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आचार्य गुणधर कृत 'कसाय-पाहुड' एवं आचार्य पुष्पदन्त एवं भूतबलि कृत 'षट्खण्डागम' –ये दो जैनधर्म के ऐसे विशाल एवं अमूल्य-सिद्धान्त ग्रन्थ हैं, जिनका सीधा सम्बन्ध तीर्थंकर [[महावीर]] स्वामी की द्वादशांग वाणी से माना जाता है। दिगम्बर जैन परम्परा के अनुसार शेष श्रुतज्ञान इससे पूर्व ही क्रमश: लुप्त व छिन्न-भिन्न हो गया था।<balloon title="गो0 क0 प्रस्ता0 पृ0 3 (ज्ञानपीठ) " style=color:blue>*</balloon> द्वादशांग के अंतिम अंग दृष्टिवाद के अन्तर्गत परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत और चूलिका ये 5 प्रभेद हैं। इनमें पूर्वगत नामक चतुर्थ प्रभेद के पुन: 14 भेद हैं। उनमें से द्वितीय भेद अग्रायणीय पूर्व<balloon title="धवल 6/6, धवल 13/206" style=color:blue>*</balloon> से षट्खण्डागम का उद्भव हुआ है। इस शौरसेनी प्राकृत-भाषाबद्ध कर्मग्रन्थ की टीका का नाम धवला है। यह धवला टीका [[संस्कृत]] मिश्रित शौरसेनी प्राकृत भाषाबद्ध है।  
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आचार्य गुणधर कृत 'कसाय-पाहुड' एवं आचार्य पुष्पदन्त एवं भूतबलि कृत 'षट्खण्डागम' –ये दो जैनधर्म के ऐसे विशाल एवं अमूल्य-सिद्धान्त ग्रन्थ हैं, जिनका सीधा सम्बन्ध तीर्थंकर [[महावीर]] स्वामी की द्वादशांग वाणी से माना जाता है। दिगम्बर जैन परम्परा के अनुसार शेष श्रुतज्ञान इससे पूर्व ही क्रमश: लुप्त व छिन्न-भिन्न हो गया था।<ref>गो0 क0 प्रस्ता0 पृ0 3 (ज्ञानपीठ) </ref> द्वादशांग के अंतिम अंग दृष्टिवाद के अन्तर्गत परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत और चूलिका ये 5 प्रभेद हैं। इनमें पूर्वगत नामक चतुर्थ प्रभेद के पुन: 14 भेद हैं। उनमें से द्वितीय भेद अग्रायणीय पूर्व<ref>धवल 6/6, धवल 13/206</ref> से षट्खण्डागम का उद्भव हुआ है। इस शौरसेनी प्राकृत-भाषाबद्ध कर्मग्रन्थ की टीका का नाम धवला है। यह धवला टीका [[संस्कृत]] मिश्रित शौरसेनी प्राकृत भाषाबद्ध है।  
 
*सम्प्रति दिगम्बर जैन परम्परा के कर्मग्रन्थों में धवलत्रय अर्थात 'धवल, जयधवल तथा महाधवल' का नाम सर्वोपरि है, जिनका सम्मिलित प्रमाण 72000+60,000+30,000=162,000 श्लोक प्रमाण हैं। इनका प्रकाशन हिन्दी अनुवाद सहित कुल 16+16+7=39 पुस्तकों में, जिनके कुल पृष्ठ 16,341 हैं, हुआ है। इस सानुवाद 16,341 पृष्ठ प्रमाण परमागम में जैन धर्म सम्मत विशाल व मौलिक कर्मसिद्धान्त का विवेचन है। इनमें सर्वप्रथम आचार्य पुष्पदन्त एवं भूतबलि कृत षट्खण्डागम पर लिखित विशाल टीका धवला का यहाँ परिचय प्रस्तुत है।  
 
*सम्प्रति दिगम्बर जैन परम्परा के कर्मग्रन्थों में धवलत्रय अर्थात 'धवल, जयधवल तथा महाधवल' का नाम सर्वोपरि है, जिनका सम्मिलित प्रमाण 72000+60,000+30,000=162,000 श्लोक प्रमाण हैं। इनका प्रकाशन हिन्दी अनुवाद सहित कुल 16+16+7=39 पुस्तकों में, जिनके कुल पृष्ठ 16,341 हैं, हुआ है। इस सानुवाद 16,341 पृष्ठ प्रमाण परमागम में जैन धर्म सम्मत विशाल व मौलिक कर्मसिद्धान्त का विवेचन है। इनमें सर्वप्रथम आचार्य पुष्पदन्त एवं भूतबलि कृत षट्खण्डागम पर लिखित विशाल टीका धवला का यहाँ परिचय प्रस्तुत है।  
धवला टीका शक सं0 738 कार्तिक शुक्ला 13, ता0 8-10-816 ई॰ बुधवार को पूर्ण हुई थी। इसका प्रमाण 60,000 श्लोक है। यह 16 भागों में तदनुसार 7067 पृष्ठों में 20 वर्षों की दीर्घ अवधि (सन् 1938 से 1958) में प्रकाशित हुई हैं<balloon title="धवल 6/10, धवल 13/255-56।" style=color:blue>*</balloon>।
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धवला टीका शक सं0 738 कार्तिक शुक्ला 13, ता0 8-10-816 ई॰ बुधवार को पूर्ण हुई थी। इसका प्रमाण 60,000 श्लोक है। यह 16 भागों में तदनुसार 7067 पृष्ठों में 20 वर्षों की दीर्घ अवधि (सन् 1938 से 1958) में प्रकाशित हुई हैं<ref>धवल 6/10, धवल 13/255-56।</ref>।
*इसके लेखक आचार्य वीरसेन स्वामी हैं। इनका जीवनकाल शक-संवत् 665 से 745 है<balloon title="धवल पु0 6, पृष्ठ 10, धवल 13, पृ0 357-68, धवल पु0 15, पृ0 6" style=color:blue>*</balloon>। आपके गुरु ऐलाचार्य हैं। अथवा मतान्तर से आर्यनन्दि हैं। ये सिद्धान्त, छन्द, ज्योतिष, व्याकरण और न्याय आदि शास्त्रों में पारंगत मनीषी थे। *आचार्य जिनसेन के शब्दों में 'वीरसेन साक्षात केवली के समान सकल विश्व के पारदर्शी थे। उनकी सर्वार्थगामिनी नैसर्गिक प्रज्ञा को देखकर सर्वज्ञ की सत्ता में किसी मनीषी को शंका नहीं रही थी। विद्वान लोग उनके ज्ञान-किरणों के प्रसाद को देखकर उन्हें प्रज्ञाश्रमणों में श्रेष्ठ आचार्य और श्रुतकेवली कहते थे। वे वृन्दारक, लोक-विज्ञ, वाचस्पतिवत् वाग्मी, सिद्धान्तोपनिबन्धकर्ता, उनकी धवला टीका भुवन-व्यापिनी है। वे शब्दब्रह्म गणधरमुनि, विश्वनिधि के द्रष्टा, सूक्ष्म वस्तु को जानने में साक्षात् सर्वज्ञ थे।<balloon title="धवल पु0 6, पृ0 11, धवल 14, पृ0 359-60" style=color:blue>*</balloon>' इनके द्वारा रचित धवला टीका की भाषा प्राकृत-संस्कृत मिश्रित है। उदाहरणार्थ प्रथम पुस्तक में टीका का लगभग तृतीय भाग [[प्राकृत]] में है और शेष बहुभाग संस्कृत में है। इसमें उद्धृत पद्यों की संख्या 221 में से 17 संस्कृत में तथा शेष प्राकृत में है। एवमेव आगे के भाग में भी जानना चाहिए। इस प्रकार संस्कृत-प्राकृत इन दोनों भाषाओं के मिश्रण से मणि-प्रवालन्यायानुसार यह रची गई हैं<balloon title="धवल पु0 6, पृ0 12, धवल 13, पृ0 362" style=color:blue>*</balloon>। इसकी प्राकृत भाषा शोरसैनी है, जिसमें कुन्दकुन्दादि आचार्यों के ग्रन्थ पाये जाते हैं। ग्रन्थ की प्राकृत अत्यन्त परिमार्जित और प्रौढ़ है। संस्कृत भाषा भी अत्यन्त प्रौढ़, प्रात्र्जल तथा न्यायशास्त्रों जैसी होकर भी कर्म-सिद्धान्त प्ररूपक है।  
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*इसके लेखक आचार्य वीरसेन स्वामी हैं। इनका जीवनकाल शक-संवत् 665 से 745 है<ref>धवल पु0 6, पृष्ठ 10, धवल 13, पृ0 357-68, धवल पु0 15, पृ0 6</ref>। आपके गुरु ऐलाचार्य हैं। अथवा मतान्तर से आर्यनन्दि हैं। ये सिद्धान्त, छन्द, ज्योतिष, व्याकरण और न्याय आदि शास्त्रों में पारंगत मनीषी थे। *आचार्य जिनसेन के शब्दों में 'वीरसेन साक्षात केवली के समान सकल विश्व के पारदर्शी थे। उनकी सर्वार्थगामिनी नैसर्गिक प्रज्ञा को देखकर सर्वज्ञ की सत्ता में किसी मनीषी को शंका नहीं रही थी। विद्वान लोग उनके ज्ञान-किरणों के प्रसाद को देखकर उन्हें प्रज्ञाश्रमणों में श्रेष्ठ आचार्य और श्रुतकेवली कहते थे। वे वृन्दारक, लोक-विज्ञ, वाचस्पतिवत् वाग्मी, सिद्धान्तोपनिबन्धकर्ता, उनकी धवला टीका भुवन-व्यापिनी है। वे शब्दब्रह्म गणधरमुनि, विश्वनिधि के द्रष्टा, सूक्ष्म वस्तु को जानने में साक्षात् सर्वज्ञ थे।<ref>धवल पु0 6, पृ0 11, धवल 14, पृ0 359-60</ref>' इनके द्वारा रचित धवला टीका की भाषा प्राकृत-संस्कृत मिश्रित है। उदाहरणार्थ प्रथम पुस्तक में टीका का लगभग तृतीय भाग [[प्राकृत]] में है और शेष बहुभाग संस्कृत में है। इसमें उद्धृत पद्यों की संख्या 221 में से 17 संस्कृत में तथा शेष प्राकृत में है। एवमेव आगे के भाग में भी जानना चाहिए। इस प्रकार संस्कृत-प्राकृत इन दोनों भाषाओं के मिश्रण से मणि-प्रवालन्यायानुसार यह रची गई हैं<ref>धवल पु0 6, पृ0 12, धवल 13, पृ0 362</ref>। इसकी प्राकृत भाषा शोरसैनी है, जिसमें कुन्दकुन्दादि आचार्यों के ग्रन्थ पाये जाते हैं। ग्रन्थ की प्राकृत अत्यन्त परिमार्जित और प्रौढ़ है। संस्कृत भाषा भी अत्यन्त प्रौढ़, प्रात्र्जल तथा न्यायशास्त्रों जैसी होकर भी कर्म-सिद्धान्त प्ररूपक है।  
 
