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*भोग- सम्भवतः राजा को हर दिन फल-फूल एवं सब्जियों के रूप में दिया जाने वाला कर।
 
*भोग- सम्भवतः राजा को हर दिन फल-फूल एवं सब्जियों के रूप में दिया जाने वाला कर।
 
*प्रणयकर- गुप्तकाल में ग्रामवासियों पर लगाया गया अनिवार्य या स्वेच्छा चन्दा था। भूमिकर भोग का उल्लेख [[मनुस्मृति]] में हुआ है। इसी प्रकार भेंट नामक कर का उल्लेख [[हर्षचरित]] में आया है।
 
*प्रणयकर- गुप्तकाल में ग्रामवासियों पर लगाया गया अनिवार्य या स्वेच्छा चन्दा था। भूमिकर भोग का उल्लेख [[मनुस्मृति]] में हुआ है। इसी प्रकार भेंट नामक कर का उल्लेख [[हर्षचरित]] में आया है।
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==व्यापार एवं वाणिज्य==
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गुप्त काल में व्यापार एवं वाणिज्य अपने उत्कर्ष पर था। [[उज्जैन]], भड़ौच, प्रतिष्ष्ठान, [[विदिशा]], [[प्रयाग]], [[पाटिलिपुत्र]], [[वैशाली]], ताम्रलिपि, [[मथुरा]], [[अहिच्छत्र]], [[कौशाम्बी]] आदि महत्वपूर्ण व्यापारिक नगर है। इन सब में उज्जैन सर्वाधिक महत्वपूर्ण व्यापारिक स्थल था क्योंकि देश के हर कोने से मार्ग उज्जैन की ओर आते थे। स्वर्ण मुदाओं की अधिकता के कारण ही संभवतः गुप्तकालीन व्यापार विकास कर सका।
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गुप्त राजाओं ने ही सर्वाधिक स्वर्ण मुद्राओं जारी की, इनकी स्वर्णमुद्राओ को अभिलेखों मे ‘दीनार‘ कहा गया है। इनकी स्वर्ण मुद्राओं में स्वर्ण की मात्रा कुषाणें की स्वर्ण मुद्राओं की तुलना में कम थी। गुप्त राजाओं ने [[गुजरात]] को विजित करने के उपरान्त चांदी के सिक्के चलाए। यह विजय सम्भवतः चन्द्रगुप्त द्वितीय द्वारा शकों के विरुद्ध दर्ज की गई थी। तांबे के सिक्कों का प्रचलन गुप्तकाल में कम था। कुषाण काल के विपरीत गुप्त काल में आन्तरिक व्यापार में ह्मास के लक्षण दिखते हैं। ह्मस के कारणों में गुप्तकाली मौद्रिकनीति की असफलता भी एक महत्वपूर्ण कारण थी क्योंकि गुप्तों के पास ऐसी कोई सामान्य मुद्रा नहीं थी जो उनके जीवन का अभिन्न अंग बन सकती थी।
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फाह्मन ने लिखा है कि गुप्त काल में साधारण जनता दैनिक जीवन के विनिमय में वस्तुओं के आदान प्रदान या फिर कौड़ियों से काम चलाती थी। आन्तरिक व्यापार की ही तरह गुप्तकाल मंे विदेशी व्यापार भी पतन की ओर अग्रसर था क्योंकि तीसरी शताब्दी ई. में बाद रोम साम्राज्य निरन्तरण हूणों के आक्रमण को झेलते हुए काफी कमजोर हो गया था। वह अब इस स्थिति में नही था कि अपने विदेशी व्यापार को पहले जैसी स्थिति में बनाये रखे, दूसरे रोम जनता ने लगभग छठी शताब्दी के मध्य चीनियों से रेशम उत्पादन की तकनीक सीख ली थी। चूकिं रेशम व्यापार ही भारत और रागेम के मध्य महत्वपूर्ण व्यापार का आधार था, इसलिए भारत का विदेशी व्यापार अधिक प्रभावित हुआ।
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रोम साम्राज्य के पतन के बाद भारतीय रेशम की मांग विदेशों में कम हो गई जिसके परिणाम स्वरूप 5 वी शताब्दी के मध्य बुनकरों की एक श्रेणी जो, लाट प्रदेश में निवास करती थी, मंदसौर में जाकर बस गयी।
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पूर्व में भारत का व्यापार चीन से हो रहा था। इन दोनों के मध्य मध्यस्थ की भूमि सिंहलद्वीप (श्रीलंका) निभाता था। चीन और भारत के मध्य होने वाला व्यपार सम्भवतः वस्तु विनिमय प्रणाली पर आधारित था जिसकी पुष्टि के लिए यह कहना पर्याप्त है कि न तो चीन के सिक्के भारत में मिले हैं, और न ही भारत के सिक्के चीन में। भारत-चीन को रत्न, केसर, सुगन्धित पदार्थ, सिले-सिलायें सुन्दर वस्त्र आदि निर्यात करता था।
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पूर्वी तट पर स्थित बंदरगाह ताम्रलिप्ति, घंटाशाला एवं कदूरा से शायद गुप्त शासक दक्षिण-पूर्व एशिया से व्यापार करते थे। पश्चिमी तट पर स्थित भड़ौच (ब्रोच), कैम्बे, सोपारा, कल्याण आदि बन्दरगाहों से भूमध्य सागर एवं पश्चिम एशिया के साथ व्यापार सम्पन्न होता था। इस समय भारत में चीनसे रेशम (चीनांशुक), इथोपिया से हाथी दांत, अरब, ईरान एवं बैक्ट्रिया से घोड़ों आदि का आयात होता था। भारतीय जलयान निर्वाध रूप से अरब सागर, हिन्द महासागर उद्योगों में से था। रेशमी वस्त्र मलमल, कैलिकों, लिनन, ऊनी एवं सूती था। गुप्त काल के अन्तिम चरण में पाटलिपुत्र, मथुरा, कुम्रहार, सोनपुर, सोहगौरा एवं गंगाघाटी के कुछ नगरों का ह्मस हुआ।
  
