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*तराइन के युद्ध के बाद मुइज्जुद्दीन ग़ज़नी लौट गया और [[भारत]] के विजित क्षेत्रों का शासन अपने विश्वनीय ग़ुलाम 'क़ुतुबुद्दीन ऐबक' के हाथों में छोड़ दिया।
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'''कुतुबुद्दीन ऐबक''' (1206-1210 ई.) एक तुर्क जनजाति का व्यक्ति था। ऐबक एक तुर्की शब्द है, जिसका अर्थ होता है- “चन्द्रमा का देवता”। कुतुबुद्दीन का जन्म तुर्किस्तान में हुआ था। बचपन में ही वह अपने परिवार से बिछुड़ गया और उसे एक व्यापारी द्वारा निशापुर के बाज़ार में ले जाया गया, जहाँ 'क़ाज़ी फ़खरुद्दीन अजीज़ कूफ़ी' (जो इमाम अबू हनीफ़ के वंशज थे) ने उसे ख़रीद लिया। क़ाज़ी ने अपने पुत्र की भाँति ऐबक की परवरिश की तथा उसके लिए धनुर्विद्या और घुड़सवारी की सुविधाएँ उपलब्ध कराईं। कुतुबुद्दीन ऐबक बाल्याकाल से ही प्रतिभा का धनी था। उसने शीघ्र ही सभी कलाओं में कुशलता प्राप्त कर ली। उसने अत्यन्त सुरीले स्वर में क़ुरान पढ़ना सीख लिया, इसलिए वह 'क़ुरान ख़ाँ' (क़ुरान का पाठ करने वाला) के नाम से प्रसिद्ध हो गया। कुछ समय बाद क़ाज़ी की भी मृत्यु हो गयी। उसके पुत्रों ने उसे एक व्यापारी के हाथों बेच दिया, जो उसे ग़ज़नी ले गया, जहाँ उसे [[मुहम्मद ग़ोरी]] ने ख़रीद लिया और यहीं से उसकी जीवनचर्चा का एक नया अध्याय आरम्भ हुआ, जिसने अन्त में उसे [[दिल्ली]] के सिंहासन पर बैठाया।
*पृथ्वीराज के पुत्र को [[रणथम्भौर]] सौंप दिया गया जो तेरहवीं शताब्दी में शक्तिशाली चौहानों की राजधानी बना। अगले दो वर्षों में ऐबक ने, ऊपरी दोआब में [[मेरठ]], बरन तथा कोइल (आधुनिक [[अलीगढ़]]) पर क़ब्ज़ा किया।  
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*इस क्षेत्र के शक्तिशाली डोर-राजपूतों ने ऐबक का मुक़ाबला किया, लेकिन आश्चर्य की बात है कि गहदवालों को तुर्की आक्रमण से सबसे अधिक नुक़सान का ख़तरा था और उन्होंने न तो डोर-राजपूतों की कोई सहायता की और न ही तुर्कों को इस क्षेत्र से बाहर निकालने का कोई प्रयास ही किया।
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==बुद्धिमान और स्वामीभक्त==
*दोआब को अपना आधार बनाकर तुर्कों ने आसपास के क्षेत्रों पर आक्रमण आरम्भ कर दिया। ऐबक ने [[गुजरात]] तथा अनहिलवाड़ा के शासक भीम द्वितीय को पराजित किया और कई नगरों में लूटपाट मचाई। यहाँ यद्यपि एक मुसलमान शासक को नियुक्त किया गया था पर उसे शीघ्र ही गद्दी से उतार दिया गया। इससे पता चलता है कि तुर्क इतने दूर दराज क्षेत्रों में शासन करने के लायक शक्ति नहीं बने थे।
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'''अपनी ईमानदारी, बुद्धिमानी और स्वामीभक्ति''' के बल पर कुतुबुद्दीन ने मुहम्मद ग़ोरी का विश्वास प्राप्त कर लिया। ग़ोरी ने उसके समस्त प्रशंसनीय गुणों से प्रभावित होकर उसे 'अमीर-ए-आखूर' (अस्तबलों का प्रधान) नियुक्त किया, जो उस समय एक महत्वपूर्ण पद था। इस पद पर रहते हुए ऐबक ने गोर, बामियान और ग़ज़नी के युद्धों में सुल्तान की सेवा की। 1192 ई. में ऐबक ने [[तराइन का युद्ध|तराइन के युद्ध]] में कुशलतापूर्वक भाग लिया। तराइन के द्वितीय युद्ध के बाद मुहम्मद ग़ोरी ने ऐबक को [[भारत]] के प्रदेशों का सूबेदार नियुक्त कर दिया। ग़ोरी के वापस जाने के बाद ऐबक ने [[अजमेर]], [[मेरठ]] आदि स्थानों के विद्रोहों को दबाया। 1194 में मुहम्मद ग़ोरी और [[कन्नौज]] के शासक [[जयचन्द्र]] के बीच हुए युद्ध में ऐबक ने अपने स्वामी की ओर से महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1197 ई. में ऐबक ने [[गुजरात]] की राजधानी [[अन्हिलवाड़]] को लूटा तथा वहाँ के शासक भीमदेव को दण्डित किया। 1202 ई. में उसने [[बुन्देलखण्ड]] के राजा परमार्दिदेव को परास्त किया तथा [[कालिंजर]], [[महोबा]] और [[खजुराहो]] पर अधिकार कर लिया। 1205 ई. उसने खोक्खर के विरुद्ध मुहम्मद ग़ोरी का हाथ बँटाया। इस प्रकार ऐबक ने मुहम्मद ग़ोरी की सैनिक योजनाओं को एक मूर्तरूप दिया। इसलिए भारतीय तुर्क अधिकारियों ने उसे अपना प्रधान स्वीकार किया।
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==दास जीवन से मुक्ति==
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'''मुहम्मद ग़ोरी की मुत्यु के बाद''' चूंकि उसका कोई पुत्र नहीं था, इसलिए [[लाहौर]] की जनता ने [[मुहम्मद ग़ोरी]] के प्रतिनिधि कुतुबुद्दीन ऐबक को लाहौर पर शासन करने का निमंत्रण दिया। ऐबक ने लाहौर पहुँच कर जून, 1206 ई में अपना राज्याभिषेक करवाया। सिहांसनारूढ़ होने के समय ऐबक ने अपने को ‘मलिक एवं सिपहसालार’ की पदवी से संतुष्ठ रखा। उसने अपने नाम से न तो कोई सिक्का जारी करवाया और न कभी 'खुतबा' (उपदेश या प्रशंसात्मक रचना) पढ़वाया। कुछ समय बाद मुहम्मद ग़ोरी के उत्तराधिकारी [[गयासुद्दीन बलबन]] ने ऐबक को सुल्तान स्वीकार कर लिया। ऐबक को 1208 ई. में दासता से मुक्ति मिल गई।
