"खलनायक" के अवतरणों में अंतर

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:भ्रमण, खोजें
(''''खलनायक''' (अंग्रेज़ी: ''Villain'') वह पुरुष कलाकार है जो स...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
 
छो (Text replacement - "व्यवहारिक" to "व्यावहारिक")
 
(2 सदस्यों द्वारा किये गये बीच के 3 अवतरण नहीं दर्शाए गए)
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
 
'''खलनायक'''  ([[अंग्रेज़ी]]: ''Villain'') वह पुरुष कलाकार है जो सिनेमा या नाटक में किसी चरित्र का अभिनय करता है। वह अभिनयकर्ता  खलनायक कहलाते हैं। अभिनय की कला का ज्ञान ही खलनायक के भाव प्रस्तुतीकरण को सार्थक बनाता है। भारतीय सिनेमा के पहले दशक में धार्मिक कथाओं और किंवदंतियों पर सारी फ़िल्में बनीं। क्योंकि इस नई विधा में कथा प्रस्तुत करने के ज्ञान और साधन की कमी थी और दर्शक अपनी इन सुनी हुई कहानियों की सक्षम अभिव्यक्ति के अभाव में भी इन्हें पूरी तरह समझ लेता था।
 
'''खलनायक'''  ([[अंग्रेज़ी]]: ''Villain'') वह पुरुष कलाकार है जो सिनेमा या नाटक में किसी चरित्र का अभिनय करता है। वह अभिनयकर्ता  खलनायक कहलाते हैं। अभिनय की कला का ज्ञान ही खलनायक के भाव प्रस्तुतीकरण को सार्थक बनाता है। भारतीय सिनेमा के पहले दशक में धार्मिक कथाओं और किंवदंतियों पर सारी फ़िल्में बनीं। क्योंकि इस नई विधा में कथा प्रस्तुत करने के ज्ञान और साधन की कमी थी और दर्शक अपनी इन सुनी हुई कहानियों की सक्षम अभिव्यक्ति के अभाव में भी इन्हें पूरी तरह समझ लेता था।
 
==नायक और खलनायक==
 
==नायक और खलनायक==
पौराणिक कथाओं के नायक देव थे और खलनायक राक्षस गण। इसके बाद इतिहास पर आधारित फ़िल्मों में दुष्ट शक्तियों से दर्शक परिचित थे। ग्रामीण परिवेश की फ़िल्मों में तानाशाह जमींदार और सूदखोर महाजन खलनायक के रूप में प्रस्तुत किए गए। शहरी परिवेश की फ़िल्मों में लालची व्यक्ति या मकान मालिक या मिल मालिक को खलनायक की तरह प्रस्तुत किया गया और प्रेम कथाओं में अस्वीकृत प्रेमी को खलनायक माना गया। सितारों के उदय के बाद कलाकारों का चयन महत्वपूर्ण हो गया, मसलन न्यू थियेटर्स की ‘विद्यापति’ में राजा की भूमिका में सुंदर सुगठित [[पृथ्वीराज कपूर]] के होने के कारण महारानी के साथ प्रेम करते हुए कवि का पात्र दर्शकों को खलनायक सा लगा। शशधर मुखर्जी की [[1943]] में प्रदर्शित ‘[[क़िस्मत (1943 फ़िल्म)|क़िस्मत]]’ में अपराधी का पात्र ही नायक रहा क्योंकि अशोक कुमार ने उसे अभिनीत किया था। यह एंटी नायक छवि की पहली फ़िल्म थी और इस विधा का भरपूर विकास 30 वर्ष बाद [[अमिताभ बच्चन]] को अभिनीत फ़िल्मों में देखा गया। टीनू आनंद की ‘शहंशाह’ में अमिताभ कहते हैं कि जहाँ वे खड़े होते हैं, वही न्यायालय है और उनकी इच्छा ही क़ानून है। कुछ कलाकारों की छवि इतनी लोकप्रिय हो जाती है कि उनके द्वारा अभिनीत पात्र दर्शकों को नायक ही लगता है। इसी धारा की अगली कड़ी में [[शाहरुख खान]] अभिनीत ‘बाजीगर’, ‘डर’ और ‘डॉन’ में अपराधी ही नायक है।
+
पौराणिक कथाओं के नायक देव थे और खलनायक राक्षस गण। इसके बाद इतिहास पर आधारित फ़िल्मों में दुष्ट शक्तियों से दर्शक परिचित थे। ग्रामीण परिवेश की फ़िल्मों में तानाशाह ज़मींदार और सूदखोर महाजन खलनायक के रूप में प्रस्तुत किए गए। शहरी परिवेश की फ़िल्मों में लालची व्यक्ति या मकान मालिक या मिल मालिक को खलनायक की तरह प्रस्तुत किया गया और प्रेम कथाओं में अस्वीकृत प्रेमी को खलनायक माना गया। सितारों के उदय के बाद कलाकारों का चयन महत्वपूर्ण हो गया, मसलन न्यू थियेटर्स की ‘विद्यापति’ में राजा की भूमिका में सुंदर सुगठित [[पृथ्वीराज कपूर]] के होने के कारण महारानी के साथ प्रेम करते हुए कवि का पात्र दर्शकों को खलनायक सा लगा। शशधर मुखर्जी की [[1943]] में प्रदर्शित ‘[[क़िस्मत (1943 फ़िल्म)|क़िस्मत]]’ में अपराधी का पात्र ही नायक रहा क्योंकि अशोक कुमार ने उसे अभिनीत किया था। यह एंटी नायक छवि की पहली फ़िल्म थी और इस विधा का भरपूर विकास 30 वर्ष बाद [[अमिताभ बच्चन]] को अभिनीत फ़िल्मों में देखा गया। टीनू आनंद की ‘शहंशाह’ में अमिताभ कहते हैं कि जहाँ वे खड़े होते हैं, वही न्यायालय है और उनकी इच्छा ही क़ानून है। कुछ कलाकारों की छवि इतनी लोकप्रिय हो जाती है कि उनके द्वारा अभिनीत पात्र दर्शकों को नायक ही लगता है। इसी धारा की अगली कड़ी में [[शाहरुख खान]] अभिनीत ‘बाजीगर’, ‘डर’ और ‘डॉन’ में अपराधी ही नायक है।<ref name="aa">{{cite web |url=http://www.bbc.com/hindi/entertainment/story/2007/08/070802_film_60yrs_villain.shtml|title= समय के साथ बदलते रहे खलनायक|accessmonthday=29 जून |accessyear= 2017|last= |first= |authorlink= |format= |publisher=www.bbc.com|language=हिन्दी}}</ref>
 