*ग्रन्थ की शैली सर्वत्र शंका उठाकर उसके समाधान करने की रही हे। जैसे प्रथम पुस्तक में ही लगभग 600 शंका समाधान है। टीका में आचार्य वीरसेन सूत्र-विरुद्ध व्याख्यान नहीं करते, परस्पर विरुद्ध दो सूत्रों में समन्वयात्मक दृष्टिकोण अपनाते हुए दोनों के संग्रह का उपदेश देते हैं। कहीं विशेष आधारभूत सामग्री के सद्भाव में एक का ग्रहण तथा दूसरे का निषेध करने से भी नहीं चूके हैं। देशामर्शक सूत्रों का सुविस्तृत व्याख्यान करते हैं, किसी विवक्षित प्रकरण में प्रवाह्यमान-अप्रवाह्यमान उपदेश भी प्रदर्शित करते हैं। किन्दीं सूक्ष्म विषयों पर उपदेश के अभाव में प्रसंग-प्राप्त विषय की भी अप्ररूपणा करते हैं, तो कहीं उपदेश प्राप्त कर जान लेने की सम्प्रेरणा करते हैं। सर्वत्र विषय का विस्तार सहित न्याय आदि शैली से वर्णन इसमें उपलब्ध है। यह भारतीय वाङमय की अद्भुत कृति है।  
 
*ग्रन्थ की शैली सर्वत्र शंका उठाकर उसके समाधान करने की रही हे। जैसे प्रथम पुस्तक में ही लगभग 600 शंका समाधान है। टीका में आचार्य वीरसेन सूत्र-विरुद्ध व्याख्यान नहीं करते, परस्पर विरुद्ध दो सूत्रों में समन्वयात्मक दृष्टिकोण अपनाते हुए दोनों के संग्रह का उपदेश देते हैं। कहीं विशेष आधारभूत सामग्री के सद्भाव में एक का ग्रहण तथा दूसरे का निषेध करने से भी नहीं चूके हैं। देशामर्शक सूत्रों का सुविस्तृत व्याख्यान करते हैं, किसी विवक्षित प्रकरण में प्रवाह्यमान-अप्रवाह्यमान उपदेश भी प्रदर्शित करते हैं। किन्दीं सूक्ष्म विषयों पर उपदेश के अभाव में प्रसंग-प्राप्त विषय की भी अप्ररूपणा करते हैं, तो कहीं उपदेश प्राप्त कर जान लेने की सम्प्रेरणा करते हैं। सर्वत्र विषय का विस्तार सहित न्याय आदि शैली से वर्णन इसमें उपलब्ध है। यह भारतीय वाङमय की अद्भुत कृति है।  
  
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*जैनदर्शन में कर्म के दो प्रकार कहे हैं-  
 
*जैनदर्शन में कर्म के दो प्रकार कहे हैं-  
 
#एक द्रव्यकर्म,  
 
#एक द्रव्यकर्म,  
#दूसरा भावकर्म। यह कर्म एक संस्कार मात्र नहीं है, किन्तु एक वस्तुभूत पदार्थ है। जो रागी, द्वेषी जीव की क्रिया का निमित्त पाकर उसकी ओर आकृष्ट होता है और दूध व पानी की तरह वह जीव के साथ घुल-मिल जाता है। यह (द्रव्य कर्म) है तो भौतिक पदार्थ, किन्तु उसका कर्म नाम इसलिए रूढ़ हो गया कि वह जीव की मानसिक, वाचनिक और कायिक क्रिया से आकृष्ट होकर जीव के साथ बँध जाता है। जहाँ अन्य दर्शन राग और द्वेष से आविष्ट जीव की क्रिया को कर्म ओर इस कर्म के क्षणिक होने से तज्जन्य संस्कार को स्थायी मानते हैं वहाँ जैन दर्शन का मत है कि रागद्वेष से आविष्ट जीव की प्रत्येक क्रिया के द्वारा एक प्रकार का द्रव्य आत्मा के साथ आकृष्ट होता है और उसके जो रागद्वेषरूप परिणामों का निमित्त पाकर वह आत्मा के साथ बँध को प्राप्त हो जाता है। तथा कालान्तर में वही द्रव्य आत्मा को अच्छा या बुरा फल मिलने में हेतु होता है<balloon title="धवल पु0 6, पृ0 13, धवल 13, पृ0 362" style=color:blue>*</balloon>।
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#दूसरा भावकर्म। यह कर्म एक संस्कार मात्र नहीं है, किन्तु एक वस्तुभूत पदार्थ है। जो रागी, द्वेषी जीव की क्रिया का निमित्त पाकर उसकी ओर आकृष्ट होता है और दूध व पानी की तरह वह जीव के साथ घुल-मिल जाता है। यह (द्रव्य कर्म) है तो भौतिक पदार्थ, किन्तु उसका कर्म नाम इसलिए रूढ़ हो गया कि वह जीव की मानसिक, वाचनिक और कायिक क्रिया से आकृष्ट होकर जीव के साथ बँध जाता है। जहाँ अन्य दर्शन राग और द्वेष से आविष्ट जीव की क्रिया को कर्म ओर इस कर्म के क्षणिक होने से तज्जन्य संस्कार को स्थायी मानते हैं वहाँ जैन दर्शन का मत है कि रागद्वेष से आविष्ट जीव की प्रत्येक क्रिया के द्वारा एक प्रकार का द्रव्य आत्मा के साथ आकृष्ट होता है और उसके जो रागद्वेषरूप परिणामों का निमित्त पाकर वह आत्मा के साथ बँध को प्राप्त हो जाता है। तथा कालान्तर में वही द्रव्य आत्मा को अच्छा या बुरा फल मिलने में हेतु होता है<ref>धवल पु0 6, पृ0 13, धवल 13, पृ0 362</ref>।
 