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==शासक का पद==
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'''सिंहासन पर बैठने के समय ऐबक को''' मुहम्मद ग़ोरी के अन्य उत्तराधिकारी 'गयासुद्दीन मुहम्मद', 'ताजुद्दीन एल्दौज' एवं 'नासिरुद्दीन कुबाचा' के विद्रोह का सामना करना पड़ा। इन विद्रोहियों को शांत करने के लिए ऐबक ने वैवाहिक सम्बन्धों को आधार बनाया। उसने ताजुद्दीन एल्दौज (ग़ज़नी का शासक) की पुत्री से अपना विवाह, नासिरुद्दीन कुबाचा (मुल्तान एवं [[सिंध]] का शासक ) से अपनी बहन का विवाह तथा [[इल्तुतमिश]] से अपनी पुत्री का विवाह किया। इन वैवाहिक सम्बन्धों के कारण एल्दौज तथा कुबाचा की ओर से विद्रोह का ख़तरा कम हो गया। कालान्तर में ग़ोरी के उत्तराधिकारी गयासुद्दीन ने ऐबक को सुल्तान के रूप में स्वीकार करते हुए 1208 ई. में सिंहासन, छत्र, राजकीय पताका एवं नक्कारा भेंट किया। इस तरह ऐबक एक स्वतन्त्र शासक के रूप में तुर्की राज्य का संस्थापक बना।
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==शासन काल विभाजन==
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'''कुतुबुद्दीन ऐबक के शासन काल को''' तीन भागों में बांटा जा सकता है-
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*1191 से 1206 ई. की अवधि को सैनिक गतिधियों की अवधि कहा जा सकता है। इस समय ऐबक ने उत्तरी [[भारत]] में ग़ोरी द्वारा विजित प्रदेशों पर शासन किया।
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*1206 से 1208 ई. तक की अवधि, जिसे उसके राजनीतिक कार्यों की अवधि माना जा सकता है, में ऐबक ने ग़ोरी के भारतीय सल्तनत में मलिक एवं सिपाहसलार, की हैसियत से कार्य किया।
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*1208 से 1210 ई. की अवधि में उसका अधिकांश समय ‘[[दिल्ली सल्तनत]]’ की रूपरेखा बनाने में बीता।
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'''ऐबक ने ग़ोरी की मुत्यु के बाद स्वतंत्र हुए''' [[बदायूं]] को पुनः जीता और [[इल्तुतमिश]] को वहाँ का प्रशासक नियुक्त किया। ऐबक अपनी असामयिक मृत्यु के कारण [[कालिंजर]] और [[ग्वालियर]] को पुनः अपने अधिकार में नहीं ला सका। इस समय उसने स्वतन्त्र भारतीय प्रदेश पर स्वतन्त्र शासक के रूप में शासन किया।
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==दानशील व्यक्ति==
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'''ऐबक को अपनी उदारता एवं दानी प्रवृति''' के कारण ‘लालबख्श’ (लाखों का दानी) कहा गया है। इतिहासकार 'मिनहाज' ने उसकी दानशीलता के कारण ही उसे 'हातिम द्वितीय' की संज्ञा दी हैं। [[फ़रिश्ता (यात्री)]] के अनुसार उस समय केवल किसी दानशील व्यक्ति को ही ऐबक की उपाधि दी जाती थी। बचपन में ही ऐबक ने क़ुरान के अध्यायों को कंठस्थ कर लिया था और अत्यन्त सुरीले स्वर में इसका उच्चारण करता था इस कारण ऐबक को 'क़ुरान ख़ाँ' कहा जाता था। [[साहित्य]] एवं स्थापत्य कला में भी ऐबक की दिलचस्पी थी। उसके दरबार में विद्वान हसन निज़ामी एवं फ़ख्र-ए-मुदब्बिर को संरक्षण प्राप्त था। हसन निज़ामी ने 'ताज-उल-मासिर' की रचना की थी।
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==निर्माण कार्य==
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फ़ख्र-ए-ऐबक ने [[दिल्ली]] में 'कुव्वत-उल-इस्लाम' ([[विष्णु]] मन्दिर के स्थान) पर तथा [[अजमेर]] में 'ढाई दिन का झोपड़ा' ([[संस्कृत]] विद्यालय के स्थान पर) नाम मस्जिदों का निर्माण करवाया। [[कुतुबमीनार]], जिसे ‘शेख ख्वाजा कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी’ की स्मृति में बनाया गया है, के निर्माण कार्य को प्रारम्भ करवाने का श्रेय कुतुबुद्दीन ऐबक को जाता है। एक मान्यता के अनुसार कहा जाता है कि, ऐबक के शासकाल में बकरी और शेर एक ही घाट पर पानी पीते थे।
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'''अपने शासन के 4 वर्ष बाद 1210 ई. में''' [[लाहौर]] में चौगान (पोलो) खेलते समय घोड़े से गिरने के कारण ऐबक की मृत्यु हो गई। कुतुबुद्दीन ऐबक का मक़बरा लाहौर में है।
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11:24, 21 फ़रवरी 2011 का अवतरण