 
    
 
    

06:42, 22 अक्टूबर 2010 का अवतरण

गुप्त साम्राज्य का उदय तीसरी सदी के अन्त में प्रयाग के निकट कौशाम्बी में हुआ। गुप्त कुषाणों के सामन्त थे। इस वंश का आरंभिक राज्य उत्तर प्रदेश और बिहार में था। लगता है कि गुप्त शासकों के लिए बिहार की उपेक्षा उत्तर प्रदेश अधिक महत्व वाला प्रान्त था, क्योंकि आरम्भिक अभिलेख मुख्यतः इसी राज्य में पाए गए हैं। यही से गुप्त शासक कार्य संचालन करते रहे। और अनेक दिशाओं में बढ़ते गए। गुप्त शासकों ने अपना अधिपत्य अनुगंगा (मध्य गंगा मैदान), प्रयाग (इलाहाबाद), साकेत (आधुनिक अयोध्या) और मगध पर स्थापित किया।

गुप्तों की उत्पत्ति

गुप्त राजवंशों का इतिहास साहित्यिक तथा पुरातात्विक दोनों प्रमाणों से प्राप्त है। इसके अतिरिक्त विदेशी यात्रियों के विवरण से भी गुप्त राजवंशों के बारे में जानकारी प्राप्त होती है।

  • साहित्यिक साधनों में पुराण सर्वप्रथम है जिसमें मत्स्य पुराण, वायु पुराण, तथा विष्णु पुराण द्वारा प्रारम्भिक शासकों के बारे में जानकारी मिलती है।
  • बौद्ध ग्रंथों में 'आर्य मंजूश्रीमूलकल्प' महत्वपूर्ण ग्रंथ है। इसके अतिरिक्त 'वसुबन्धु चरित' तथा 'चन्द्रगर्भ परिपृच्छ' से गुप्त वंशीय इतिहास की महत्वपूर्ण जानकारी मिलती है।
  • जैन ग्रंथों में 'हरिवंश' और 'कुवलयमाला' महत्वपूर्ण ग्रंथ है।
  • स्मृतियों में नारद, पराशर और बृहस्पति स्मृतियों से गुप्तकाल की सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक इतिहास की जानकारी मिलती है।
  • लौकिक साहित्य के अन्तर्गत विशाखदत्त कृत 'देवीचन्द्रगुप्तम्' (नाटक) से गुप्त नरेश रामगुप्त तथा चन्द्रगुप्त के बारे में जानकारी मिलती है। अन्य साहित्यिक स्रोतों में - अभिज्ञान शाकुन्तलम्, रघुवंश महाकाव्य, मुद्राराक्षस, मृच्छकटिक, हर्षचरित, वात्सायनन के कामसूत्र आदि से गुप्तकालीन शासन व्यवस्था एवं नगर जीवन के विषय में जानकारी प्राप्त होती है।
  • अभिलेखीय साक्ष्य के अन्तर्गत समुद्रगुप्त का प्रयाग प्रशस्ति लेख सर्वप्रमुख है, जिसमें समुद्रगुप्त के राज्यभिषेक उसके दिग्विजय तथा व्यक्तित्व पर प्रकाश पड़ता है। अन्य अभिलेखों में चन्द्रगुप्त द्वितीय के उदयगिरि से प्राप्त गुहा लेख, कुमार गुप्त का विलसड़ स्तम्भ लेख स्कंद गुप्त का भीतरी स्तम्भ लेख, जूनागढ़ अभिलेख महत्पूर्ण हैं। *विदेशी यात्रियों के विवरण में फाह्यान जो चन्द्रगुप्त द्वितीय के काल में भारत आया था। उसने मध्य देश के जनता का वर्णन किया है। 7वी. शताब्दी ई. में चीनी यात्री ह्वेनसांग के विवरण से भी गुप्त इतिहास के विषय में जानकारी प्राप्त होती है। उसने बुद्धगुप्त, कुमार गुप्त प्रथम, शकादित्य तथा बालदित्य आदि गुप्त शासकों का उल्लेख किया है। उसके विवरण से यह ज्ञात होता है कि कुमार गुप्त ने ही नालन्दा विहार की स्थापना की थी।

