आधुनिक भारत का इतिहास

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भारतवर्ष प्राचीन काल से ही सु-संस्कृत तथा उन्नत देश रहा है। इसकी सैन्धव सभ्यता विश्व के किसी भी देश की सभ्यता से कम महत्त्व की नहीं थी। इसकी धरती पर ही भगवान बुद्ध जैसे महापुरुष पैदा हुए, जिन्होंने सम्पूर्ण विश्व को ही अपना कुटुम्ब माना तथा समस्त जीवों पर दया करने का शाश्वत सन्देश दिया। यहीं 'देवानांप्रिय' अशोक ने शासन किया, जिसने शक्ति के बल पर नहीं, प्रेम-बल पर अपने साम्राज्य का विस्तार किया और जन-जन के हृदय का सम्राट बन गया। बंगाल के पाल नरेशों एवं थानेश्वर के राजाओं के काल में भारतवर्ष में ऐसी प्रोन्नत शिक्षा-प्रणाली तथा शिक्षण संस्थाओं का संगठन हुआ, कि संसार के विभिन्न देशों के जिज्ञासु छात्र और ज्ञान-पिपासु विद्वान, अपनी मानसिक बुभुक्षा की तृप्ति तथा ज्ञान-प्राप्ति के लिए यहाँ आये।

भारत पर मुस्लिम शासन

कालान्तर में समय ने पलटा खाया और भारतवर्ष पर मुसलमानों का शासन-भार लद गया। आरम्भिक मध्य युगों में तुर्क और बाद में चग़ताई मुग़ल स्थायी साम्राज्य स्थापित कर शासन करने लगे। स्थायी शासन के पूर्व एवं मध्य भाग में भारत पर कई अस्थायी एवं तूफानी आक्रमण हुए। पल्लवों, शकों और हूणों की घुसपैठ अल्पकालीन सिद्ध हुई। सिकन्दर, नादिरशाह और अहमदशाह अब्दाली के तूफानी आक्रमण हुए और समाप्त हुए। स्थायी रूप से तुर्क और मुग़ल ही शासन स्थापित कर सके। अनेकों का ख़ून बहाकर और सदियों तक शासन करके भी मुस्लिम विजेता भारतीय संस्कृति को विकृत न कर सके। इसके विपरीत, वे भारतीय संस्कृति के रंग में रंगते गये। अपने विदेश स्थित ठिकानों से उन्होंने अपने पुराने सम्बन्धों को तोड़ डाला और भारतीयों के साथ अपना भाग्य जोड़ लिया। जीवन की व्यावहारिक आवश्यकताओं ने उन्हें अपनी प्रजा के साथ अधिकाधिक सामाजिक सम्बन्ध स्थापित करने को विवश किया। नये वातावरण के अनुसार और प्रशासन के हित में, उन्होंने शासन और व्यवस्था सम्बन्धी अपने सिद्धान्तों तथा मान्यताओं में भी परिवर्तन किये। अपने कितने ही विदेशी रीति-रिवाजों को उन्होंने त्याग दिया और भारतीय जीवन तथा सुंस्कृति के तत्त्वों को ग्रहण कर लिया। केवल कहने भर को भारतीय गौरव और देश का इतिहास उनकी तलवार तथा धर्म (इस्लाम) के सामने श्रीहीन हुआ था। वे भारतीय बन गए थे, भारत उनका देश हो चुका था। डॉ. राममनोहर लोहिया ने लिखा है : 'राम और रहीम एक थे, हिन्दू और मुसलमान एक ही धरती की दो सन्तानें थीं।'