==गाँधी का प्रभाव==
 
==गाँधी का प्रभाव==
भारत में सिनेमा का जन्म [[1913]] में हुआ और [[दक्षिण अफ्रीका]] से [[महात्मा गाँधी]] [[1914]] में [[भारत]] आए। उनका प्रभाव सभी क्षेत्रों और विधाओं पर पड़ा, शायद इसी कारण पहले चार दशक तक खलनायक बर्बर नहीं थे और उनके चरित्र भी सुपरिभाषित नहीं थे। उस दौर में प्रेम या अच्छाई का विरोध करने वाले सामाजिक कुप्रथाओं और अंध विश्वास से ग्रसित लोग थे। ‘अछूत कन्या’ में प्रेम-कथा के विरोध करने वाले जाति प्रथा में सचमुच विश्वास करते थे।  इसी तरह मेहबूब खान की ‘नज़मा’ में पारंपरिक मूल्य वाला मुसलिम ससुर परदा प्रथा अस्वीकार करने वाली डॉक्टर बहु का विरोध करता है और अंत में परदा नहीं करने के कारण ही वह ससुर के हृदयघात को समय रहते समझ लेती है और उनके प्राण बचाती है। उस दौर में अधिकांश खलनायक बुरी समाजिक प्रथाओं में विश्वास करने वाले निरीह प्राणी हैं। ‘दुनिया ना माने’ [[1937]] का वृद्ध विधुर युवा कन्या से विवाह को अपना अधिकार ही मानता है और [[महात्मा गाँधी|गाँधी जी]] के आश्रम से लौटी उसकी बेटी उसे अन्याय से परिचित कराती है।
+
भारत में सिनेमा का जन्म [[1913]] में हुआ और [[दक्षिण अफ्रीका]] से [[महात्मा गाँधी]] [[1914]] में [[भारत]] आए। उनका प्रभाव सभी क्षेत्रों और विधाओं पर पड़ा, शायद इसी कारण पहले चार दशक तक खलनायक बर्बर नहीं थे और उनके चरित्र भी सुपरिभाषित नहीं थे। उस दौर में प्रेम या अच्छाई का विरोध करने वाले सामाजिक कुप्रथाओं और अंध विश्वास से ग्रसित लोग थे। ‘अछूत कन्या’ में प्रेम-कथा के विरोध करने वाले जाति प्रथा में सचमुच विश्वास करते थे।  इसी तरह मेहबूब खान की ‘नज़मा’ में पारंपरिक मूल्य वाला मुसलिम ससुर परदा प्रथा अस्वीकार करने वाली डॉक्टर बहु का विरोध करता है और अंत में परदा नहीं करने के कारण ही वह ससुर के हृदयघात को समय रहते समझ लेती है और उनके प्राण बचाती है। उस दौर में अधिकांश खलनायक बुरी समाजिक प्रथाओं में विश्वास करने वाले निरीह प्राणी हैं। ‘दुनिया ना माने’ [[1937]] का वृद्ध विधुर युवा कन्या से विवाह को अपना अधिकार ही मानता है और [[महात्मा गाँधी|गाँधी जी]] के आश्रम से लौटी उसकी बेटी उसे अन्याय से परिचित कराती है।<ref name="aa"/>
 