*जीव के राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि रूप भाव (विकारी परिणाम) ही भावकर्म है। इनके निमित्त से उसी क्षण, नियत, सूक्ष्म (इन्द्रियों से आग्राह्य) पुद्गल परमाणु आत्मा के साथ संश्लेष को प्राप्त हो जाते हैं। यही संश्लेष को प्राप्त होने वाले परमाणु द्रव्यकर्म कहलाते हैं। ये शुभभावों के समय आत्मा के साथ बँधकर पुन: नियत काल तक टिक कर पृथक् होते समय आत्मा को शुभ फल देते हैं। तथा यिद ये ही कर्म अशुभ भावों के द्वारा बँधते हैं तो कालान्तर में पृथक् होते समय अशुभ फल देकर पृथक् होते हैं। प्रति समय अनन्त कर्म परमाणु बँधते हैं तथा अनन्त ही खिरते हैं।  
 
*जीव के राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि रूप भाव (विकारी परिणाम) ही भावकर्म है। इनके निमित्त से उसी क्षण, नियत, सूक्ष्म (इन्द्रियों से आग्राह्य) पुद्गल परमाणु आत्मा के साथ संश्लेष को प्राप्त हो जाते हैं। यही संश्लेष को प्राप्त होने वाले परमाणु द्रव्यकर्म कहलाते हैं। ये शुभभावों के समय आत्मा के साथ बँधकर पुन: नियत काल तक टिक कर पृथक् होते समय आत्मा को शुभ फल देते हैं। तथा यिद ये ही कर्म अशुभ भावों के द्वारा बँधते हैं तो कालान्तर में पृथक् होते समय अशुभ फल देकर पृथक् होते हैं। प्रति समय अनन्त कर्म परमाणु बँधते हैं तथा अनन्त ही खिरते हैं।  
 
*द्रव्यकर्म के मूल आठ भेद हैं-  
 
*द्रव्यकर्म के मूल आठ भेद हैं-  
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#जो नाना प्रकार की रचना निष्पन्न करता है वह नाम कर्म है,  
 
#जो नाना प्रकार की रचना निष्पन्न करता है वह नाम कर्म है,  
 
#जो उच्च व नीच कुल में ले जाता है वह गोत्र कर्म है,  
 
#जो उच्च व नीच कुल में ले जाता है वह गोत्र कर्म है,  
#जो दान, लाभ, भोग, उपभोग व वीर्य में विघ्न करता है वह अन्तराय कर्म है<balloon title="धवल पु0 6, पृ0 13, धवल 13, पृ0 387" style=color:blue>*</balloon>। इन आठ कर्मों के भी भेद क्रमश: 5, 9, 2, 28, 4, 93, 2, 5 हैं। इस तरह द्रव्यकर्म के कुल 148 उत्तर भेद हो जाते हैं।  
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#जो दान, लाभ, भोग, उपभोग व वीर्य में विघ्न करता है वह अन्तराय कर्म है<ref>धवल पु0 6, पृ0 13, धवल 13, पृ0 387</ref>। इन आठ कर्मों के भी भेद क्रमश: 5, 9, 2, 28, 4, 93, 2, 5 हैं। इस तरह द्रव्यकर्म के कुल 148 उत्तर भेद हो जाते हैं।  
 
*ज्ञानावरण के 5 भेद-  
 
*ज्ञानावरण के 5 भेद-  
 
#मतिज्ञानावरण,  
 
#मतिज्ञानावरण,  
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#अयश:कीर्ति 1,  
 
#अयश:कीर्ति 1,  
 
#निर्माण 1, व  
 
#निर्माण 1, व  
#तीर्थंकर 1। यह नामकर्म अशरीरित्व (सूक्ष्मत्व) गुण का घात करता है<balloon title="धवल 6/13, धवल 13/389" style=color:blue>*</balloon>।
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#तीर्थंकर 1। यह नामकर्म अशरीरित्व (सूक्ष्मत्व) गुण का घात करता है<ref>धवल 6/13, धवल 13/389</ref>।
 
*गोत्रकर्म के दो भेद हैं-  
 
*गोत्रकर्म के दो भेद हैं-  
 
#जो उच्चगोत्र का कारक है वह उच्च गोत्र कर्म है तथा  
 
#जो उच्चगोत्र का कारक है वह उच्च गोत्र कर्म है तथा  
#जिस कर्म के उदय से जीवों के नीच गोत्र (गोत्र= कुल, वंश, संतान) होता है वह नीच गोत्र कर्म हैं<balloon title="Dधवल 7, पृ0 15, जीवकाण्ड। जीव प्रबोधिनी टीका 68, त वार्थसार 8/37-40" style=color:blue>*</balloon>।
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#जिस कर्म के उदय से जीवों के नीच गोत्र (गोत्र= कुल, वंश, संतान) होता है वह नीच गोत्र कर्म हैं<ref>Dधवल 7, पृ0 15, जीवकाण्ड। जीव प्रबोधिनी टीका 68, त वार्थसार 8/37-40</ref>।
*अन्तराय कर्म के 5 भेद हैं- जिस कर्म के उदय से दान देते हुए जीव के विघ्न होता है वह दानान्तराय कर्म है। इसी तरह लाभ, भोग, उपभोग व वीर्य में विघ्नकारक कर्म लाभान्तराय आदि नामों से कहे जाते हैं।<balloon title="धवल पु0 6 पृ0 77-78, पृ0 7, पृष्ठ 15" style=color:blue>*</balloon>
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*अन्तराय कर्म के 5 भेद हैं- जिस कर्म के उदय से दान देते हुए जीव के विघ्न होता है वह दानान्तराय कर्म है। इसी तरह लाभ, भोग, उपभोग व वीर्य में विघ्नकारक कर्म लाभान्तराय आदि नामों से कहे जाते हैं।<ref>धवल पु0 6 पृ0 77-78, पृ0 7, पृष्ठ 15</ref>
*गोत्रकर्म के अभाव में आत्मा का अनुरुलघुत्व गुण प्रकट होता है तथा अन्तराय के अभाव में अनन्तवीर्य आदि 5 क्षायिकलब्धि भी प्रकट होती है।<balloon title="धवल 6/77-78।" style=color:blue>*</balloon>
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*गोत्रकर्म के अभाव में आत्मा का अनुरुलघुत्व गुण प्रकट होता है तथा अन्तराय के अभाव में अनन्तवीर्य आदि 5 क्षायिकलब्धि भी प्रकट होती है।<ref>धवल 6/77-78।</ref>
*इन कर्मों की विस्तृत परिभाषाएं प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशबन्ध, उदय, स व आदि धवल आदि मूल ग्रन्थों से जानना चाहिए।<balloon title="धवल 7, पृष्ठ 15, जीवकाण्ड। जीव प्र0 टीका 68 तथा त वार्थसार 8/37-40।" style=color:blue>*</balloon>
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*इन कर्मों की विस्तृत परिभाषाएं प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशबन्ध, उदय, स व आदि धवल आदि मूल ग्रन्थों से जानना चाहिए।<ref>धवल 7, पृष्ठ 15, जीवकाण्ड। जीव प्र0 टीका 68 तथा त वार्थसार 8/37-40।</ref>
  