मुस्लिमों का योगदान

मुस्लिम शासकों ने भारतीय संस्कृति एवं प्रशासन के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान किया। ग़यासुद्दीन बलवन ने संप्रभुता का सिद्धान्त दिया, अलाउद्दीन ख़िलजी ने उत्तरी तथा दक्षिण भारत के विविध राज्यों को जीतकर 'अखिल भारत' का संदेश दिया। शेरशाह सूरी श्रेष्ठ प्रशासन की स्थापना करके ब्रिटिश शासकों का भी आदर्श बन गया, अकबर ने हिन्दू-मुस्लिम एकता एवं समन्वय का सद्प्रयास किया और शाहजहाँ ने कलात्मक उन्नति एवं श्रेष्ठता को पराकाष्ठा पर पहुँचा दिया। किन्तु इस शासन में भी भारतीयता का आधार यथावत रहा। यद्यपि मुस्लिम आधिपत्य के कारण भारत के प्राचीन समाजों में कई राजनीतिक तथा सांस्कृतिक परिवर्तन आये, तथापि उसकी प्राचीन संस्कृति का आधार और स्वरूप अधिकांशतः ज्यों-का-त्यों रहा। भारतीयों ने नवागन्तुकों को प्रभावित किया और वे उनसे प्रभावित भी हुए। उन्होंने विजताओं द्वारा प्रचलन में लाई गई नई सामाजिक पद्धतियाँ सीखीं। कट्टर एकेश्वरवाद और समतावादी समाज पर बल देने वाले इस्लाम धर्म के प्रभाव ने कतिपय प्रतिक्रियाएँ उत्पन्न कीं, और हिन्दू धर्म तथा सामाजिक पद्धतियों में एक आलोड़न पैदा हुआ। मुसलमानों की भाषाओं और साहित्यों ने हिन्दुओं की वाणी और लेखन पर व्यापक प्रभाव डाला। नये शब्द, मुहावरे और साहित्यिक विधाओं ने इस देश की धरती में जड़े जमाई और नये प्रतीकों तथा धारणाओं ने उनकी विचार-शैली को सम्पन्न किया। एक नई साहित्यिक भाषा विकसित हुई और मध्यकालीन भारत में कितने ही वास्तुकला, चित्रकला और संगीत कलाओं के साथ-साथ अन्य कलाओं में भी भारी परिवर्तन आये और ऐसी नई शैलियों ने जन्म लिया, जिनमें दोनों के ही तत्त्व विद्यमान थे। तेरहवीं शताब्दी में यह जो प्रक्रिया आरम्भ हुई, वह पाँच सौ वर्ष तक चलती रही।

अंग्रेज़ों का अधिकार

आगे के आने वाले चरणों में भारत के इतिहास में परिवर्तन आया। भारतीयों की फूट तथा विघटनकारी तत्त्वों के कारण अठारहवीं शताब्दी में भारत पर अंग्रेज़ों का प्रभुत्व जम गया। भारत के इतिहास में लगभग पहली बार ऐसा हुआ कि, इसके प्रशासन और भाग्य-निर्णय की डोर एक ऐसी विदेशी जाति के हाथों में चली गई, जिसकी मातृभूमि कई हज़ार मील दूर अवस्थित थी। इस तरह की पराधीनता भारत के लिए एक सर्वथा नया अनुभव थी, क्योंकि यों तो अतीत में भारत पर कई आक्रमण हुए थे, समय-समय पर भारतीय प्रदेश के कुछ भाग अस्थायी तौर पर विजेताओं के उपनिवेशों में शामिल हो गये थे, पर ऐसे अवसर कम ही आये थे और उनकी अवधि भी अत्यल्प ही रही थी। भारत पर अंग्रेज़ों ने एक विदेशी की तरह शासन किया। ऐसे कम ही अंग्रेज़ शासक हुए, जिन्होंने भारत को अपना देश समझा और कल्याणकारी भावना से उत्प्रेरित होकर शासन किया। उन्होंने व्यापार और राजनीतिक साधनों के माध्यम से भारत का आर्थिक शोषण किया और धन-निकासी नीति अपनाकर देश को खोखला कर डाला। उन्होंने भारतीयों के नैतिक मनोबल पर सदैव आघात किया। इस काल के इतिहास के पन्ने इस बात को सिद्ध करते हैं कि, एक ओर जहाँ ब्रिटिश सत्ता के भारत में स्थापित हो जाने के बाद देश में घोर अन्धकारपूर्ण और निराशाजनक वातावरण स्थापित हो गया, वहीं दूसरी ओर देश को ग़ुलामी की ओर धकेल दिया गया।

भारत का पतन

भारत के प्रति इंग्लैण्ड की अधिकार लिप्सा की भावना उभरने लगी थी, तथा अंग्रेज़ लोग भारत को अपने अधिकार की वस्तु और सब प्रकार से पतित देश मानने लगे। भारत का उपयोग इंग्लैण्ड के लिए करना उनका प्रमुख दृष्टिकोण बन गया। अंग्रेज़ प्रशासन, न भारतीय जनता के प्रति सहानुभूति रखता था और न ही भारतवासियों के कल्याण के प्रति सजग था। इंग्लैण्ड में जो क़ानून या नियम भारत के सम्बन्ध में बनाये जाने लगे थे, उनके प्रति यह ब्रिटिश नीति बनी कि, भारत के हितों का इंग्लैण्ड के लिए सदैव बलिदान किया जाना चाहिए। अंग्रेज़ों की इस नीति के कारण भारत उत्तरोत्तर आर्थिक दृष्टि से निर्धन और सांस्कृतिक दृष्टि से हीन होता चला गया। भारत के पतन के सम्बन्ध में कई प्रसिद्ध व्यक्तियों ने अपने विचार रखे हैं, उनमें से कुछ इस प्रकार से हैं-