==महाजन से डाकू तक का सफर==
 
==महाजन से डाकू तक का सफर==
‘साहूकारी पाश’ में प्रस्तुत सूदखोर महाजन सआदत हुसैन मंटो द्वारा लिखी गई ‘किसान हत्या’ से होते हुए अपनी अन्यतम अभिव्यक्ति मेहबूब खान की ‘औरत’ [[1939]] में प्राप्त कर अभिनेता कन्हैयालाल ने इसी भूमिका को एक बार फिर [[1956]] में ‘मदर इंडिया’ में प्रस्तुत किया। महाजन खलनायक के पात्र की झलक दोस्तोविस्की के उपन्यास ‘क्राइम एंड पनिशमेंट’ से प्रेरित रमेश सहगल की ‘फिर सुबह होगी’ में भी दिखी। महात्माओं के देश के में डाकू हर काल खंड में रहे हैं और ये लोकप्रिय खलनायक सिद्ध हुए। 'मदर इंडिया' का महाजन ख़ौफ़ पैदा करता है आज़ादी की अलसभोर में प्रदर्शित [[राजकपूर]] की ‘आवारा’ में केएन सिंह अभिनीत डाकू पात्र इतना सहृदय था कि दाई के यह बताने पर कि वह गर्भवती का अपहरण कर ले आया है, वह उसे मुक्त कर देता है। [[भारत]] में डाकू की एक छवि रॉबिनहुड नुमा व्यक्ति की भी रही है और उसे नायक की तरह भी माना गया है। समाज में व्याप्त अन्याय और शोषण के कारण मजबूरी में डाकू बनने वाले पात्र लोकप्रिय रहे हैं और [[सुनील दत्त]] की सतही ‘मुझे जीने दो’ के बाद यह पात्र [[दिलीप कुमार]] की ‘गंगा-जमुना’ में 'क्लासिक डायमेंशन' पाता है।
+
‘साहूकारी पाश’ में प्रस्तुत सूदखोर महाजन सआदत हुसैन मंटो द्वारा लिखी गई ‘किसान हत्या’ से होते हुए अपनी अन्यतम अभिव्यक्ति मेहबूब खान की ‘औरत’ [[1939]] में प्राप्त कर अभिनेता कन्हैयालाल ने इसी भूमिका को एक बार फिर [[1956]] में ‘मदर इंडिया’ में प्रस्तुत किया। महाजन खलनायक के पात्र की झलक दोस्तोविस्की के उपन्यास ‘क्राइम एंड पनिशमेंट’ से प्रेरित रमेश सहगल की ‘फिर सुबह होगी’ में भी दिखी। महात्माओं के देश के में डाकू हर काल खंड में रहे हैं और ये लोकप्रिय खलनायक सिद्ध हुए। 'मदर इंडिया' का महाजन ख़ौफ़ पैदा करता है आज़ादी की अलसभोर में प्रदर्शित [[राजकपूर]] की ‘आवारा’ में केएन सिंह अभिनीत डाकू पात्र इतना सहृदय था कि दाई के यह बताने पर कि वह गर्भवती का अपहरण कर ले आया है, वह उसे मुक्त कर देता है। [[भारत]] में डाकू की एक छवि रॉबिनहुड नुमा व्यक्ति की भी रही है और उसे नायक की तरह भी माना गया है। समाज में व्याप्त अन्याय और शोषण के कारण मजबूरी में डाकू बनने वाले पात्र लोकप्रिय रहे हैं और [[सुनील दत्त]] की सतही ‘मुझे जीने दो’ के बाद यह पात्र [[दिलीप कुमार]] की ‘गंगा-जमुना’ में 'क्लासिक डायमेंशन' पाता है।<ref name="aa"/>
 
==डाकू से राजा का सफर==
 
==डाकू से राजा का सफर==
डाकू अपने बर्बर स्वरूप में रमेश सिप्पी की ‘शोले’ में प्रस्तुत होता है और ‘गब्बर’ नायकों से अधिक लोकप्रियता प्राप्त करता है। दरअसल गब्बर के चरित्र में बर्बरता के साथ सनकीपन को जोड़कर उसे कॉमिक्स के खलनायकों के समकक्ष खड़ा कर दिया गया है। उसकी अपार लोकप्रियता के कारण कुछ नेताओं ने उसके आधार पर अपनी छवि गढ़ी और सनकीपन राष्ट्रीय सामाजिक व्यवहार का हिस्सा बन गया। जीवन और कला के बीच आपसी लेन-देन के रिश्ते ऐसे ही चलते रहते हैं। गणतंत्र व्यवस्था अपनाने के बाद भी भारतीय समाज का मानस सामंतवादी रहा है और डाकू को जंगल के राजा के रूप में ही स्वीकार किया गया। अप्रवासी भारतीय दर्शकों के आश्रय के कारण डॉलर सिनेमा के पनपने के कारण विगत दशक में डाकू फ़िल्में नहीं बनीं। महानगरों के सीमेंट के जंगल के खलनायक डाकुओं के ही नए स्वरूप हैं। गब्बर सिंह खलनायक होकर भी फ़िल्म पर हावी रहा। आज़ादी के बाद सामाजवादी समाज की रचना के आदर्श के कारण एक ऐसी आर्थिक नीति सामने आई जिसने भ्रष्टाचार को जंगल घास की तरह फैलने के अवसर दिए और अव्यवहारिक कंट्रोल के कारण तस्करी का स्वर्ण युग प्रारंभ हुआ। फ़िल्मों में तस्कर खलनायक का उदय हुआ, नकली करंसी बनाने वालों का वर्चस्व बना। समाजवादी स्वप्न के कारण पूजीपति को खलनायक बनाया गया, मसलन [[राजकपूर]] की फ़िल्म ‘श्री 420’ में सेठ सोनाचंद धर्मानंद चुनाव भी लड़ता है और काले धंधों की फ़िल्म ‘आठ सौ चालीस’ है। यह उस युग की बात है जब अर्थनीति 'सेंटर' में थी और आज जब अर्थनीति की रचना में ‘लेफ्ट’ शामिल है, ‘गुरू’ जैसी फ़िल्म बनती है जिसमें पूंजीपति पुनः खलनायक होते हुए भी नायक की तरह प्रस्तुत है और आख़िरी रील में वह स्वयं को महात्मा गाँधी के समकक्ष खड़ा करने का बचकाना प्रयास भी करता है। दुख की बात है कि उसके प्रयास पर सिनेमाघरों में तालियां भी बजाई गई हैं। खलनायक की छवि में यह परिवर्तन समाज के बदलते हुए मूल्यों को रेखांकित करता है।
+
डाकू अपने बर्बर स्वरूप में रमेश सिप्पी की ‘शोले’ में प्रस्तुत होता है और ‘गब्बर’ नायकों से अधिक लोकप्रियता प्राप्त करता है। दरअसल गब्बर के चरित्र में बर्बरता के साथ सनकीपन को जोड़कर उसे कॉमिक्स के खलनायकों के समकक्ष खड़ा कर दिया गया है। उसकी अपार लोकप्रियता के कारण कुछ नेताओं ने उसके आधार पर अपनी छवि गढ़ी और सनकीपन राष्ट्रीय सामाजिक व्यवहार का हिस्सा बन गया। जीवन और कला के बीच आपसी लेन-देन के रिश्ते ऐसे ही चलते रहते हैं। गणतंत्र व्यवस्था अपनाने के बाद भी भारतीय समाज का मानस सामंतवादी रहा है और डाकू को जंगल के राजा के रूप में ही स्वीकार किया गया। अप्रवासी भारतीय दर्शकों के आश्रय के कारण डॉलर सिनेमा के पनपने के कारण विगत दशक में डाकू फ़िल्में नहीं बनीं। महानगरों के सीमेंट के जंगल के खलनायक डाकुओं के ही नए स्वरूप हैं। गब्बर सिंह खलनायक होकर भी फ़िल्म पर हावी रहा। आज़ादी के बाद सामाजवादी समाज की रचना के आदर्श के कारण एक ऐसी आर्थिक नीति सामने आई जिसने भ्रष्टाचार को जंगल घास की तरह फैलने के अवसर दिए और अव्यावहारिक कंट्रोल के कारण तस्करी का स्वर्ण युग प्रारंभ हुआ। फ़िल्मों में तस्कर खलनायक का उदय हुआ, नकली करंसी बनाने वालों का वर्चस्व बना। समाजवादी स्वप्न के कारण पूजीपति को खलनायक बनाया गया, मसलन [[राजकपूर]] की फ़िल्म ‘श्री 420’ में सेठ सोनाचंद धर्मानंद चुनाव भी लड़ता है और काले धंधों की फ़िल्म ‘आठ सौ चालीस’ है। यह उस युग की बात है जब अर्थनीति 'सेंटर' में थी और आज जब अर्थनीति की रचना में ‘लेफ्ट’ शामिल है, ‘गुरू’ जैसी फ़िल्म बनती है जिसमें पूंजीपति पुनः खलनायक होते हुए भी नायक की तरह प्रस्तुत है और आख़िरी रील में वह स्वयं को महात्मा गाँधी के समकक्ष खड़ा करने का बचकाना प्रयास भी करता है। दुख की बात है कि उसके प्रयास पर सिनेमाघरों में तालियां भी बजाई गई हैं। खलनायक की छवि में यह परिवर्तन समाज के बदलते हुए मूल्यों को रेखांकित करता है।<ref name="aa"/>
 
