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लक्ष्मीं स व्यतनोद्दरिद्रभरणे सुज्ञो हि सेनान्वयः।।</poem>
 
लक्ष्मीं स व्यतनोद्दरिद्रभरणे सुज्ञो हि सेनान्वयः।।</poem>
  
12वीं शताब्दी के बाद बांग्ला लिपि के ताम्रपत्रों, प्रस्तरों, भूर्जपत्रों और विविध प्रकार के कागजों पर बहुत-से अभिलेख मिलते हैं। उड़िया लिपि 14वीं शताब्दी तक तो बांग्ला के साथ चलती है, परन्तु उसके बाद इसका विकास स्वतंत्र रूप से होता है। उसके अक्षर अधिकाधिक गोलाकार होते जाते हैं और उनमें गुंडियाँ बनती जाती हैं। इसका कारण यह है कि उड़ीसा के लिपिकर ताडपत्रों पर लिखते थे और लोहे की शलाका का प्रयोग करते थे।  
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07:01, 1 फ़रवरी 2011 का अवतरण

बांग्ला और असमिया लिपियों में बहुत समानता है और इन दोनों का विकास एकसाथ ही हुआ है। ओझाजी का मत था कि,

"बांग्ला लिपि भारतवर्ष के पूर्वी विभाग अर्थात् मगध की तरफ की लिपि से निकली है और बिहार, बंगाल, मिथिला, नेपाल, आसाम तथा उड़ीसा से मिलने वाले कितने एक शिलालेख, दानपत्र, सिक्कों या हस्तलिखित पुस्तकों में पाई जाती है।"

किन्तु लगता है कि कुछ पुरालिपिविद नागरी लिपि के साथ बांग्ला लिपि का यह रिश्ता पसन्द नहीं करते हैं। इसलिए पूर्वी भारत में 8वीं शताब्दी तक कुटिल लिपि का जो रूप यत्र-तत्र दिखाई देता है, उसी में बांग्ला के आद्य रूप वाले कुछ अक्षर खोजने का प्रयत्न आजकल कुछ पुरालिपिविद कर रहे हैं। सच्चाई तो यह है कि भारत की लिपियों पर प्रान्तीय का वेश हम बहुत दावे के साथ नहीं चढ़ा सकते। लिपियों के अध्ययन की सुविधा के लिए ही अब तक हम इनका वर्गीकरण करते चले आए हैं; वरना भारत की सभी लिपियाँ ब्राह्मी से निकली हैं। दसवीं शताब्दी के आसपास से ही भारत की वर्तमान लिपियाँ एक-दूसरे से थोड़ी-थोड़ी दूर हटती दिखाई देती हैं। अब यदि पूर्वी भारत के 8वीं शताब्दी के किसी अभिलेख को उठाकर कोई पुराविद कहे कि इसके बहुत से अक्षर नागरी से मिलते हैं, तो यह बात भी हमें मान लेनी पड़ती है। वस्तुतः सभी संधिकालीन परिस्थितियों में भी इसी प्रकार की खींचतान होती है। इसीलिए हम इस प्रश्न की गहराई में न जाकर केवल उन्हीं लेखों में से कुछ का उल्लेख करेंगे, जिनमें बांग्ला-असमिया लिपियों का विकास देखने को मिलता है।

पूर्वी भारत के ग्यारहवीं शताब्दी के लेखों में हमें पहली बार बांग्ला लिपि की झलक देखने को मिलती है। 8वीं शताब्दी में गौडदेश (बंगाल) में पाल राजाओं का शासन आरम्भ हुआ। सभी पालवंशी राजा बौद्ध थे। नारायणपाल के समय (लगभग 854-908 ई.) के बादल स्तम्भलेख के केवल कुछ अक्षर ही बांग्ला जैसे दिखाई देते हैं। परन्तु विजयसेन के देवपाड़ा-लेख के अक्षरों का झुकाव स्पष्ट रूप से बांग्ला की ओर दिखाई देता है। यह लेख 11वीं शताब्दी के उत्तरार्ध का है। इस लेख में ‘प’ तथा ‘य’ और ‘व’ तथा ‘ब’ में विशेष अन्तर नहीं है। इसमें अवग्रह (ऽ) का भी प्रयोग देखने को मिलता है, जो वहाँ नागरी के ‘इ’ अक्षर-सा है। 12वीं शताब्दी के लेखों में तो बांग्ला लिपि अपनी स्वतंत्र विशेषताओं को ग्रहण करने लगती है। इस शताब्दी के कुछ प्रसिद्ध अभिलेख हैं- गोपाल तृतीय के समय का मंदा-लेख, बंगाल के राजा लक्ष्मणसेन का तर्पणदिघी-दानपत्र, मधईनगर-शिलालेख और ढाका-मूर्तिलेख, अशोकचल्ल का 1170 ई. का बुद्धगया-लेख, 1175 ई. का गदाधर मन्दिर लेख और कैम्ब्रिज संग्रहालय की ‘पंचरक्षा’ ‘योगरत्नमाला’ तथा ‘गुह्यावलि-विवृत्ति’ हस्तलिपियाँ।

कामरूप के राजाओं के भी बहुत-से दानपत्र, शिलालेख तथा अंकित मुद्राएँ मिली हैं। इनमें राजा वैद्यदेव का दानपत्र साहित्यिक दृष्टि से विशेष महत्व का है, क्योंकि इसके रचयिता प्रसिद्ध कवि उमापतिधर हैं। समकालीन कवि जयदेव ने ‘गीतगोविन्द’ काव्य में उमापतिधर के बारे में कहा था- वाचः पल्लवयत्युमापतिधरः (उमापतिधर अपने शब्दों को पल्लव की तरह प्रस्फुटित करते हैं)। उमापतिधर द्वारा रचित इस दानपत्र में भी ‘अवग्रह’ का प्रयोग देखने को मिलता है। यहाँ हम इस दानपत्र का नमूना दे रहे हैं।

असम में वल्लभदेव या वल्लभेन्द्र का 1185 ई. का एक दानपत्र मिला है। इस दानपत्र के लेख में कहीं-कहीं ‘न’ और ‘ल’ में तथा ‘प’ और ‘य’ में स्पष्ट अन्तर नहीं है। ‘व’ और ‘ब’ में तो बिल्कुल भेद नहीं है। बाद में अन्य लिपियों से भेद स्पष्ट करने के लिए असम की लिपि को ‘असमाक्षर’ का नाम दिया गया।

लिप्यंतर

उच्चित्राणि दिगम्बरस्य वसनान्यर्धांगनास्वामिनो
रत्नालंकृतिभिर्व्विशोषितवपुः शोभाः शतंसुभ्रुवः
पौराद्याश्च पुरीः श्मशानवसतेर्भिक्षाभुजोस्याक्षयां
लक्ष्मीं स व्यतनोद्दरिद्रभरणे सुज्ञो हि सेनान्वयः।।

12वीं शताब्दी के बाद बांग्ला लिपि के ताम्रपत्रों, प्रस्तरों, भूर्जपत्रों और विविध प्रकार के काग़ज़ों पर बहुत-से अभिलेख मिलते हैं। उड़िया लिपि 14वीं शताब्दी तक तो बांग्ला के साथ चलती है, परन्तु उसके बाद इसका विकास स्वतंत्र रूप से होता है। उसके अक्षर अधिकाधिक गोलाकार होते जाते हैं और उनमें गुंडियाँ बनती जाती हैं। इसका कारण यह है कि उड़ीसा के लिपिकर ताडपत्रों पर लिखते थे और लोहे की शलाका का प्रयोग करते थे।



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