कुतुबुद्दीन ऐबक (1206-1210 ई.) एक तुर्क जनजाति का व्यक्ति था। ऐबक एक तुर्की शब्द है, जिसका अर्थ होता है- “चन्द्रमा का देवता”। कुतुबुद्दीन का जन्म तुर्किस्तान में हुआ था। बचपन में ही वह अपने परिवार से बिछुड़ गया और उसे एक व्यापारी द्वारा निशापुर के बाज़ार में ले जाया गया, जहाँ 'क़ाज़ी फ़खरुद्दीन अजीज़ कूफ़ी' (जो इमाम अबू हनीफ़ के वंशज थे) ने उसे ख़रीद लिया। क़ाज़ी ने अपने पुत्र की भाँति ऐबक की परवरिश की तथा उसके लिए धनुर्विद्या और घुड़सवारी की सुविधाएँ उपलब्ध कराईं। कुतुबुद्दीन ऐबक बाल्याकाल से ही प्रतिभा का धनी था। उसने शीघ्र ही सभी कलाओं में कुशलता प्राप्त कर ली। उसने अत्यन्त सुरीले स्वर में क़ुरान पढ़ना सीख लिया, इसलिए वह 'क़ुरान ख़ाँ' (क़ुरान का पाठ करने वाला) के नाम से प्रसिद्ध हो गया। कुछ समय बाद क़ाज़ी की भी मृत्यु हो गयी। उसके पुत्रों ने उसे एक व्यापारी के हाथों बेच दिया, जो उसे ग़ज़नी ले गया, जहाँ उसे मुहम्मद ग़ोरी ने ख़रीद लिया और यहीं से उसकी जीवनचर्चा का एक नया अध्याय आरम्भ हुआ, जिसने अन्त में उसे दिल्ली के सिंहासन पर बैठाया।