==विकास से पनपे अपराधी==
 
==विकास से पनपे अपराधी==
पाँचवे और छठे दशक में ही [[देवआनंद]] के सिनेमा पर दूसरे विश्वयुद्ध के समय में अमरीका में पनपे (noir) नए सिनेमा का प्रभाव रहा और खलनायक भी जरायम पेशा अपराधी रहे हैं जो महानगरों के अनियोजित विकास की कोख से जन्में थे। समाज में हाजी मस्तान का उदय हुआ।  सलीम जावेद ने ‘मदर इंडिया’ और ‘गंगा जमुना’ तथा मार्लिन ब्रेडों अभिनीत ‘वाटर फ्रंट’ से प्रभावित होकर हाजी मस्तान की छवि में ‘दीवार’ के एंटी नायक को गढ़ा जिसमें उस कालखंड का आक्रोश भी अभिव्यक्त हुआ। फ़िल्म 'बंटी और बबली' में अपराधी ही फ़िल्म के नायक-नायिका थे। इसी समय से नायक खलनायक की छवियों का मेल-जोल भी प्रारंभ हुआ।  इसी कालखंड में श्याम बेनेगल की ‘अंकुर’ और ‘निशांत’ में खलनायक जमींदार ही रहे परंतु अब वे राजनीति में सक्रिय हो चुके थे। राजनीति में अपराध का समावेश [[जवाहरलाल नेहरू|नेहरू]] की मृत्यु के बाद तीव्रगति से हुआ और फ़िल्मों में भी नेता के पात्र को खलनायक की तरह प्रस्तुत किया गया जैसा हम राहुल रवैल की फ़िल्म ‘अर्जुन’ और अमिताभ अभिनीत की फ़िल्म ‘आख़िरी रास्ता’ और ‘इंक़लाब’ इत्यादि में देखते हैं। पुलिस में अपराध के प्रवेश को गोविंद निहलानी की ‘अर्धसत्य’ में रेखांकित किया गया और पुलिस के राजनीतिकरण और जातिवाद के ग्रहण को ‘देव’ में प्रस्तुत किया गया।
+
पाँचवे और छठे दशक में ही [[देवआनंद]] के सिनेमा पर दूसरे विश्वयुद्ध के समय में अमरीका में पनपे (noir) नए सिनेमा का प्रभाव रहा और खलनायक भी जरायम पेशा अपराधी रहे हैं जो महानगरों के अनियोजित विकास की कोख से जन्में थे। समाज में हाजी मस्तान का उदय हुआ।  सलीम जावेद ने ‘मदर इंडिया’ और ‘गंगा जमुना’ तथा मार्लिन ब्रेडों अभिनीत ‘वाटर फ्रंट’ से प्रभावित होकर हाजी मस्तान की छवि में ‘दीवार’ के एंटी नायक को गढ़ा जिसमें उस कालखंड का आक्रोश भी अभिव्यक्त हुआ। फ़िल्म 'बंटी और बबली' में अपराधी ही फ़िल्म के नायक-नायिका थे। इसी समय से नायक खलनायक की छवियों का मेल-जोल भी प्रारंभ हुआ।  इसी कालखंड में श्याम बेनेगल की ‘अंकुर’ और ‘निशांत’ में खलनायक ज़मींदार ही रहे परंतु अब वे राजनीति में सक्रिय हो चुके थे। राजनीति में अपराध का समावेश [[जवाहरलाल नेहरू|नेहरू]] की मृत्यु के बाद तीव्रगति से हुआ और फ़िल्मों में भी नेता के पात्र को खलनायक की तरह प्रस्तुत किया गया जैसा हम राहुल रवैल की फ़िल्म ‘अर्जुन’ और अमिताभ अभिनीत की फ़िल्म ‘आख़िरी रास्ता’ और ‘इंक़लाब’ इत्यादि में देखते हैं। पुलिस में अपराध के प्रवेश को गोविंद निहलानी की ‘अर्धसत्य’ में रेखांकित किया गया और पुलिस के राजनीतिकरण और जातिवाद के ग्रहण को ‘देव’ में प्रस्तुत किया गया।
 