  • केशव चन्द्र सेन के अनुसार - "आज हम अपने चारों ओर जो देखते हैं, वह है एक गिरा हुआ राष्ट्र। एक ऐसा राष्ट्र, जिसकी प्राचीन महानता खण्डहरों में गड़ी हुई पड़ी है। उसका राष्ट्रीय साहित्य और विज्ञान, उसका अध्यात्म ज्ञान और दर्शन, उसका उद्योग और वाणिज्य, उसकी सामाजिक समृद्धि और गार्हस्थिक सादगी और मधुरता ऐसी है, जिसकी गिनती लगभग अतीत की वस्तुओं में की जाती है। जब हम आध्यात्मिक, सामाजिक और बौद्धिक दृष्टि से उजड़े हुए, शोकयुक्त और उदासीन दृश्य, जो हमारे सामने फैला हुआ है, का निरीक्षण करते हैं, तो हम व्यर्थ ही उसमें कालिदास के देश-कविता, विज्ञान और सभ्यता के देश को पहचानने का प्रयत्न करते हैं।"
  • डॉ. थ्योडोर" के अनुसार - "प्रधानतः आर्थिक लाभ के लिए ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने ब्रिटिश राज्य की स्थापना की और उसका विस्तार किया।"
  • ताराचन्द्र के अनुसार - "सत्रहवीं शताब्दी में भारत का गौरव अपनी पराकाष्ठा पर था और उसकी मध्युगीन संस्कृति अपनी चरम सीमा पर पहुँच गई थी। परन्तु जैसे-जैसे एक के बाद एक शताब्दियाँ बीतीं, वैसे-वैसे यूरोपीय सभ्यता का सूर्य तेज़ी से आकाश के मध्य की ओर बढ़ने लगा और भारतीय गगन में अन्धकार छाने लगा। फलतः जल्दी ही देश पर अन्धेरा छा गया और नैतिक पतन तथा राजनीतिक अराजकता की परछाइयाँ लम्बी होने लगीं।

भारतीयों का विरोध

यह सही है कि, प्रशासन एवं यातायात तथा शिक्षा के क्षेत्र में भारतवासियों ने इस विदेशी शासन से अनेक तत्त्व ग्रहण किये, किन्तु इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि, अंग्रेज़ों ने अधिकाधिक अर्थोपार्जन करने की नीति का ही अनुशीलन किया। यही कारण था कि, जहाँ भारतीयों ने मुसलमानों के शासन को स्वीकार करके उसे भारतीय शासन के इतिहास में शामिल किया, वहीं उन्होंने अंग्रज़ों को अपना संप्रभु नहीं माना। हृदय की गहराइयों से उनके शासन को स्वीकार नहीं किया और प्रारम्भ से ही उनके प्रति अपना विरोध प्रकट किया। अंग्रेज़ कभी भी भारतीय न बन सके, सदैव विदेशी बने रहे और समय आने पर सब के सब स्वदेश चले गये। यह विदेशी शासन भारतीयों को कतई स्वीकार नहीं था। बंगाल के सिराज के काल से लेकर दिल्ली के बहादुरशाह द्वितीय के काल तक भारतीय शक्तियों का विरोध जारी रहा था।

