प्रेषणीयता

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प्रेषणीयता वह प्रक्रिया है, जिसके द्वारा कोई लेखक या विचारक अपनी भावनाएँ या विचार पाठकों तक पहुंचाता है। लिखित या अभिव्यक्त अनुभूति की वे विशेषताएँ, जिनके द्वारा प्रेषण सम्भव होता है, उस अनुभूति की प्रेषणीयता का आधार होती हैं।

जटिलता

प्रेषण का व्यापार बड़ा जटिल है, उसमें स्वभावत: कठिनाइयाँ होती हैं। लेखक किसी चीज को अपने विशिष्ट दृष्टिकोण एवं ढंग से देखता है। लेखक होने के नाते उसकी समस्या यह होती है कि वह अपने पाठकों को ठीक उसी दृष्टिकोण और ढंग से देखने की प्रेरणा दे। ऐसा करने में सफल होकर ही लेखक पाठकों में वह रागात्मक स्पन्दन, जिसका उसे अनुभव हो रहा है, पैदा कर सकता है। प्राचीन साहित्य-शास्त्र में एक विशेष रागात्मक स्पन्दन के उन्मेष की क्रिया को रसानुभूति की स्थिति कहा गया है। इस स्थिति को पैदा करने के लिए साहित्यकार उपयुक्त विभावों, अनुभावों आदि की योजना करता है। इसका मतलब यह हुआ कि साहित्यकार उन वस्तु-रूपों के विशिष्ट चित्र उपस्थित करता है, जो उसे सार्थक लगे हैं, वे चित्र पाठकों में स्वभावत: सम्बद्ध भावनाओं को उत्पन्न करते हैं। इस प्रकार भावनाओं का प्रेषण एवं रसपरिपाक सम्भव होता है। इसका एकमात्र कारण यही होता है कि लेखक की अंत:प्रकृति एवं पाठकों की अंत:प्रकृति में तात्त्विक समानता है।[1]

वस्तुओं तथा स्थितियों में अनेक विशेषताएँ होती हैं। एक खास अनुभव की एक खास स्थिति में लेखक और उसके साथ पाठक वस्तु-स्थिति के खास धर्मों को ही देखते हैं। ये खास धर्म मनुष्य की विशिष्ट भावनाओं से सम्बन्धित रहते हैं। साहित्य-शास्त्र में विशिष्ट भावना-पुंजों को विभिन्न स्थायी भावों से सम्बद्ध किया गया है। उदाहरण के लिए, 'रति' नामक स्थायी भाव का सम्बन्ध मानवीय भावनओं के एक खास समूह से है।

लेखक का दृष्टिकोण

लेखक प्रेषण-क्रिया में असफल होता है, जब उसके देखने का ढंग इतना व्यक्तिगत हो जाता है कि उसका सम्बंध मूल अंत:प्रकृति से नहीं जुड़ पाता। ऐसा तब होता है, जब लेखक स्थिति-विशेष को केवक बौद्धिक धरातल पर एक निराले, असाधारण ढंग से देखता है। बड़े लेखक अपनी असाधारण प्रतीतियों को भी कुछ इस प्रकार मानव-प्रकृति की गहराइयों से सम्बन्धित कर लेते हैं कि वे पाठकों के लिए संवेद्य बन जाती हैं। इसके विपरीत मामूली लेखकों की असाधारण प्रतीतियाँ केवल हलका चमत्कार उत्पन्न करके रह जाती हैं।

प्रेषण में एक दूसरे कारण से भी बाधा पड़ सकती है, विशेषत: चिंतन के क्षेत्र में। जब लेखक और पाठक के बौद्धिक धरातलों अथवा उनके विचारों की पृष्ठभूमि में अधिक दूरी होती है तो वे एक दूसरे को समझना कठिन पाते हैं। जीवन-मूल्यों के क्षेत्र में लेखक और पाठकों की सांस्कृतिक दूरी भी प्रेषण में बाधक बन सकती है। कितु सांस्कृतिक दूरी के बावजूद यदि हम विदेशी साहित्यकारों की कृतियों में रस ले सकते हैं तो इसका कारण वही है, जिसका ऊपर संकेत किया गया है- साहित्यकारों की प्रतीतियों का मनुष्य की मूल अंत:प्रकृति में अनुस्यूत होना।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 हिन्दी साहित्य कोश, भाग 1 |प्रकाशक: ज्ञानमण्डल लिमिटेड, वाराणसी |संकलन: भारतकोश पुस्तकालय |संपादन: डॉ. धीरेंद्र वर्मा |पृष्ठ संख्या: 420 |

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