 
 
==नायक-खलनायक का भेद==
 
==नायक-खलनायक का भेद==
‘बॉर्डर’ [[1996]] और ‘गदर’ [[1999]] की सफलता के बाद [[पाकिस्तान]] को खलनायक की तरह प्रस्तुत किया गया परंतु इन दो फ़िल्मों के प्रदर्शन के बाद इस तरह की सारी फ़िल्में असफल रहीं और आवाम ने स्पष्ट कर दिया कि [[भारत]] के कष्ट के लिए सिर्फ़ पाकिस्तान जिम्मेदार नहीं है। [[भारतीय सिनेमा]] का अर्थशास्त्र और विचार प्रक्रिया सितारा केंद्रित बन चुकी है, इसलिए लोकप्रिय सितारा एक ही फ़िल्म में नायक भी है, खलनायक भी है और हास्य अभिनेता भी है गोयाकि वह नायिका की भूमिका छोड़कर सब कुछ कर रहा है और उसके हर स्वरूप में सहानुभूति उसी के साथ है। आतंकवाद के उदय के बाद ‘ग़ुलामी’ जैसी फ़िल्मों में आईएसआई एजेंट को खलनायक की तरह प्रस्तुत किया गया परंतु ये लहर भी ज़्यादा समय नहीं चली। विगत दशक में कोई फ़िल्म ऐसी नहीं आई जिसमें 'गब्बर' या 'मोगाम्बो' की तरह बर्बर और सनकी नायक प्रस्तुत हुए हैं क्योंकि समाज के नायक-खलनायक का अंतर मिटता जा रहा है। हमारी संसद और विधानसभाओं में दागी लोगों का प्रतिशत बढ़ गया है। आर्थिक उदारवाद के बाद जीवन शैली और मूल्य में अंतर आ गया है।
+
‘बॉर्डर’ [[1996]] और ‘गदर’ [[1999]] की सफलता के बाद [[पाकिस्तान]] को खलनायक की तरह प्रस्तुत किया गया परंतु इन दो फ़िल्मों के प्रदर्शन के बाद इस तरह की सारी फ़िल्में असफल रहीं और आवाम ने स्पष्ट कर दिया कि [[भारत]] के कष्ट के लिए सिर्फ़ पाकिस्तान जिम्मेदार नहीं है। [[भारतीय सिनेमा]] का अर्थशास्त्र और विचार प्रक्रिया सितारा केंद्रित बन चुकी है, इसलिए लोकप्रिय सितारा एक ही फ़िल्म में नायक भी है, खलनायक भी है और हास्य अभिनेता भी है गोयाकि वह नायिका की भूमिका छोड़कर सब कुछ कर रहा है और उसके हर स्वरूप में सहानुभूति उसी के साथ है। आतंकवाद के उदय के बाद ‘ग़ुलामी’ जैसी फ़िल्मों में आईएसआई एजेंट को खलनायक की तरह प्रस्तुत किया गया परंतु ये लहर भी ज़्यादा समय नहीं चली। विगत दशक में कोई फ़िल्म ऐसी नहीं आई जिसमें 'गब्बर' या 'मोगाम्बो' की तरह बर्बर और सनकी नायक प्रस्तुत हुए हैं क्योंकि समाज के नायक-खलनायक का अंतर मिटता जा रहा है। हमारी संसद और विधानसभाओं में दागी लोगों का प्रतिशत बढ़ गया है। आर्थिक उदारवाद के बाद जीवन शैली और मूल्य में अंतर आ गया है। डॉलर सिनेमा और मल्टीप्लैक्स ने खलनायक को या तो गैर ज़रूरी कर दिया है या ‘डॉन’, ‘धूम’ और ‘बंटी-बबली’ की तरह दागी चरित्रों को महामंडित कर दिया गया है। स्वयं फ्राँसिस फोर्ड कपोला ने स्वीकार किया था कि गॉडफादर-I में अपराध आभा मंडित हो गया है। 'गुरु' फ़िल्म में आर्थिक अपराध करने वाला खलनायक ही नायक बनकर वाहवाही लूटता रहा विगत दशक में [[भारत]] में कुछ लोगों को विपुल धन कमाने के अवसर मिले हैं और एक ‘चमकदार भारत’ की छवि उभरी है। इस संपदा ने देश के जलसा-घर में हास्य उद्योग खड़ा कर दिया है जबकि सचमुच प्रसन्न देशों की सूची में हमारा नंबर 46 है। फिर भी वातावरण में ठहाके हैं, गलियारों में गॉसिप है, यथार्थ पर अयथार्थ का भारी सत्य है। शायद इन्हीं सब आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक कारणों से सिनेमा को खलनायक विहीन कर दिया गया और भारतीय सिनेमा की उस परंपरा का लोप सा हो गया जिसमें नायक का क़द खलनायक की बर्बरता के मानदंड पर मापा जाता था। वह अपने मूल रूप में लौटेगा क्योंकि वह उत्तेजक है।<ref name="aa"/>
डॉलर सिनेमा और मल्टीप्लैक्स ने खलनायक को या तो गैर ज़रूरी कर दिया है या ‘डॉन’, ‘धूम’ और ‘बंटी-बबली’ की तरह दागी चरित्रों को महामंडित कर दिया गया है। स्वयं फ्राँसिस फोर्ड कपोला ने स्वीकार किया था कि गॉडफादर-I में अपराध आभा मंडित हो गया है। 'गुरु' फ़िल्म में आर्थिक अपराध करने वाला खलनायक ही नायक बनकर वाहवाही लूटता रहा
 