 
7.- सातवीं पुस्तक में षट्खण्डागम के दूसरे खण्ड 'क्षुद्रबन्ध' की टीका है, जिसमें संक्षेपत: कर्मबन्ध का प्रतिपादन किया गया है।  
 
7.- सातवीं पुस्तक में षट्खण्डागम के दूसरे खण्ड 'क्षुद्रबन्ध' की टीका है, जिसमें संक्षेपत: कर्मबन्ध का प्रतिपादन किया गया है।  
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'''गणित के क्षेत्र में धवला का मौलिक अवदान'''
 
'''गणित के क्षेत्र में धवला का मौलिक अवदान'''
  
इसमें गणित संबन्धी करणसूत्र व गाथाएं 54 पायी जाती हैं, जो लेखक के गणित विषयक गम्भीर ज्ञान की परिचायक हैं।<balloon title="धवल 6 पृष्ठ 1 से 201, धवल 13, पृ0 205 से 392, गोम्मटसार कर्मकाण्ड, पंचसंग्रह" style=color:blue>*</balloon> उस जमाने (युग) में भी धवलाकार दाशमिक पद्धति से पूर्ण परिचित थे।<balloon title="षट्खण्डागम परिशीलन, भारतीय ज्ञानपीठ पृ0 द353-354।" style=color:blue>*</balloon> इसमें बड़ी संख्याओं का भी बहुतायत से उपयोग हुआ है। धवला में जोड़, बाकी, गुणा, भाग, वर्गमूल, घनमूल, संख्याओं का घात (वर्ग) आदि मौलिक प्रक्रियाओं का कथन उपलब्ध है। धवल का घातांक सिद्धान्त 500 ई॰ पूर्व का है। वर्ग, घन, उत्तरोत्तरवर्ग (द्विरूपवर्गधारा में), उत्तरोत्तरघन, किसी संख्या का संख्यातुल्यघात निकालना, उत्तरोत्तरवर्गमूल, घनमूल, लोगरिथम (लघुरिक्थ), अर्द्धच्छेद, वर्गशलाका, त्रिकच्छेद, चतुर्थच्छेद, भिन्न,त्रैराशिक, अनंतवर्गीकरण, असंख्यात, संख्यात तथा इनके सुव्यवस्थित भेदों का निरूपण पुस्तक 3, 4, 10 में बहुतायत से देखने को मिलता है।<balloon title="धवल 3/98, 3/99, 3/100" style=color:blue>*</balloon>
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इसमें गणित संबन्धी करणसूत्र व गाथाएं 54 पायी जाती हैं, जो लेखक के गणित विषयक गम्भीर ज्ञान की परिचायक हैं।<ref>धवल 6 पृष्ठ 1 से 201, धवल 13, पृ0 205 से 392, गोम्मटसार कर्मकाण्ड, पंचसंग्रह</ref> उस जमाने (युग) में भी धवलाकार दाशमिक पद्धति से पूर्ण परिचित थे।<ref>षट्खण्डागम परिशीलन, भारतीय ज्ञानपीठ पृ0 द353-354।</ref> इसमें बड़ी संख्याओं का भी बहुतायत से उपयोग हुआ है। धवला में जोड़, बाकी, गुणा, भाग, वर्गमूल, घनमूल, संख्याओं का घात (वर्ग) आदि मौलिक प्रक्रियाओं का कथन उपलब्ध है। धवल का घातांक सिद्धान्त 500 ई॰ पूर्व का है। वर्ग, घन, उत्तरोत्तरवर्ग (द्विरूपवर्गधारा में), उत्तरोत्तरघन, किसी संख्या का संख्यातुल्यघात निकालना, उत्तरोत्तरवर्गमूल, घनमूल, लोगरिथम (लघुरिक्थ), अर्द्धच्छेद, वर्गशलाका, त्रिकच्छेद, चतुर्थच्छेद, भिन्न,त्रैराशिक, अनंतवर्गीकरण, असंख्यात, संख्यात तथा इनके सुव्यवस्थित भेदों का निरूपण पुस्तक 3, 4, 10 में बहुतायत से देखने को मिलता है।<ref>धवल 3/98, 3/99, 3/100</ref>
  
 
'''व्याकरण-शास्त्र'''
 
'''व्याकरण-शास्त्र'''
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'''शास्त्रों के नामोल्लेख'''
 
'''शास्त्रों के नामोल्लेख'''
  
प्रमाण देते समय लेखक ने धवला में कषायपाहुड, आचारांग आदि 27 ग्रन्थों के नाम निर्देशपूर्वक उद्धरण दिये हैं<balloon title="धवला पु0 4, प्रस्ता0 में 'धवला का गणितशास्त्र' नामक लेख।" style=color:blue>*</balloon> तो वहीं पर पचासों ग्रन्थों की गाथाओं और गद्यांशों आदि को ग्रन्थनाम बिना भी उद्धृत किया है। कुल दोनों प्रकार के उद्धरण 775 हैं।  
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प्रमाण देते समय लेखक ने धवला में कषायपाहुड, आचारांग आदि 27 ग्रन्थों के नाम निर्देशपूर्वक उद्धरण दिये हैं<ref>धवला पु0 4, प्रस्ता0 में 'धवला का गणितशास्त्र' नामक लेख।</ref> तो वहीं पर पचासों ग्रन्थों की गाथाओं और गद्यांशों आदि को ग्रन्थनाम बिना भी उद्धृत किया है। कुल दोनों प्रकार के उद्धरण 775 हैं।  
द्वादशांग से नि:सृत होने से यह ग्रन्थ प्रमाण है। साथ ही इसमें आचार्य परम्परागत व गुरुपदेश को ही मह व दिया है।<balloon title="धवल 3/88-89, 199-200, 4/402-3, धवल 10/214-15, 444, 278, धवल 13/221-22, धवल 13/309-10, 337 आदि" style=color:blue>*</balloon>  तथा जहाँ उन्हें उपदेश अप्राप्त रहा वहाँ स्पष्ट कह दिया कि इस विषय में जानकर (यानि उपदेश प्राप्त कर) कहना चाहिए<balloon title="देखो धवल 3/33-38, 5-116-19, धवल 9/131-33, 318, धवल 13/318-19 आदि" style=color:blue>*</balloon> इन सबसे<balloon title="षट्खण्डागम परिशीलन पृष्ठ 572" style=color:blue>*</balloon> ग्रन्थ की प्रामाणिकता निर्बाध सिद्ध होती है।  
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द्वादशांग से नि:सृत होने से यह ग्रन्थ प्रमाण है। साथ ही इसमें आचार्य परम्परागत व गुरुपदेश को ही मह व दिया है।<ref>धवल 3/88-89, 199-200, 4/402-3, धवल 10/214-15, 444, 278, धवल 13/221-22, धवल 13/309-10, 337 आदि</ref>  तथा जहाँ उन्हें उपदेश अप्राप्त रहा वहाँ स्पष्ट कह दिया कि इस विषय में जानकर (यानि उपदेश प्राप्त कर) कहना चाहिए<ref>देखो धवल 3/33-38, 5-116-19, धवल 9/131-33, 318, धवल 13/318-19 आदि</ref> इन सबसे<ref>षट्खण्डागम परिशीलन पृष्ठ 572</ref> ग्रन्थ की प्रामाणिकता निर्बाध सिद्ध होती है।  
  
 
'''प्राचीन दार्शनिकों के नामोल्लेख'''
 
'''प्राचीन दार्शनिकों के नामोल्लेख'''
  