अंग्रेज़ों की एकता एवं नीति

यह बात शुरू में ही साफ हो गई थी कि सफलता अंग्रेज़ों के हाथ लगेगी, और उसके कारण स्पष्ट थे। वे राष्ट्रवाद में विश्वास रखते थे, जबकि भारत में न यह भावना थी और न ही अनुशासन। युद्ध-कौशल तथा रणनीति में अंग्रेज़ भारतीयों की अपेक्षा कहीं आगे थे। भारतीय सैनिक निष्ठावान तो थे, पर इन्हें भी अपने राजा के प्रति पूर्ण ईमानदार और वफादार नहीं कहा जा सकता। भारतीय इतिहास में न जाने कितने ही सहायकों और विश्वासपात्रों ने अपने ही राजाओं को धोखा दिया और उनके साथ विश्वासघात करके उन्हें मौत के घाट उतार दिया। इन्हीं सब बातों से भारतीयों का अपनी भूमि पर ही पतन हुआ। उधर अंग्रेज़ों के सामने नैतिकता जैसी कोई चीज नहीं थी। बंगाल, अवध, मैसूर, महाराष्ट्र, पंजाब और सिंध इन सभी का विलय अंग्रेज़ी साम्राज्य में हो गया था। जो भी अंग्रेज़ शासक आये, चाहे वह वारेन हेस्टिंग्स हो या लॉर्ड कॉर्नवॉलिस, लॉर्ड वेलेज़ली हो या लॉर्ड हेस्टिंग्स, लॉर्ड विलियम बैंटिक हो या लॉर्ड डलहौज़ी इन सभी ने अपने शासकीय एवं सैनिक सुधारों पर अत्यधिक बल दिया। इन सभी का सिर्फ़ एक ही मकसद था, सम्पूर्ण भारत पर अधिकार और ब्रिटिश सत्ता में वृद्धि। अपने इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए अंग्रेज़ों ने अपनी आपसी सूझबूझ बनाये रखी और हर सम्भव प्रयत्न किया।[1]

भारतीय समाज की कुरीतियाँ

भारतीय समाज अनेक कुरीतियों का शिकार था। जाति-प्रथा, शिशु-बली, बाल-विवाह, सती प्रथा, विधवा विवाह-निषेध आदि के कारण भारतीय समाज खोखला हो रहा था। अपनी अंधविश्वासी परम्परा एवं रीति-रिवाजों के घेरे में पड़े भारतीय आधुनिकता से सर्वथा अपरिचित थे। ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने शुरू में तो भारतीय समाज के मामले में तटस्थता की नीति अपनायी, परन्तु 13 वीं शताब्दी के अन्तिम चरण में अंग्रेज़ भारतीय समाज में सुधार लाने की सोचने लगे। भारत के प्रति सुधारवादी दृष्टिकोण अपनाने के पीछे जो भी कारण रहे हों, परन्तु इससे भारत में पुनर्जागरण का मार्ग खुला। सामाजिक क़ानून बनाने का क्रम शुरू हुआ। शिशु-वध, विधवा विवाह-निषेध, नर बलि, सती प्रथा आदि ऐसी बातें थीं, जिनके निवारण में सरकार को राजा राममोहन राय तथा ईश्वरचन्द्र विद्यासागर जैसे भारतीय नेताओं का सहयोग भी मिला।

भारत का आर्थिक शोषण

ईस्ट इण्डिया कम्पनी के काल में आर्थिक परिवर्तन हुए। अंग्रेज़ों के आने से पहले भारतीय ग्राम आत्मनिर्भर थे। भारतीय कारीगरी की ख्याति दूर-दूर तक थी। भारत के सामान से देशी और विदेशी मण्डियाँ भरी रहती थीं। 18 वीं शताब्दी के आरम्भ तक भारत से उत्कृष्ट सूती और रेशमी वस्त्र, मसाले, नील, चीनी, दवाएँ और जवाहरात आदि बड़ी मात्रा में विदेश भेजे जाते थे, और बदले में सोना और चाँदी हिन्दुस्तान में आता था। शुरू में ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने भी भारतीय चीजों का खूब निर्यात किया, परन्तु कालान्तर में भारतीय व्यापार और कला-कौशल का गला घोंटने की नीति अपनायी गयी। कृषि-भूमि पर भू-राजस्व लगाया गया, जिसकी कठोरता के कारण कृषि की प्रगति समाप्त हो गई। इस प्रकार कम्पनी के शासन काल में कृषि, व्यापार व उद्योग तीनों का पतन हुआ। 19 वीं शताब्दी के पूर्व भारत में पूँजी लगाकर अंग्रेज़ों ने यहाँ की अर्थव्यस्था पर अपनी पकड़ कर ली। दूसरी ओर वह भारत का धन इंग्लैण्ड ले गये। इन दोनों बातों से ही भारत का आर्थिक शोषण हुआ। धन के इस निर्गमन ने जहाँ भारत को दरिद्र बनाया, वहाँ इंग्लैण्ड के औद्योगिक विकास ने गति पकड़ी।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. पाण्डेय, धनपति। आधुनिक भारत का इतिहास - भाग 1 (हिन्दी) मोतीलाल बनारसीदास पब्लिशर्स। अभिगमन तिथि: 31 जुलाई, 2011।

बाहरी कड़ियाँ

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