विगत दशक में [[भारत]] में कुछ लोगों को विपुल धन कमाने के अवसर मिले हैं और एक ‘चमकदार भारत’ की छवि उभरी है। इस संपदा ने देश के जलसा-घर में हास्य उद्योग खड़ा कर दिया है जबकि सचमुच प्रसन्न देशों की सूची में हमारा नंबर 46 है। फिर भी वातावरण में ठहाके हैं, गलियारों में गॉसिप है, यथार्थ पर अयथार्थ का भारी सत्य है। शायद इन्हीं सब आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक कारणों से सिनेमा को खलनायक विहीन कर दिया गया और भारतीय सिनेमा की उस परंपरा का लोप सा हो गया जिसमें नायक का क़द खलनायक की बर्बरता के मानदंड पर मापा जाता था। वह अपने मूल रूप में लौटेगा क्योंकि वह उत्तेजक है।
 
  
  
पंक्ति 33: पंक्ति 30:
 
<references/>
 
<references/>
 
==संबंधित लेख==
 
==संबंधित लेख==
{{रंगमंच}}{{अभिनेत्री}}{{अभिनेत}}
+
{{रंगमंच}}{{खलनायक}}
 
[[Category:रंगमंच]]
 
[[Category:रंगमंच]]
 
[[Category:नाट्य और अभिनय]]
 
[[Category:नाट्य और अभिनय]]

13:59, 6 जुलाई 2017 के समय का अवतरण

खलनायक (अंग्रेज़ी: Villain) वह पुरुष कलाकार है जो सिनेमा या नाटक में किसी चरित्र का अभिनय करता है। वह अभिनयकर्ता खलनायक कहलाते हैं। अभिनय की कला का ज्ञान ही खलनायक के भाव प्रस्तुतीकरण को सार्थक बनाता है। भारतीय सिनेमा के पहले दशक में धार्मिक कथाओं और किंवदंतियों पर सारी फ़िल्में बनीं। क्योंकि इस नई विधा में कथा प्रस्तुत करने के ज्ञान और साधन की कमी थी और दर्शक अपनी इन सुनी हुई कहानियों की सक्षम अभिव्यक्ति के अभाव में भी इन्हें पूरी तरह समझ लेता था।

नायक और खलनायक

पौराणिक कथाओं के नायक देव थे और खलनायक राक्षस गण। इसके बाद इतिहास पर आधारित फ़िल्मों में दुष्ट शक्तियों से दर्शक परिचित थे। ग्रामीण परिवेश की फ़िल्मों में तानाशाह ज़मींदार और सूदखोर महाजन खलनायक के रूप में प्रस्तुत किए गए। शहरी परिवेश की फ़िल्मों में लालची व्यक्ति या मकान मालिक या मिल मालिक को खलनायक की तरह प्रस्तुत किया गया और प्रेम कथाओं में अस्वीकृत प्रेमी को खलनायक माना गया। सितारों के उदय के बाद कलाकारों का चयन महत्वपूर्ण हो गया, मसलन न्यू थियेटर्स की ‘विद्यापति’ में राजा की भूमिका में सुंदर सुगठित पृथ्वीराज कपूर के होने के कारण महारानी के साथ प्रेम करते हुए कवि का पात्र दर्शकों को खलनायक सा लगा। शशधर मुखर्जी की 1943 में प्रदर्शित ‘क़िस्मत’ में अपराधी का पात्र ही नायक रहा क्योंकि अशोक कुमार ने उसे अभिनीत किया था। यह एंटी नायक छवि की पहली फ़िल्म थी और इस विधा का भरपूर विकास 30 वर्ष बाद अमिताभ बच्चन को अभिनीत फ़िल्मों में देखा गया। टीनू आनंद की ‘शहंशाह’ में अमिताभ कहते हैं कि जहाँ वे खड़े होते हैं, वही न्यायालय है और उनकी इच्छा ही क़ानून है। कुछ कलाकारों की छवि इतनी लोकप्रिय हो जाती है कि उनके द्वारा अभिनीत पात्र दर्शकों को नायक ही लगता है। इसी धारा की अगली कड़ी में शाहरुख खान अभिनीत ‘बाजीगर’, ‘डर’ और ‘डॉन’ में अपराधी ही नायक है।[1]