बुद्धिमान और स्वामीभक्त

अपनी ईमानदारी, बुद्धिमानी और स्वामीभक्ति के बल पर कुतुबुद्दीन ने मुहम्मद ग़ोरी का विश्वास प्राप्त कर लिया। ग़ोरी ने उसके समस्त प्रशंसनीय गुणों से प्रभावित होकर उसे 'अमीर-ए-आखूर' (अस्तबलों का प्रधान) नियुक्त किया, जो उस समय एक महत्वपूर्ण पद था। इस पद पर रहते हुए ऐबक ने गोर, बामियान और ग़ज़नी के युद्धों में सुल्तान की सेवा की। 1192 ई. में ऐबक ने तराइन के युद्ध में कुशलतापूर्वक भाग लिया। तराइन के द्वितीय युद्ध के बाद मुहम्मद ग़ोरी ने ऐबक को भारत के प्रदेशों का सूबेदार नियुक्त कर दिया। ग़ोरी के वापस जाने के बाद ऐबक ने अजमेर, मेरठ आदि स्थानों के विद्रोहों को दबाया। 1194 में मुहम्मद ग़ोरी और कन्नौज के शासक जयचन्द्र के बीच हुए युद्ध में ऐबक ने अपने स्वामी की ओर से महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1197 ई. में ऐबक ने गुजरात की राजधानी अन्हिलवाड़ को लूटा तथा वहाँ के शासक भीमदेव को दण्डित किया। 1202 ई. में उसने बुन्देलखण्ड के राजा परमार्दिदेव को परास्त किया तथा कालिंजर, महोबा और खजुराहो पर अधिकार कर लिया। 1205 ई. उसने खोक्खर के विरुद्ध मुहम्मद ग़ोरी का हाथ बँटाया। इस प्रकार ऐबक ने मुहम्मद ग़ोरी की सैनिक योजनाओं को एक मूर्तरूप दिया। इसलिए भारतीय तुर्क अधिकारियों ने उसे अपना प्रधान स्वीकार किया।

दास जीवन से मुक्ति

मुहम्मद ग़ोरी की मुत्यु के बाद चूंकि उसका कोई पुत्र नहीं था, इसलिए लाहौर की जनता ने मुहम्मद ग़ोरी के प्रतिनिधि कुतुबुद्दीन ऐबक को लाहौर पर शासन करने का निमंत्रण दिया। ऐबक ने लाहौर पहुँच कर जून, 1206 ई में अपना राज्याभिषेक करवाया। सिहांसनारूढ़ होने के समय ऐबक ने अपने को ‘मलिक एवं सिपहसालार’ की पदवी से संतुष्ठ रखा। उसने अपने नाम से न तो कोई सिक्का जारी करवाया और न कभी 'खुतबा' (उपदेश या प्रशंसात्मक रचना) पढ़वाया। कुछ समय बाद मुहम्मद ग़ोरी के उत्तराधिकारी गयासुद्दीन बलबन ने ऐबक को सुल्तान स्वीकार कर लिया। ऐबक को 1208 ई. में दासता से मुक्ति मिल गई।