धवल में 137 दार्शनिकों के नाम आए हैं। यथा-अष्टपुत्र, [[आनन्द]], ऋषिदास, औपमन्यव, [[कपिल]], कंसाचार्य, कार्तिकेय, गोवर्धन, [[गौतम]], चिलातपुत्र, जयपाल, [[जैमिनि]], [[पिप्पलाद]], वादरायण, विष्णु, [[वसिष्ठ]] आदि।<balloon title="षट्खण्डागम परिशीलन,पृ0 742" style=color:blue>*</balloon>
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धवल में 137 दार्शनिकों के नाम आए हैं। यथा-अष्टपुत्र, [[आनन्द]], ऋषिदास, औपमन्यव, [[कपिल]], कंसाचार्य, कार्तिकेय, गोवर्धन, [[गौतम]], चिलातपुत्र, जयपाल, [[जैमिनि]], [[पिप्पलाद]], वादरायण, विष्णु, [[वसिष्ठ]] आदि।<ref>षट्खण्डागम परिशीलन,पृ0 742</ref>
  
 
'''तीर्थस्थानों, नगरों के नामोल्लेख'''
 
'''तीर्थस्थानों, नगरों के नामोल्लेख'''
  
इसी तरह 42 भौगोलिक स्थानों के नाम भी आए हैं। यथा आन्ध<balloon title="धवल 1/77" style=color:blue>*</balloon>, अंकुलेश्वर<balloon title="धवल 1/67" style=color:blue>*</balloon>, ऊर्जयन्त<balloon title="धवल 9/102" style=color:blue>*</balloon>, ऋजुकूला नदी<balloon title="धवल 9/124" style=color:blue>*</balloon>, चन्द्रगुफ़ा<balloon title="1/67 आदि" style=color:blue>*</balloon>, जृम्भिकाग्राम<balloon title="धवल 9/124" style=color:blue>*</balloon>, पाण्डुगिरि<balloon title="धवल 1/162" style=color:blue>*</balloon>, वैभार<balloon title="धवल 1/62" style=color:blue>*</balloon>सौराष्ट्र<balloon title="धवल 1/67" style=color:blue>*</balloon>आदि। इन उल्लेखों से तत्कालीन युग के स्थानों का अस्तित्व ज्ञात होता है।
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इसी तरह 42 भौगोलिक स्थानों के नाम भी आए हैं। यथा आन्ध<ref>धवल 1/77</ref>, अंकुलेश्वर<ref>धवल 1/67</ref>, ऊर्जयन्त<ref>धवल 9/102</ref>, ऋजुकूला नदी<ref>धवल 9/124</ref>, चन्द्रगुफ़ा<ref>1/67 आदि</ref>, जृम्भिकाग्राम<ref>धवल 9/124</ref>, पाण्डुगिरि<ref>धवल 1/162</ref>, वैभार<ref>धवल 1/62</ref>सौराष्ट्र<ref>धवल 1/67</ref>आदि। इन उल्लेखों से तत्कालीन युग के स्थानों का अस्तित्व ज्ञात होता है।
 
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==टीका टिप्पणी==
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09:30, 1 जून 2010 का अवतरण

आचार्य गुणधर कृत 'कसाय-पाहुड' एवं आचार्य पुष्पदन्त एवं भूतबलि कृत 'षट्खण्डागम' –ये दो जैनधर्म के ऐसे विशाल एवं अमूल्य-सिद्धान्त ग्रन्थ हैं, जिनका सीधा सम्बन्ध तीर्थंकर महावीर स्वामी की द्वादशांग वाणी से माना जाता है। दिगम्बर जैन परम्परा के अनुसार शेष श्रुतज्ञान इससे पूर्व ही क्रमश: लुप्त व छिन्न-भिन्न हो गया था।[1] द्वादशांग के अंतिम अंग दृष्टिवाद के अन्तर्गत परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत और चूलिका ये 5 प्रभेद हैं। इनमें पूर्वगत नामक चतुर्थ प्रभेद के पुन: 14 भेद हैं। उनमें से द्वितीय भेद अग्रायणीय पूर्व[2] से षट्खण्डागम का उद्भव हुआ है। इस शौरसेनी प्राकृत-भाषाबद्ध कर्मग्रन्थ की टीका का नाम धवला है। यह धवला टीका संस्कृत मिश्रित शौरसेनी प्राकृत भाषाबद्ध है।

  • सम्प्रति दिगम्बर जैन परम्परा के कर्मग्रन्थों में धवलत्रय अर्थात 'धवल, जयधवल तथा महाधवल' का नाम सर्वोपरि है, जिनका सम्मिलित प्रमाण 72000+60,000+30,000=162,000 श्लोक प्रमाण हैं। इनका प्रकाशन हिन्दी अनुवाद सहित कुल 16+16+7=39 पुस्तकों में, जिनके कुल पृष्ठ 16,341 हैं, हुआ है। इस सानुवाद 16,341 पृष्ठ प्रमाण परमागम में जैन धर्म सम्मत विशाल व मौलिक कर्मसिद्धान्त का विवेचन है। इनमें सर्वप्रथम आचार्य पुष्पदन्त एवं भूतबलि कृत षट्खण्डागम पर लिखित विशाल टीका धवला का यहाँ परिचय प्रस्तुत है।

धवला टीका शक सं0 738 कार्तिक शुक्ला 13, ता0 8-10-816 ई॰ बुधवार को पूर्ण हुई थी। इसका प्रमाण 60,000 श्लोक है। यह 16 भागों में तदनुसार 7067 पृष्ठों में 20 वर्षों की दीर्घ अवधि (सन् 1938 से 1958) में प्रकाशित हुई हैं[3]

  • इसके लेखक आचार्य वीरसेन स्वामी हैं। इनका जीवनकाल शक-संवत् 665 से 745 है[4]। आपके गुरु ऐलाचार्य हैं। अथवा मतान्तर से आर्यनन्दि हैं। ये सिद्धान्त, छन्द, ज्योतिष, व्याकरण और न्याय आदि शास्त्रों में पारंगत मनीषी थे। *आचार्य जिनसेन के शब्दों में 'वीरसेन साक्षात केवली के समान सकल विश्व के पारदर्शी थे। उनकी सर्वार्थगामिनी नैसर्गिक प्रज्ञा को देखकर सर्वज्ञ की सत्ता में किसी मनीषी को शंका नहीं रही थी। विद्वान लोग उनके ज्ञान-किरणों के प्रसाद को देखकर उन्हें प्रज्ञाश्रमणों में श्रेष्ठ आचार्य और श्रुतकेवली कहते थे। वे वृन्दारक, लोक-विज्ञ, वाचस्पतिवत् वाग्मी, सिद्धान्तोपनिबन्धकर्ता, उनकी धवला टीका भुवन-व्यापिनी है। वे शब्दब्रह्म गणधरमुनि, विश्वनिधि के द्रष्टा, सूक्ष्म वस्तु को जानने में साक्षात् सर्वज्ञ थे।[5]' इनके द्वारा रचित धवला टीका की भाषा प्राकृत-संस्कृत मिश्रित है। उदाहरणार्थ प्रथम पुस्तक में टीका का लगभग तृतीय भाग प्राकृत में है और शेष बहुभाग संस्कृत में है। इसमें उद्धृत पद्यों की संख्या 221 में से 17 संस्कृत में तथा शेष प्राकृत में है। एवमेव आगे के भाग में भी जानना चाहिए। इस प्रकार संस्कृत-प्राकृत इन दोनों भाषाओं के मिश्रण से मणि-प्रवालन्यायानुसार यह रची गई हैं[6]। इसकी प्राकृत भाषा शोरसैनी है, जिसमें कुन्दकुन्दादि आचार्यों के ग्रन्थ पाये जाते हैं। ग्रन्थ की प्राकृत अत्यन्त परिमार्जित और प्रौढ़ है। संस्कृत भाषा भी अत्यन्त प्रौढ़, प्रात्र्जल तथा न्यायशास्त्रों जैसी होकर भी कर्म-सिद्धान्त प्ररूपक है।
  • ग्रन्थ की शैली सर्वत्र शंका उठाकर उसके समाधान करने की रही हे। जैसे प्रथम पुस्तक में ही लगभग 600 शंका समाधान है। टीका में आचार्य वीरसेन सूत्र-विरुद्ध व्याख्यान नहीं करते, परस्पर विरुद्ध दो सूत्रों में समन्वयात्मक दृष्टिकोण अपनाते हुए दोनों के संग्रह का उपदेश देते हैं। कहीं विशेष आधारभूत सामग्री के सद्भाव में एक का ग्रहण तथा दूसरे का निषेध करने से भी नहीं चूके हैं। देशामर्शक सूत्रों का सुविस्तृत व्याख्यान करते हैं, किसी विवक्षित प्रकरण में प्रवाह्यमान-अप्रवाह्यमान उपदेश भी प्रदर्शित करते हैं। किन्दीं सूक्ष्म विषयों पर उपदेश के अभाव में प्रसंग-प्राप्त विषय की भी अप्ररूपणा करते हैं, तो कहीं उपदेश प्राप्त कर जान लेने की सम्प्रेरणा करते हैं। सर्वत्र विषय का विस्तार सहित न्याय आदि शैली से वर्णन इसमें उपलब्ध है। यह भारतीय वाङमय की अद्भुत कृति है।