गुप्तों की उत्पत्ति संबंधी विचार

गुप्तों की उत्पत्ति के संबंध में विद्वानों में मतभेद है। इस संबंध में कुछ विचारक इसे शूद्र अथवा निम्नजाति से उत्पन्न मानते है जबकि कुछ का मानना है कि गुप्तों की उत्पत्ति ब्राह्मणों से हुई है। इस संबंध में विभिन्न् विचारकों के विचार निम्नलिखित हैं।

गुप्तों की उत्पत्ति
जाति इतिहासकार
1- शूद्र तथा निम्न जाति से उत्पत्ति काशी प्रसाद जायसवाल
2- वैश्य एलन, एस.के. आयंगर, अनन्द सदाशिव अल्टेकर, रोमिला थापर, रामशरण शर्मा
3- क्षत्रिय सुधारक चट्टोपाध्याय, आर.सी.मजूमदार, गौरी शंकर हीरा चन्द्र ओझा
4- ब्राह्मण डॉ राय चौधरी, डॉ रामगोपाल गोयल आदि

गुप्तकालीन प्रशासन

गुप्त सम्राटों के समय में गणतंत्रीय राजव्यवस्था का ह्मस हुआ। गुप्त प्रशासन राजतंत्रात्मक व्यवस्था पर आधारित था। देवत्व का सिद्वान्त गुप्तकालीन शासकों में प्रचलित था। राजपद वंशानुगत सिद्धान्त पर आधारित था। राजा अपने बड़े पुत्र को युवराज घोषित करता था। उसने उत्कर्ष के समय में गुप्त साम्राज्य उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में विंघ्यपर्वत तक एवं पूर्व में बंगाल की खाड़ी से लेकर पश्चिम में सौराष्ट्र तक फैला हुआ था।

राजस्व के स्रोत

गुप्तकाल में राजकीय आय के प्रमुख स्रोत 'कर' थे, जो निम्नलिखित हैं-

  • भाग- राजा को भूमि के उत्पादन से प्राप्त होने वाला छठां हिस्सा।
  • भोग- सम्भवतः राजा को हर दिन फल-फूल एवं सब्जियों के रूप में दिया जाने वाला कर।
  • प्रणयकर- गुप्तकाल में ग्रामवासियों पर लगाया गया अनिवार्य या स्वेच्छा चन्दा था। भूमिकर भोग का उल्लेख मनुस्मृति में हुआ है। इसी प्रकार भेंट नामक कर का उल्लेख हर्षचरित में आया है।

व्यापार एवं वाणिज्य

गुप्त काल में व्यापार एवं वाणिज्य अपने उत्कर्ष पर था। उज्जैन, भड़ौच, प्रतिष्ष्ठान, विदिशा, प्रयाग, पाटिलिपुत्र, वैशाली, ताम्रलिपि, मथुरा, अहिच्छत्र, कौशाम्बी आदि महत्वपूर्ण व्यापारिक नगर है। इन सब में उज्जैन सर्वाधिक महत्वपूर्ण व्यापारिक स्थल था क्योंकि देश के हर कोने से मार्ग उज्जैन की ओर आते थे। स्वर्ण मुदाओं की अधिकता के कारण ही संभवतः गुप्तकालीन व्यापार विकास कर सका।