गाँधी का प्रभाव

भारत में सिनेमा का जन्म 1913 में हुआ और दक्षिण अफ्रीका से महात्मा गाँधी 1914 में भारत आए। उनका प्रभाव सभी क्षेत्रों और विधाओं पर पड़ा, शायद इसी कारण पहले चार दशक तक खलनायक बर्बर नहीं थे और उनके चरित्र भी सुपरिभाषित नहीं थे। उस दौर में प्रेम या अच्छाई का विरोध करने वाले सामाजिक कुप्रथाओं और अंध विश्वास से ग्रसित लोग थे। ‘अछूत कन्या’ में प्रेम-कथा के विरोध करने वाले जाति प्रथा में सचमुच विश्वास करते थे। इसी तरह मेहबूब खान की ‘नज़मा’ में पारंपरिक मूल्य वाला मुसलिम ससुर परदा प्रथा अस्वीकार करने वाली डॉक्टर बहु का विरोध करता है और अंत में परदा नहीं करने के कारण ही वह ससुर के हृदयघात को समय रहते समझ लेती है और उनके प्राण बचाती है। उस दौर में अधिकांश खलनायक बुरी समाजिक प्रथाओं में विश्वास करने वाले निरीह प्राणी हैं। ‘दुनिया ना माने’ 1937 का वृद्ध विधुर युवा कन्या से विवाह को अपना अधिकार ही मानता है और गाँधी जी के आश्रम से लौटी उसकी बेटी उसे अन्याय से परिचित कराती है।[1]

महाजन से डाकू तक का सफर

‘साहूकारी पाश’ में प्रस्तुत सूदखोर महाजन सआदत हुसैन मंटो द्वारा लिखी गई ‘किसान हत्या’ से होते हुए अपनी अन्यतम अभिव्यक्ति मेहबूब खान की ‘औरत’ 1939 में प्राप्त कर अभिनेता कन्हैयालाल ने इसी भूमिका को एक बार फिर 1956 में ‘मदर इंडिया’ में प्रस्तुत किया। महाजन खलनायक के पात्र की झलक दोस्तोविस्की के उपन्यास ‘क्राइम एंड पनिशमेंट’ से प्रेरित रमेश सहगल की ‘फिर सुबह होगी’ में भी दिखी। महात्माओं के देश के में डाकू हर काल खंड में रहे हैं और ये लोकप्रिय खलनायक सिद्ध हुए। 'मदर इंडिया' का महाजन ख़ौफ़ पैदा करता है आज़ादी की अलसभोर में प्रदर्शित राजकपूर की ‘आवारा’ में केएन सिंह अभिनीत डाकू पात्र इतना सहृदय था कि दाई के यह बताने पर कि वह गर्भवती का अपहरण कर ले आया है, वह उसे मुक्त कर देता है। भारत में डाकू की एक छवि रॉबिनहुड नुमा व्यक्ति की भी रही है और उसे नायक की तरह भी माना गया है। समाज में व्याप्त अन्याय और शोषण के कारण मजबूरी में डाकू बनने वाले पात्र लोकप्रिय रहे हैं और सुनील दत्त की सतही ‘मुझे जीने दो’ के बाद यह पात्र दिलीप कुमार की ‘गंगा-जमुना’ में 'क्लासिक डायमेंशन' पाता है।[1]

डाकू से राजा का सफर

डाकू अपने बर्बर स्वरूप में रमेश सिप्पी की ‘शोले’ में प्रस्तुत होता है और ‘गब्बर’ नायकों से अधिक लोकप्रियता प्राप्त करता है। दरअसल गब्बर के चरित्र में बर्बरता के साथ सनकीपन को जोड़कर उसे कॉमिक्स के खलनायकों के समकक्ष खड़ा कर दिया गया है। उसकी अपार लोकप्रियता के कारण कुछ नेताओं ने उसके आधार पर अपनी छवि गढ़ी और सनकीपन राष्ट्रीय सामाजिक व्यवहार का हिस्सा बन गया। जीवन और कला के बीच आपसी लेन-देन के रिश्ते ऐसे ही चलते रहते हैं। गणतंत्र व्यवस्था अपनाने के बाद भी भारतीय समाज का मानस सामंतवादी रहा है और डाकू को जंगल के राजा के रूप में ही स्वीकार किया गया। अप्रवासी भारतीय दर्शकों के आश्रय के कारण डॉलर सिनेमा के पनपने के कारण विगत दशक में डाकू फ़िल्में नहीं बनीं। महानगरों के सीमेंट के जंगल के खलनायक डाकुओं के ही नए स्वरूप हैं। गब्बर सिंह खलनायक होकर भी फ़िल्म पर हावी रहा। आज़ादी के बाद सामाजवादी समाज की रचना के आदर्श के कारण एक ऐसी आर्थिक नीति सामने आई जिसने भ्रष्टाचार को जंगल घास की तरह फैलने के अवसर दिए और अव्यावहारिक कंट्रोल के कारण तस्करी का स्वर्ण युग प्रारंभ हुआ। फ़िल्मों में तस्कर खलनायक का उदय हुआ, नकली करंसी बनाने वालों का वर्चस्व बना। समाजवादी स्वप्न के कारण पूजीपति को खलनायक बनाया गया, मसलन राजकपूर की फ़िल्म ‘श्री 420’ में सेठ सोनाचंद धर्मानंद चुनाव भी लड़ता है और काले धंधों की फ़िल्म ‘आठ सौ चालीस’ है। यह उस युग की बात है जब अर्थनीति 'सेंटर' में थी और आज जब अर्थनीति की रचना में ‘लेफ्ट’ शामिल है, ‘गुरू’ जैसी फ़िल्म बनती है जिसमें पूंजीपति पुनः खलनायक होते हुए भी नायक की तरह प्रस्तुत है और आख़िरी रील में वह स्वयं को महात्मा गाँधी के समकक्ष खड़ा करने का बचकाना प्रयास भी करता है। दुख की बात है कि उसके प्रयास पर सिनेमाघरों में तालियां भी बजाई गई हैं। खलनायक की छवि में यह परिवर्तन समाज के बदलते हुए मूल्यों को रेखांकित करता है।[1]