विषय-परिचय

षट्खण्डागम की यह धवला टीका 16 पुस्तकों में पूर्ण एवं प्रकाशित हुई है। छ: पुस्तकों में षट्खण्डागम के जीवस्थान नामक प्रथम खण्ड की टीका निबद्ध है।

1.- प्रथम पुस्तक में गुणस्थानों और मार्गणास्थानों का विवरण है।

2.- द्वितीय पुस्तक में गुणस्थान, जीवसमास, पर्याप्ति आदि 20 प्ररुपणाओं द्वारा जीव की परीक्षा की गई है।

3.- तीसरी पुस्तक द्रव्य प्रमाणानुगम है, जिसमें ब्रह्माण्ड में व्याप्त सकल जीवों और उनकी भिन्न-भिन्न अवस्थाओं तथा गतियों में भी उनकी संख्याएं सविस्तार गणित शैली से सप्रमाण बताई है।

4.- चौथी पुस्तक क्षेत्र-स्पर्शन-कालानुगम है। इसमें बताया है कि जीवों के निवास व विहार आदि संबंन्धी कितना क्षेत्र (ब्रह्माण्ड में) होता है, तथा अतीत काल में विभिन्न गुणस्थानी व मार्गणस्थ जीव कितना क्षेत्र स्पर्श कर पाते हैं। वे विभिन्न गुणस्थानादि में एवं गति आदि में कितने काल तक रहते हैं?

5.- पंचम पुस्तक अन्तर, भाव व अल्पबहुत्व विषयक है। विवक्षित गुणस्थान को छोड़कर अन्यत्र जाकर पुन: उसी गुणस्थान में कितने समय बाद आना सम्भव है? यह मध्य की विरह-अवधि अन्तर कहलाती है। कर्मों के उपशम, क्षयोपशम, क्षय, उदय आदि के निमित्त से जो परिणाम होते हैं उन्हें भाव कहते हैं।विभिन्न गुणस्थानादिक में जीवों की हीन अधिक संख्या की तुलना का कथन करना अल्पबहुत्व है।