गुप्त राजाओं ने ही सर्वाधिक स्वर्ण मुद्राओं जारी की, इनकी स्वर्णमुद्राओ को अभिलेखों मे ‘दीनार‘ कहा गया है। इनकी स्वर्ण मुद्राओं में स्वर्ण की मात्रा कुषाणें की स्वर्ण मुद्राओं की तुलना में कम थी। गुप्त राजाओं ने गुजरात को विजित करने के उपरान्त चांदी के सिक्के चलाए। यह विजय सम्भवतः चन्द्रगुप्त द्वितीय द्वारा शकों के विरुद्ध दर्ज की गई थी। तांबे के सिक्कों का प्रचलन गुप्तकाल में कम था। कुषाण काल के विपरीत गुप्त काल में आन्तरिक व्यापार में ह्मास के लक्षण दिखते हैं। ह्मस के कारणों में गुप्तकाली मौद्रिकनीति की असफलता भी एक महत्वपूर्ण कारण थी क्योंकि गुप्तों के पास ऐसी कोई सामान्य मुद्रा नहीं थी जो उनके जीवन का अभिन्न अंग बन सकती थी।

फाह्मन ने लिखा है कि गुप्त काल में साधारण जनता दैनिक जीवन के विनिमय में वस्तुओं के आदान प्रदान या फिर कौड़ियों से काम चलाती थी। आन्तरिक व्यापार की ही तरह गुप्तकाल मंे विदेशी व्यापार भी पतन की ओर अग्रसर था क्योंकि तीसरी शताब्दी ई. में बाद रोम साम्राज्य निरन्तरण हूणों के आक्रमण को झेलते हुए काफी कमजोर हो गया था। वह अब इस स्थिति में नही था कि अपने विदेशी व्यापार को पहले जैसी स्थिति में बनाये रखे, दूसरे रोम जनता ने लगभग छठी शताब्दी के मध्य चीनियों से रेशम उत्पादन की तकनीक सीख ली थी। चूकिं रेशम व्यापार ही भारत और रागेम के मध्य महत्वपूर्ण व्यापार का आधार था, इसलिए भारत का विदेशी व्यापार अधिक प्रभावित हुआ।

रोम साम्राज्य के पतन के बाद भारतीय रेशम की मांग विदेशों में कम हो गई जिसके परिणाम स्वरूप 5 वी शताब्दी के मध्य बुनकरों की एक श्रेणी जो, लाट प्रदेश में निवास करती थी, मंदसौर में जाकर बस गयी।

पूर्व में भारत का व्यापार चीन से हो रहा था। इन दोनों के मध्य मध्यस्थ की भूमि सिंहलद्वीप (श्रीलंका) निभाता था। चीन और भारत के मध्य होने वाला व्यपार सम्भवतः वस्तु विनिमय प्रणाली पर आधारित था जिसकी पुष्टि के लिए यह कहना पर्याप्त है कि न तो चीन के सिक्के भारत में मिले हैं, और न ही भारत के सिक्के चीन में। भारत-चीन को रत्न, केसर, सुगन्धित पदार्थ, सिले-सिलायें सुन्दर वस्त्र आदि निर्यात करता था।

पूर्वी तट पर स्थित बंदरगाह ताम्रलिप्ति, घंटाशाला एवं कदूरा से शायद गुप्त शासक दक्षिण-पूर्व एशिया से व्यापार करते थे। पश्चिमी तट पर स्थित भड़ौच (ब्रोच), कैम्बे, सोपारा, कल्याण आदि बन्दरगाहों से भूमध्य सागर एवं पश्चिम एशिया के साथ व्यापार सम्पन्न होता था। इस समय भारत में चीनसे रेशम (चीनांशुक), इथोपिया से हाथी दांत, अरब, ईरान एवं बैक्ट्रिया से घोड़ों आदि का आयात होता था। भारतीय जलयान निर्वाध रूप से अरब सागर, हिन्द महासागर उद्योगों में से था। रेशमी वस्त्र मलमल, कैलिकों, लिनन, ऊनी एवं सूती था। गुप्त काल के अन्तिम चरण में पाटलिपुत्र, मथुरा, कुम्रहार, सोनपुर, सोहगौरा एवं गंगाघाटी के कुछ नगरों का ह्मस हुआ।


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