विकास से पनपे अपराधी

पाँचवे और छठे दशक में ही देवआनंद के सिनेमा पर दूसरे विश्वयुद्ध के समय में अमरीका में पनपे (noir) नए सिनेमा का प्रभाव रहा और खलनायक भी जरायम पेशा अपराधी रहे हैं जो महानगरों के अनियोजित विकास की कोख से जन्में थे। समाज में हाजी मस्तान का उदय हुआ। सलीम जावेद ने ‘मदर इंडिया’ और ‘गंगा जमुना’ तथा मार्लिन ब्रेडों अभिनीत ‘वाटर फ्रंट’ से प्रभावित होकर हाजी मस्तान की छवि में ‘दीवार’ के एंटी नायक को गढ़ा जिसमें उस कालखंड का आक्रोश भी अभिव्यक्त हुआ। फ़िल्म 'बंटी और बबली' में अपराधी ही फ़िल्म के नायक-नायिका थे। इसी समय से नायक खलनायक की छवियों का मेल-जोल भी प्रारंभ हुआ। इसी कालखंड में श्याम बेनेगल की ‘अंकुर’ और ‘निशांत’ में खलनायक ज़मींदार ही रहे परंतु अब वे राजनीति में सक्रिय हो चुके थे। राजनीति में अपराध का समावेश नेहरू की मृत्यु के बाद तीव्रगति से हुआ और फ़िल्मों में भी नेता के पात्र को खलनायक की तरह प्रस्तुत किया गया जैसा हम राहुल रवैल की फ़िल्म ‘अर्जुन’ और अमिताभ अभिनीत की फ़िल्म ‘आख़िरी रास्ता’ और ‘इंक़लाब’ इत्यादि में देखते हैं। पुलिस में अपराध के प्रवेश को गोविंद निहलानी की ‘अर्धसत्य’ में रेखांकित किया गया और पुलिस के राजनीतिकरण और जातिवाद के ग्रहण को ‘देव’ में प्रस्तुत किया गया।

नायक-खलनायक का भेद

‘बॉर्डर’ 1996 और ‘गदर’ 1999 की सफलता के बाद पाकिस्तान को खलनायक की तरह प्रस्तुत किया गया परंतु इन दो फ़िल्मों के प्रदर्शन के बाद इस तरह की सारी फ़िल्में असफल रहीं और आवाम ने स्पष्ट कर दिया कि भारत के कष्ट के लिए सिर्फ़ पाकिस्तान जिम्मेदार नहीं है। भारतीय सिनेमा का अर्थशास्त्र और विचार प्रक्रिया सितारा केंद्रित बन चुकी है, इसलिए लोकप्रिय सितारा एक ही फ़िल्म में नायक भी है, खलनायक भी है और हास्य अभिनेता भी है गोयाकि वह नायिका की भूमिका छोड़कर सब कुछ कर रहा है और उसके हर स्वरूप में सहानुभूति उसी के साथ है। आतंकवाद के उदय के बाद ‘ग़ुलामी’ जैसी फ़िल्मों में आईएसआई एजेंट को खलनायक की तरह प्रस्तुत किया गया परंतु ये लहर भी ज़्यादा समय नहीं चली। विगत दशक में कोई फ़िल्म ऐसी नहीं आई जिसमें 'गब्बर' या 'मोगाम्बो' की तरह बर्बर और सनकी नायक प्रस्तुत हुए हैं क्योंकि समाज के नायक-खलनायक का अंतर मिटता जा रहा है। हमारी संसद और विधानसभाओं में दागी लोगों का प्रतिशत बढ़ गया है। आर्थिक उदारवाद के बाद जीवन शैली और मूल्य में अंतर आ गया है। डॉलर सिनेमा और मल्टीप्लैक्स ने खलनायक को या तो गैर ज़रूरी कर दिया है या ‘डॉन’, ‘धूम’ और ‘बंटी-बबली’ की तरह दागी चरित्रों को महामंडित कर दिया गया है। स्वयं फ्राँसिस फोर्ड कपोला ने स्वीकार किया था कि गॉडफादर-I में अपराध आभा मंडित हो गया है। 'गुरु' फ़िल्म में आर्थिक अपराध करने वाला खलनायक ही नायक बनकर वाहवाही लूटता रहा विगत दशक में भारत में कुछ लोगों को विपुल धन कमाने के अवसर मिले हैं और एक ‘चमकदार भारत’ की छवि उभरी है। इस संपदा ने देश के जलसा-घर में हास्य उद्योग खड़ा कर दिया है जबकि सचमुच प्रसन्न देशों की सूची में हमारा नंबर 46 है। फिर भी वातावरण में ठहाके हैं, गलियारों में गॉसिप है, यथार्थ पर अयथार्थ का भारी सत्य है। शायद इन्हीं सब आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक कारणों से सिनेमा को खलनायक विहीन कर दिया गया और भारतीय सिनेमा की उस परंपरा का लोप सा हो गया जिसमें नायक का क़द खलनायक की बर्बरता के मानदंड पर मापा जाता था। वह अपने मूल रूप में लौटेगा क्योंकि वह उत्तेजक है।[1]


भारतीय सिनेमा में खलनायक की भूमिका निभाने वाले कुछ मुख्य खलनायकों की सूची
  1. बोब क्रिस्टो
  2. अमरीश पुरी
  3. दयाकिशन सप्रू
  4. प्रेम चोपड़ा
  5. जीवन (अभिनेता)
  6. अजीत
  7. कादर ख़ान
  8. अमजद ख़ान
  9. लक्ष्मीकांत


पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 1.3 1.4 समय के साथ बदलते रहे खलनायक (हिन्दी) www.bbc.com। अभिगमन तिथि: 29 जून, 2017।

संबंधित लेख