पश्चिम बंगाल का इतिहास

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भारत के प्रागैतिहासिक काल के इतिहास में पश्चिम बंगाल का विशिष्‍ट स्‍थान है। सिकंदर के आक्रमण के समय बंगाल में 'गंगारिदयी' नामक साम्राज्‍य था। गुप्‍त तथा मौर्य सम्राटों का बंगाल पर विशेष प्रभाव नहीं पडा। बाद में 'शशांक' बंगाल प्रदेश का नरेश बना। ऐसा कहा जाता है कि उसने सातवीं शताब्‍दी के पूर्वार्द्ध में उत्तर-पूर्वी भारत में महत्‍वपूर्ण भूमिका निभाई। उसके बाद 'गोपाल' ने सत्‍ता संभाली और पाल राजवंश की स्‍थापना की। पाल शासकों ने विशाल साम्राज्‍य का निर्माण किया और लगभग चार शताब्दियों तक राज्‍य किया। पाल शासकों के बाद बंगाल पर सेन राजवंश का अधिकार हुआ, जिन्हें बाद में दिल्ली के मुस्लिम शासकों ने परास्‍त किया। सोलहवीं शताब्‍दी में मुग़ल काल से पहले ही बंगाल पर अनेक मुस्लिम राजाओं और सुल्तानों ने शासन किया। इख़्तियारुद्दीन मुहम्मद बंगाल का पहला मुसलमान विजेता था।

मुग़लों के पश्‍चात आधुनिक बंगाल का इतिहास यूरोपीय तथा अंग्रेज़ी व्‍यापारिक कंपनियों के आगमन से आरंभ होता है। सन् 1757 में प्लासी का युद्ध ने इतिहास की धारा को मोड़ दिया जब अंग्रेज़ों ने पहली बार बंगाल और भारत में अपने पांव जमाए। सन् 1905 में राजनीतिक लाभ के लिए अंग्रेज़ों ने बंगाल का विभाजन कर दिया लेकिन कांग्रेस के नेतृत्‍व में लोगों के बढ़ते हुए आक्रोश को देखते हुए 1911 में बंगाल को फिर से एक कर दिया गया। इससे स्‍वतंत्रता आंदोलन की ज्‍वाला और तेज़ीसे भड़क उठी, जिसका पटाक्षेप 1947 में देश की आज़ादी और विभाजन के साथ हुआ।

1947 के बाद देशी रियासतों के विलय का काम प्रारम्भ हुआ और राज्‍य पुनर्गठन अधिनियम, 1956 की सिफारिशों के अनुसार पड़ोसी राज्‍यों के कुछ बांग्‍लाभाषी क्षेत्रों का पश्चिम बंगाल में विलय कर दिया गया।

कोलकाता का इतिहास

बेलूर मठ, कोलकाता
Belur Math, Kolkata
प्रारम्भिक काल

कालीकाता नाम का उल्लेख मुग़ल बादशाह अकबर (शासन काल, 1556-1605) के राजस्व खाते में और बंगाली कवि बिप्रदास (1495) द्वारा रचित 'मनसामंगल' में भी मिलता है। एक ब्रिटिश बस्ती के रूप में कोलकाता का इतिहास 1690 में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी के एक अधिकारी जाब चार्नोक द्वारा यहाँ पर एक व्यापार चौकी की स्थापना से शुरू होता है। हुगली नदी के तट पर स्थित बंदरगाह को लेकर पूर्व में चार्नोक का मुग़ल साम्राज्य के अधिकारियों से विवाद हो गया था और उन्हें वह स्थान छोड़ने के लिए विवश कर दिया गया था। जिसके बाद उन्होंने नदी तट पर स्थित अन्य स्थानों पर स्वयं को स्थापित करने के कई असफल प्रयास किए।

मुग़ल अधिकारियों ने ब्रिटिश कम्पनी के वाणिज्य से होने वाले लाभ को न खोने की चाह में जब जॉब चार्नोक को पुनः लौटने की अनुमति दी, तब उन्होंने कोलकाता को अपनी गतिविधियों के केन्द्र के रूप में चुना। स्थल का चुनाव सावधानीपूर्वक किया गया प्रतीत होता है, क्योंकि यह पश्चिम में हुगली नदी, उत्तर में ज्वार नद और पूर्व में लगभग चार किलोमीटर की दूरी पर लवणीय झील द्वारा संरक्षित था। नदी के पश्चिमी तट पर ऊँचे स्थानों पर डच, फ़्राँसीसी व अन्य प्रतिद्वन्द्वियों की बस्तियाँ स्थित थीं। चूँकि यह हुगली के बंदरगाह पर स्थित था, इसलिए समुद्र से पहुँचने के मार्ग को कोई ख़तरा नहीं था। इस स्थल पर नदी चौड़ी और गहरी भी थी। केवल एक ही हानि थी कि यह अत्यन्त दलदली क्षेत्र था, जिससे यह जगह अस्वास्थ्यकर हो गई। इसके अतिरिक्त, अंग्रेज़ों के आने के पहले, तीन स्थानीय गाँवों, सुतानती, कालीकाता और गोविन्दपुर, जो बाद में सामूहिक रूप में कोलकाता कहलाने लगे, का चयन उन भारतीय व्यापारियों के द्वारा बसने के लिए किया गया था, जो गाद से भरे सतगाँव के बंदरगाह से प्रवासित हुए थे। चार्नोक के स्थल चयन में इन व्यापारियों की उपस्थिति भी कुछ हद तक उत्तरदायी रही होगी।

1696 में निकटवर्ती बर्द्धमान ज़िले में एक विद्रोह होने तक मुग़ल प्रान्तीय प्रशासन का इस बढ़ती हुई बस्ती के प्रति दोस्ताना व्यवहार हो गया था। कम्पनी के कर्मचारियों ने जब व्यापार चौकी या फ़ैक्ट्री की क़िलेबन्दी की अनुमति माँगी, तब उनकी सुरक्षा की सामान्य शर्तों पर उन्हें इजाज़त दे दी गई। मुग़ल शासन ने विद्रोह को आसानी से दबा दिया, किन्तु उपनिवेशियों का ईंट व मिट्टी से बना सुरक्षात्मक ढाँचा वैसा ही बना रहा और 1700 में यह फ़ोर्ट विलियम कहलाया। 1698 में अंग्रेज़ों ने वे पत्र प्राप्त कर लिए, जिसने उन्हें तीन गाँवों के ज़मींदारी अधिकार (राजस्व संग्रहण का अधिकार, वास्तविक स्वामित्व) ख़रीदने का विशेषाधिकार प्रदान कर दिया।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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