राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग

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राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग की स्थापना भारत की संसद के द्वारा 1992 के 'राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग अधिनियम' के नियमन के साथ हुई थी। इस आयोग का गठन पाँच धार्मिक अल्पसंख्यकों मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई, बौद्ध एवं पारसी समुदाय के हितों की रक्षा के लिए किया गया है। आयोग में एक अध्यक्ष, एक उपाध्यक्ष और पाँच सदस्य होते हैं, जो अल्पसंख्यक समुदाय का प्रतिनिधित्व करते हैं। आंध्र प्रदेश, असम, बिहार, छत्तीसगढ़, दिल्ली, झारखंड, कर्नाटक, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, मणिपुर, राजस्थान, तमिलनाडु, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश तथा पश्चिम बंगाल में भी राज्य अल्पसंख्यक आयोगों का गठन किया गया है। इन आयोगों के कार्यालय राज्यों की राजधानियों में स्थित हैं।[1]

आयोग की शुरुआत

पहले गृह मंत्रालय के संकल्प दिनांक 12 जनवरी, 1978 की परिकल्पना के तहत 'अल्पसंख्यक आयोग' की शुरुआत की गई थी, जिसमें विषेश रूप से उल्लेख किया गया था कि संविधान तथा क़ानून में संरक्षण प्रदान किए जाने के बावजूद अल्पसंख्यक असमानता एवं भेदभाव को महसूस करते हैं। इस क्रम में धर्मनिरपेक्ष परंपरा को बनाए रखने के लिए तथा राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा देने के लिए भारत सरकार ने अल्पसंख्यकों के लिए सुरक्षा उपायों को लागू करने पर विषेश बल दिया तथा समय-समय पर लागू होने वाली प्रशासनिक योजनाओं, अल्पसंख्यकों के लिए संविधान, केंद्र एवं राज्य विधानमंडलों में लागू होने वाली नीतियों के सुरक्षा उपायों के प्रभावी कार्यान्वयन हेतु प्रभावशाली संस्था की व्यवस्था करना। वर्ष 1984 में कुछ समय के लिए अल्पसंख्यक आयोग को गृह मंत्रालय से अलग कर दिया गया था तथा कल्याण मंत्रालय के अंतर्गत नए रूप में गठित किया गया।[2]

राष्ट्रीय आयोग

अल्पसंख्यक आयोग को संसद द्वारा 1992 के 'राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग अधिनियम' के तहत 'राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग' बनाया गया। कल्याण मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा 23 अक्टूबर, 1993 को अधिसूचना जारी कर अल्पसंख्यक समुदायों के तौर पर पाँच धार्मिक समुदाय यथा- मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई, बौद्ध एवं पारसी समुदायों को अधिसूचित किया गया था। 2001 की जनगणना के अनुसार भारत की जनसंख्या में पाँच धार्मिक अल्पसंख्यक समुदायों का प्रतिशत 18.42 था।

मुख्य कार्य

'राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग' को निम्न कार्यों का दायित्व निभाना पड़ता है-

  1. संघ तथा राज्यों के अर्थात अल्पसंख्यकों की उन्नति तथा विकास का मूल्यांकन करना।
  2. संविधान में निर्दिष्ट तथा संसद और राज्यों की विधानसभाओं/परिषदों के द्वारा अधिनियमित क़ानूनों के अनुसार अल्पसंख्यकों के संरक्षण से संबंधित कार्यों की निगरानी करना।
  3. केन्द्रीय सरकार या राज्य सरकारों के द्वारा अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा के लिए संरक्षण के प्रभावी क्रियान्वयन के लिए अनुशंसा करना।
  4. अल्पसंख्यकों को अधिकारों तथा संरक्षण से वंचित करने से संबंधित विशेश शिकायतों को देखना तथा ऐसे मामलों को संबंधित अधिकारियों के सामने प्रस्तुत करना।
  5. अल्पसंख्यकों के विरुद्ध किसी भी प्रकार के भेदभाव से उत्पन्न समस्याओं के कारणों का अध्ययन और इनके समाधान के लिए उपायों की अनुशंसा करना।
  6. अल्पसंख्यकों के सामाजिक आर्थिक तथा शैक्षणिक विकास से संबंधित विषयों का अध्ययन, अनुसंधान तथा विश्लेषण की व्यवस्था करना।
  7. अल्पसंख्यकों से संबंधित ऐसे किसी भी उचित कदम का सुझाव देना, जिसे केन्द्रीय सरकार या राज्य सरकारों के द्वारा उठाया जाना है।
  8. अल्पसंख्यकों से संबंधित किसी भी मामले विशेषत: उनके सामने होने वाली कठिनाइयों पर केन्द्रीय सरकार हेतु नियतकालिक या विशेष रिपोर्ट तैयार करना।
  9. कोई भी अन्य विषय जिसे केन्द्रीय सरकार के सामने प्रस्तुत किया जा सकता है, उसकी रिपोर्ट तैयार करना।[2]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भारत की प्रमुख स्वतंत्र संस्थाएँ (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 14 दिसम्बर, 2012।
  2. 2.0 2.1 रा.अ.आ. (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 14 दिसम्बर, 2012।

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