वभारतीय प्राच्य विद्या सम्मेलन का आयोजन किया। उसने अपनी ओर से भी एक प्राच्य ग्रंथमाला का आरंभ किया। [[अप्रैल]], [[1919]] में उसने [[महाभारत]] का सटिप्पण संस्करण प्रकाशित करने का काम हाथ में लिया और उसी वर्ष उसने अपने शोध संबंधी पत्र "ऐनल्स" का प्रथमांक प्रकाशित किया। युवकों को वैज्ञानिक अनुसंधान की विधियों में प्रशिक्षित करने के लिए संस्थान ने एक स्नातकोत्तर और गवेषणा विभाग की भी स्थापना की।
 
इसके सिवा उसने बंबई संस्कृत तथा प्राकृत ग्रंथमाला के प्रबंध का भार भी संस्थान को सौंप दिया।<ref>इस ग्रंथमाला का आरंभ सन् 1868 में किया गया था।</ref> यह बहुमूल्य परिसंपत्ति पाकर इस नवस्थापित संस्थान ने कई शैक्षिक योजनाएँ आरंभ करने का निश्चय किया। सन् [[1919]] में उसने पूना में प्रथम सर्वभारतीय प्राच्य विद्या सम्मेलन का आयोजन किया। उसने अपनी ओर से भी एक प्राच्य ग्रंथमाला का आरंभ किया। [[अप्रैल]], [[1919]] में उसने [[महाभारत]] का सटिप्पण संस्करण प्रकाशित करने का काम हाथ में लिया और उसी वर्ष उसने अपने शोध संबंधी पत्र "ऐनल्स" का प्रथमांक प्रकाशित किया। युवकों को वैज्ञानिक अनुसंधान की विधियों में प्रशिक्षित करने के लिए संस्थान ने एक स्नातकोत्तर और गवेषणा विभाग की भी स्थापना की।

10:00, 7 जुलाई 2018 के समय का अवतरण

भांडारकर प्राच्य शोध संस्थान
भांडारकर प्राच्य शोध संस्थान
विवरण 'भांडारकर प्राच्य शोध संस्थान' महाराष्ट्र के पुणे में स्थित एक संस्थान है। 'सर्वभारतीय प्राच्य विद्या सम्मेलन' का यह केंद्रीय कार्यालय है
राज्य महाराष्ट्र
ज़िला पुणे
स्थापना 6 जुलाई, 1917
विभाग हस्तलिखित ग्रंथ विभाग, प्रकाशन विभाग, शोध विभाग, महाभारत विभाग
अन्य जानकारी संस्थान का हस्तलिखित ग्रंथ विभाग उन बहुसंख्यक पांडुलिपियों की देखभाल करता है, जो इस तरह के ग्रंथों का देश का सबसे बड़ा संग्रह है।

भांडारकर प्राच्य शोध संस्थान (अंग्रेज़ी: Bhandarkar Oriental Research Institute) महाराष्ट्र के पुणे में स्थित एक संस्थान है। 'सर्वभारतीय प्राच्य विद्या सम्मेलन' का यह केंद्रीय कार्यालय है, जिसे अब भारतीय प्राच्यविदों की राष्ट्रीय संस्था के रूप में अंतर्राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त हो चुकी है।

स्थापना

इस शोध संस्थान की स्थापना 6 जुलाई, 1917 को पूना में रामकृष्ण गोपाल भांडारकर की स्मृति में की गई थी। भांडारकर भारत में प्राच्य विद्या के सुप्रसिद्ध अग्रगामी नेताओं में से एक थे। स्थापना के दिन ही रामकृष्ण भांडारकर ने अपनी पुस्तकों और शोध संबंधी पत्रिकाओं का वृहत् पुस्तकालय संस्थान को अर्पित कर दिया और एक वर्ष बाद बंबई (अब महाराष्ट्र) की सरकार ने संस्कृत और प्राकृत के बीस हजार से भी अधिक हस्तलिखित ग्रंथों का अपना बहुमूल्य संग्रह संस्थान को दे देने का निश्चय किया।

इसके सिवा उसने बंबई संस्कृत तथा प्राकृत ग्रंथमाला के प्रबंध का भार भी संस्थान को सौंप दिया।[1] यह बहुमूल्य परिसंपत्ति पाकर इस नवस्थापित संस्थान ने कई शैक्षिक योजनाएँ आरंभ करने का निश्चय किया। सन् 1919 में उसने पूना में प्रथम सर्वभारतीय प्राच्य विद्या सम्मेलन का आयोजन किया। उसने अपनी ओर से भी एक प्राच्य ग्रंथमाला का आरंभ किया। अप्रैल, 1919 में उसने महाभारत का सटिप्पण संस्करण प्रकाशित करने का काम हाथ में लिया और उसी वर्ष उसने अपने शोध संबंधी पत्र "ऐनल्स" का प्रथमांक प्रकाशित किया। युवकों को वैज्ञानिक अनुसंधान की विधियों में प्रशिक्षित करने के लिए संस्थान ने एक स्नातकोत्तर और गवेषणा विभाग की भी स्थापना की।

विभाग

भांडारकर प्राच्य शोध संस्थान के मुख्य विभाग हैं-

  1. हस्तलिखित ग्रंथ विभाग
  2. प्रकाशन विभाग
  3. शोध विभाग
  4. महाभारत विभाग


हस्तलिखित ग्रंथ विभाग उन बहुसंख्यक पांडुलिपियों की देखभाल करता है, जो इस तरह के ग्रंथों का देश का सबसे बड़ा संग्रह है। अध्ययन और शोध में लगे छात्रों को ये पांडुलिपियाँ भी दी जा सकती हैं। इन ग्रंथों का बृहत् सूचीपत्र 45 खंडों में प्रकाशित हो रहा है, जिनमें से 20 से अधिक छप चुके हैं। यह विभाग संदर्भ ग्रंथों संबंधी सूचना प्रसारित करने के केंद्र का भी काम करता है और भारत के तथा बाहर के अन्य स्थलों के संग्रहों से हस्तलिखित ग्रंथ प्राप्त करने का भी प्रयत्न करता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. इस ग्रंथमाला का आरंभ सन् 1868 में किया गया था।

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