6.- छठीं पुस्तक चूलिका स्वरूप है। इसमें

1-प्रकृति-समुत्कीर्तन,

2-स्थान-समुत्कीर्तन,

3-5- तीनदण्डक,

6- उत्कृष्ट स्थिति,

7- जघन्यस्थिति,

8- सम्यक्त्वोत्पत्ति तथा

9- गति-आगति नामक 9 चूलिकाएं हैं।

  • इनमें से प्रथम दो चूलिकाओं में कर्मप्रकृति (कर्मों) के भेदों और उनके स्थानों की प्ररूपणा की है। सम्यक्त्व के सन्मुख जीव किन प्रकृतियों को बाँधता है, इसके स्पष्टीकरणार्थ तीन दण्डक रूप तीन चूलिकाएं हैं। कर्मों की उत्कृष्टं तथा जघन्यस्थिति छठीं व सातवीं चूलिकाएं प्ररूपित करती हैं। प्रथम की 7 चूलिकाओं द्वारा कर्म का विस्तार से वर्णन किया गया है। शेष दो में क्रमश: कर्मवर्णनाधारित सम्यक्दर्शन-उत्पत्ति तथा जीवों की गति आगति सविस्तार वर्णित है। छठीं पुस्तक के कर्मों का सविस्तार सभेद-प्रभेद वर्णन है, अत: प्रासंगिक जानकर किंचित लिखा जाता है-
  • जैनदर्शन में कर्म के दो प्रकार कहे हैं-
  1. एक द्रव्यकर्म,
  2. दूसरा भावकर्म। यह कर्म एक संस्कार मात्र नहीं है, किन्तु एक वस्तुभूत पदार्थ है। जो रागी, द्वेषी जीव की क्रिया का निमित्त पाकर उसकी ओर आकृष्ट होता है और दूध व पानी की तरह वह जीव के साथ घुल-मिल जाता है। यह (द्रव्य कर्म) है तो भौतिक पदार्थ, किन्तु उसका कर्म नाम इसलिए रूढ़ हो गया कि वह जीव की मानसिक, वाचनिक और कायिक क्रिया से आकृष्ट होकर जीव के साथ बँध जाता है। जहाँ अन्य दर्शन राग और द्वेष से आविष्ट जीव की क्रिया को कर्म ओर इस कर्म के क्षणिक होने से तज्जन्य संस्कार को स्थायी मानते हैं वहाँ जैन दर्शन का मत है कि रागद्वेष से आविष्ट जीव की प्रत्येक क्रिया के द्वारा एक प्रकार का द्रव्य आत्मा के साथ आकृष्ट होता है और उसके जो रागद्वेषरूप परिणामों का निमित्त पाकर वह आत्मा के साथ बँध को प्राप्त हो जाता है। तथा कालान्तर में वही द्रव्य आत्मा को अच्छा या बुरा फल मिलने में हेतु होता है[7]
  • जीव के राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि रूप भाव (विकारी परिणाम) ही भावकर्म है। इनके निमित्त से उसी क्षण, नियत, सूक्ष्म (इन्द्रियों से आग्राह्य) पुद्गल परमाणु आत्मा के साथ संश्लेष को प्राप्त हो जाते हैं। यही संश्लेष को प्राप्त होने वाले परमाणु द्रव्यकर्म कहलाते हैं। ये शुभभावों के समय आत्मा के साथ बँधकर पुन: नियत काल तक टिक कर पृथक् होते समय आत्मा को शुभ फल देते हैं। तथा यिद ये ही कर्म अशुभ भावों के द्वारा बँधते हैं तो कालान्तर में पृथक् होते समय अशुभ फल देकर पृथक् होते हैं। प्रति समय अनन्त कर्म परमाणु बँधते हैं तथा अनन्त ही खिरते हैं।
  • द्रव्यकर्म के मूल आठ भेद हैं-
  1. जो आत्मा के ज्ञान गुण का आवरण (प्रच्छादन) करता है वह ज्ञानावरणी कर्म है,
  2. जो दर्शन गुण को आवृत करता है वह दर्शनावरण कर्म है,
  3. जो वेदन अर्थात सुख या दु:ख का अनुभवन किया जाता है वह वेदनीय कर्म है,
  4. जो मोहित करता है वह मोहनीय कर्म है,
  5. जो भवधारण के प्रति जाता है वह आयु कर्म है,
  6. जो नाना प्रकार की रचना निष्पन्न करता है वह नाम कर्म है,
  7. जो उच्च व नीच कुल में ले जाता है वह गोत्र कर्म है,
  8. जो दान, लाभ, भोग, उपभोग व वीर्य में विघ्न करता है वह अन्तराय कर्म है[8]। इन आठ कर्मों के भी भेद क्रमश: 5, 9, 2, 28, 4, 93, 2, 5 हैं। इस तरह द्रव्यकर्म के कुल 148 उत्तर भेद हो जाते हैं।
  • ज्ञानावरण के 5 भेद-
  1. मतिज्ञानावरण,
  2. श्रुताज्ञावरण,
  3. अवधिज्ञानावरण,
  4. मन:पर्ययज्ञानावरण व
  5. केवलज्ञानावरण हैं। जो मतिज्ञान का आवरण करता है वह मतिज्ञानावरण कर्म है। इसी तरह श्रुतज्ञान आदि ज्ञानों के आवारक कर्म ज्ञातानावरण आदि नाम से अभिहित होते हैं।
  • दर्शनावरण के 9 भेद हैं-
  1. चक्षुर्दशनावरण,
  2. अचक्षुर्दर्शनावरण,
  3. अवधिदर्शना0
  4. केवलदर्शना0,
  5. निद्रा,
  6. निद्रानिद्रा,
  7. प्रचला,
  8. प्रचलाप्रचला,
  9. स्त्यानगृद्धि।
  • चक्षुर्दर्शन का आच्छादक-आवारक कर्म चक्षुर्दर्शनावरण है इसी तरह आगे भी जानना चाहिए। निद्रा आदि 5 भी आत्मा के दर्शनागुण के घातक होने से दर्शनावरण के भेदों में परिगणित किए हैं। सुख तथा दु:ख का वेदन कराने वाले क्रमश: साता व असाता नामक दो वेदनीय कर्म हैं।
  • मोहनीय के 28 भेद हैं- 4 अनन्तानुबंधी, 4 अप्रत्याख्यानावरण, 4 प्रत्याख्यानावरण, 4 संज्वलन- ये 16 कषायें तथा हास्य, रति, अरति, भय, जुगुप्सा, शोक, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद- ये 9 नोकषाय और मिथ्यात्व, सम्यक्त्व तथा सम्यग्मिथ्यात्व – ये तीन दर्शनमोह। इन 28 भेदों में से आदि के 25 भेद चारित्रगुण का घात करते हैं तथा अन्तिम तीन भेद आत्मा के सम्यक्त्व गुण को रोकते हैं। आयुकर्म के 4 भेद- नरक, तिर्यंच, मनुष्य तथा देव। नरक-आयुकर्म नरक को धारण करता है। इसी तरह तिर्यंच आदि भवों को धारण कराने वाले भवकर्म तिर्यंचायुकर्म आदि संज्ञा प्राप्त करते हैं। आयुकर्म जीव की स्वतंन्त्रता को रोकता तथा अवगाहनत्व गुण को घातता है।
  • नामकर्म के 93 भेद हैं-
  1. गति 4,
  2. जाति 5,
  3. शरीर 5,
  4. शरीर-बंधन 5,
  5. शरीरसंघात 5,
  6. शरीर अंगोपांग 3,
  7. संहनन 6,
  8. संस्थान 6,
  9. वर्ण 5,
  10. गंध 2,
  11. रस 5,
  12. स्पर्श 8,
  13. आनुपूर्वी 4,
  14. अगुरुलघु 1,
  15. उपघात 1,
  16. उच्छ्वास 1,
  17. आतप 1, उ
  18. द्योत 1,
  19. विहायोगति 2,
  20. त्रस 1,
  21. स्थावर 1,
  22. बादर 1,
  23. सूक्ष्म 1,
  24. पर्याप्त 1,
  25. अपर्याप्त 1,
  26. प्रत्येक 1,
  27. साधारण 1,
  28. स्थिर 1,
  29. अस्थिर 1,
  30. शुभ 1,
  31. अशुभ 1,
  32. सुभग 1,
  33. दुर्भग 1,
  34. सुस्वर 1,
  35. दु:स्वर 1,
  36. आदेय 1,
  37. अनादेय 1,
  38. यश:कीर्ति 1,
  39. अयश:कीर्ति 1,
  40. निर्माण 1, व
  41. तीर्थंकर 1। यह नामकर्म अशरीरित्व (सूक्ष्मत्व) गुण का घात करता है[9]
  • गोत्रकर्म के दो भेद हैं-
  1. जो उच्चगोत्र का कारक है वह उच्च गोत्र कर्म है तथा
  2. जिस कर्म के उदय से जीवों के नीच गोत्र (गोत्र= कुल, वंश, संतान) होता है वह नीच गोत्र कर्म हैं[10]
  • अन्तराय कर्म के 5 भेद हैं- जिस कर्म के उदय से दान देते हुए जीव के विघ्न होता है वह दानान्तराय कर्म है। इसी तरह लाभ, भोग, उपभोग व वीर्य में विघ्नकारक कर्म लाभान्तराय आदि नामों से कहे जाते हैं।[11]
  • गोत्रकर्म के अभाव में आत्मा का अनुरुलघुत्व गुण प्रकट होता है तथा अन्तराय के अभाव में अनन्तवीर्य आदि 5 क्षायिकलब्धि भी प्रकट होती है।[12]
  • इन कर्मों की विस्तृत परिभाषाएं प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशबन्ध, उदय, स व आदि धवल आदि मूल ग्रन्थों से जानना चाहिए।[13]

7.- सातवीं पुस्तक में षट्खण्डागम के दूसरे खण्ड 'क्षुद्रबन्ध' की टीका है, जिसमें संक्षेपत: कर्मबन्ध का प्रतिपादन किया गया है।

8.- आठवीं पुस्तक में बन्धस्वामित्वविचय नामक तृतीय खण्ड की टीका पूरी हुई है। इस पुस्तक में बताया गया है कि कौन-सा कर्मबन्ध किस गुणस्थान व मार्गणास्थान में सम्भव है। इसी सन्दर्भ में निरन्तरबंधी, सान्तरबंधी, ध्रुवबंधी आदि प्रकृतियों का खुलासा किया गया है।

9.- नवम पुस्तक में वेदनाखण्ड सम्बन्धी कृतिअनुयोगद्वार की टीका है। आद्य 44 मंगल सूत्रों की टीका में विभिन्न ज्ञानों की विशद प्ररूपणा है। फिर सूत्र 45 से ग्रन्थान्त तक कृति अनेयागद्वार का विभिन्न अनुयोग द्वारों से प्ररूपण है।

10.-दसवीं पुस्तक में वेदनानिक्षेप, नयविभाषणता, नामविधान तथा वेदना-द्रव्य-विधान अनुयोगद्वारों का सविस्तार विवेचन है।

11.- ग्यारहवीं पुस्तक में वेदना क्षेत्रविधान तथा कालविधान का विभिन्न अनुयोगद्वारों (अधिकारों) द्वारा वर्णन करके फिर दो चूलिकाओं द्वारा अरुचित अर्थ का प्ररूपण तथा प्ररूपित अर्थ विशिष्ट खुलासा किया है।

12.-बारहवीं पुस्तक में वेदना भावविधान आदि 10 अनुयोगद्वारों द्वारा गुणश्रेणी निर्जरा, अनुभाग-विषयक सूक्ष्मतम, विस्तृत तथा अन्यत्र अलभ्य ऐसी प्ररूपणाएँ की गई हैं।