शासक का पद

सिंहासन पर बैठने के समय ऐबक को मुहम्मद ग़ोरी के अन्य उत्तराधिकारी 'गयासुद्दीन मुहम्मद', 'ताजुद्दीन एल्दौज' एवं 'नासिरुद्दीन कुबाचा' के विद्रोह का सामना करना पड़ा। इन विद्रोहियों को शांत करने के लिए ऐबक ने वैवाहिक सम्बन्धों को आधार बनाया। उसने ताजुद्दीन एल्दौज (ग़ज़नी का शासक) की पुत्री से अपना विवाह, नासिरुद्दीन कुबाचा (मुल्तान एवं सिंध का शासक ) से अपनी बहन का विवाह तथा इल्तुतमिश से अपनी पुत्री का विवाह किया। इन वैवाहिक सम्बन्धों के कारण एल्दौज तथा कुबाचा की ओर से विद्रोह का ख़तरा कम हो गया। कालान्तर में ग़ोरी के उत्तराधिकारी गयासुद्दीन ने ऐबक को सुल्तान के रूप में स्वीकार करते हुए 1208 ई. में सिंहासन, छत्र, राजकीय पताका एवं नक्कारा भेंट किया। इस तरह ऐबक एक स्वतन्त्र शासक के रूप में तुर्की राज्य का संस्थापक बना।

शासन काल विभाजन

कुतुबुद्दीन ऐबक के शासन काल को तीन भागों में बांटा जा सकता है-

  • 1191 से 1206 ई. की अवधि को सैनिक गतिधियों की अवधि कहा जा सकता है। इस समय ऐबक ने उत्तरी भारत में ग़ोरी द्वारा विजित प्रदेशों पर शासन किया।
  • 1206 से 1208 ई. तक की अवधि, जिसे उसके राजनीतिक कार्यों की अवधि माना जा सकता है, में ऐबक ने ग़ोरी के भारतीय सल्तनत में मलिक एवं सिपाहसलार, की हैसियत से कार्य किया।
  • 1208 से 1210 ई. की अवधि में उसका अधिकांश समय ‘दिल्ली सल्तनत’ की रूपरेखा बनाने में बीता।

ऐबक ने ग़ोरी की मुत्यु के बाद स्वतंत्र हुए बदायूं को पुनः जीता और इल्तुतमिश को वहाँ का प्रशासक नियुक्त किया। ऐबक अपनी असामयिक मृत्यु के कारण कालिंजर और ग्वालियर को पुनः अपने अधिकार में नहीं ला सका। इस समय उसने स्वतन्त्र भारतीय प्रदेश पर स्वतन्त्र शासक के रूप में शासन किया।

दानशील व्यक्ति

ऐबक को अपनी उदारता एवं दानी प्रवृति के कारण ‘लालबख्श’ (लाखों का दानी) कहा गया है। इतिहासकार 'मिनहाज' ने उसकी दानशीलता के कारण ही उसे 'हातिम द्वितीय' की संज्ञा दी हैं। फ़रिश्ता (यात्री) के अनुसार उस समय केवल किसी दानशील व्यक्ति को ही ऐबक की उपाधि दी जाती थी। बचपन में ही ऐबक ने क़ुरान के अध्यायों को कंठस्थ कर लिया था और अत्यन्त सुरीले स्वर में इसका उच्चारण करता था इस कारण ऐबक को 'क़ुरान ख़ाँ' कहा जाता था। साहित्य एवं स्थापत्य कला में भी ऐबक की दिलचस्पी थी। उसके दरबार में विद्वान हसन निज़ामी एवं फ़ख्र-ए-मुदब्बिर को संरक्षण प्राप्त था। हसन निज़ामी ने 'ताज-उल-मासिर' की रचना की थी।

निर्माण कार्य

फ़ख्र-ए-ऐबक ने दिल्ली में 'कुव्वत-उल-इस्लाम' (विष्णु मन्दिर के स्थान) पर तथा अजमेर में 'ढाई दिन का झोपड़ा' (संस्कृत विद्यालय के स्थान पर) नाम मस्जिदों का निर्माण करवाया। कुतुबमीनार, जिसे ‘शेख ख्वाजा कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी’ की स्मृति में बनाया गया है, के निर्माण कार्य को प्रारम्भ करवाने का श्रेय कुतुबुद्दीन ऐबक को जाता है। एक मान्यता के अनुसार कहा जाता है कि, ऐबक के शासकाल में बकरी और शेर एक ही घाट पर पानी पीते थे।

मृत्यु

अपने शासन के 4 वर्ष बाद 1210 ई. में लाहौर में चौगान (पोलो) खेलते समय घोड़े से गिरने के कारण ऐबक की मृत्यु हो गई। कुतुबुद्दीन ऐबक का मक़बरा लाहौर में है।


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