  • इस तरह वेदना अनुयोगद्वार के 16 अधिकार तीन पुस्तकों (10, 11 व 12) में सटीक पूर्ण होते हैं। 5वें खण्ड की टीका पुस्तक 13 व 14 में पूर्ण हुई है, जिसमें 13वीं पुस्तक में स्पर्श कर्म व प्रकृति अनुयोगद्वार हैं। स्पर्श अनुयोगद्वार का अवान्तर अधिकारों द्वारा विवेचन करके फिर कर्म अनुयोगद्वार का अकल्प्य 16 अनुयोगद्वारों द्वारा वर्णन करके तत्पश्चात अन्त में प्रकृति अनुयोगद्वार में आठों कर्मों का सांगोपांग वर्णन किया है। चौदहवीं पुस्तक में बन्धन अनुयोगद्वार द्वारा बन्ध, बन्धक, बन्धनीय (जिसमें 24 वर्गणाओं तथा पंचशरीरों का प्ररूपण है) तथा बन्ध विधान (इसका प्ररूपण नहीं है, मात्र नाम निर्देश है) इन 4 की प्ररूपणा की है। अन्तिम दो पुस्तकों में सत्कर्मान्तर्गत शेष 18 अनुयोगद्वारों (निबन्धन, प्रक्रम आदि) की विस्तृत विवेचना की गई है। इस तरह 16 पुस्तकों में धवला टीका पूर्ण होती है।

धवला में अन्यान्य वैशिष्ट्य

गणित के क्षेत्र में धवला का मौलिक अवदान

इसमें गणित संबन्धी करणसूत्र व गाथाएं 54 पायी जाती हैं, जो लेखक के गणित विषयक गम्भीर ज्ञान की परिचायक हैं।[14] उस जमाने (युग) में भी धवलाकार दाशमिक पद्धति से पूर्ण परिचित थे।[15] इसमें बड़ी संख्याओं का भी बहुतायत से उपयोग हुआ है। धवला में जोड़, बाकी, गुणा, भाग, वर्गमूल, घनमूल, संख्याओं का घात (वर्ग) आदि मौलिक प्रक्रियाओं का कथन उपलब्ध है। धवल का घातांक सिद्धान्त 500 ई॰ पूर्व का है। वर्ग, घन, उत्तरोत्तरवर्ग (द्विरूपवर्गधारा में), उत्तरोत्तरघन, किसी संख्या का संख्यातुल्यघात निकालना, उत्तरोत्तरवर्गमूल, घनमूल, लोगरिथम (लघुरिक्थ), अर्द्धच्छेद, वर्गशलाका, त्रिकच्छेद, चतुर्थच्छेद, भिन्न,त्रैराशिक, अनंतवर्गीकरण, असंख्यात, संख्यात तथा इनके सुव्यवस्थित भेदों का निरूपण पुस्तक 3, 4, 10 में बहुतायत से देखने को मिलता है।[16]

व्याकरण-शास्त्र

शब्दशास्त्र में लेखक की अबाध गति के धवला में अनेक उदाहरण हैं। शब्दों के निरुक्तार्थ प्रकट करते हुए उसे व्याकरणशास्त्र से सिद्ध किया गया है। उदाहरण के लिए धवला 1/9-10, 32-34, 42-44, 48, 51, 131 द्रष्टव्य है। समासों के प्रयोग हेतु धवला 3/ 4-7, 1/90-91, 1/133, धवल 12/290-91 आदि तथा प्रत्यय प्रयोग हेतु धवल 13/243-3 आदि देखने योग्य हैं।

न्यायशास्त्र

न्यायशास्त्रीय पद्धति होने से धवला में अनेक न्यायोक्तियाँ भी मिलती हैं। यथा-धवल 3/27-130, धवल पु0 1 पं॰ 28, 219, 218, 237, 270, धवल 1/200, 205, 140, 72, 196, धवल 3/18, 120, धवल 13, पृष्ठ 2, 302, 307, 317 आदि। अन्य दर्शन के मत-उदाहरण (धवल 6/490 आदि) तथा काव्य प्रतिभा एवं गद्य भाषालंकरण तो मूल ग्रन्थ देखने पर ही जान पड़ता है।

शास्त्रों के नामोल्लेख

प्रमाण देते समय लेखक ने धवला में कषायपाहुड, आचारांग आदि 27 ग्रन्थों के नाम निर्देशपूर्वक उद्धरण दिये हैं[17] तो वहीं पर पचासों ग्रन्थों की गाथाओं और गद्यांशों आदि को ग्रन्थनाम बिना भी उद्धृत किया है। कुल दोनों प्रकार के उद्धरण 775 हैं। द्वादशांग से नि:सृत होने से यह ग्रन्थ प्रमाण है। साथ ही इसमें आचार्य परम्परागत व गुरुपदेश को ही मह व दिया है।[18] तथा जहाँ उन्हें उपदेश अप्राप्त रहा वहाँ स्पष्ट कह दिया कि इस विषय में जानकर (यानि उपदेश प्राप्त कर) कहना चाहिए[19] इन सबसे[20] ग्रन्थ की प्रामाणिकता निर्बाध सिद्ध होती है।

प्राचीन दार्शनिकों के नामोल्लेख

धवल में 137 दार्शनिकों के नाम आए हैं। यथा-अष्टपुत्र, आनन्द, ऋषिदास, औपमन्यव, कपिल, कंसाचार्य, कार्तिकेय, गोवर्धन, गौतम, चिलातपुत्र, जयपाल, जैमिनि, पिप्पलाद, वादरायण, विष्णु, वसिष्ठ आदि।[21]

तीर्थस्थानों, नगरों के नामोल्लेख

इसी तरह 42 भौगोलिक स्थानों के नाम भी आए हैं। यथा आन्ध[22], अंकुलेश्वर[23], ऊर्जयन्त[24], ऋजुकूला नदी[25], चन्द्रगुफ़ा[26], जृम्भिकाग्राम[27], पाण्डुगिरि[28], वैभार[29]सौराष्ट्र[30]आदि। इन उल्लेखों से तत्कालीन युग के स्थानों का अस्तित्व ज्ञात होता है।

टीका टिप्पणी

  1. गो0 क0 प्रस्ता0 पृ0 3 (ज्ञानपीठ)
  2. धवल 6/6, धवल 13/206
  3. धवल 6/10, धवल 13/255-56।
  4. धवल पु0 6, पृष्ठ 10, धवल 13, पृ0 357-68, धवल पु0 15, पृ0 6
  5. धवल पु0 6, पृ0 11, धवल 14, पृ0 359-60
  6. धवल पु0 6, पृ0 12, धवल 13, पृ0 362
  7. धवल पु0 6, पृ0 13, धवल 13, पृ0 362
  8. धवल पु0 6, पृ0 13, धवल 13, पृ0 387
  9. धवल 6/13, धवल 13/389
  10. Dधवल 7, पृ0 15, जीवकाण्ड। जीव प्रबोधिनी टीका 68, त वार्थसार 8/37-40
  11. धवल पु0 6 पृ0 77-78, पृ0 7, पृष्ठ 15
  12. धवल 6/77-78।
  13. धवल 7, पृष्ठ 15, जीवकाण्ड। जीव प्र0 टीका 68 तथा त वार्थसार 8/37-40।
  14. धवल 6 पृष्ठ 1 से 201, धवल 13, पृ0 205 से 392, गोम्मटसार कर्मकाण्ड, पंचसंग्रह
  15. षट्खण्डागम परिशीलन, भारतीय ज्ञानपीठ पृ0 द353-354।
  16. धवल 3/98, 3/99, 3/100
  17. धवला पु0 4, प्रस्ता0 में 'धवला का गणितशास्त्र' नामक लेख।
  18. धवल 3/88-89, 199-200, 4/402-3, धवल 10/214-15, 444, 278, धवल 13/221-22, धवल 13/309-10, 337 आदि
  19. देखो धवल 3/33-38, 5-116-19, धवल 9/131-33, 318, धवल 13/318-19 आदि
  20. षट्खण्डागम परिशीलन पृष्ठ 572
  21. षट्खण्डागम परिशीलन,पृ0 742
  22. धवल 1/77
  23. धवल 1/67
  24. धवल 9/102
  25. धवल 9/124
  26. 1/67 आदि
  27. धवल 9/124
  28. धवल 1/162
  29. धवल 1/62
  30. धवल 1/67

साँचा:जैन दर्शन